Sunday, June 16, 2013

चिकित्सा विज्ञान के समान है चार आर्य सत्य

सभी बीमारियाँ पहले मस्तिष्क में जन्म लेती हैं। जब तक मानसिक पेटर्न उस अनुरूप न बन जाय, तब तक वह शरीर पर प्रकट नहीं होती है। असाध्य मानसिक या शारीरिक रोग की जड़ें सदा ही गहरे अवचेतन मन में होती है। छिपी हुई जडों को उखाडकर रोग को ठीक किया जा सकता है। मनुष्य की देह (सिक्रेशन) सबसे अधिक दवाएँ बनाने का कारखाना है । हमारी देह के उपचार में काम आने वाली सभी दवाओं के केमिकल्स हमारी देह में बनाए जाते है। इन सब दवाओं का निर्माण हमारी सोच एवं भावनाओं पर निर्भर है। नकारात्मक सोच व नकारात्मक भावनाओं से हमारे सिक्रेशन प्रभावित होते हैं । दुनिया के सबसे धीमे मारने वाले भंयकर जहर भी इसी देह में बनते है।
हमारी स्थूल देह के पीछे क्वान्तम भौतिकीय देह है जो कि सूक्ष्म है, अदृश्य है। स्थूल देह का जन्म इसी सूक्ष्म देह की बदौलत है। उसमें परिवर्तन इसी के आधार पर होते हंै।
वातावरण वास्तव में हमारी देह का विस्तार है।जैसे दो तारो व ग्रहो के बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध न होने के उपरान्त वं आपस में भी सम्बंन्धित है। वैसे ही हमारी देह के अणुओं के बीच सम्बन्ध न होने के बावजूद आपस में सम्बन्धित है।
हमारी देह का रूपाकार किसी शिल्प कृति से कम नहीं है।भीतर बैठी प्रज्ञा का यह आवरण मूर्ति के रूप में दिखता है। इसके निश्चित आकार-प्रकार है । इसके साथ ही हमारी देह के परमाणु बहती हुई नदी की तरह है। हमारी देह में कुछ भी स्थाई नहीं है। हमारी कोशिकाओं के प्रत्येक कण बदलते जाते हैं। हमारी रक्त कणिकाएँ नब्बे दिन में बदल जाती हैं। हड्डियों का ठोस ढांचा जिसके चारों ओर शरीर लिपटा रहता है, वह स्वयं भी एक सौ बीस दिन में पूरी तरह बदल जाता है। ( अनित्यता )

मेडिकल सांइस भी अब मानसिक लक्षणॊं की प्रमुखता को मानने लगा है । हाँलाकि यह क्रम बहुत पहले हिपोक्रेट्स से शुरु हुआ था  । हिप्पोक्रेट्स से लेकर गैलन और आखिरकार होम्योपैथी के प्रवर्तक डां  हैनिमैन ने इन्सान के स्वाभाव का विशेलेषण करने मे बहुत अंह भूमिका निभायी । जहाँ हिप्पोक्रेट्स (400 ई.पू.) का मानना था कि शरीर चार ह्यूमर ( Humor ) अर्थात रक्त,कफ, पीला पित्त और काला पित्त से बना है. Humors का असंतुलन, सभी रोगों का कारण है . वही गैलन Galen (130-200 ई.) ने इस शब्द  का इस्तेमाल  शारीरिक स्वभाव के लिये किया , जो यह निर्धारित करता है  कि शरीर  रोग के प्रति किस हद तक संवेदन्शील है । डां हैनिमैन ; आर्गेनान आफ़ होम्योपैथी मे स्पष्ट रुप से लिखते हैं ( पूरे लेख के लिये देखें : http://drprabhattandon.wordpress.com/2011/06/17/constitutional-prescribing-body-language-and-homeopathy/ )

