Thursday, November 24, 2016

निधिकण्ड सुत

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धन संग्रह और रुपये की आपाधापी के दौर मे बुद्ध के कुछ वचन याद आ गये जो कि लगभग एक वर्ष पूर्व इसी संस्थान मे भिक्खू उपानान्द जी ने हम सब को पढाये थे । यह आज भी उतने ही सार्गर्भित और प्रसांगिक हैं जितने आज से २५०० साल पहले भी थे ।
निधिकण्ड सुत / The Discourse on the Treasure -Store
इस सुत्त मे धन संग्रह की अपेक्षा पुण्य की मह्त्ता पर प्रकाश डाला गया है ।
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1. दृश्यमान संपत्ति आवश्यकता पड़ने पर काम आएगी , इस प्रकार कोई मनुष्य ऐसे भावना कर के जलाशय के पास गहराई में निधि (खजाने) को गाड़ देता है l
1. A man lays with the consideration that this will be of my help, a treasure store by deep in the water level pit.
2. राजा के द्वारा भौतिक संपत्ति हड़पने या चोर के द्वारा चुराए जाने के डर से या ऋण से छुटकारा पाने या महामारी के समय या किसी विपत्ति में यह निधि काम आयेगी , ऐसी मन में भावना कर के लोग संसार में खजाना इकठ्ठा करते है l
2. In this worls a treasure store laid with an aspiration, that this will aiAlthoughd me for my discharge, if iam denounced from a kings or from a brigand else,if held to ransom or of debts in famines or in accidents.
3. इस प्रकार जलाशय के पास गहराई में सुरक्षित होने पर भी वह भौतिक दृश्यमान निधि सर्वदा मनुष्य के काम नहीं आती है l
3. Although that store of treasure is so well laid by deep in a water level pit, but all of them not always aid the possessor (of it).
4. वह दृश्यमान निधि या तो उस रखे हुए स्थान से गायब हो जाती है, या उसका ध्यान भूल जाता हैं , या उसे नाग हटा ले जाते है या यक्ष उसे चुरा ले जाते है l
4. The treasure some time for some reason gets shifted from its place or the signs of the place is forgotten by the possessor or the Naga–serpents hale it off or the spirits fritter it away.
5. उस दृश्यमान निधि को विरोधी उत्तराधिकारी उठा ले जाते है या तो जिस समय पुण्य का क्षय होता है उस समय वह निधि विनिष्ट हो जाती है l
5. The heirs whom he does not like, lift up secretly while he (true owner) does not see. The whole vanish utterly when his merit exhaust.
6. दान, शील, संयम व दमन से युक्त जो अदृष्ट पुण्य निधि एकत्र की जाती है बही उस स्त्री या पुरुष की सुनिहित निधि है l
6. A treasure store is well laid by men or women (when merits are acquired) by making gifts, by leading virtuous life or with refraining or constraint.
7. इस प्रकार से चैत्य, संघ, अतिथि ,व्यक्ति, माता पिता, भाई तथा बड़ो की सेवा सत्कार कर जो अदृश्य निधि एकत्र की जाती है वही पुण्य कर्म के कर्ता स्त्री या पुरुष की भी सुनिहित निधि है l
7. This treasure store is well laid also by offering service and honour to the shrines, to the order of the bhikkhus or to a person or to a guest or to a mother and to the father or even to the elder brother.
8. यह अदृष्ट पुण्य निधि सुरक्षित है , अजेय है , साथ जाने वाली है l प्राणी काल गति को प्राप्त हो सबको छोड़ कर परलोक जाते समय इसी निधि को लेकर जाता है l
8. This invisible treasure well store thus, is unlossable and follows inseparably the possessor wherever he goes. he goes along with this when at the moment of death he has to go abandoning all.
9. यह निधि असाधारण है , चोरो द्वारा चुराई नहीं जा सकती l इसलिय धीर पुरुष को पुण्ये कर्म कर ऐसी निधि का अधिकारी बनना चाहिये जो उसके साथ जाने वाली हो l
9. No other person can have share in it. this treasure store can not be stolen by the robbers. so let the stead-fast earn such treasure (merits) which follow (them inseparably).
10. ऐसी अदृष्ट पुण्य निधि देव-मनुष्यों को सब कुछ देने वाली है l लोग जो जो चाहते है वह इस निधि से प्राप्त हो जाता है l
10. This is the invisible treasure, which satisfies all desires of gods and man. the hope and aspirations whatever they aspire, all are fullfilled by the grace of this merit.
11. इस निधि से सुंदर वर्ण , मधुर स्वर , अच्छे आकार-प्रकार का शारीर ,सुंदर रूप, अधिपत्य और परिवार यह सब इसी निधि से ही प्राप्त होता है l
11. The beauty of fair complexion, the beauty of voice, the beauty of figure, the beauty of form and lordship and retinue, all are fullfilled by the grace of this merit.
12. इस प्रकार की निधि से प्रदेश , राज्य , ईश्वरत्व , चक्रवती सुख , प्रिय वस्तु , दिव्यो में देवराज्य - यह सब इसी निधि से ही प्राप्त होता है l
12. A local kingship, empireship and even the bliss of wheel turning monarchship and divine rule in heavenly planes of existance, all are fullfilled by the grace of this merit.
13. मनुष्य संपति , देवलोक का आनन्द और निर्वाण सुख - ये सब इससे मिलते हैं ।
13. Human excellence, delight in heavenly world and even bliss of salvation, all are fulfilled by the grace of this merit.
14. कल्याणमित्र की संगति प्राप्त कर जो प्रयत्न करता है उसे विद्या , विमुक्ति , वशीभाव - यह सब इसी निधि से ही प्राप्त होता है l
14. The excellence in friends or the devotion in right reasoning, true knowledge, deliverance, victory over other, all are fulfilled by the grace of this merits.
15. प्रतिसम्भिदा , विमोक्ष, श्रावक पारमी , प्रत्येक बोधि और बुद्ध भूमि - यह सब इसी अदृष्ट पुण्य निधि से ही प्राप्त होता है l
15. The moral mental factors, liberations, perfection of disciples too and both kinds (the individual and the supreme) of enlightment, all are fulfilled by the grace of this merit.
16. इस प्रकार की पुण्य संपत्ति महान अर्थ सिद्ध करने वाली होती है l इसलिय पंडित लोग और धीर पुरुष किये गये पुण्ये (निधि) की प्रशंसा करते है l
16. So great are the excellences that the merit alone yields. for this reason the steadfast and the wise person praise the act of the storing the merit (treasure).
खुद्दक निकाय

