Wednesday, April 29, 2015

चीन : दान से बना है दुनिया का सबसे बड़ा बौद्ध रिहायशी स्कूल

 
 
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बीजिंग. चीन के चेंगदू से करीब 600 किमी दूर यह स्कूल 1980 में एक इमारत में शुरू हुआ था। अब फैलकर कस्बे में बदल गया है। कस्बे का निर्माण सिर्फ दान से हुआ है।
नाम है लारुंग गार बुद्धिस्ट एकेडमी। यह दुनिया का सबसे बड़ा रिहायशी बौद्ध स्कूल है। यहां पर तिब्बत के पारंपरिक बौद्ध शिक्षा का अध्ययन करने के लिए कई देशों से बच्चे आते हैं। यहां सभी घरों के रंग लाल और भूरे हैं। लड़के-लड़कियों के रहने वाले इलाकों को सड़कों से बांटा गया है।
बुद्धिस्ट एकेडमी के कुछ तथ्य :
40,000 छात्र रहते हैं यहां पर
12,500 फीट ऊंचाई पर बसा है
टीवी देखना यहां पर बैन है, लेकिन स्मार्टफोन की अनुमति है
ज्यादातर बच्चों के पास सेकंड हैंड आईफोन जरूर मिल जाएगा
साभार : http://infomerciallist.com/detail.html?query=Largest-Buddhist-academy-Larung-Gar-which-made-up-of-monks-help-of-Donation







Tuesday, April 28, 2015

बुद्ध की एक मूर्ति के अंदर भिक्षु की ममी पायी गयी ।

ममी

नीदरलैंड में ड्रेंथे के ऐतिहासिक संग्रहालय के कर्मचारियों ने एक चौंकाने वाला आविष्कार किया है।

बैठे हुए बुद्ध की एक चीनी प्रतिमा के अंदर भिक्षु की ममी पायी गयी। इस का पता तब चल गया जब मूर्ति की बहाली करते वक्त उसको एक सीटी स्कैनर में रखा गया। अब यह प्रतिमा बुडापेस्ट के एक संग्रहालय में प्रदर्शित की जा रही है जहां वह 2015 के मई तक प्रदर्शित रहेगी।
शोधकर्ताओं ने टोमोग्राफी के समय प्राप्त छवियों में एक ममी को देखा। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह ममी चीनी भिक्षु  लूत्सुआन की है जिसकी मौत 1100 ईस्वी के आसपास चीन में हुई थी। प्रतिमा की जांच करते वक्त इस बात का पता लगाया गया कि ममीकरण के समय शरीर के आंतरिक अंग हटाये गये थे जिसके बाद उसको कागज़ के छोटे छोटे टुकड़ों से भर गया, जिन पर प्राचीन चीनी अक्षर लिखे हुए हैं।
वैज्ञानिकों ने पता लगाया कि भिक्षु की ममी ग्यारहवीं या बारहवीं शताब्दी में बनायी गयी थी। यानी वह लगभग एक हजार साल पुरानी है।

साभार  : http://hindi.sputniknews.com/vishv/20150302/1013625844.html#ixzz3YZB33HmI

Sunday, April 26, 2015

टाइगर नेस्ट बुद्धिस्ट मोनेस्ट्री ,भूटान

टाइगर नेस्ट बुद्धिस्ट मोनेस्ट्री ,भूटान 
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Taktshang2
टाइगर'स नेस्ट बुद्धिस्ट भूटान में पारो वैली में एक सीधे पहाड़ की चोटी पर स्थित है। और यह मोनेस्ट्री समुद्र तल से 3,000 मीटर ऊपर है ,यह मोनेस्ट्री को पहली बार 1692 में बनाया गया था,कहा ऐसा जाता है यह वह स्थान पर बनी है जहा बौद्ध गुरु पद्मसंभव ने 8 वीं सदी में तीन साल, तीन महीने, तीन सप्ताह, तीन दिन तक ध्यान किया था और वही स्थान पर यह मोनेस्ट्री है। भूटान में यह मान्यता है की हर भूटानी व्यक्ति को कम से कम एक बार इस स्थान पर आना ही चाहिए ,बौद्ध गुरु पद्मसंभव को ही भूटान में बौद्ध धर्म के प्रसार का श्रेय जाता है
साभार : http://buddhkathaiye.blogspot.in/



Saturday, April 25, 2015

दो पल शांति के ….

