Monday, September 30, 2013

विपस्सना आचार्य दिंवगत सत्यनारायण गोयनकाजी को शत्‌-शत्‌ नमन

गोयन्का

                           आचार्य सत्य नारायण गोयन्का
                          जन्म : ३० जनवरी , १९२४
                          निर्वाण  : २९ सितम्बर, २०१३     

बाबा साहब के बाद अगर भारत मे बुद्ध धम्म की ज्योति को जलाये रखने मे किसी व्यक्ति का बहुत योगदान था तो वह थे आचार्य गोयन्का जी । उनका निधन बुद्ध धम्म के लिये एक बहुत बडी क्षति है । लेकिन जाना तो एक न एक दिन सब को है , हमारे चाहे या अनचाहे प्रकृति के इस नियम को कोई नही बदल सकता ।
चाहता हूँ , पुष्प यह
गुलदान का मेरे
न मुर्झाये कभी ,
देता रहे
सौरभ सदा
अक्षुण्ण इसका
रुप हो!
पर यह कहाँ संभव ,
कि जो है आज,
वह कल को कहाँ ?
उत्पत्ति यदि,
अवसान निशिचत!
आदि है
तो अंत भी है !
यह विवशता !
जो हमारा हो ,
उसे हम रख न पायें !
सामने अवसान हो
प्रिय वस्तु का,
हम विवश दर्शक
रहे आयें!
नियम शाशवत
आदि के,
अवसान के ,
अपवाद निशचय ही
असंभव-
शूल सा यह ज्ञान
चुभता मर्म में,
मन विकल होता!
प्राप्तियां, उपलबिधयां क्या
दीन मानव की,
कि जो
अवसान क्रम से,
आदि -क्रम से
हार जाता
काल के
रथ को
न पल भर
रोक पाता !
क्या अहं मेरा
कि जिसकी तृष्टि
मैं ही न कर पाता !

विपस्सना आचार्य सत्यनारायण गोयनकाजी ने बुद्धत्तर भारत के लुप्त हुई बुद्ध की अनमोल 'ध्यान' विधि और बुद्ध वाणी को अपनी एक-एक बूंद से प्रबल-प्रवाह से प्रवाहित किया। गहन अध्ययन और पद पद पर ठोकरे खाते हुए और उद्देश्य विचलित न होते हुए विपस्सना आचार्य सत्यनारायण गोयनकाजी ने सदा बुद्ध के सबल बाहु का अवलम्बन किया। जिनके गहन मैत्री का पूण्य प्रकाश है की भगवान बुद्ध के पुण्यसलिला भागीरथी ने देश और विदेश के करोड़ो लोगो को बुद्ध के सांस्कृतिक प्रवाह में बहाने के लिए साहस बंधाया। जिसे पाकर प्राचीन बुद्ध की ध्यान विधि और बौध्‍द इतिहास के निधि ने स्वयं अपूर्व वैभवशाली गौरव अपने खोये हुए भारत के धरती पर फिर से हासिल करके लोककल्याण किया और लोककल्याण की धारा प्रवाहीत हो रही है। विपस्सना आचार्य सत्यनारायण गोयनकाजी ने पदपद पर कष्ट भरे महासागर के तूफानी लहरों को चीरकर अपने ओजस्वी भाषा शैली में बुद्ध के धम्म को प्रस्तुत किया। आदरणीय विपस्सना आचार्य सत्यनारायण गोयनकाजी के निधन से विश्वजगत को क्षति  होने का आभास हुवा है। लेकिन आदरणीय विपस्सना आचार्य सत्यनारायण गोयनकाजी के स्नेहमयी ममतामयी गोद को विश्वजगत भूल नहीं सकता क्योंकि उनके सहस्त्र्भुजा प्रबल प्रवाह की पियुषपायिनी और बुद्ध के धम्म की जगकल्याणी तरंगे सदा साथ है!

भवतु सब मंगलं !
सबका मंगल हो !

साभार : सत्यजीत मौर्या 

यह भी देखे :

श्री स. ना. गोयन्का द्वारा दस दिवसीय विपश्थना ध्यान विधि के आडियो एवं पी.डी.एफ़. लिंक











































Friday, September 20, 2013

अप्रमाद ( awareness ) अमृत का पथ है और प्रमाद ( non awareness ) मृत्यु का

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ओशो : ‘ अप्रमाद अमृत का पथ है और प्रमाद मृत्यु का।’
साभारडां प्रवीन गोस्वामी