Wednesday, September 14, 2016

तीन गांठें

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भगवान‌ बुद्ध अकसर अपने शिष्यों को शिक्षा प्रदान किया करते थे। एक दिन प्रातः काल बहुत से भिक्षुक उनका प्रवचन सुनने के लिए बैठे थे । बुद्ध समय पर सभा में पहुंचे, पर आज शिष्य उन्हें देखकर चकित थे क्योंकि आज पहली बार वे अपने हाथ में कुछ लेकर आए थे। करीब आने पर शिष्यों ने देखा कि उनके हाथ में एक रस्सी थी। बुद्ध ने आसन ग्रहण किया और बिना किसी से कुछ कहे वे रस्सी में गांठें लगाने लगे ।
वहाँ उपस्थित सभी लोग यह देख सोच रहे थे कि अब बुद्ध आगे क्या करेंगे ; तभी बुद्ध ने सभी से एक प्रश्न किया, ‘ मैंने इस रस्सी में तीन गांठें लगा दी हैं , अब मैं आपसे ये जानना चाहता हूँ कि क्या यह वही रस्सी है, जो गाँठें लगाने से पूर्व थी ?’
एक शिष्य ने उत्तर में कहा,” गुरु जी इसका उत्तर देना थोड़ा कठिन है, ये वास्तव में हमारे देखने के तरीके पर निर्भर है। एक दृष्टिकोण से देखें तो रस्सी वही है, इसमें कोई बदलाव नहीं आया है । दूसरी तरह से देखें तो अब इसमें तीन गांठें लगी हुई हैं जो पहले नहीं थीं; अतः इसे बदला हुआ कह सकते हैं। पर ये बात भी ध्यान देने वाली है कि बाहर से देखने में भले ही ये बदली हुई प्रतीत हो पर अंदर से तो ये वही है जो पहले थी; इसका बुनियादी स्वरूप अपरिवर्तित है।”
“सत्य है !”, बुद्ध ने कहा ,” अब मैं इन गांठों को खोल देता हूँ।”यह कहकर बुद्ध रस्सी के दोनों सिरों को एक दूसरे से दूर खींचने लगे। उन्होंने पुछा, “तुम्हें क्या लगता है, इस प्रकार इन्हें खींचने से क्या मैं इन गांठों को खोल सकता हूँ?”
“नहीं-नहीं , ऐसा करने से तो या गांठें तो और भी कस जाएंगी और इन्हे खोलना और मुश्किल हो जाएगा। “, एक शिष्य ने शीघ्रता से उत्तर दिया।
बुद्ध ने कहा, ‘ ठीक है , अब एक आखिरी प्रश्न, बताओ इन गांठों को खोलने के लिए हमें क्या करना होगा ?’
शिष्य बोला ,’”इसके लिए हमें इन गांठों को गौर से देखना होगा , ताकि हम जान सकें कि इन्हे कैसे लगाया गया था , और फिर हम इन्हें खोलने का प्रयास कर सकते हैं। “
“मैं यही तो सुनना चाहता था। मूल प्रश्न यही है कि जिस समस्या में तुम फंसे हो, वास्तव में उसका कारण क्या है, बिना कारण जाने निवारण असम्भव है। मैं देखता हूँ कि अधिकतर लोग बिना कारण जाने ही निवारण करना चाहते हैं , कोई मुझसे ये नहीं पूछता कि मुझे क्रोध क्यों आता है, लोग पूछते हैं कि मैं अपने क्रोध का अंत कैसे करूँ ? कोई यह प्रश्न नहीं करता कि मेरे अंदर अंहकार का बीज कहाँ से आया , लोग पूछते हैं कि मैं अपना अहंकार कैसे ख़त्म करूँ ?
प्रिय शिष्यों , जिस प्रकार रस्सी में में गांठें लग जाने पर भी उसका बुनियादी स्वरुप नहीं बदलता उसी प्रकार मनुष्य में भी कुछ विकार आ जाने से उसके अंदर से अच्छाई के बीज ख़त्म नहीं होते। जैसे हम रस्सी की गांठें खोल सकते हैं वैसे ही हम मनुष्य की समस्याएं भी हल कर सकते हैं। इस बात को समझो कि जीवन है तो समस्याएं भी होंगी ही , और समस्याएं हैं तो समाधान भी अवश्य होगा, आवश्यकता है कि हम किसी भी समस्या के कारण को अच्छी तरह से जानें, निवारण स्वतः ही प्राप्त हो जाएगा । ” , महात्मा बुद्ध ने अपनी बात पूरी की।
जब तक हम रस्सी की गाँठो को अच्छे से देख कर समझेंगे नहीं,तब तक उसे खोल न सकेंगे।
"विपश्यना" से हम अपने मन की गाँठो को देखने,समझने और उसके बाद उन्हें खोलने का कार्य करते हैं।

Tuesday, July 26, 2016

बॉस की तरह बनो

ज़ेन गुरु जंगल की पथरीली ढलान पर अपने एक शिष्य के साथ कहीं जा रहे थे. शिष्य का पैर फिसल गया और वह लुढ़कने लगा. वह ढलान के किनारे से खाई में गिर ही जाता लेकिन उसके हाथ में बांस का एक छोटा वृक्ष आ गया और उसने उसे मजबूती से पकड़ लिया. बांस पूरी तरह से मुड़ गया लेकिन न तो जमीन से उखड़ा और न ही टूटा. शिष्य ने उसे मजबूती से थाम रखा था और ढलान पर से गुरु ने भी मदद का हाथ बढाया. वह सकुशल पुनः मार्ग पर आ गया.