सूत्र २१३ – रोग के इलाज के लिये मानसिक दशा का ज्ञान अविवार्य

इस तरह , यह बात स्पष्ट है कि हम किसी भी रोग का प्राकृतिक ढंग से सफ़ल इलाज उस समय तक नही कर सकते जब तक कि हम प्रत्येक रोग , यहां तक नये रोगों मे भी  , अन्य लक्षणॊं कॆ अलावा रोगी के स्वभाव और मानसिक दशा मे होने वाले परिवर्तन पर पूरी नजर नही रखते । यादि हम रोगी को आराम पहुंचाने के लिये ऐसी दवा नही चुनते जो रोग के सभी लक्षण  के साथ उसकी मानसिक अवस्था या स्वभाव पैदा करनेच मे समर्थ है तो रोग को नष्ट करने मे सफ़ल नही हो सकते ।

शारिरिक लक्षण दरअसल मन के लक्षण का रुपक मात्र हैं । एक होम्योपैथ के रुप मे मै यह कह सकता हूँ कि अधिकांश रोगियों में हमें मानसिक लक्षणॊं के आधार पर चुनाव करने से ही सफ़लता मिल जाती है । अगर हम २५०० वर्ष पूर्व भगवान्‌ बुद्ध के दर्शन का अवलोकन करे और उसे होम्योपैथी के प्रवर्तक डां हैनिमैन के सिद्धातों के अनुरुप देखें तो एक ही बात साफ़ दिखाई पडती है और वह है हमार मन । तभी तो  भगवान बुद्ध कहते हैं :

मनोपुब्बङ्गमा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया।

मनसा चे पदुट्ठेन, भासति वा करोति वा।

ततो नं दुक्खमन्वेति, चक्‍कंव वहतो पदं॥

मन सभी प्रवॄतियों का अगुआ है , मन ही प्रधान है , सभी धर्म मनोनय हैं । जब कोई व्यक्ति अपने मन को मैला करके कोई वाणी बोलता है , अथवा शरीर से कोई कर्म करता है तो दु:ख उसके पीछे ऐसे हो लेता है , जैसे गाडी के चक्के बैल के पीछे हो लेते हैं ।

Mind precedes all mental states. Mind is their chief; they are all mind-wrought. If with an impure mind one speaks or acts, suffering follows one like the wheel that follows the foot of the ox.

मनोपुब्बङ्गमा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया।

मनसा चे पसन्‍नेन, भासति वा करोति वा।

ततो नं सुखमन्वेति, छायाव अनपायिनी [अनुपायिनी (क॰)]॥

मन सभी प्रवॄतियों का अगुआ है , मन ही प्रधान है , सभी धर्म मनोनय हैं । जब कोई व्यक्ति अपने मन को उजला रख कर कोई वाणी बोलता है , अथवा शरीर से कोई ऐसा कर्म करता है तब सुख उसके पीछॆ ऐसे हो लेता है जैसे कभी संग न छॊडने वाली छाया संग-२ चलने लगती है ।

Mind precedes all mental states. Mind is their chief; they are all mind wrought. If with a pure mind one speaks or acts, happiness follows one like one's never-departing shadow.

 भगवान्‌ बुद्ध एक  चिकित्सक की भूमिका में :

डां प्रवीन  गोस्वामी मेरे परम  मित्रों मे से एक हैं , वह एक अच्छे होम्योपैथिक चिकित्सक भी हैं और एक अच्छे साधक भी । बोधगया मे वह अकसर   ध्यान शिविर आयोजित कराते रहते हैं । पिछ्ले दिनों उनकी एक पोस्ट ने मेरा ध्यान बरबस खीचां । एक छोटी सी कहानी में जो ओशो के एक प्रवचन से ली गई थी , बुद्ध से किसी व्यक्ति ने पूछा कि आप कौन हैं ? आप का परिचय क्या है ? क्या आप दार्शिनिक  हैं , विचारक हैं , संत हैं , योगी या ज्ञाता या ईशवर के दूत ? भगवान बुद्ध ने कहा कि मै सिर्फ़ एक चिकित्सक हूँ ।

One day somebody went to Buddha and asked, “Who are you? Are you a philosopher, or a thinker or a saint or a yogi?” Buddha replied, “I am only a healer, a physician.”

This answer of his is truly marvellous: Only a healer — I know something about the inner diseases and that is what I discuss with you.