बुद्ध की सारी जीवन-प्रक्रिया को एक शब्द में हम रख सकते हैं, वह है, अप्रमाद, अवेयरनेस, जागकर जीना।
जागकर जीने का क्या अर्थ होता है? अभी तुम रास्ते पर चलते हो, बुद्ध से पूछोगे तो वे कहेंगे, यह चलना बेहोश है। रास्ते पर दुकानें दिखायी पड़ती हैं, पास से गुजरते लोग दिखायी पड़ते हैं, घोड़ागाड़ी, कारें दिखायी पड़ती हैं, लेकिन एक चीज तुम्हें चलते वक्त नहीं दिखायी पड़ती, वह तुम स्वयं हो। और सब दिखायी पड़ता है। पास से कौन गुजरा, दिखायी पड़ा। राह पर भीड़ है, दिखायी पड़ी। रास्ता सुनसान है, दिखायी पड़ा। सब तुम्हें दिखायी पड़ता है, एक तुम भर दिखायी नहीं पड़ते। यही तो सपना है।
सपने में तुमने कभी खयाल किया, सब दिखायी पड़ता है, एक तुम दिखायी नहीं पड़ते। सपने का स्वभाव यही है। बहुत सपने तुमने देखे हैं। कभी खयाल किया, सब दिखायी पड़ते हैं, एक तुम भर दिखायी नहीं पड़ते सपने में। मित्र-शत्रु सब दिखायी पड़ते हैं, तुम भर नहीं दिखायी पड़ते।
यही तो स्थिति जीवन की है, जागने की है। जिसे तुम जागना कहते हो उसमें और नींद में कोई अंतर नहीं मालूम होता। दोनों में एक बात समान है कि तुम्हारा तुम्हें कोई पता नहीं चलता। भीतर अंधेरा है। भीतर दीया नहीं जला। इसको बुद्ध प्रमाद कहते हैं, मूर्च्छा कहते हैं।
अपना ही पता न चले, यह भी कोई जिंदगी हुई? चले, उठे, बैठे, उसका पता ही न चला जो भीतर छिपा था। अपने से ही पहचान न हुई, यह भी कोई जिंदगी है? अपने से ही मिलना न हुआ, यह भी कोई जिंदगी है? और जो अपने को ही न पहचान पाया, और क्या पहचान पाएगा? निकटतम थे तुम अपने, उसको भी न छू पाए, और परमात्मा को छूने की आकांक्षा बनाते हो? चांद-तारों पर पहुंचना चाहते हो, अपने भीतर पहुंचना नहीं हो पाता।
स्मरण रखो, निकटतम को पहले पहुंच जाओ, तभी दूरतम की यात्रा हो सकती है। और मजा यह है कि जिसने निकट को जाना, उसने दूर को भी जान लिया, क्योंकि दूर निकट का ही फैलाव है।
उपनिषद कहते हे, वह परमात्मा पास से भी पास, दूर से भी दूर है। क्या इसका यह अर्थ हुआ कि उसे जानने के दो ढंग हो सकते है-कि तुम उसे दूर की तरह जानने जाओ या पास की तरह जानने जाओ?
नहीं, दो ढंग नहीं हो सकते। जब तुम पास से ही नहीं जान पाते तो तुम दूर से कैसे जान पाओगे? जब मैं अपने को ही नहीं छू पाता, परमात्मा को कैसे छू पाऊंगा? जब आख अपने ही सत्य के प्रति नहीं खुलती, तो परमात्मा के विराट सत्य की तरफ कैसे खुल पाएगी?
इसलिए बुद्ध चुप रह गए, परमात्मा की बात ही नहीं की। वह बात करनी फिजूल है। सोए आदमी से, जागकर जो दिखायी पड़ता है, उसकी बात करनी फिजूल है। सोए आदमी से तो यही बात करनी उचित है, कैसे उसका सपना टूटे, कैसे उसकी नींद टूटे?



Sunday, September 15, 2013

वर्तमान , अतीत और भविष्य - सचेतावस्था मे जीना ही एकमात्र विकल्प


वर्तमान मे रहने का अर्थ यह नही है कि आप अतीत को भूल जायें या भविष्य की जिम्मेदारी से दूर चले जायें । बल्कि इसका अर्थ यह है कि आप अतीत को लेकर पछतावा न करें और भविष्य को लेकर चिंता न करें । अगर आप सचेतावस्था के साथ अतीत को देखेगें तो आप पायेगें कि अतीत आप की यात्रा में एक जांच का उद्देशय हो सकता है कि ऐसी परिस्थतियाँ क्यों और कैसे उत्पन्न हुयी । अतीत मे देख कर आप कई अंतर्दृष्टियों को प्राप्त भी कर सकते हैं लेकिन साथ ही में यह आवशयक है कि आप की दृष्टि वर्तमान समय पर सचेतावस्था के साथ रहे । ~ तिक न्यात हन्ह, The Art of Power~

 “To dwell in the here and now does not mean you never think about the past or responsibly plan for the future. The idea is simply not to allow yourself to get lost in regrets about the past or worries about the future. If you are firmly grounded in the present moment, the past can be an object of inquiry, the object of your mindfulness and concentration. You can attain many insights by looking into the past. But you are still grounded in the present moment.”
Thich Nhat Hanh, The Art of Power

Thursday, September 12, 2013

दण्ड से सभी डरते हैं … किसी भी प्राणी की हिंसा न करे .. “भगवान्‌ बुद्ध ”

