Tuesday, July 8, 2014

बुद्ध आज भी– ‘ प्रभाकर प्रसन्न की पोस्ट से साभार ’

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घर की छत पर से देखता हूँ तो दूर गृद्धकूट पर्वत पर चमकता राजगृह का शान्ति स्तूप नजर आता है, एक प्राचीन  पंथ की नवनिर्मित कृति. पार्श्व में विद्यमान अपने खंडित इतिहास के गीत गुनगुनाते नालन्दा विश्वविद्यालय के प्राचीन प्रस्तर हृदय को झंकृत कर देते हैं. तरंगित मन में हिलोरें उठती हैं और पूछती हैं कि क्या शान्ति स्तूप  इस खंडित महाकाव्य की एक पंक्ति भी लिख पाया है. निहारता, विचारता छत से नीचे उतर जाता हूँ.

यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि गौतम बुद्ध की शिक्षाओं की प्रासंगिकता वर्तमान में फिर से बढ गई है. आखिर अष्टांगमार्ग को जीवन में उतारा जा ही सकता है.

समतामूलक वर्ग और जाति-विहीन समाज बुद्ध की शिक्षाओं में प्रमुख स्थान रखता है. आज सारा समाज जाति, धर्म, वर्गों में विभक्त है. उस समय भी विभक्त था जब बुद्ध का जन्म हुआ था. पर धम्म ने असर डाला और बहुत हद तक विभाजन रेखा को मिटा कर रख दिया. समय की छाया से कलुषित यह धम्म पुनर्जागृत सनातन धर्म की धार न सह पाया और सदा के लिये अंधकार मे अंक में समा गया. आज पूंजीवादी व उँच-नीच के बंधनो में बंधे समाज को फिर से उसकी आवश्यकता है.

बौद्ध धम्म इस मायने में भी ऐतिहासिक था कि इसने कर्मकाण्ड को एक सिरे से नकार दिया और एक परम आत्मा के मुद्दे पर भी मौन रहा. तत्कालीन ब्राह्मणवादी कर्मकाण्डी सोंच को यह एक गहरा आघात था. आज भी यह शायद सभी धर्मों को परमात्मा के मुद्दे पर चुनौती प्रस्तुत करता है. क्या फायदा उस परमात्मा की बातें करने का जब हम अष्टांगमार्ग(सम्यक.......) से दूर हों.

विश्व के लगभग सभी धर्मों के जनक/ प्रचारक ने अपने आप को ईश्वर कहा या ईश्वर के निकटतम से खुद को नवाजा और अपनी स्शिक्षा को ईश्वरवाणी. सिर्फ बुद्ध ही ऐसे थे जिन्होने स्वयं को साधारण मनुष्य कहा और संदेश दिया कि तुममे से कोई भी बुद्धत्व को प्राप्त कर सकता है. "आनंद, मैं दूर जा रहा हूँ. मेरे लिए मत रो. मेरे बारे में मत सोचो. मैं चला रहा हूँ. तुम्हारा उद्धार तुम्हारे हाथ में है. मैं तुममे से एक हूँ और तुममे से हरएक बुद्ध बन सकता है. मैं. मैने स्वयं को बनाया है संघर्ष कर बुद्धत्व को प्राप्त करो." यही थे बुद्ध के अंतिम कहे शब्द.

धार्मिक कट्टरता को बुद्ध ने एक सिरे से नकार दिया. बुद्ध के ही शब्दों में-"कोई पुरानी पुस्तक प्रामाणिक मानी जाती हो, फिर भी उसपर विश्वास मत करो. सिर्फ इसलिये ही यकीन मत करो कि तुम्हारे पिता इसपर विश्वास करते है. सिर्फ इसलिये विश्वास मत करो कि दूसरे लोग चाहते हैं कि तुम ऐसा करो. हर चीज़ को को परखो और फिर अपनाओ जब लगे कि यह सबके लिये अच्छा है. " यह बात आज के असहिष्णु समाज के लिये पूरी तरह से उपयुक्त है.

बुद्ध पर लिखने में सालो बीत जायेंगे फिर भी शुरुआत ही होगी. यह कुछ बातें थी जो मुझे आज के भौतिकवादी समाज/ सभ्यता के लिये उपयुक्त लगी. स्वामी विवेकानंद ने इन्हें क्रांतिकारी कहा है और उन्हीं को उद्धृत करते हुये मैं लिखना बंद करता हूँ-" oh, if I had only one drop of that strength! The sanest philosopher the world ever saw."

( श्री प्रभाकर प्रसन्न जी की यह पोस्ट नवभारत टाइम्स के ब्लाग मे ६ नवम्बर २०१२ को छ्पी थी । आप की अनुमति से यह पोस्ट यहाँ शेऐर की जा रही है । )