Wednesday, July 31, 2019

🌹🌹🌹तुवटकसुत्त (सुत्त निपात ४.१४) (भिक्षुचर्य्या)🌹🌹🌹

विनयसमुकसे सुत्त (भाब्रूसिलालेख)

तुवटकसुत्त (सुत्त निपात ४.१४)
(भिक्षुचर्य्या)



देवता-
आदित्यबंधु! महर्षि! मैं आपसे विवेक शान्तिपद के विषय मे पूछता हूँ। भिक्षु लोक में किसी में भी आसक्ति न करता हूआ कैसे देखकर शान्त होता है?।।१।।

भगवान्-
सारे प्रपंचो की जड़ अहंकार को समझकर सब तरह से उसका अंत कर दे। जो कुछ भी तृष्णायें भीतर है, उनसे रहित होने के लिए सदा स्मृतिमान् हो अभ्यास करे ।।२।।

भीतर या बाहर के जिस किसी धर्म को माने , उससे अभिमान न करें, सन्त लोक उसे शान्ति नहीं कहते ।।३।।

उसके कारण न दूसरे से अपने को श्रेष्ठ समझे , न नीच और न समान। अनेक प्रकार का स्पर्श पाकर भी अपने को विकल्प में न डाले ।।४।।

अपने भीतर शांत रहे। भिक्षु दूसरे उपाय से शांति की खोज न करे। जो भीतर से शांत है उसमे अपनत्व नहीं है , फिर परत्व कहां? ।।5।।

जैसे समुंद्र के बीच में लहर नहीं उठती, प्रत्युत स्थिरता बनी रहती है, वैसे ही स्थिर, चंचलता रहित भिक्खु कहीं तृष्णा न करे ॥6॥ौ


देवता- 
खुले नेत्र वाले ! ऐपने बाधाओं को दूर करने के लिए साक्षात धर्म बताया है। अपना भद्र प्रतिपदा को बतावें जो कि प्रतिमोक्ष या समाधि है ।।७।।

भगवान्-
चक्षु के विषय से लोलुप न हो। ग्राम्य कथाओं से कान को बंद कर ले। स्वाद की लोलुपता न करे और न संसार से कुछ अपनाये ।।८।।

दु:खद स्पर्श होने पर भी भिक्षु कहीं भी विलाप न करें। भव की तृष्णा न करे और भयानकता से कंपित न हो ।।९।।

अन्न अथवा पेय, खाद्य अथवा वस्त्र के मिलने पर उसका संग्रह न करे। उनके न मिलने पर चिन्ता न करें ।।१०।।

ध्यानी बने , घुमक्कर न बने, कौकृत्य (संदेह) न करे, प्रमाद न करे। भिक्षु शोर न होने वाले आसनो और शय्याओं में विहार करे ।।११।।

बहुत निद्रालु न हो , उद्योगी बन जागरणशील बने। तन्द्रा , माया , हँसी - मजाक , क्रीडा, मैथुन और श्रृंगार को त्याग दे ।।१२।।

तन्त्र मंत्र , स्वप्न-विचार , लक्षण - देखना और नक्षत्रो के विश्वास को त्यागदे।पशु -पक्षियों की बोली को सुनकर बतलाना , गर्भ धारण कराना , चिकित्सा कराना (=वैद्यक) - श्रद्धालु भिक्षु इन सबका अभ्यास न करें ।।१३।।

भिक्षु निंदा से विचलित न हो, प्रशंसा से न फूले और लोभ , कंजूसी , क्रोध तथा चुगली को त्याग दें ।।१४।।

भिक्षु क्रय विक्रय में न लगें। कहीं किसी को दोष न दें। गांव में किसी को गाली न दें और लाभ इच्छा से लोगो को न बोले
।।१५।।

भिक्षु अपनी प्रशंसा करने वाला न बने , स्वार्थ की बात न करें, उद्दण्ड (=प्रगल्भ) न हो और झगड़े- लड़ाई की बात न करें ।।१६।।

असत्य भाषण न करे, जान बुझ कर शठता न करे, फिर जीविका , प्रज्ञा , शील-व्रत के विषय में दूसरे का अनादर न करे ।।१७।।

बहुभाषी श्रमनो की दोषयुक्त बहुत-सी बातों को सुनकर उनको कठोर जबाब न दें, संतलोग प्रतिहिंसक नहीं होते।।१८।।