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जेतवन में रहते समय एक दिन छ: वर्गीय भिक्षुओं ने सत्रह वर्गीह भिक्षुओं को मारा । भगवान्‌ बुद्ध ने छ: वर्गीय भिक्षुओं को बुलाकर नाना प्रकार से समझाया – “ भिक्षुऒ ! भिक्षु को अपने समान ही सबको समझना चाहिये कि जैसे मैं दणड और मृत्यु से डरता हूँ , वैसे ही सब डरते हैं । ऐसा जान कर किसी को मारना या वध करना नही चाहिये ।  धमम्पद ~ गाथा १२९ ~
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एक दिन भगवान्‌ बुद्ध जेतवन विहार से श्रावस्ती मे भिक्षाटन के लिये जा रहे थे । उन्होने मार्ग में बहुत से लडकों को एक साँप को लाठी से मारते हुये देखा । यह देखकर भगवान्‌ ने उनसे पूछा – “ साँप को क्यों मार रहे हो ? “
“ डँसने के डर से। ”
“ तुम ओग इसे मारकर जो अपना सुख चाहते हो , तो मरकर उत्पन्न होने के स्थान में सुख नही भोग पाओगे , अपने को सुख चाहने वालों को दूसरे का वध नही करना चाहिये । ” ब्न्हगवान ने ऐसा कहकर यह उपदेश देते हुये इस गाथा को कहा ।

Tuesday, September 10, 2013

ईश्वर मॆ ( अ) विश्वास और बुद्ध धम्म

अंगुतरनिकाय
इस संसार को किसने बनाया , यह एक सामान्य प्रशन है लेकिन इस दुनिया को ईश्वर ने बनाय यह वैसा ही सामन्य सा उत्तर है । इस सृष्टि रचयिता के कई नाम है , अलग –२ प्रांत और देशानुसार अलग-२ । यदि यह पूछा जाये कि तथागत ने ईश्वर को सृष्टि कर्ता के रुप में स्वीकार किया तो उत्तर है “ नही” बुद्ध ने कहा कि ईशवराश्रित धर्म कल्पनाश्रित है । इसलिये ऐसे धर्म का कोई उपयोग नही है । बुद्ध ने इस प्रशन को ऐसे ही नही छोड दिया । उन्होने इस प्रशन के नाना पहलूऒं पर विचार किया है ।
बुद्ध का तर्क था कि कि ईशवर का सिद्धान्त सत्याश्रित नही है । भगवान्‌ बुद्ध ने वासेठ्ठ और भारद्धाज के साथ हुई बातचीत मे स्पष्ट किया है ।