आगे बढ़ते समय गुरु ने शिष्य से पूछा, “तुमने देखा, गिरते समय तुमने बांस को पकड़ लिया था. वह बांस पूरा मुड़ गया लेकिन फिर भी उसने तुम्हें सहारा दिया और तुम बच गए.”

‘हाँ”, शिष्य ने कहा.

गुरु ने बांस के एक वृक्ष को पकड़कर उसे अपनी ओर खींचा और कहा, “बांस की भांति बनो”. फिर उन्होंने बांस को छोड़ दिया और वह लचककर अपनी जगह लौट गया.

“बलशाली हवाएं बांसों के झुरमुट को पछाडती हैं लेकिन यह आगे-पीछे डोलता हुआ मजबूती से धरती में जमा रहता है और सूर्य की ओर बढ़ता है. वही इसका लक्ष्य है, वही इसकी गति है. इसमें ही उसकी मुक्ति है. तुम्हें भी जीवन में कई बार लगा होगा कि तुम अब टूटे, तब टूटे. ऐसे कई अवसर आये होंगे जब तुम्हें यह लगने लगा होगा कि अब तुम एक कदम भी आगे नहीं जा सकते… अब जीना व्यर्थ है”.

“जी, ऐसा कई बार हुआ है”, शिष्य बोला.

“ऐसा तुम्हें फिर कभी लगे तो इस बांस की भांति पूरा झुक जाना, लेकिन टूटना नहीं. यह हर तनाव को झेल जाता है, बल्कि यह उसे स्वयं में अवशोषित कर लेता है और उसकी शक्ति का संचार करके पुनः अपनी मूल अवस्था पर लौट जाता है.”

“जीवन को भी इतना ही लचीला होना चाहिए.”