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यह देखने की बात है कि कहानियों के मूल तत्व को कौन किस रुप मे लेता है। मेरी पिछ्ली कहानी , “ जो हो चुका , सो हो चुका “ को ही लें । पर्थ मे मैने यह कहानी एक सभागार में श्रोतागणॊ को सुनाई । उसके अगले ही दिन एक कम उभ्र के लडके के माता – पिता बहुत ही क्रोध मे भरे हुये मेरे पास आये और बोले कि यह आप कैसी कहानियाँ सुनाकर लोगो को दिग्भ्रमित कर रहे हैं । कल शाम को जब  मेरा लडका  अपने मित्रों के साथ घूमने  को जाने के लिये निकला तब मैने उससे पूछा कि क्या तुमने अपना होम वर्क पूरा कर लिया है । वह कहने लगा , “  डैड , कल आपने विहार में अजह्न्ह ब्रह्म को सुना होगा , उन्होने ही कहा था ‘ जो हो चुका है वह समाप्त हो गया । ’
मै एक और कहानी से पिछ्ली कहानी को समझाने की कोशिश करता हूँ ।
आस्ट्रेलिया मे अधिकतर लोग घरों में बगीचे का प्रावाधान अवशय  रखते हैं । लेकिन कुछ ही लोग हैं जो उस बगीचे में अपने लिये दो पल सूकून का निकाल पाते होगें । अधिकतर लोगों के लिये बगीचा सिर्फ़ कार्य करने की जगह मात्र हैं । मै अधिकतर लोगों को सलाह देता हूँ वह अपने बगीचे की सुन्दरता  के लिये उसका पालन  पोषण अवशय  करे लेकिन उसके साथ ही अपने दिल के पालन पोषण के लिये अपने बाग मे कुछ देर शांति से बैठ कर प्रकृति की सुन्दरता का आनन्द अबशय लें ।
अब देखे कि चार गृहस्थ  मालियों ने इस वक्तत्व को  कैसे  समझा ।
पहले माली ने सोचा कि पहले बचे हुये सारे कामों को  निपटा लें उसके पश्चात शांति से दो पल बगीचे में बैठेगे । आखिरकार बाग की कटाई करनी थी , पौधो मे पानी देना था और पत्तियों और झाडियों की छ्टाई भी करनी थी । उसके बाद जो समय बचेगा उसमें शांति के दो पल ढूंढ लेगें । लेकिन उसका काम अन्त तक समाप्त नही हुआ इसलिये उसके  शांति और सूकून के दो पल नही मिल पाये । वैसे आपने भी अपनी संस्कृति मे देखा  होगा कि जो लोग शांति की तलाश करते रहते है उनकी तलाश कब्र मे ही जाकर पूरी होती है ।
दूसरा माली पहले माली से अधिक चतुर निकला । उसने कताई और छ्टाई के औजारों को किनारे किया , पानी के  डिब्बों को एक तरफ़ रखा और आराम से एक कुर्सी में बौठकर  अपनी मन पसंन्द पत्रिका को पढने लगा । लेकिन यह तो पत्रिका को पढने का आनंद लेना था , सूकून उससे कोसों दूर था ।
तीसरे माली ने बागवानी के सारे औजार , पत्रिकायें , समाचार पत्र को किनारे रखा और  दो सेकन्ड के लिये बाग में शांन्ति से बैठ गया । कुछ ही देर बाद उसने सोचना शुरु किया , “ अब मुझे इस मैदान कि लवाई शुरु कर देनी चाहिए , झाँडियां की भी कँटाई – छ्टाई करनी है और अगर मै इन पौधॊ को पानी नही दूँगा तो यह फ़ूल तो मुर्झाने की कगार पर खडे हो जायेगें । ” उसके शांति और सूकून के पल विचारों और योजना बनाने मे ही निकल गये । लेकिन हाँ , शांन्ति नही मिली ।
चौथा माली ने विचार किया , “ चलो काफ़ी काम हो गया है , कुछ देर सूकून से बैठते हैं। हाँलाकि , झाडियों और पेडो की कटाई – छ्टाई करनी है , लेकिन यह सब तो बाद मे भी हो जायेगा लेकिन अभी यह सब काम बिल्कुल नही …। ”
मेरी नजर मे चौथा माली ही समझदार निकला , हाँलाकि वह यह जानता था कि उसका बाग अभी परिपूर्ण नही है लेकिन इसके बावजूद वह आगे की न सोचकर , जो हो चुका है उसमे संतोष कर पाया ।
जीवन के परिपेक्ष मे इसको देखें , जो काम आगे का रह गया है , इसकी व्यर्थ मे चिंता न कर के जो हो चुका है उसमे संतोष और आनन्द ले तब ही जीवन मे वास्तविक शांन्ति पा सकते हैं । अगर हम अपनी और दूसरों की कमियों को देखते रहेगे और अगर हम जीवन को हमेशा व्यवस्थित करने मे अपनी उर्जा लगायेगे तो हमे सूकून के उन पलो का हमेशा अभाव रहेगा ।
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अजह्न्ह ब्रह्म की पुस्तक , “ Who ordered this truckload of Dung ? “ मे से ली गई कहानी “ the idiot’s guide to peace of mind ” का हिन्दी अनुवाद ।