वासेठ्ठ और भारद्धाज के साथ भगवान्‌ बुद्ध के संवाद

वासेठ्ठ और भारद्धाज मे एक विवाद खडा हुआकि सच्चा मार्ग कौन सा है और झूठा कौन सा ? इस समय भगवान बुद्ध भिक्षु संघ के साथ कोशल जनपद मे विहार कर रहे थे । वह मनसाकत नामक ब्रहाम्ण गाँव मे अचिरवती नदी के तट पर एक बगीचे में ठ्हरे थे । वासेठ्ठ और भारद्धाज दोनों मनसाकत नाम की बस्ती में ही रहते थे । जब उन्होने सुना कि तथागत उनकी बस्ती में आये हैं तो वे उनके पास गये और दोनों ने भगवान्‌ बुद्ध से अपना दृष्टिकोण रखने का निवेदन किया ।
भारद्धाज ने कहा –” तरुक्ख का दिखाया मार्ग सीधा साधा है , वह मुक्ति का सीधा पथ है और जो इसका अनुसरण कर लेता है उसे वह ब्रह्मा से मिला देता है ।”
वासेठ्ठ ने कहा – “ हे गौतम बहुत से ब्राहम्ण बहुत से मार्ग सुझाते हैं – अध्वय्य ब्राहम्ण , तैत्तिरिय ब्राहम्ण, कंछोक ब्राहम्ण , तथा भीहुवर्गीय ब्राहम्ण,। वे सभी , जो इन के बताये पथ का अनुकरण करते हैं , उसे ब्रहमा से मिला देते हैं । जिस प्रकार किसी गाँव या नगर के पास अनेक रास्ते होते हैं , किन्तु वे सभी उसी गांव मे पहुंचा देते हैं , उसी तरह से ब्राहम्णॊं द्वारा दिखाये सभी पथ ब्रहमा से जा मिलते हैं । ”
तथागत ने प्रशन किया – “ तो वासेठ्ठ तुम्हारा क्या यह कहना है कि वे सभी मार्ग सही हैं ? वासेठ्ठ बोला – “ श्रमण गौतम हाँ, मेरा यही मानना है ।”
“ लेकिन वासेठ्ठ ! क्या तीनों वेदों के जानकार ब्राहमणॊं के गुरुऒं में कोई एक भी ऐसा है जिसने ब्रहमा का आमने सामने दर्शन किया हो ?”
"”गौतम ! निशचय ही नही ! ”
“ तो ब्रहमा को किसी ने नही देखा ? किसी को ब्रह्मा का साक्षात्कार नही हुआ ? “ वासेठ्ठ बोला – “ हां ऐसा ही है ।”
“ तब तुम कैसे यह मान सकते हो कि ब्राहम्णॊं का कथन सथाश्रित है ?
“ वासेठ्ठ ! जैसे कोई अंधे की कतार हो । न आगे चलने वाला अंधा देख सकता हो , न बीच मे और न पीछे चलने वाला अंधा । इसी तरह वासेठ्ठ ! मुझे लगता है कि ब्राहम्णॊं का कथन सिर्फ़ अंधा कथन है । न आगे चलने वाला देखता है , न बीच वाला और न पीछे वाला देखता है । इन ब्राहम्णॊं की बातचीत केवल उपहासस्यपद है , शब्द मात्र जिस में कोई सार नही ।”
“ वासेठ क्या यह ऐसा नही है कि किसी आदमी का किसी स्त्री से प्रेम हो गया हो जिसे उसने देखा तक नही हो ? “ "वासेठ्ठ बोला – “हां यह ऐसा ही है ।”
“ वासेठ! तब तुम यह बताओ कि यह कैसा होगा कि जब लोग उस आदमी से पूछेगें कि जिस सुन्दरतम स्त्री से प्रेम करने की बात करते हो वह अमुक स्त्री कौन है , कहां की है आदि ।”
सृष्टि के तथाकथित रचयिता की चर्चा करते हुये तथागत ने भारद्धाज और वासेठ्ठ से कहा – “ मित्रों ! जिस प्राणी ने पहले जन्म लिया था वह अपने बारे मे सोचने लगा कि मै ब्रहमा हूँ , विजेता हूँ , निर्माता हूं , अविजित हूँ , सर्वाधिकारी हूँ , मालिक हूँ , निर्माता हूँ , रचयिता हूँ, व्यवस्थापक हूँ, आप ही अपना स्वामी हूँ , और जो हैं तथा वे जो भविष्य में पैदा होने वाले हैं , उन सब का पिता हूँ । मुझ से यह सब प्राणी उत्पन्न होते हैं ।”
“ तो इसका यह मतलब हुआ न कि जो अब है और जो भविष्य में उतपन्न होने वाले हैं , ब्रह्मा सब का पिता है ? “
“ तुम्हारा कहना है कि यह जो पूज्य , विजेता , अविजित , जो है तथा जो होगें उन सब का पिता , जिससे हमारी उत्पति हुई है – ऐसा जो यह ब्रह्मा है , वह स्थायी है , सतत रहने वाला है , नित्य है , अपरिवर्तन-शील है और वह अनन्त काल तक ऐसा ही रहेगा । तो हम जिन्हें ब्रह्मा ने उत्पन्न किया है , जो ब्रह्मा के यहाँ से आये हैं , सभी अनित्य क्यों है , परिवर्तनशील क्यों हैं , अस्थिर क्यों हैं , अल्प जीवी क्यों हैं और मरणाधर्मी क्यों हैं ? “
इसका वासेठ्‌ के पास कोई उत्तर नही था ।
तथागत का तीसरा तर्क ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता से संबधित था । “ यदि ईश्वर सर्वशक्तिमान और सृष्टि का पर्याप्त कारण है , तो फ़िर आदमी के दिल मे कुछ करने की इच्छा ही उत्पन्न नही हो सकती , उसे कुछ करने की आवशयकता भी नही रह सकती , न उसके मन में कुछ करने का संकल्प ही पैदा हो सकता है । यदि वह ऐसा ही है तो ब्रह्मा ने आदमी को पैदा ही क्यों किया ? ”
इसका भी वासेठ्‌ के पास कोई उत्तर नही था ।
तथागत का चौथा तर्क था कि “ यदि ईश्वर कल्याण-स्वरुप है तो आदमी हत्यारे , चोर, व्यभिचारी , झूठे , चुगलखोर, लोभी , द्धेषी , बकवादी और कुमार्गी क्यों हो जाते हैं ? क्या किसी अच्छॆ , भले ईश्वर के रहते यह संभव है ? ”
तथागत का पाँचवां तर्क ईश्वर के सर्वज्ञ , न्यायी , और दयालु होने से संम्बधित था ।
“ यदि कोई ऐसा महान्‌ सृष्टि-कर्ता है जो न्यायी भी है और दयालु भी है , तो संसार मे इतना अन्याय क्यों हो रहा है ?” भगवान्‌ बुद्ध का प्रश्न था । उन्होनें कहा – “ जिसके पास भी आंख है वह इस दर्दनाक हालत को देख सकता है । ब्रह्मा अपनी रचना सुधारता क्यों नही है ? यदि उसकी शक्ति इतनी असीम है कि उसे कोई रोकने वाला नही तो उसके हाथ ही ऐसे क्यों हैं कि शायद वह किसी का कल्याण करते हो ?उसकी सारी की सारी सृष्टि दु:ख क्यों भोग रही है ? वह सभी को सुखी क्यों नही रखता है ? चारों ओर ठ्गी , झूठ , और अज्ञान क्यों फ़ैला हुआ है ? सत्य पर झूठ क्यों बाजी मार ले जाता है ? सत्य और नयाय क्यों पराजित हो जाते है? मै तुम्हारे ब्रह्मा को परं-अन्यायी मानता हूँ जिसने केवल अन्याय देने के लिये इस जगत की रचना की है । “
“ यदि सभी प्राणियों में कोई ऐसा सर्वशक्तिमान ईश्वर व्याप्त है जो उन्हें सुखी और दुखी बनाता है और जो उनसे पाप पुण्य कराता है तो ऐसा ईश्वर भी पाप से सनता है । या तो आदमी ईश्वर की आज्ञा में नही है या ईश्वर नेक और न्यायी नही है अथवा ईश्वर अन्धा है ।”
ईश्वर के अस्तित्व के सिद्धान्त के विरुद्ध उनक अगला तर्क यह था कि ईश्वर की चर्चा से कोई प्रयोजन सिद्ध नही होता । भग्वान्‌ बुद्ध के अनुसार धर्म की धुरि ईश्वर और आदमी का सम्बन्ध नही है बल्कि आदमी का आदमी के साथ संम्बन्ध है । धर्म का प्रयोजन यही है कि वह आदमी को शिक्षा दे कि वह दूसरे आदमी के साथ कैसे व्यवहार करे ताकि सभी आदमी प्रसन्न रह सकें ।
तथागत की दृष्टि में ईश्वर विश्वास सम्यक्‌ दृष्टि के मार्ग मे अवरोधक है । यही कारण था कि वह रीति रिवाजों , प्रार्थना और पूजा के आडंबरों के सख्त खिलाफ़ थे । तथागत का मानना था कि प्रार्थना कराने की जरुरत ने ही पादरी पुरोहित को जन्म दिया और पुरोहित ही वह शरारती दिमाग था जिसने इतने अन्धविशवास को जन्म दिया और सम्यक दृष्टि के मार्ग को अवरुद्ध किया ।
तथागत का ईश्वर अस्तित्व के विरुद्ध आखिरी तर्क प्रतीत्य-समुत्पाद के अन्तर्गत आता है । इस सिद्धान्त के अनुसार ईश्वर का अस्तित्व है या नही , यह मुख्य प्रश्न नही है और न ही की ईश्वर ने सृष्टि की रचना की है या नही ? असल प्रश्न है कि ईश्वर ने सृष्टि किस प्रकार रची ? प्रशन महत्वपूर्ण यह है कि ईश्वर ने सृष्टि भाव ( =किसी पदार्थ ) में से उत्पन्न की या अभाव ( = शून्य ) में से ?
यह तो एक्दम विशवास नही किया जा सकता कि ‘ कुछ नही ‘ में से कुछ की रचना हो गई । यदि ईश्वर ने सृष्टि की रचना कुछ से की है तो वह कुछ – जिस में से नया कुछ उत्पन्न किया गया है – ईश्वर के किसी भी अन्य चीज के उत्पन्न करने के पहले से ही चला आया है । इसलिये ईश्वर को उस कुछ का रचयिता नही स्वीकार किया जा सकता क्योंकि वह कुछ पहले से ही अस्तित्व मे चला आ रहा है ।
यदि ईश्वर के किसी भी चीज की रचना करने से पहले ही किसी ने कुछ में से उस चीज की रचना कर दी है जिससे ईश्वर ने सृष्टि की रचना की है तो ईश्वर सृष्टि का आदि-कारण नही कहला सकता ।
भगवान्‌ बुद्ध का यह आखिरी तर्क ऐसा था कि जो ईश्वर विश्वास के लिये सर्वथा मारक था और जिसका वासेठ्‌ और भारद्धाज के पास कोई जबाब नही था ।
( संकलन : पृष्ठ संख्या १९४-१९९ , भगवान्‌ बुद्ध और उनका धर्म , लेखक डां भीमराव रामजी अम्बेड्कर , अनुवादक :डां भदन्त आनन्द कौसल्लायन )

