Friday, October 17, 2014

सच्चा धर्म

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गौतम बुद्ध जिन दिनों वाराणसी के पास प्रवास कर रहे थे और उनका जीवन उनके कुछ साथियों के साथ भिक्षा पर चल रहा था, उन दिनों उनके एक अति प्रिय शिष्य को एकबार कहीं भीख नहीं मिली। उदास भाव से वो लौट रहा था कि अचानक उसके कटोरे में मांस का एक टुकड़ा आ गिरा। शिष्य बहुत हैरान हुआ कि ये कहां से आया? उसने उपर देखा तो पाया कि एक चील अपने पंजे में इसे ले जा रही थी, और वही उसके पंजे से छूट कर कटोरे में आ गिरा है। शिष्य बहुत हैरान परेशान रहने के बाद आखिर में बुद्ध के सामने गया और उसने सारी कथा उन्हें कह सुनाई कि प्रभु आज कुछ नहीं मिला, बस ये मांस का एक टुकड़ा मेरे पात्र में आ गिरा।
बुद्ध ने उसे समझाया कि अब जो मिला वही तुम्हारी किस्मत। तो तुम उसका अनादर मत करो, और उसे ही पका कर खा लो। शिष्य ने ऐसा ही किया। मांस बहुत स्वादिष्ट पका।
बुद्ध के तमाम शिष्य इस पूरी घटना को देख रहे थे। पहले तो मन ही मन सोच रहे थे कि आज मांस लाने की वजह से उस अति प्रिय शिष्य को डांट पड़ेगी, लेकिन यहां तो मामला ही उल्टा हो गया था। कहां बाकी शिष्य वही सादा भोजन ग्रहण कर रहे थे, और वो मांसाहारी भोजन कर रहा था। इस घटना को देख कर बाकी शिष्यों ने भी धीरे-धीरे कहीं से मांस उठा कर लाना शुरू कर दिया और आकर बुद्ध से कहने लगे कि प्रभु आज कुछ नहीं मिला बस यही मांस का टुकड़ा मिला है। बुद्ध उसे देख मुस्कुराते और कहते जो मिला उसे ही स्वीकार करो।
एक दिन एक शिष्य ने बुद्ध से पूछा कि भगवन्‌ आप जानते हैं कि ये झूठ बोल कर मांस पका कर खा रहे हैं, फिर आप इन्हें रोकते क्यों नहीं?
बुद्ध ने कहा कि रोकने से कोई नहीं रुकता। जिसे रुकना होता है वो खुद रुकता है। और वो रुकना भी क्या रुकना जिसमें मन न रुके? और अगर मन ही न रुके तो तन के रुकने का कोई अर्थ नहीं होता। ऐसे में जिसे जिसे जो अच्छा लगता है उसे करने दो। जब मन की मुराद पूरी हो जाती है, चाहे जब हो, तभी आदमी अध्यात्म की ओर मुड़ता है।

साभार : श्री संजय सिन्हा ( फ़ेसबुक की वाल  से )

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