The day we understand that we will have to do something about these mindoriented diseases — because anyway we will never be able to eradicate all the bodyoriented diseases completely — that day we will see that religion and science have come closer to each other. That day we will see that medicine and meditation have come nearer to each other. My own understanding is that no other branch of science will help as much as medicine in bridging this gap.

From Medication to Meditation – OSHO, page no 15

Osho from the blog : Mind-Oriented Diseases

जिस प्रकार एक चिकित्सक को रोगी को स्वस्थ करने के लिये चार तथ्यों की आवशयकता पडती है

  • रोग
  • रोग का कारण ( aetiology )
  • रोग का उपचार (आरोग्य )
  • भैषज्य ( रोग दूर करने की दवा )

उसी प्रकार भगवान्‌ बुद्ध दु:ख रुपी रोग का चिकित्सा पद्द्ति द्वारा इलाज करते हैं । बुद्ध ने संसार मे दुख देखा । वह जानते थे कि इस दुख को कोई भी आध्यात्मिक उपदेश ठीक नही कर सकता बल्कि उसे एक विशेष सिस्टम द्वारा ठीक किया जा सकता है ।

भगवान बुद्ध के अनुसार

  • अगर दुख है  तो
  • दुख के  कारण भी होगे ( समुदय )
  • कारण है तो उसे दूर भी किया जा सक्लता है ( निदान )
  • दूर करने के लिये उपाय यानि दवा भी होगी । ( अष्टांगिक मार्ग )

भगवान्‌ बुद्ध की भैषज्य गुरु के रुप मे उपासना चीन , जापान , तिब्बत आदि कई देशों मे है । इस उपासना का प्रतिपादक सूत्र है , भैषज्यगुरु वैदूय्रप्रभराज सूत्र “ जिसका अनुवाद चीनी और तिब्बती भाषा में उपलब्ध है ।

भैषज्यगुरु मंत्र

नमो भगवते भैषज्यगुरु वैडूर्यप्रभराजाय
तथागताय अर्हते सम्यक्संबुद्धाय तद्यथा
ॐ भैषज्ये भैषज्ये भैषज्य समुद्गते स्वाहा
तद्यथा ॐ भैषज्ये भैषज्ये भैषज्य समुद्गते स्वाहा

चार आर्य सत्य

सम्बोधि को उपल्ब्ध होकर बुद्ध ने चार आर्य सत्यों को अनुभव किया ।

  • दुख
  • दुखसमुदय
  • दुख निरोध
  • दुखनिरोधगामिनी प्रतिपद

१. दुख :  समस्त प्राणी दु:ख में है

बुद्ध ने इस आर्य सत्य में दैनिक जीवन में घटित सभी घटनाओं का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है ।

इदं खो पन, भिक्खवे, दुक्खं अरियसच्‍चं।

जातिपि दुक्खा, जरापि दुक्खा, ब्याधिपि दुक्खो, मरणम्पि दुक्खं,

अप्पियेहि सम्पयोगो दुक्खो, पियेहि विप्पयोगो दुक्खो, यम्पिच्छं न लभति,

तम्पि दुक्खं; संखित्तेन पञ्‍चुपादानक्खन्धा दुक्खा। इदं खो पन, भिक्खवे ।

दु:ख सामान्यत: पीडा के रुप में अनुवादित होता है लेकिन इसमॆ तनाव , असंन्तुष्टि और शारीरिक पीडाऒ सहित नकारात्मक भावनाओं की एक विस्तृत श्रंखला समाहित है । प्राणिमात्र के जीवन में रुग्णता , प्रियजनों के वियोग , मनोवांक्गित की अप्राप्ति, वृद्धावस्था और मृत्यु के रुप मे दु:ख अस्तिव में है ।

२. दुखसमुदय – दु:ख का कारण ‘ तृष्णा ’