साभार : हिंदी जेन 


Saturday, May 21, 2016

बुद्ध पूर्णिमा की प्रासांगिकता–श्री संजय जोठे



आज बुद्ध पूर्णिमा है। इस अवसर पर यह जानना जरूरी है कि धर्म, अध्यात्म, रहस्यवाद सहित नैतिकता की मूल प्रेरणा भारत में श्रमणों और भौतिकवादियों ने ही दी है, बाकी प्रचलित भाववादी या परलोकवादि परम्पराओं ने उनका सब कुछ चुराकर अपना ढांचा बनाया है और इस चोरी के कारण ही वे चुराई गयी मशीन की टेक्नोलॉजी की ठीक व्याख्या नहीं कर पाते और विरोधाभासी बाते कहते है। इस टेक्नोलॉजी को जन्म देने वाले श्रमण लोग भौतिकवादी थे जो आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म को नकारते हुए अनत्ता और शून्य की बात करते थे।
कई लोगों को यह बात अजीब लगेगी। लेकिन एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। बुद्ध श्रमण परम्परा के सर्वोच्च शिखर हैं इसलिए वे श्रमण दर्शन में जिस अनत्ता की प्रस्तावना करते हैं उस पर गौर कीजिये। नैतिकता, सहयोग, प्रेम और सदाचार सहित मोक्ष या निर्वाण भी तभी सम्भव है जब हम स्वयंभू और सनातन आत्मा, यानि स्व या व्यक्तित्व की निरन्तरता को नकारें और अनत्ता के अर्थ की क्षणिक और परस्पर निर्भरता को स्वीकारें।
अन्य परम्पराएँ जिन्होंने अपना सब कुछ श्रमणों से चुराया है वे बहुत सी बातों को समझा नहीं पातीं इसीलिये उन्हें हर बात में हर मोड़ पर परमात्मा, श्रद्धा और आस्था के भयानक डोज का इस्तेमाल करना होता है। जो भी धर्म आत्मा को मानेगा उसे आस्था की जरूरत अनिवार्य रूप से पड़ेगी।
अब आत्मा की सनातनता और अमरता सिखाने वाली परम्परा को देखिये। ये परम्परा आत्मा की अमरता के साथ साथ अनन्त और सनातन मोक्ष भी सिखाती है। अब मजे की बात ये है कि अगर आत्मा सनातन और अमर है तो वैसा ही अनन्त और सनातन मोक्ष संभव ही कैसे है? दो अनन्त एकसाथ कहाँ रह सकते हैं?
मोक्ष का उनके अनुसार कुल जमा अर्थ है आत्मा का परमात्मा में विलीन हो जाना। इसका मतलब हुआ कि आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप ने न बची और नष्ट हो गयी। तब वह अजर अमर कैसे रही? इसे यूँ भी समझें कि आत्मा मोक्ष के बाद आत्मा रूप में शेष रहती है या पूर्णतः नाम रूप सहित विलीन हो जाती है? इसका उत्तर देते हुए पोंगा पण्डित कहते हैं कि वह परमात्मा से एकाकार हो जाती है परमात्मा ही शेष रहता है। इसका भी अर्थ यही हुआ कि आत्मा खत्म हो गयी। तब पुनः वही सवाल कि वह अजर अमर कैसे हुई? कुछ लोग कहते हैं कि बूँद रूप आत्मा सर्वव्यापी सागर रूप परमात्मा में खो गयी। यहां भी फिर से वही समस्या है। सर्वव्यापी सागर का अर्थ ये है कि जो सबमे सब दूर व्याप्त है तब बूँद को अलग होकर अपनी स्वायत्तता की घोषणा करने का स्पेस ही कहाँ है? तब आत्मा की पृथकता की संभावना सहित परमात्मा से बिछड़ने और बाद में योग और मोक्ष की सम्भावना ही कहाँ है? बूँद अगर सागर में खो भी जाती है तो सागर रूप में बचती है या बून्द रूप में? अगर वह सागर रूप हो गयी तो अजर अमर न रही। अगर वह बूँद रूप में बच रही तो मोक्ष न हुआ। ये अंतहीन जलेबी है जो घूमती ही जाती है। इसका कोई इलाज नहीं। इसी कारण अस्पष्टता, दिशाहीनता और पाखण्ड पैदा होता है। इसीलिये भारतीय गुरु हजार मुंह से हजार तरह की बातें करते हैं इसीलिये भारतीय भगवान के चार छह आठ या दस बीस मुंह होते हैं। इसीलिये भारत में तर्क और विज्ञान पैदा ही नहीं होता। यहां सिर्फ बाबा और धर्म पैदा होते हैं।
इसे गहराई से देखें तो पता चलता है कि कुल मिलाकर अनत्ता के सिद्धांत को चुराकर जिन लोगों ने आत्मा ब्रह्म और माया का सिद्धांत रचा है वे अपनी चोरी के कर्म में ही बुरी तरह फंस गए इसीलिये गोल गोल घूमते रहते हैं। आत्मा की पृथक सत्ता की भी बात करते हैं, ब्रह्म या/और परमात्मा की भी बात करते हैं फिर आत्मा परमात्मा एक ही हैं यह भी कहते जाते हैं, कभी यह भी कहते हैं कि परमात्मा ही सब कुछ है, मोक्ष अभी और यहीं संभव है, आत्मा निरन्तर शुध्द बुद्ध है वह कभी मैली नहीं होती, फिर ये भी कहते हैं कि योग या ज्ञान साधना से आत्मा शुध्द होती है तब मोक्ष होता है इत्यादि इत्यादि। ये हजार मुंह का भगवान या गुरु है जो हजार तरह की बातें एक साथ कर रहा है। यही भारत की सनातन कोढ़ है। इसी को आधुनिक भगवान - भगवान रजनीश ने कैंसर में बदलकर लाइलाज बना डाला है।
यह सामान्य सी बात है, जब आप किसी दूसरे की टेक्नोलॉजी को चुराकर अपनी मशीन में फिट करते हैं तब कम्पेटिबिलिटी की समस्या खड़ी होती है। जैसे दूसरे का खून आपके शरीर में डालने पर एलर्जिक प्रतिरोध पैदा कर देता है। निर्वाण और शून्य सहित अनत्ता और दुःख निरोध असल में बुद्ध की टेक्नोलॉजी उनका खून है। उसे पाखण्डी धर्मों ने चुराकर अपनी मशीन में लगा तो लिया लेकिन उसका ठीक इस्तेमाल और उसकी कार्यपद्धति की ठीक व्याख्या नहीं कर पाते। इसीलिये सिद्धांतों की गोल गोल जलेबियाँ बनाते रहते हैं।
एक और बात देखिये, ये ही चोर ये भी कहते हैं कि आत्मा को न पानी गीला कर सकता न आग जला सकती न पवन सुखा सकती। फिर अगली पंक्ति में यह भी कहते हैं कि स्वधर्म में मरने से स्वर्ग का परम् भोग मिलता है। अब समस्या ये है कि जब पानी अग्नि और पवन भी आत्मा को नहीं छू पाते तब आपकी आत्मा स्वर्ग की अप्सराओ को और सुस्वादु भोजन को स्पर्श करके कैसे भोगेगी? क्या यह वर्चुअल वर्ल्ड का काल्पनिक भोग होगा? अगर वर्चुअल वर्ल्ड का भोग है तो वो तो आँख बन्द करके कल्पना में अभी और यहीं हो जायेगा, तब योग साधना इत्यादी की जरूरत ही क्या? और अगर स्वर्ग में अप्सरा के लालच से यहां ब्रह्मचर्य और सदाचार पालन किया तो उसका मूल्य ही क्या हुआ? सीधे कहें तो मतलब हुआ कि स्वर्ग में ज्यादा सेक्स करने के लिए जमीन पर कम सेक्स को त्याग दिया, अब यह भी कोई त्याग हुआ? जिस काम को जमीन पर पाप बनाया है वही स्वर्ग में सबसे बड़ा पुरस्कार कैसे बन सकता है?
ये गजब की जलेबियाँ हैं जिन्हें हजारों साल से कोई सीधा नहीं कर पाया।
अब बुद्ध की अनत्ता पर आते हैं और इन प्रश्नों का उत्तर देखते हैं।
बुद्ध के अनुसार सब कुछ आभासी है क्षणिक हैं और कहीं कोई सनातन निरन्तरता नहीं है। सब कुछ गठजोड़ से बना है। कोई आत्यंतिक सत्ता नहीं है। आपका शरीर दूसरों के शरीर के अवशेषों के गठजोड़ से बना है। माता पिता के शरीर के गठजोड़ से और भोजन के भण्डार से बना है। भोजन भी किसी अन्य पेड़ या जानवर का शरीर का गठजोड़ ही है जो पुनः किन्ही अन्य गठ्जोड़ पर निर्भर है। इस तरह यह शरीर हजारों अन्य शरीरों का विस्तार मात्र है जिसकी कोई आत्यंतिक निजता या स्वतन्त्र सनातन व्यक्तित्व नहीं है। वह सिर्फ एक गठजोड़ है, एक असेम्बल्ड रचना है जिसे अपने होने का झूठा आभास होता है। जवानी में जवान होने का आभास, बुढ़ापे में बूढ़े होने का आभास, न तो जवानी सनातन न बुढ़ापा सनातन।
इसी तरह आपका मन है जिसे आप स्व या व्यक्तित्व कहते हैं। वह भी समाज, परिवार, शिक्षा, परम्परा से आपको मिला है। उन सबके दिए हुए संस्कार और प्रवृत्तियों ने उस चीज को निर्मित किया है जिसे आप अपना होना कहते हैं। यह भी एक असेम्बल्ड रचना है जो लाखों अन्य चीजों पर निर्भर है, उसमे अपनी कोई विशिष्ट पहचान नहीं है। न ही उसकी कोई एक प्रवृत्ति है। अच्छा मिल गया तो सुख, न मिला तो दुःख। न दुःख सनातन न सुख सनातन। सब टेम्परेरी मूड्स हैं। आये और गए। ऐसे ही आपके रुझान, पसन्द और शुभ अशुभ भी उधार और टेम्परेरी हैं। कहीं कोई निरन्तरता और सनातनता नहीं है। अगर आप मुस्लिम घर में जन्मते तो मांसाहार या ब्रह्मचर्य के प्रति आपके विचार किसी जैन की तरह नहीं होते। आपके विचार सहित आपका विश्लेशण भी आपका नहीं बल्की लाखों अन्य घटनाओं परम्पराओं इत्यादि का परिणाम है।
तब "आप" या "आपका स्व" या यह तथाकथित आत्मा क्या चीज है?
बुद्ध इसे कोई नाम नहीं देते। वे इसे खारिज कर देते हैं और एक अनुपस्थिति यानी निर्वात या शून्य के अर्थ में सच्चाई को समझाते हैं। उनके अनुसार व्यक्तित्व की निरन्तरता के अर्थ में कोई आत्मा नहीं होती। जो भी दीखता या अनुभव होता है वह सब कुछ असेंबल्ड है, आत्यंतिक रूप से स्वतन्त्र सत्ता कहीं नही है। असेम्बल्ड शरीर और असेम्बल्ड मन के इस गठजोड़ को हम स्व या आत्म कहते हैं। इसी मे एक झूठे व्यक्तित्व या आत्मा का आभास होता है जो असल में तादात्म्य के कारण होता है। इस तादात्म्यजन्य आभास को अविद्या कहा गया है, इसी को चुराकर शंकर ने माया का सिद्धांत रच डाला लेकिन ये ही शंकर फिर माया और ब्रह्म के आपसी संबन्ध और उसकी विचित्रता को नहीं समझा सके। ब्रह्म शुभ का सर्जक है लेकिन माया ठगिनी है और मजा ये कि माया ब्रह्म की ही शक्ति है। अब ये क्या बात हुई? इसका मतलब हुआ कि एक भले आदमी की शक्ति यानि उसका हाथ उसकी मर्जी के बिना हत्या कर रहा है। क्या यह संभव है?
बुद्ध के अनुसार व्यक्तित्व की इस झूठी प्रतीति से ही दुःख का जन्म होता है और उस प्रतीति से बाहर निकलकर इस असेम्बल्ड सत्ता को खण्ड खण्ड देख लेना ही ज्ञान है। यही निर्वाण है। न तो कोई आत्मा पहले थी न बाद में बचती है। जैसे लकड़ी के टुकड़ों के जोड़ से कुर्सी बनती है, उस कुर्सी को आभास हो सकता है कि उसका कोई व्यक्तित्व या स्व या आत्मा है। लेकिन वह लकड़ी के ढेर से बनी और उसी में बिखर जायेगी। बीच में जो तथाकथित व्यक्तित्व या आत्मभाव जन्मा वह झूठा और टेम्पोरेरि है उसमे कुछ अजर अमर नहीं है। इसी कुर्सी के टुकड़े बाद में अन्य कुर्सी टेबल खिड़की दरवाजों इत्यादि में इस्तेमाल हो जायेंगे तब उस खिड़की इत्यादि को फिर से अपने व्यक्तित्व के होने का झूठा आभास होगा। बस यही निरन्तर चक्र चलता रहेगा। यही इंसान की, उसके झूठे स्व या आत्म का जीवन और उसकी तथाकथित आत्मा सहित पुनर्जन्म की वास्तविकता है।
अब चूँकि कोई सनातन आत्मा या स्व है ही नहीं इसलिए बीच में उग आये इस झूठे स्व से मुक्ति संभव है इसका नाश संभव है। सनातन या अजर अमर का नाश सहित दुःख निरोध कैसे संभव है? सिर्फ टेम्पोररि या आभासी का ही नाश संभव है। इसीलिये निर्वाण या दुःख निरोध संभव है।
यही बुद्ध धर्म का केंद्रीय दान है।
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सभी मित्र इसे ठीक से समझें और दूसरों को समझाएं। उन्हें विरोधाभासों, पाखण्ड और अनिर्णय, असमंजस से बचाएं।