इस धर्म को जानकर विवेका भिक्षु सदा स्मृतिमान रहने का अभ्यास करे, निर्वाण को शांति जानकर गौतम की शिक्षा में प्रमाद न करे ।।१९।।

उन विजयी में अजेय हो धर्म को साक्षात् जान लिया है, इसलिए अप्रमत्त हो उन भगवान की शिक्षा का सम्मानपूर्वक अभ्यास करें ।।२०।।

                  तुवटकसुत्त समाप्त।

                   

Friday, July 26, 2019

🌿121-चूलसुञता-सुत्त🌿 🍁मज्झिम निकाय (3.3.1)🍁

🌿121-चूलसुञता-सुत्त🌿
       🍁मज्झिम निकाय (3.3.1)🍁

🌏चित्त की शून्यता का योग🌏




👂 ऐसा मैंने सुना --

🚶एक समय भगवान् सावत्थि में, मिगारमाता के प्रासाद (महल) पुब्बाराम में विहार करते थे।

🏃तब आयुष्मान् आनन्द सायंकाल को प्रतिसंलयन (=ध्यान) से उठकर जहां भगवान थे, वहां गए। जाकर भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठे। एक ओर बैठे आयुष्मान् आनन्द ने भगवान से यह कहा👄--

🙏 "भन्ते! एक समय भगवान् शाक्य (जनपद) में नगरक नामक शाक्यों के निगम (=कस्बे) में विहार करते थे। वहां मैंने, भन्ते! भगवान् के मुख से सुना, भगवान् के मुख से ग्रहण किया-‘आनन्द! इस समय मैं अधिकतर शून्यता-विहार से विहरता हूं' -क्या, भन्ते! मैंने इसे ठीक से सुना, ठीक से ग्रहण किया, ठीक से मन में किया, ठीक से धारण किया?” ।

☝“हां, आनन्द! तुमने यह ठीक से सुना...। आनन्द! पहले भी, और इस समय भी मैं अधिकतर शून्यता-विहार से विहरता हूं। 
जैसे आनन्द! 
यह मिगारमाता का प्रासाद हाथी-गाय-घोड़ा-घोड़ी से शून्य है; 
सोना-चांदी से शून्य है; 
स्त्री-पुरुष-सन्निपात (=जमावड़े) से शून्य है; किंतु यह एक भिक्खु-संघ से शून्य नहीं; 
ऐसे ही, आनन्द! 
भिक्खु ग्राम-संज्ञा (=गांव के ख्याल) को मन में न कर, 
मनुष्य-संज्ञा को मन में न कर, 
एक अरण्य-संज्ञा को ले मन में करता है। अरण्य-संज्ञा में उसका चित्त प्रस्कंदित=प्रसन्न होता है; ठहरता है, लगता है। 
वह यह जानता है - 
ग्राम-संज्ञा को लेकर जो दरथ (=पीड़ा) थे, वे नहीं हैं; 
मनुष्य-संज्ञा को लेकर जो दरथ थे, वे भी नहीं हैं; 
किंतु अकेली अरण्य-संज्ञा को लेकर यह दरथ-मात्र है ही। 
वह जानता है - 
यह जो ग्राम-संज्ञा (=गांव का ख्याल) है, वह संज्ञा शून्य है। 
वह जानता है - 
यह जो मनुष्य-संज्ञा है,वह संज्ञा शून्य है। 
इस अकेली अरण्य-संज्ञा को लेकर अ-शून्यता तो है ही। 
इस प्रकार जो वहां नहीं होता, उससे उसे शून्य देखता है; और जो वहां बाकी रहता है, उस विद्यमान को ‘यह है' - जानता है। 
ऐसे भी आनन्द! यह यथार्थ =अ-विपर्यस्त, परिशुद्ध शून्यता में उसका प्रवेश होता है।"