इदं खो पन, भिक्खवे, दुक्खसमुदयं अरियसच्‍चं – यायं तण्हा पोनोभविका नन्दिरागसहगता

तत्रतत्राभिनन्दिनी, सेय्यथिदं – कामतण्हा, भवतण्हा, विभवतण्हा।

दु:ख का कारण , दूसरा आर्य सत्य है । दु:ख का कारण है तृष्णा जो बार-२ प्राणियों मे उत्पन्न होती रहती है । प्राणिमात्र सुखद्‌ संवेदानाओं की कामना करता है और दु:खद संवेदानाओं से बचने की कोशिश करता  है । ये संवेदानायें कायिक भी हो सकती हैं और मानसिक भी और जब इन कामनाओं की परिपूर्ति नही होती तो दु:ख उत्पन्न होता है ।

३. दु:ख निरोध : तूष्णाओं और कामनाओं का मूलोच्छेद

इदं खो पन, भिक्खवे, दुक्खनिरोधं अरियसच्‍चं यो तस्सायेव तण्हाय असेसविरागनिरोधो चागो पटिनिस्सग्गो मुत्ति अनालयो।

तीसरा आर्य सत्य हमॆ बताता है कि दु:ख का नाश संभव है । किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर अन्य वस्तु की उत्पति होती है । कार्यकारण का यह सिद्धांत उनकी महत्वपूर्ण खोज है । यह चिकित्साशास्त्र के इस बात का पोषक है कि रोग दूर होगा और रोगी स्वस्थ हो सकता है । बुद्ध का भी यह कहना है कि कार्यकारण के इस चक्र को तोड्कर हम निर्वाण ( शान्ति )  को प्राप्त कर सकते हैं ।

४. दुखनिरोधगामिनी प्रतिपद : दु:ख मुक्ति का मार्ग है आर्य अष्टांगिक मार्ग

इदं खो पन, भिक्खवे, दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा अरियसच्‍चं – अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि। सम्मा संकल्पो । सम्मा वाचा । सम्मा कम्मन्तो । सम्मा आजीवो । सम्मा वायामो । सम्मा सति । सम्मा समाधि ।

यह चौथा आर्य सत्य है जो हमॆ तृष्णा से मुक्ति का मार्ग दिखाता है । यदि रोग है और उसके ठीक होने की संभावना है तब निशचित रुप से उसे ठीक करने की दवा भी होगी । चिकित्साशास्त्र के इसी सिद्धान्त को बुद्ध ने चौथे आर्य सत्य में प्रस्तुत किया है । दु:ख निरोध के लिये भगवान्‌ बुद्ध नें अष्टांगिक मार्ग बताये हैं जिससे दु:ख को कम किया जा सकता है , शिथिल भी किया जा सकता है और अन्तत: समूल नाश भी किया जा सकता है और तब निर्वाण की उपलब्धि होती है ।

आर्य अंष्टागिक मार्ग

the eight fold path[15]

१. सम्यक दृष्टि- उचित समझ

चार आर्य सत्यों को समझना और स्वीकार करना ।

२. सम्यक संकल्प-उचित उद्देशय

दान , मैत्री और करुणा के संकल्पॊ को विकसित करना ।

३. सम्यक वाचा- उचित वाणी

मिथ्या , चुगली , कठॊर और व्यर्थ भाषण से विरत रहना । सत्य , सौम्य , विनभ्र और अर्थपूर्ण वाणी विकसित करना ।

४. सम्यक कर्मान्त-उचित कर्म

हिंसा , चोरी और लैंगिक दुराअचार से विरत रहना । परोपकार , ईमानदारी और विशवास विकसित करना ।

५. सम्यक आजीविका –उचित जीविका

(मानव अथवा  पशु ) हिंसा के व्यवसाय , पशु मांस की बिक्री , मानवों की बिक्री , शस्त्र , विष और मादक पदार्थॊम की बिक्री के व्यवसाओं से विरत रहना । ऐसे व्यवसाय जो अनैतिक , शीलरहित और अवैधानिक हैं ।

६. सम्यक व्यायाम-उचित प्रयास

प्रकट हो चुकी अकुशल वृतियों से विरत रहना , जो प्रकट नही हुई हैं उन अकुशल वृतियों को प्रकट न होने देने का अभ्यास । प्रकट कुशल वृतियों को पोषित करना , अप्रकट कुशल वृतियों को विकसित करने  का प्रत्न्न करना ।