साभार :

श्री संजय जोठे















Friday, May 13, 2016

जम्मू कश्मीर के अंबारां में था नालंदा से भी बड़ा बौद्ध महाविहार


चार संस्कृतियों का संगम रहा है यह स्थान
30 एकड़ है नालंदा का क्षेत्रफल
99 मीटर लंबे और 33 मीटर चौड़ाई में हुई है अंबारां में खोदाई
चिनाब नदी के किनारे अखनूर के पास अंबारां में कभी बिहार के नालंदा विश्वविद्यालय और महाविहार से भी बड़ा महाविहार था। हालांकि, अभी इस पूरे इलाके की पूरी खोदाई होनी बाकी है। इस  इलाके की भौगोलिक स्थिति बताती है कि यहां कई प्राचीन संस्कृतियों और सभ्यताओं के अवशेष छिपे हैं।

यह स्थान इसलिए भी खास है कि यहां हुई खोदाई में विशेष किस्म की एक मंजूषा (कास्केट) मिली है। इसमें कुछ रत्नों के साथ ही किसी मनुष्य के अवशेष मिले हैं। इसमें राख और अस्थियों के कुछ टुकड़े हैं।

करीब डेढ़ दशक पहले भारतीय पुरातत्व सर्वे (एएसआई) द्वारा यहां की गई खोदाई में चार प्रमुख संस्कृतियों के अवशेष मिले हैं। इनमें प्री कुषाण काल ईसा पूर्व पहली शताब्दी, ईसा पूर्व पहली से तीसरी शताब्दी तक कुषाण काल, चौथी-पांचवीं सदी गुप्त काल और गुप्त काल के बाद छठवीं से सातवीं शताब्दी के अवशेष मिले हैं।

इनमें टेराकोटा की मूर्तियां, मास्क कुछ लोहे के औजार और कई स्तूपों के अवशेष मिले हैं। अगस्त 2014 में इस स्थान के महत्व को देखते हुए बौद्ध गुरु दलाईलामा भी यहां की यात्रा कर चुके हैं।

साभार : http://www.amarujala.com/jammu-and-kashmir/ambarn-buddhist-monastery-was-bigger-than-nalanda-monastery