🌷 “और फिर, 
आनन्द! भिक्खु मनुष्य-संज्ञा को..., 
अरण्य-संज्ञा को मन में न कर, 
केवल पृथ्वी-संज्ञा मात्र को लेकर मन में करता है। 
पृथ्वी-संज्ञा में उसका ‘चित्त... ठहरता है...। जैसे, आनन्द! बैल का चमड़ा सौ कांटों से तना बलि (=शिकन) के बिना होता है; 
ऐसे ही आनन्द! वह भिक्खु इस पृथ्वी के ऊंचे नीचे तट, नदी घाट, खांड, कटंकस्थान, पर्वत की विषमता -- सभी को मन में न कर, एक मात्र पृथ्वी-संज्ञा को ही लेकर मन में करता है। 
पृथ्वी-संज्ञा में उसका चित्त... ठहरता है...। 
वह ऐसा जानता है - 
मनुष्य-संज्ञा को लेकर जो दरथ, थे, वे नहीं हैं। अरण्य संज्ञा को लेकर जो दरथ थे, वे नहीं हैं। किंतु केवल पृथ्वी-संज्ञा को लेकर दरथ तो हैं ही। 
वह जानता है - 
वह जो मनुष्य-संज्ञा है, वह (यहां) शून्य है; 
जो अरण्य-संज्ञा है, वह भी शून्य है; 
किंतु इस केवल पृथ्वी-संज्ञा को लेकर अ-शून्यता तो है ही। 
इस प्रकार जो वहां नहीं होता...। 
इस प्रकार भी आनन्द! यथार्थ शून्यता में उसका प्रवेश होता है।"

🌷 “और फिर, 
आनन्द! भिक्खु अरण्य-संज्ञा को..., 
पृथ्वी-संज्ञा को मन में न कर, 
केवल अन्तरहित आकाश के आयतन (=अधिकरण, स्थान) (=आकाशानन्त्यायतन) की संज्ञा (=ख्याल) को लेकर मन में करता है। आकाशानन्त्यायतन-संज्ञा में उसको चित्त ठहरता है। 
वह ऐसा जानता है-
अरण्य संज्ञा..., 
पृथ्वी-संज्ञा को लेकर जो दरथ थे, वे नहीं हैं। किंतु आकाशानन्त्यायतन-संज्ञा को लेकर दरथ तो हैं ही।
...अरण्य-संज्ञाशून्य ... है; 
...पृथ्वी-संज्ञा ...शून्य है; 
किंतु इस केवल आकाशानन्त्यायतन-संज्ञा को लेकर अशून्यता तो है ही। 
इस प्रकार जो वहां नहीं होता...। 
ऐसे भी, आनन्द! यथार्थ ... शून्यता में उसका प्रवेश होता है।"

"और फिर, आनन्द! भिक्खु पृथ्वी-संज्ञा को मन में न कर आकाशानन्त्यायतन-संज्ञा को मन में न कर, अन्तरहित-विज्ञान के आयतन (=विज्ञानानन्त्यायतन) की संज्ञा को लेकर मन में करता है...।"

" ...आकाशानन्त्यायतन-संज्ञा को मन में न कर, 
विज्ञानानन्त्यायतन-संज्ञा को भी मन में न कर, केवल आकिंचन्य (=नहीं-कुछ-पन) आयतन की संज्ञा को लेकर मन में करता है...।" 

"...विज्ञानानन्त्यायतन-संज्ञा को मन में न कर, आकिंचन्यायतन-संज्ञा को भी मन में न कर, केवल नैवसंज्ञा-नासंज्ञायतन-संज्ञा को लेकर मन में करता है...।"

"...आकिंचन्यायतन-संज्ञा को मन में न कर, नैवसंज्ञानासंज्ञायतन-संज्ञा को भी मन में न कर, केवल अ-निमित्त (=लिंग आदि रहित) चेतःसमाधि को लेकर मन में करता है...।"

"... आकिंचन्यायतन-संज्ञा को लेकर जो दरथ थे, वे नहीं हैं, 
नैवसंज्ञानासंज्ञायतन-संज्ञा को लेकर जो दरथ थे, वे नहीं हैं; 
किंतु जीवन (=जीवित) के कारण इसी षड्-आयतन वाली काया को लेकर यह दरथ तो है ही। 
... आकिंचन्यायतन-संज्ञा ... शून्य है, ... नैवसंज्ञानासंज्ञायतन-संज्ञा ... शून्य है; 
किंतु जीवन के कारण, इसी षड्-आयतन वाली काया को लेकर अ-शून्यता तो है ही। 
इस प्रकार जो वहां नहीं होता। 
ऐसे भी आनन्द! ...।"