Friday, April 24, 2015

सबसे सुंदर ध्वनि की संरचना

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एक पहाडी गाँव के अशिक्षित वृद्ध को पहली बार शहर आने का मौका मिला । उसकी पूरी जिन्दगी दूरदराज के पहाडी गाँव मे बीती । बचपन उसका तकलीफ़ों मे बीता , अपने बच्चॊं को पाल पोस के बडा किया और जब उसके बच्चे शहर मे बस गये तो उनके अनुरोध पर वह पहली बार उनके नये घर को और उनकी रहन सहन को देखने शहर की ओर चल पडा ।
एक दिन उस नये शहर मे घूमते हुये उसने दूर से आती हुई बहुत ही कर्कश आवाज सुनी । उसने ऐसी कर्कश आवाज अपने शांत पहाडी गाँव मे पहले कभी नही सुनी थी । उसका मन   उस आवाज के स्त्रोत को जानने का हुआ । आवाज का पीछा करते-२ वह एक कमरे कॆ पीछे के हिस्से मे पहुँचा जहाँ उसने एक बच्चे को वाइलन बजाते देखा । “ हाँ, फ़टी सी यह बेसुरी आवाज इसी यंत्र से आ रही है । ”   उसने सोचा ।
उसके पुत्र ने उसको बताया कि यह यंत्र “ वाइलन “ है तब उस वृद्ध ने यह निर्णय किया कि वह इस भयंकर से यंत्र को कहीं भी सुनना नही चाहेगा ।
अगले ही दिन उसको शहर के दूसरे हिस्से मे जाना पडा । एक बार फ़िर से उसे एक दूर सॆ आती हुई आवाज सुनने को मिली । उसको लगा कि  उसके वृद्ध कानॊ को कोई पुचकार और दुलार रहा है । ऐसी मीठी और सुरीली आवाज उसने अपने पहाडी घाटियों मे भी नही सुनी थी । आवाज के उद्‍गम को जानने के लिये वह एक घर के आगे के हिस्से मे पहुँचा जहाँ उसने एक वृद्ध महिला को वही यंत्र वाइलन को बजाते देखा ।
तत्काल ही उस वृद्ध को अपनी गलती का एहसास हो गया । एक दिन पहले जो उसने कर्कश आवाज सुनी थी , उसमे न तो वाइलन और  न ही उस बच्चे  का  दोष था । दोष  सिर्फ़ इतना ही था कि उस बच्चे को अभी वाइलन बजाना सीखना था ।
वह वृद्ध सोच मे पड गया । उसको लगा कि  साधारण से दिखने वाला यही  दोष तो सभी धर्मालम्बियों  के साथ  है । जब कुछ अति धार्मिक उत्साही अपनी –२ आस्था को कलह का कारण बनाते हैं तो क्या धर्म को दोष देना उचित है ? यह सिर्फ़ इतना ही है कि यह नौसीखिये अपने धर्म को ठीक से जान और समझ ही नही  पाये ।  दूसरि तरफ़ जब हम ऐसे संत और महापुरुषों से मिलते हैं जो अपने धर्म के सही जानकार हैं तब भले ही हमारी आस्थायें अलग-२ हों लेकिन उन धर्मॊ की छाप हमारे मन: पटल पर हमेशा बनी रहती है ।
… लेकिन इस  वृद्ध मनुष्य और वाइलन की कहानी का अंत अभी नही हुआ था ।