Friday, April 29, 2016

पाकिस्तान: महापरिनिर्वाण को दिखाती गौतम बुद्ध की सबसे बड़ी प्रतिमा मिली

हरिपुर (पाकिस्तान)। पाकिस्तान में खुदाई के दौरान गौतम बुद्ध की सबसे बड़ी प्रतिमा मिली है। खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में स्थित भामला में खुदाई के दौरान गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण को दिखाती उनकी सबसे बड़ी प्रतिमा मिली है। इसके साथ ही यहां एक ऐसी प्रतिमा भी मिली है, जिसमें भगवान बुद्ध के दो आभामंडल दर्शाए गए हैं। पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग के महानिदेशक डॉ अब्दुल समद ने पत्रकारों को बताया कि पुरातत्व वेत्ताओं को खुदाई के दौरान ये दो दुर्लभ मूर्तियां मिली हैं।

महापरिनिर्वाण को दर्शाती भगवान बुद्ध की प्रतिमा 14 मीटर लंबी है और यह 15 मीटर लंबे एक बड़े प्लेटफार्म पर स्थापित है। प्रतिमा का दायां पैर और बाएं पैर का कुछ हिस्सा, तलवे और कंधे हैं। पैर धोती से ढका हुआ है। उन्होंने बताया कि गांधार क्षेत्र में पहली बार ऐसी प्रतिमा मिली है। यह खोज यूनेस्को के भामला स्थित विश्व वरासत स्थल पर की गयी खुदाई के दौरान हुई है।

साभार : http://m.bhaskar.com/news/INT-PAK-statue-depicting-death-scene-of-buddha-discovered-in-pakistan-4932918-NOR.html


Friday, March 18, 2016

रूकमिनी टीले की खुदाई में मिली भगवान बुद्ध की मूर्तियां

बिहारशरीफ/सिलाव : भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के उत्खनन शाखा द्वारा नालंदा के रूकमिनी  स्थान में की जा रही खुदाई के दौरान भगवान बुद्ध की दो मूर्तियां एवं अन्य  सामग्री मिली हैं.
खुदाई से निकली भगवान बुद्ध की तीन-तीन फुट की दो  मूर्तियां हैं. इसके अलावा कई चैत स्तूप, कमरे, मिट्टी के बरतन के टुकड़े  भी मिले हैं. यह स्थल प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय से जुड़ा हुआ माना जाता  है।

खुदाई में भगवान बुद्ध की मूर्तियों के साथ ही दो चैत स्तूप, करीब एक  दर्जन कमरे, गलियारा के अलावा मिट्टी के वर्तन के जले हुए टुकड़े आदि मिले  हैं. रूकमिनी स्थान टीले का इतिहास 450 ई. पूर्व कुमार गुप्त, हर्ष वर्धन  एवं पाल वंश के शासकों से जुड़ा हुआ माना जाता है. उसी समय प्राचीन नालंदा  विश्वविद्यालय का निर्माण हुआ था.
रूकमिनी स्थान टीले की खुदाई दूसरी बार  करायी जा रही है. खुदाई कार्य का सर्वेक्षण करने के लिए शनिवार को केंद्रीय  पुरातत्व विभाग के निदेशक सुनंदा श्रीवास्तव रूकमिनी स्थान पहुंचे।

साभार : प्रभात खबर 


Tuesday, February 16, 2016

सबसे बहुमूल्य भेंट



कई दिनों के विहार के बाद भगवान बुद्ध मगध की राजधानी राजगृह से प्रस्थान करने वाले थे। लोगों को पता चला, तो वे उनके लिए भेंट आदि लेकर उनके दर्शन के लिए आने लगे। अपने शिष्यों के साथ बैठे बुद्ध लोगों की भेंट स्वीकार कर रहे थे।
सम्राट बिंब‌िसार ने उन्हें भूमि, खाद्य, वस्त्र, वाहन आदि दिए। नगर सेठों ने भी उन्हें प्रचुर धन-धान्य और सुवर्ण आभूषण भेंट किए। उस दान को स्वीकार करते हुए बुद्ध अपना दायां हाथ उठाकर इशारा कर देते थे।
भीड़ में एक वृद्धा भी थी। वह बुद्ध से बोली, भगवन, मैं बहुत निर्धन हूं। मेरे पास देने के लिए कुछ भी नहीं है। आज मुझे पेड़ से गिरा यह आम मिला। मैं उसे खा रही थी कि तभी आपके प्रस्थान का समाचार सुना। तब तक मैंने आधा आम खा लिया था। मेरे पास इस आधे आम के सिवा कुछ भी नहीं है। क्या आप मेरी भेंट स्वीकार करेंगे?
वहां उपस्थित अपार जनसमुदाय और सेठों ने देखा कि भगवान बुद्ध अपने आसन से उठकर नीचे आए और उन्होंने दोनों हाथ फैलाकर वृद्धा का आधा आम स्वीकार किया। सम्राट बिंब‌िसार ने चकित होकर बुद्ध से पूछा, भगवन, एक से बढ़कर एक अनुपम और बहुमूल्य उपहार तो आपने केवल हाथ हिलाकर ही स्वीकार कर लिए, लेकिन इस वृद्धा के जूठे आम को लेने के लिए आप आसन से नीचे उतरकर आ गए! इसमें ऐसी क्या विशेषता है?
बुद्ध मुस्कराए और बोले, इस वृद्धा के पास जो भी था, वह सब उसने दे दिया। आप लोगों ने जो कुछ भी दिया है, वह तो आपकी अकूत संपत्ति का ही अंश है। उसे देने पर दाता का अहंकार भी पाल लिया। इस वृद्धा ने तो प्रेम और श्रद्धा से सर्वस्व अर्पित कर दिया। फिर भी उसके मुख पर कितनी नम्रता और करुणा है।


Friday, February 12, 2016

निर्धन कौन ?