अगले भाग में देखें :भगवान्‌ बुद्ध की  सृष्टि निर्माण की बैज्ञानिक सोच : प्रतीत्य-समुत्पाद 

 

यह भी देखें :

बुद्ध का धम्म , मजहब और रीलीजन

Saturday, September 7, 2013

स्पाइस स्टुडियोज द्वारा निर्मित धारावाहिक ‘बुद्धा’ जी टीवी पर आठ सितंबर से….



बुद्ध के विचारों के बारे में तो सभी को पता है, लेकिन व्यक्ति के रूप में उनके बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी है। इन्हीं बातों को आधार बनाकर स्पाइस स्टुडियोज द्वारा निर्मित धारावाहिक ‘बुद्धा’ जी टीवी पर आठ सितंबर से शुरू हो रहा है।
बुद्ध पूर्णिमा के मौके पर अभिनेता कबीर बेदी और समीर धर्माधिकारी ने शो के प्रोड्यूसर डॉ. बीके मोदी की मौजूदगी में पहला सीन शूट किया। यह मेगा टेलीसीरिज राजकुमार सिद्धार्थ के जीवन और उनके बुद्ध बनने के सफर को दर्शकों के सामने प्रस्तुत करेगी।
हाँलाकि बहुत ही कम लोगों को पता होगा कि टीवी कार्यक्रम 'बुद्ध' पर पहले धारावाहिक नहीं बल्कि फिल्म बनाने की योजना थी । फिल्मकार शेखर कपूर और आशुतोष गोवारिकर ने पटकथा लिखनी भी शुरू कर दी थी ।इस बीच निर्माता बी.के. मोदी को लगा कि इस तरह परियोजना के लिए टीवी में ज्यादा संभावनाएं हैं।
  • देखें टीवी शो 'बुद्ध' के लांच की एक झलक
  • आफ़ लाइन देखने के लिये यहाँ जायें ।