तीसरे दिन शहर के दूसरे हिस्से मे उस वृद्ध को ऐसी आवाज सुनने को मिली जो अपने मे अनोखी थी , उसकी मिठास वाइलन से भी बढकर थी । क्या आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वझ आवाज किसकी थी ?
इस आवाज की मधुरता  बसंत ऋतु मे पहाडॊ से बहने वाले झरने से भी बढकर थी , उसकी कोमलता का एहसास शरद ऋतु मे जंगलो मे पेडो के माध्यम से बहनॆ वाली हवा से भी अधिक था , पहाडॊ मे भारी बारिश के बाद चिडियों के चहचहाने की आवाज भी उस आवाज के आगे शून्य थी और यहाँ तक सर्द जाडॊं की रातों मे पहाडॊं की नीरवता और शांति भी उस आवाज के आगे कुछ भी नही थी । आखिर वह कौन सी आवाज थी जिसने उस इन्सान के दिल को छू लिया ?
वह एक विशाल आर्केस्ट्रा कॆ सुरों का संगम था जहाँ वाइलन भी था और अलग –२ सुर यंत्र भी । लेकिन अलग –२ सुर यंत्रॊं के होते हुये भी वह एक लय मे थे । उस आर्केस्ट्रा  का हर सदस्य अपने मे निपुण और पारखी था । लेकिन इसके बावजूद उन्होने यह सीखा था कि मिल कर कैसे सुर दे सकते हैं ।
“ क्या सारे धर्मों के मतालम्बी  साथ रहकर यह नही कर सकते ? ” उस वृद्ध ने एक बार सोचा । “ वह अपने –२ धर्मों को सही और परिपूर्ण रुप से जानें और उसके बाद मनन करें कि उनके धर्म का निचोड ‘ मैत्रीभावना और प्यार ’ से बढकर अधिक कुछ भी नही है । एक बार अपने धर्म को समझने के बाद आगे बढे और आर्केस्ट्रा के सदस्यों की तरह अलग-२ धर्मॊ के मतालम्बियों के साथ रहने की कला को सीखें । ”
शायद तभी सार्थक और सबसे सुंदर ध्वनि की संरचना की जा सकती है ।
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अजह्न्ह ब्रह्म की पुस्तक , “ Who ordered this truckload of Dung ? “ मे से ली गई कहानी “ The most beautiful sound” का हिन्दी अनुवाद ।

Tuesday, April 21, 2015

मथुरा में भगवान बुद्ध से जुड़ी धरोहरें

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देश-दुनिया में कृष्ण की जन्मभूमि के तौर पर पहचाने जाने वाले मथुरा में भगवान बुद्ध से जुड़ी कई धरोहरें मौजूद हैं। बताया जाता है कि टीलों पर बसे मथुरा में ही बुद्ध की पहली मूर्ति बनी थी। लाल बलुआ पत्थर से बनीं शैव, बौद्ध व जैन धर्मों से जुड़ी कई मूर्तियां यहां के राजकीय संग्रहालय में सुरक्षित हैं। यहां कुषाण और गुप्तकालील मथुरा शैली की कलाकृतियों के साथ ही सिक्के, लघुचित्र, धातुमूर्ति, काष्ठ और स्थानीय कला के ढेरों दुर्लभ रत्न सहेज कर रखे गए हैं।