एक गरीब आदमी ने भगवान् बुद्ध से पूछा :- "मैं इतना गरीब क्यों हूँ.?",
बुद्ध ने कहा :- "तुम गरीब हो, क्योंकि तुमने देना नहीं सीखा.!"
गरीब आदमी ने कहा :-
"परन्तु मेरे पास तो देने के लिए कुछ भी नहीं है.!"
बुद्ध ने कहा :- "तुम्हारा चेहरा, दूसरों को एक मुस्कान दे सकता है। तुम्हारा मुँह, किसी की प्रशंसा कर सकता है या दूसरों को सुकून पहुंचाने के लिए दो मीठे बोल बोल सकता है। तुम्हारे हाथ, किसी ज़रूरतमंद की सहायता कर सकते हैं......
और तुम कहते हो तुम्हारे पास देने के लिए कुछ भी नहीं.?"
"मन की गरीबी ही वास्तविक गरीबी है। पाने का हक उसी को है.......जो देना जानता है ......... !!"


Friday, February 5, 2016

बुद्ध का पड़ाव देख भावुक हुए विदेशी भिक्षु

सिवान। सिवान के प्राचीन इतिहास में दर्ज बातें बौद्ध ग्रंथ व चीनी तीर्थ यात्रियों द्वारा वर्णित लेख तथा पुरातात्विक साक्ष्य व अवशेषों के आधार पर सिवान बौद्ध स्थल का बहुत बड़ा हब रहा है। विगत वर्ष पपउर में पुरातत्व विभाग द्वारा उत्खनन व तितर स्तूप के पास बौद्धकालीन मृदुभाण्ड व खंडित बुद्ध मूर्ति मिलना चर्चा का विषय बना हुआ है तथा अब विदेशी बौद्धों को भी आकर्षित कर रहा है। इसी क्रम में दो दिवसीय प्रवास पर आए विदेशी बौद्धों ने सोमवार की सुबह जीरादेई प्रखंड के तितरा गांव में स्थित तितर स्तूप व अन्य स्तूपों को दर्शन कर आस्था से ओतप्रोत होकर भावुक हो गए। वहां के मिट्टी भी अपने साथ ले गए। पपउर व विजयीपुर गांव में भारतीय संस्कृति के अनुसार विदेशी मेहमानों का भव्य स्वागत किया गया। तितर स्तूप व मुकुट बंधन मुईयागढ़ के पास प्रचुर मात्रा में बौद्धकालीन मृदभाण्ड व मिट्टी के बुद्ध मूर्ति को देखकर विदेशी बौद्ध काफी उत्सुक हुए तथा सिवान ही प्राचीन कुशीनारा विषय पर शोध कर रहे शोधार्थी कृष्ण कुमार सिंह से काफी चर्चा किए। शोधार्थी ने दर्जनों पुस्तकों पुरातत्ववेदाओं का लेख का रीफ्रेंस बौद्धकालीन पुरातात्विक अवशेष को दिखाकर विदेशी पर्यटकों को संतुष्ट किया। वियतनाम से आयी माता बोधी चिंता ने कहा कि वाकई यह शोध का विषय है। श्रीमती माता ने बताया कि बौद्ध ग्रंथों के अध्ययन व यहां प्राप्त पुरातात्विक अवशेषों से सिवान में प्राचीन कुशीनारा होने की प्रबल संभावना है। गया महाबोधी मंदिर के मुख्य भन्ते अशोक भन्ते ने कहा कि सिवान में पपउर (पावा), ककुत्या (दाहानदी), हिरण्यवती (सोना नदी), शालवन का प्रतीक तितरा बंगरा वागवान का अपभ्रंश बंगरा व अन्य गांव क्रमश: महुआबारी, गुलरबग्गा, मालक नगर (मालक-वन), सिसहानी, सेलरापुर, पिपरहियां आदि सब गांव शालवान (वन) का ही सूचक है। तितरा गांव स्थित तितरा स्तूप, हिरणस्तूप (हिरणौली टोला), व्रजपाणी स्तूप (वाणीगढ़), मुकुट बंधन (मुईयागढ़) आदिर दर्जनों साक्ष्य यहां तीन विशाल स्तूप जो आज भी 30 से 40 फीट ऊंचा तथा इसके गर्भ में बौद्धकालीन अवशेषों का भंडार होना निश्चित ही शोध का विषय है। 
साभार : दैनिक जागरण 11 जनवरी 2016 


Monday, January 25, 2016

स्थितप्रज्ञाता

।। स्थितप्रज्ञाता ।।


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जीवन को हम किस दृष्टिकोण से देखते है यह "प्रज्ञा" पर निर्भर होता है।
क्या होती है "प्रज्ञा"? किसको कहते है "स्थितप्रज्ञ " होना?

अपने भीतर की क्षण-प्रतिक्षण की सच्चाई "अनित्य-बोध" हर अवस्था में जानते हुए "ज्ञान" में स्थित रहना ही "स्थितप्रज्ञता" कहलाती है।

गीता श्लोक : " उत्क्रमन्तं स्थितंवापि भुंजङ्ग वा गुणान्विता, गुणान्विता, विमूढा नानु पश्यंती, पश्यंती ज्ञानचक्षुस।

(गीता में यह जो, पश्यन्ती, पश्यति, विपश्यति, विचक्षति आदि शब्द है वह विपश्यना से देखने के बारें में है, केवल बौद्धिक पाठ-पठन से ज्ञान नही होता)

केवल पाठ करने से, चिंतन-मनन करने से कोई स्थितप्रज्ञ नही होता। मन-मानस के और शारीर के परस्पर संपर्क से होनेवाले प्रपंच को"द्रष्टाभाव " से "साक्षीभाव" से देखने को, उसके गुणोंको जानने से व्यक्ति "प्रज्ञावान" होता है। ज्ञानचक्षु से यह देखने से, विपश्यना ठीक से होती है। और यह अनुभूति हर अवस्था में कायम रहे, इसे " स्थितप्रज्ञ" कहते है।
इसके लिए काम करना होता है। मेहनत करने से, पुरुषार्थ करने से होता है। जो प्रज्ञा में स्थित है वह स्थितप्रज्ञ है।