Thursday, September 5, 2013

बुद्ध का धम्म , मजहब और रीलीजन

बुद्ध का धम्म , मजहब और रीलीजन
 
बुद्ध के धर्म  की परिभाषा हिदू धर्म , इस्लाम धर्म और ईसाई और यहूदी आदि धर्मों से बिलकुल अलग है । धर्मों को बुद्ध धर्म नही कहते । मजहब से बुद्ध का कोई लेना देना नही ।धर्म से बुद्ध का अर्थ है – जीवन का शाशवत नियम , जीवन का सनातन नियम । इससे हिंदू , मुसलमान , ईसाई का कुछ लेना देना नही । इसमें मजहबों के झगडे का कोई संबध नही । यह तो जीवन की बुनियाद में जो नियम काम कर रहा है , एस धम्मो सनंतनो, वह जो शशवत नियम है , बुद्ध उसकी बात करते हैं । और जब बुद्ध कहते हैं : धर्म की शरण मे जाओ , तो वे यह नही कहते कि किस धर्म की शरण मे । बुद्ध कहते हैं कि  धर्म को खोजो कि शशवत नियम क्या है ? उस नियम की शरण मे जाओ । उस नियम से विपरीत मत जाओ नही तो दुख पाओगे । ऐसा नही कि कोई परमात्मा कही बैठा है कि जो तुमको दंड देगा । कही कोई परमात्मा नही है । बुद्ध के लिये संसार एक नियम है । अस्तित्व एक नियम है । ज्ब तुम उसके विपरीत जाते हो तो विपरीत जाने के कारण ही  दुख  पाते हो ।
एक आदमी नशे में डांवाडोल चलता है और अपना  घुंटना फ़ोड लेता है  । तो ऐसा नही है कि परमात्मा ने शराब पीने का उसे दंड दिया । बुद्ध को यह  बातें बचकानी लगती  हैं । वह आदमी स्वयं ही गिरा क्योंकि वह गुरुतवाकर्षण के नियम के विरुद्ध जा रहा था । उसकी शराब उसके लिये दंड बन गई । गुरुतवाकर्षण का नियम है कि तुम अगर डांवाडोल हुये , उलटे सीधे चले तो गिरोगे ही । जो नियम के साथ चलते हैं उन्हें नियम संभाल लेता है और जो नियम के विपरीत चलते हैं वे अपने हाथ स्वयं ही गिर पडते हैं ।

 

 ‘ मजहब या रीलीजन  क्या है ? ’

मजहब का अर्थ है ईशवर में विशवास , आत्मा मे विशवास , ईशवर की पूजा और प्रार्थना आदि कर के ईश्वर को प्रसन्न रखना । हाँलाकि मजहब की कल्पना कभी भी स्थिर न्रही । एक समय था बिजली , वर्षा , और बाढ की घटनायें आदमी की समझ से परे थी । इन सब पर जो भी टोना टोटका किया जाता थ वह जादू कहलाता था । उस समय मजहब और जादू दोनों एक ही चीज के दो नाम थे ।
मजहब के विकास में दूसरा समय आया तब मजहब का अर्थ आदमी के विशवास , रीति रिवाज , प्राथनायें और बलियों वाले यज्ञ थे । तब तक जादू का प्रभाव जाता रहा । मजहब का केन्द्र बिन्दु इस विशवास पर निर्भर करता है कि कोई शक्ति विशेष है जिस के कारण सभी घटनायें घटती रहती हैं और जो आदमी की समझ से परे की बात है  ।

 

धर्म मजहब से भिन्न कैसे है ?

भगवान्‌ बुद्ध जिसे धर्म कहते हैं वह मजहब या रीलीजिन से सर्वाथा अलग है । जहाँ मजहब या रीलीजन व्यक्तिगत चीज है वही दूसरी ओर धर्म एक समाजिक वस्तु है । वह प्रधान रुप से और आवशयक रुप से सामाजिक है । धर्म का मतलब है सदाचरण , जिस का  अर्थ है जीवन के सभी क्षेत्रों में एक आदमी का दूसरे आदमी के प्रति अच्छा व्यवहार । इससे स्पष्ट है कि यदि कही परस्पर दो आदमी भी साथ रहते हों तो चाहे न चाहे उन्हें धर्म के लिये जगह बनानी पडेगी । दोनॊ में से एक भी बचकर नही जा सकता । जब कि यदि कही एक आदमी अकेला हो तो उसे किसी धर्म की आवशकता नही ।
धर्म क्या है ? धर्म की  आवशयकता क्यूं है ? भगवान्‌ बुद्ध के अनुसार धर्म के दो प्रधान तत्व हैं – प्रज्ञा और करुणा । प्रज्ञा का अर्थ है बुद्धि ( निर्मल बुद्धि ) । भगवान्‌ बुद्ध ने प्रज्ञा को अपने धर्म के दो स्तम्भों में से एक माना है , क्योंकि वह नही चाहते थे कि ‘ मिथ्या विशवासों ’ के लिये कोई जगह बचे ।
करुणा कया है ? और किसके लिये ? करुंणा का अर्थ है दया , प्रेम और मैत्री । इसके बगैर न तो समाज जीवित रह सकता है और न तो समाज की उन्नति हो सकती है । ‘प्रज्ञा और करुणा ’ का अलौकिक मिश्रण ही तथागत का धर्म है ।