राजकीय संग्रहालय मथुरा के  सहायक निदेशक डॉ. एसपी सिंह, के अनुसार कनिष्क के समय हुई बौद्ध धर्म की चौथी संगीति (महासभा) के बाद महायान शाखा के अनुयायियों ने बुद्ध की पहली मूर्ति मथुरा में बनाई थी। इसके बाद दूसरी जगहों पर भी बुद्ध की मूर्तियां बनने लगीं।

संग्रहालय के पूर्व विथिका सहायक शत्रुघ्न शर्मा के अनुसार शुरुआत में मूर्तिकला की सिर्फ दो ही शैलियां प्रचलित थीं, मथुरा मूर्ति कला और गांधार मूर्तिकला। बुद्ध से जुड़ी मूर्तियां भी सबसे पहले इन्हीं शैलियों में बनीं। ढाई फीट ऊंची और डेढ़ फीट चौड़ी बुद्ध की पहली मूर्ति 1860 में कटरा केशव देव मंदिर खुदाई के दौरान मिली।

1874 में तत्कालीन अंग्रेज कलेक्टर एफएस ग्राउज ने यहां खोदाई के दौरान मिली कलाकृतियों में दिलचस्पी दिखाई। उसने इन्हें सहेजने के लिए कचहरी के पास स्थिज जमालपुर टीले पर बने विश्राम गृह में संग्रहालय की स्थापना की। 1933 में संग्रहालय को डेम्पियर नगर में शिफ्ट कर दिया गया।

Wednesday, April 15, 2015

अब विपशयना दिल्ली के स्कूलों मे …

11078092_761363700645599_2930296267140671168_nदिल्ली सरकार के गवर्नमेंट स्कूलों के टीचर्स को अब एक नई ट्रेनिंग से गुजरना होगा। सरकार ने फैसला किया है कि गवर्नमेंट स्कूलों के टीचर्स को विपश्यना (मेडिटेशन) ट्रेनिंग करनी होगी और दस दिन के कोर्स को पूरा करने के बाद टीचर्स अपने स्टूडेंट्स को टेंशन फ्री रहने और सामाजिक बुराइयों से दूर रहने के गुर सिखाएंगे। शिक्षा निदेशालय ने मंडे शाम को विपश्यना ट्रेनिंग को लेकर सर्कुलर जारी कर दिया है। टीचर्स को इस ट्रेनिंग के लिए कोई खर्च नहीं करना होगा। दस दिन की ट्रेनिंग के दौरान टीचर्स को ऑन ड्यूटी माना जाएगा, साथ ही विपश्यना साधना संस्थान से सर्टिफिकेट हासिल करने वाले टीचर्स को टीए-डीए भी मिलेगा।
डिप्टी सीएम और एजुकेशन मिनिस्टर मनीष सिसौदिया ने बताया कि विपश्यना ट्रेनिंग का मकसद एजुकेशन में सुधार लाना है। यह साइंटिफिक मेडिटेशन टेक्निक है और इससे स्कूल टीचिंग को और बेहतर बनाया जा सकेगा। स्कूलों का माहौल भी बदलेगा। डिप्टी सीएम का कहना है कि सरकार का यह दायित्व है कि स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे अच्छे नागरिक बनें और इसके लिए जरूरी है कि पॉजिटिव माहौल बनाया जाए और टीचर्स भी क्लासरूम टीचिंग में नए-नए एक्सपेरिमेंट करें। विपश्यना स्वयं का निरीक्षण करने की पद्धति है और निश्चित तौर पर इस ट्रेनिंग को करने के बाद स्कूलों का माहौल बदलेगा। सरकार चाहती है कि ज्यादा से ज्यादा टीचर्स इस ट्रेनिंग को करें और ट्रेनिंग का पूरा खर्चा दिल्ली सरकार उठाएगी। पढ़ाने के तौर-तरीकों में बदलाव आएगा। डिप्टी सीएम का कहना है कि अभी तो सरकारी स्कूलों के टीचर्स के लिए यह ट्रेनिंग शुरू की गई है, लेकिन प्राइवेट स्कूलों को भी इस बारे में एडवाइजरी जारी की जाएगी, ताकि उन स्कूलों के टीचर्स भी इस ट्रेनिंग को करने के लिए आगे आ सकें।
देश के कई शहरों में टीचर्स को इस तरह की ट्रेनिंग करवाई जा रही है ताकि वे अपने स्टूडेंट्स को शांत रहने के तरीके सिखा सकें। बढ़ता तनाव स्टूडेंट्स पर भी भारी पड़ रहा है और विपश्यना ट्रेनिंग करने के बाद टीचर्स क्लासरूम टीचिंग में नए एक्सपेरिमेंट कर सकेंगे और स्कूल में स्टूडेंट्स के ओवरऑल डिवेलपमेंट के मकसद को हासिल किया जा सकता है। शिक्षा निदेशालय के सर्कुलर में कहा गया है कि एजुकेशन का मतलब केवल क्लासरूम में कोर्स की पढ़ाई करवाना ही नहीं है, बल्कि स्टूडेंट्स को एक अच्छा नागरिक बनाने की जिम्मेदारी भी स्कूल पर होती है। ऐसा देखा जा रहा है कि आजकल की गला-काट प्रतियोगिता के इस दौर में स्टूडेंट्स तनाव का शिकार हो रहे हैं। इसके लिए विपश्यना जैसी ट्रेनिंग भी जरूरी है। यह कोई तंत्र-मंत्र पर आधारित टेक्निक नहीं है। इस टेक्निक के बारे में डॉ. रमेश कुमार ने बताया कि यह साधना पद्धति है और स्वयं को जानने की कोशिश होती है।