🌷" ... आकिंचन्यायतन-संज्ञा को मन में न कर, नैवसंज्ञानासंज्ञायतन-संज्ञा को भी मन में न कर, (जो) केवल अ-निमित्त चेतसमाधि को लेकर मन में करता है; (सो) उसका चित्त अनिमित्त चेतः समाधि में ... ठहरता  है... । वह ऐसा जानता है - चूंकि यह अनिमित्त चेतःसमाधि अभिसंस्कृत (कृत) है, चिन्तन करते (यह) अभिसंस्कृत (=कृत) हुई है। जो अभिसंस्कृत (=कृत) है, वह अ-नित्य है, नाशवान (=निरोध धर्मा) है ... यह जानता है। तब इस प्रकार जानते-देखते उसका चित्त काम-आस्रवों (=भोगेच्छा सम्बन्धी चित्त कालुष्यों से मुक्त होता है, “भव-आस्रव (=जन्मान्तर की लालसा रूपी आस्रव), अविद्या आस्रवों (=अज्ञान) से भी मुक्त होता है। ‘विमुक्त होने पर ‘विमुक्त हूं'–ज्ञान होता है। ‘आवागमन खत्म हो गया, (ब्रह्मचर्य) वास पूरा हो गया, करना था सो कर लिया, और यहां के लिए (कुछ शेष) नहीं है - जानता है। वह ऐसा जानता है - 
काम-आस्रव को लेकर जो दरथ थे, वे नहीं हैं। भव-आस्रव ... 
अविद्या-आस्रव को लेकर जो दरथ थे, वे नहीं हैं; 
किंतु जीवन के कारण, इसी षड्-आयतन वाली काया को लेकर दरथ तो है ही। 
वह जानता है -
 कामास्रव सम्बन्धी संज्ञा से यह शून्य है। 
वह जानता है  - 
भवास्रव सम्बन्धी संज्ञा से यह शून्य है।
वह जानता है-
अविद्याग्नव-सम्बन्धी संज्ञा से यह शून्य है, 
किंतु ... इसी षडायतन वाली काया को लेकर अशून्यता तो है ही। 
इस प्रकार जो वहां नहीं होता, उससे उसे शून्य देखता है, और जो वहां बाकी रहता है, उस विद्यमान को–“यह है'-जानता है। ऐसे, आनन्द! यह यथार्थ=अ-विपर्यस्त, परिशुद्ध परम-अनुत्तर (=सर्वोत्तम) शून्यता में प्रवेश होता है।"

🌷"आनन्द! जो कोई श्रमण या ब्राह्मण अतीत काल में परमानुत्तर-शून्यता को प्राप्त कर विहरे, वे सभी इसी परमानुत्तर-शून्यता को प्राप्त कर विहरे, जो कोई श्रमण या ब्राह्मण भविष्यकाल में विहरेंगे, वे सभी इसी परमानुत्तर-शून्यता को प्राप्त कर विहरेंगे। जो कोई श्रमण या ब्राह्मण वर्तमान काल में परमानुत्तर-शून्यता को प्राप्त कर विहरते हैं, वे सभी इसी परमानुत्तर-शून्यता को प्राप्त कर विहरते हैं। इसलिये, आनन्द! ‘परिशुद्ध, परमानुत्तर शून्यता को प्राप्त कर विहरूंगा’-यह मुझे सीखना चाहिए।” 

🌷भगवा ने यह कहा, सन्तुष्ट हो आयुष्मान् आनन्द ने भगवा के भाषण अभिनन्दन किया।🙏

🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷

Thursday, July 25, 2019

🍁38-महातण्हासंखय-सुत्त🍁 🍁मज्झिम निकाय (1.4.8) 🍁

🍁38-महातण्हासंखय-सुत्त🍁
         🍁मज्झिम निकाय (1.4.8) 🍁


👂ऐसा मैंने सुना-

🚶एक समय भगवान सावत्थि में अनाथपिण्डिक के आराम जेतवन में विहार करते थे। 
👀उस समय साति केवट्टपुत्त भिक्खु को ऐसी बुरी दृष्टि (=धारणा) उत्पन्न हुई थी-

“मैं भगवान के उपदेश किए धर्म को इस प्रकार जानता हूं, कि वही विज्ञान संसरण (जन्म-मरण में जाना) करता है, संधावन (=धावन) करता है, अन्य नहीं।” ।

💔बहुत से भिक्खुओं ने सुना कि-साति केवट्टपुत्त (= केवर्त-पुत्र) भिक्खु को ऐसी बुरी दृष्टि उत्पन्न हुई है-संधावन करता है। तब वह भिक्खु जहां साति केवट्टपुत्त भिक्खु था, वहां गए। जाकर साति केवट्टपुत्त भिक्खु से यह बोले--👄

“सचमुच, आवुस साति! तुम्हें इस प्रकार की बुरी धारण उत्पन्न हुई है?-संधावन करता है!”