 

धर्म और नैतिकता

मजहब या रीलीजन में नैतिकता बाहर से आने  हवा के एक झोंके की तरह है ताकि व्यवस्था और शान्ति मे उपयोगी सिद्ध हो । मजहब या रीलीजन मे एक त्रिकोण है । ‘अपने पडोसी के साथ अच्छा व्यवहार करो ’ क्योंकि तुम दोनों ही एक ही परमात्मा के पुत्र् हो । यही मजहब का तर्क है । हाँलाकि प्रत्येक  मजहब नैतिकता का उपदेश अवशय देता है लेकिन नैतिकता मजहब का मूलाधार नही है । यह्  एक रेल के डिब्बे की तरह है जिसे मौका अनुसार जोड भी लिया जाता है और पृथक भी किया जाता है ।
जहाँ मजहब या रीलिजन में जो स्थान  ईश्वर का है वही धर्म में नैतिकता का है । दूसरे शब्दों में कहे नैतिकता ही धर्म है और धर्म ही नैतिकता है । धर्म मे प्रार्थनाओं , तीर्थ यात्राओं , कर्मकाडॊं कॆ लिए , रीति रिवाजों के लिये तथा पशु हत्या ( बलि कर्मों ) के लिये कोई जगह नही है । धर्म में नैतिकता का अर्थ आदमी को आदमी के साथ मैत्री का है । इसमॆ ईशवर की मंजूरी की आवशकता नही । ईश्वर को प्रसन्न करने के लिये आदमी को नैतिक बनने की आवशयकता नही । अपने भले के लिये यह आवशक है कि वह आदमी से मैत्री करे ।
 

मजहब का उद्देशय और धर्म का उद्देशय

मजहब या रीलीजन का उद्देशय और धर्म के उद्देशय में क्या समान है और क्या असमानता है । इन प्रशनों का उत्तर दो सूक्तो में है , एक जिसमे भगवान्‌ बुद्ध और सुनक्खत की बातचीत का उल्लेख है और दूसरा जिसमॆ भगवान्‌ बुद्ध और पोट्‌ठपाद ब्राहमण की बातचीत का वर्णन  है।

भगवान्‌ बुद्ध और सुनक्खत के बीच का संवाद

एक बार भगवान्‌ बुद्ध जब मल्लों के नगर अनुपिय में विहार कर रहे थे – एक दिन चीवर पहन , पात्र हाथ मे लिये अनुपिय नगर मे भिक्षाटन के लिये निकले ।
मार्ग मे उन्हें लगा कि अभी सवेरा है अत: भिक्षाटन के लिये थॊडि देर रुकना चाहिये । ऐसा सोच , तथागत भग्गव परिव्राजक के आश्रम में चले गये ।
भगवान्‌ बुद्ध को आता देख कर परिव्राजक उनके स्वागत के लिये खडा हुआ । उनका अभिवादन किया और उन्हें सुसज्जित उच्च आसन पर बैठाकर स्वयं उनके पास एक ओर नीचा आसन कर के बैठ गया । इस प्रकार बैठकर भग्गव परिव्राजक ने कुशल प्रेम पूछ , भगवान्‌ बुद्ध से कहा –” हे श्रमण गौतम ! कुछ दिन हुये सुनक्खत लिच्छवी मेर्ते पास आया था । कहता था कि मैने श्रमण गौतम का शिष्यत्व त्याग दिया है । क्या जैसा उसने कहा ठीक है ?”
”हाँ , भग्गव ! ऐसा ही है , जैसा सुनक्खत लिच्छवी ने कहा ।“ तथागत ने आगे कहा – “कुछ दिन हुये सुनक्खत लिच्छवी  मेरे पास आया था और कहने लगा कि मै तथागत के शिष्य़्तत्व का त्याग करता हूँ क्योंकि तथागत सामान्य व्यक्तियों से परे कोई चमत्कार नही दिखाते ।”
इस पर मैने कहा – “सुनक्खत ! क्या मैने तुमसे कभी कहा था कि आ तू मेरा शिष्य बन जा , मै तुम्हें सामान्य व्यक्तियों की शक्ति से परे चमत्कार दिखाऊंगा ? ”
”नहीं भगवान्‌ आपने तो ऐसा नही कहा था ।” सुनक्खत ने उत्तर दिया ।
मैने उससे कहा – “सुनक्खत ! मेरे धर्म का उद्देशय चमत्कार दिखाना नही है । मेरे धर्म का उद्देशय यही है कि जो मेरे धर्म के अनुसार आचरण करेगा वह अपने दुखों का नाश करेगा ।”
सुनक्खत ने फ़िर कहा – “भगवान्‌! आप सृष्टि के आरम्भ का पता भी नही देते ।” इस पर मैने कहा – “सुनक्खत ! क्या मैने तुमसे  कभी कहा था कि आ तू मेरा शिष्य बन जा , मै तुम्हें सृष्टि के आरम्भ का पता बताऊंगा ?”
सुनक्खत ने कहा –” नही भगवान्‌ आपने ऐसा तो कभी नही कहा था ।”
”मैने उससे कहा कि सुनक्खत मेरे धर्म का उद्देशय सृष्टि के आरम्भ का पता बताना नही है । मेरे धर्म का उद्देशय है कि जो मेरे धर्म के अनुसार आचरण करेगा , जो मेरे धर्म को क्रियात्मक रुप से अपने ऊपर ढाल लेगा , वह अपने दुखों का नाश कर सकेगा ।”
मैने कहा – “सुनक्खत ! मेरे धर्म का उद्देशय की दृष्टि मे इसका कोई महत्व नही है कि चमत्कार दिखाया जाये या नही । सृष्टि के आरम्भ का पता बताया जाये या नही ।”