अपने भीतर की " सच्चाई" को एक वैज्ञानिक की तरह अनुभूति के स्तर पर निरंतर जानते रहना ही
"स्थितप्रज्ञता" है।
जो भीतर सच्चाई है वही बाहर सच्चाई है। भीतर का जो प्रपंच है वह ज्यादा महत्वपूर्ण है। शरीर के सारे हिस्से में प्रतिक्रियाविहीन, द्रष्टाभाव से निरीक्षण करते हुये, "राग-द्वेष" की प्रतिक्रिया न करते हुए स्थितप्रज्ञ रहने का काम होगा तो कल्याण ही कल्याण है।

मन के विकारों से नितांत मुक्त होना ही सही मुक्ति है।

मन-मानस की जड़ों तक जाकर के उसकी शुद्धि करना ही उत्तम मंगल है।जड़ों से स्वाभाव को पलटते रहे। अपने भीतर सच्चाई के अनेक पट होते है। वह पट, अवगुंठन एक एक करके समाप्त होते है।विकारों से मुक्ति पाने के लिए परिश्रम, पुरुषार्थ करना होता है। कोई देवी-देवता आशीर्वाद देके, कृपा करके हमें मुक्त नही कर सकते। स्वयं प्रयास करने से होता है।

अज्ञान के, अविज्ञा के अंधकार से ,भीतर की प्रज्ञा जगाते हुए, प्रकाश की और जाना ही सही दीपावली पर्व मनाना कहलाता है। बाकी बातें प्रतीकात्मक ही है।

कहे कबीर, हरी ऐसा रे, जब जैसा तब तैसा रे....
घुंगट के पट खोल रे, तुझे पिया मिलेंगे....

इस क्षण की जो भी सच्चाई है, जैसी भी सच्चाई है, हम अनुभव करते रहते है उसे उसी प्रकारसे जानते रहना है, ऐसे करते करते तो हमें अवश्य अंतिम सच्चाई के दर्शन से, अंतिम सत्य प्राप्त होता है। जीसे की संत कबीर "हरी" के नाम से पुकारते है।

अपने पुरुषार्थ से असीम पराक्रम से सिद्धार्थ-गौतम जब बोधि प्राप्त होकर "सम्यक-सम्बुद्ध" बने तो
बुद्ध के पहले उदान वाक्य थे,
" पुब्बे अनंसुत्तेसु धम्मेसु, चक्खूं उत्पादि, ज्ञानं उत्पादि, पञ्ञ उत्पादि, विज्ञा उत्पादि,आलोको उत्पादि".....

अर्थात, (मेरे इस पुरुषार्थ से) पहले कभी सुना नहीं, देखा नही ऐसा धर्म (धम्म)( "सत्य"), उतप्न हुआ। ज्ञानचक्षु खुल गये, ज्ञान की उत्पत्ति हुई, प्रज्ञा प्राप्त हुई, विज्ञा प्राप्त हुई, आलोक उत्प्नन हुआ माने भीतर ज्ञान का प्रकाश उत्प्नन हुआ।

अपने उपास्य देवी-देवताओं के गुणों का अनुसरण करना ही सही धर्म है। दान-धर्म का अनुसरण करना ही लक्ष्मी देवी की सही पूजा है। (धन का संग्रह करना नही)। हमें जो भी मिलता है, उसका एक हिस्सा समविभाग करके दान देना चाहिए। जिस समाज से आता है उसे वापस करना चाहिए। यही सही लक्ष्मीपूजन कहलाता है।

विद्याभ्यास के साथ साथ पूण्य पारमिता अर्जित करना आवश्यक है। बोधि के अंग विकसित हो इसलिए पारमिता की पूर्ति होना आवश्यक होता है। यही (आर्य अष्टांगिक मार्ग) सद्धर्म है।

(प्राचीन भारत की अर्थव्यवस्था दान-धर्म की परंपरा से समृद्ध होती थी न की Tax कर प्रणाली से। इससे समाज में गरीबी नही रहती। समाज सशक्त रहता है।
दान-धर्म बलवान हो।)

भवतु सब्ब मङ्गलं !

साभार

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Prashant Ramdas Mahale

Friday, January 1, 2016

चेतनाकरणीयसुत

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--------|| चेतनाकरणीयसुत ||-----------------
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भिक्षुओ, जो शील-सम्पन्न हैं, सदाचारी है उसे यह इच्छा करने के आवश्यकता नहीं होती कि मुझे पश्चाताप न हो l भिक्षुओ यह स्वाभाविक धर्म है कि जो शील-सम्पन्न है, जो सदाचारी है उसे पश्चाताप न हो l
भिक्षुओ जिसे पश्चाताप नहीं होता, उसे यह इच्छा करने के आवश्यकता नहीं होती कि मुझे प्रमुद्ता हो l भिक्षुओ यह स्वाभाविक धर्म है कि जिसे पश्चाताप न हो उसे प्रमुद्ता हो l
भिक्षुओ, जिसे प्रमुद्ता हो उसे यह इच्छा करने के आवश्यकता नहीं होती कि मुझे प्रीति उत्पन्न हो l भिक्षुओ यह स्वाभाविक धर्म है कि जिसे प्रमुद्ता हो उसे प्रीति उत्पन्न हो l
भिक्षुओ, जिसे प्रीति उत्पन्न हो उसे यह इच्छा करने के आवश्यकता नहीं होती कि मुझे प्रश्रब्धि उत्पन्न हो l भिक्षुओ यह स्वाभाविक धर्म है कि जिसे प्रीति प्राप्त हो उसे प्रश्रब्धि उत्पन्न हो l
भिक्षुओ, जिसे प्रश्रब्धि प्राप्त हो उसे यह इच्छा करने के आवश्यकता नहीं होती कि मुझे सुख प्राप्त हो l भिक्षुओ यह स्वाभाविक धर्म है कि जिसे प्रश्रब्धि प्राप्त हो उसे सुख उत्पन्न हो l
भिक्षुओ, जिसे सुख प्राप्त हो उसे यह इच्छा करने के आवश्यकता नहीं होती कि मुझे समाधी प्राप्त हो l भिक्षुओ यह स्वाभाविक धर्म है कि जिसे सुख प्राप्त हो उसे समाधी प्राप्त हो l

साभार :

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शेखर  वर्मा