७. समयक स्मृति-उचित विचार

शरीर , शरीर की मुद्राओं और संवेदानाओं के प्रति स्मृतिपूर्ण होना । मन और उसमॆम उत्पन्न विचारों , भावनाओं व संवेदानाओं के प्रति स्मृतिपूर्ण होना ।

८. सम्यक समाधि-उचित चिंतन मनन

प्रज्ञा के विकास और उपल्ब्धि के लिये मन को एकाग्रता व अनुशान का प्रशिक्षण देने हेतु ध्यान का अभ्यास करना ।

मझिजमनिकाये अकुसल्कुसल्धम्मा

भगवान्‌ बुद्ध के अनुसार अष्टांगी मार्ग पर कुशलता के साथ चलने के लिये अकुशल तत्वों का त्याग अनिवार्य है । अकुसला संहिता धम्म में वर्जित यह तत्व हैं :

१.लोभ

२.द्धेष

३.मोह

इन प्रमुख तत्वों पर नियंत्रण अत्यावशयक है क्योंकि इन तत्वों से भी तो अन्य अकुशल तत्व उत्पन्न होते हैं । यह तत्व हैं :

प्राणातिपातो- अर्थात जीवन संहार

अदिन्नादानं- अप्राप्त को प्राप्त करने की कुचेष्ठा

कामेसु मिच्छाचारो- अर्थात अशुद्धता

मुसावादो- मिथ्यावादी आचरण

पिसुणावाचा- झूठी निन्दा

फ़रुसावाचा- अर्थात कटुवाणी

सम्फ़प्पलापो–व्यर्थ वाद विवाद

अभिज्झा- लोभ लालच

व्यापादो- अथात दूसरों के अहित की कामना

मिच्छादिट्ठि- यानि भ्रमित दृष्टिकोण

अस्तित्व के तीन लक्षण

बुद्ध ने यह भी खोजा कि सकल अस्तित्व की तीन और विशेषतायें हैं :

अनिन्यता

सब कुछ अनित्य है और प्रत्येक वस्तु कुछ और होने की प्रक्रिया में है ।

दु:खता

चूँकि सब कुछ अनित्य है , इसलिये अस्तित्व भी दु:खबद्ध है । सुख के लिये तृष्णा हमेशा रहेगी . असुखद से विकर्षण हमेशा रहेगा . जो कि अस्तित्व के परिवर्तन्कारी स्वभाव का परिणाम है ।

अनात्मता

नित्य अथवा अपरिवर्तनीय आत्मा जैसा कोई तत्व नही है । स्व जिसके अस्तित्व में हम संस्कारित हैं , यह हमारे भिन्न –२ मानसिक व शारीरिक अवययों के सिवा कुछ भी नही है , जो कि कार्यु कारण की सतत स्थायी परिवर्तन की अवस्था में है ।

संदर्भित ग्रन्थ

१. इस लेख की मुख्य थीम भिक्षु बुद्ध रत्न डां मनोज भन्ते के लेख से ली गयी है जो बोद्ध गया मन्दिर मैनेजंमैन्ट कमेटी द्वारा प्रकाशित जर्नल ‘ प्रज्ञा ’ मॆ सन्‌ २०१२ की बुद्ध जंयती को प्रकाशित हुई थी ।

२. ‘ स्वर्ग कोई भी जा सकता है ,बस अच्छे बनो ’ टी. वाई .ली. की पुस्तक का श्री राजेश चन्द्रा जी द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद ।

३. आचार्य गोयन्का जी द्वारा हिन्दी मे अनुवादित “ धम्मपद

४. महास्थविर ज्ञानातिलोक द्वारा संग्रहित बुद्ध वचन का भिक्षु आनन्द कौसल्लायन द्वारा हिन्दी अनुवाद

५. अनगरिक  धर्मपाल द्वारा संग्रहित बुद्ध की शिक्षा का भिक्षु आनन्द कौसल्लायन  और त्रिपटिकाचार्य भिक्षु धर्मरक्षित द्वारा हिन्दी अनुवाद

६. डां सैमुएल हैनीमैन द्वारा रचित आरेगान आफ़ होम्योपैथी का छवाँ संस्करण ।

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