भगवान्‌ बुद्ध और पोट्‌ठपाद ब्राहमण के बीच का संवाद

एक समय भगवान्‌ बुद्ध अनाथपिण्डक के जेतवनाराम में ठहरे हुये थे । उस समय पोट्‌ठपाद परिव्राजक मल्लिका के महाप्रसाद में ठहरा हुआ था । उसका उद्देशय भगवान्‌ बुद्ध से दार्शनिक चर्चा करना था । उसके साथ करीब तीन सौ अनुयायी थे ।
पोट्‌ठपाद ने  भगवान बुद्ध से कहा – “  भगवान्‌ कृपया मुझे यह बता दें कि यह मत ठीक है कि संसार अनंत है और शेष मत मृषा है ? ”
तथागत बोले , “ पोट्‌ठपाद ! मैने यह कब कहा कि यह मत ठीक है कि संसार अनंत है और सब मत मृषा हैं ? मैनें इस विषय में कभी भी कोई मत नही दिया ।”

तब , पोट्‌ठपाद ने इसी तरह से इन सभी प्रशनों का उत्तर पूछा -
  • क्या संसार अनंत नही है ?
  • क्या संसार ससीम है ?
  • क्या संसार  असीम है ?
  • क्या आत्मा और शरीर एक ही है ?
  • क्या आत्मा और शरीर भिन्न –२ हैं ?
  • क्या तथागत मरणान्तर रहते हैं ?
  • क्या तथागत मरणान्तर नही रहते हैं ?
  • क्या वे रहते भी हैं और नही भी रहते हैं ?
और हर प्रशन के उत्तर में भगवान्‌ बुद्ध ने एक ही उत्तर दिया कि “ पोट्‌ठपाद ! मैनें इन  विषयों  में कभी भी कोई मत नही दिया है ।”
“ लेकिन तथागत ने इन विषयों में कोई भी मत क्यूं नही दिया है ? ” – पोट्‌ठपाद ने कहा ।
“ क्यूंकि इन प्रशनों का उत्तर देने से किसी को कुछ भी लाभ नही , इनका धर्म से कुछ भी संम्बन्ध नही , इनसे आदमी को आचरण सुधारने मॆ कोई भी सहायता नही मिलती , इनसे विराग नही बढता , इनसे राग- द्धेष से मुक्ति नही मिलती , इनसे शान्ति नही मिलती , इनसे शमथ लाभ नही होता और न तो यह निर्वाण की ओर अग्रसर करते हैं । इसी लिये मैने कभी भी इन विषयों पर कोई भी मत व्यक्त नही किया । ”
“ तो तथागत ने किन विषयों का व्याख्यान किया है ?  ” – पोट्‌ठपाद ने कहा ।
“ मैने बताया है कि दुख क्या है ? मैनें बताया है कि दु:ख का समुदय ( मूल कारण ) क्या है ? मैने बताया है कि दु:ख का निरोध क्या है ? मैनें बताया है कि दु:ख के निरोध ( अन्त ) का मार्ग क्या है ? ”
“ और तथागत ने इन विषयों पर व्याख्यान क्यूं दिया है ? ”
“ क्यूं की पोट्‌ठपाद ! इनसे लोगोंको लाभ है , इनका धर्म से संम्बन्ध है , इनसे आदमी को अपना आचरण सुधारने में सहायता मिलती है , इनसे विराग बढता है , इनसे राग द्धेष से मुक्ति मिलती है , इनसे शान्ति मिलती है , इनसे प्रज्ञा बढती है , और यह निर्वाण की ओर अग्रसर करते हैं । इसलिये पोट्‌ठपाद ! मैने इन विषयों का व्याख्यान दिया है । ”

सकंलन :

  • “एस धम्मो सनंतनो”- ओशो प्रवचन “ भगवान्‌ बुद्ध की देशना –धम्मपद
  • भगवान्‌ बुद्ध और उनका धर्म , लेखक डां भीमराव रामजी अम्बेड्कर , अनुवादक :डां भदन्त आनन्द कौसल्लायन

अगले भाग में : ईश्वर मॆ ( अ) विश्वास और बुद्ध धम्म