Friday, April 10, 2015

जो हो चुका सो हो चुका

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थाइलैंड मे मानसून का समयकाल जुलाई से अक्टूबर तक चलता है । मानसून के समय के दौरान अकसर भिक्खु यात्रायें करना बन्द कर देते हैं , अपने सारे कार्यों को एक तरफ़ रखकर  अपना अधिकतर समय अध्यन्न और ध्यान को समर्पित करते हैं । मानसून का  इस समयकाल को वर्षा वास  भी कहा जाता है ।
कुछ वर्ष पहले थाइलैंड के दक्षिण भाग मे एक प्रसिद्ध बौद्ध मठाधीश जंगल के एक मठ में एक सभागार ( हाल ) का निर्माण करवा रहे  थे । वर्षा वास के आते ही उन्होने सारे  कार्यों को रुकवा दिया और निर्माणकर्त्ता और श्रमिकों को अपने - २ घर जाने के लिये कहा ।  वर्षा वास का यह समय बौद्ध विहार के लिये अद्‍भुत शांति का समय था ।
कुछ दिन बाद एक आंगुतक का आगमन मठ मे हुआ । जब उस आंगुतक की नजर मठ के अधूरे निर्माण की तरफ़ पडी तो उसने  उतसुकतावश मठाधीश से पूछा कि सभागार का यह  निर्माण कार्य कब समाप्त होगा । एक क्षण रुके बगैर उस वृद्ध भिक्खु ने कहा  , “ सभागार का कार्य समाप्त हो चुका है । ”
“ आप कहना क्या चाहते हैं , सभागार का कार्य समाप्त हो चुका है ? ” आंगुतक ने उत्तर दिया । “ न तो इस सभागार मे छ्त है , न दरवाजे और न ही खिडकियाँ । और तो और इस सभागार मे चारों तरफ़ लकडी और सीमॆट के बोरे बिखरे पडे है । क्या आप इनको यही छोड देगें ? मुझे लगता है कि महाशय आप का मानसिक संतुलन ठीक नही है । इसके बावजूद भी आप कहते हैं कि ‘ सभागार का कार्य समाप्त हो चुका है ’ ? ”
उस विहार के वृद्ध मठाधीश ने मुस्कारा कर और मृदुता से कहा , “  जो हो चुका है , वह समाप्त हो चुका है ।” और यह कहते ही  वह ध्यान कक्ष मे चले गये ।
विराम करने का मेरी नजर मे सिर्फ़ यही एक तरीका है , नही तो इस व्यस्त जिंदगी में कोई भी कार्य कभी भी समाप्त नही होता ।
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अजह्न्ह ब्रह्म की पुस्तक , “ Who ordered this truckload of Dung ? “ मे से ली गई कहानी “ What’s done is finished ” का हिन्दी अनुवाद ।