🙏हां आवुस!संधावन करता है।”

☝तब वह भिक्खु उस बुरी धारणा से हटाने के लिए साति केवट्टत्त भिक्खु को समझाते बुझाते समनुभाषण करने लगे --

☝"आवुस साति! मत ऐसा कहो, मत भगवान पर झूठ लगाओ। भगवान पर झूठ लगाना ठीक नहीं है। भगवान ऐसा नहीं कहते। आवुस साति! भगवान ने अनेक प्रकार से विज्ञान को प्रतीत्य समुत्पन्न (कार्य-कारण से उत्पन्न) कहा है। प्रत्यय (=हेतु)के बिना विज्ञान (=चेतना) का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता।”

💥इस प्रकार उन भिक्खुओं द्वारा समझाए बुझाए जाने पर भी साति केवट्टपुत्त भिक्खु, उसी बुरी धारणा को दृढ़ता से पकड़े कहता था-

‘मैं भगवान के उपदिष्ट धर्म को इस प्रकार जानता हूं।' 

जंब वह भिक्खु साति केवट्टपुत्त भिक्खु को उस बुरी धारणा को न हटा सके, तब जहां भगवान थे, वहां गए; जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए...उन भिक्खुओं ने भगवान से यह कहा--

🙏भन्ते! केवट्टपुत्त साति भिक्खु को ऐसी बुरी धारणा (=पापदृष्टि) उत्पन्न हुई है-'मैं भगवान के उपदिष्ट धर्म को इस प्रकार जानता हूं-“मैं भगवान के उपदेश किए धर्म को इस प्रकार जानता हूं, कि वही विज्ञान संसरण (जन्म-मरण में जाना) करता है, संधावन (=धावन) करता है, अन्य नहीं।” 

 --हमने भन्ते! ""साति की इस बुरी धारणा को सुना। तब हम भन्ते!“साति भिक्खु के पास जाकर यह बोले-सचमुच आवुस साति! तुम्हें इस प्रकार की बुरी धारण उत्पन्न हुई है?-संधावन करता है!”

"हां आवुस!' 

जब हम भन्ते! साति भिक्खु की इस बुरी धारणा को न हटा सके, तब हमने आकर इस बात को भगवान से कहा।”

☝तब भगवान ने एक भिक्खु को संबोधित किया- “आओ भिक्खु! तुम मेरी ओर से केवपुत्त साति भिक्खु को बोलना-‘आवुस साति! शास्ता (=उपदेशक, बुद्ध) तुम्हें बुला रहे हैं, ।”

"अच्छा, भन्ते!” (कह) वह भिक्खु“साति भिक्खु के पास जाकर यह बोला-आवुस! शास्ता तुम्हें बुला रहे हैं।

"अच्छा, आवुस !”–कह केवट्टपुत्त साति भिक्खु जहां भगवान थे वहां जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे... साति भिक्खु को भगवान ने यह कहा--

☝सचमुच, साति! तुझे इस प्रकार की बुरी धारणा उत्पन्न हुई है-
“मैं भगवान के उपदेश किए धर्म को इस प्रकार जानता हूं, कि वही विज्ञान संसरण (जन्म-मरण में जाना) करता है, संधावन (=धावन) करता है, अन्य नहीं।” 

🙏“हां, भन्ते! मैं भगवान के उपदिष्ट धर्म को इस प्रकार जानता हूं; कि वही विज्ञान संसरण, संधावन करता है, दूसरा नहीं ।”

☝"साति! वह विज्ञान क्या है?”

🙏"यह जो भन्ते! वक्ता, अनुभव-कर्ता है, जो कि तहां-तहां (जन्म लेकर) अच्छे, बुरे कर्मों के विपाक को अनुभव करता है।”

☝"मोघपुरुष' ! तुमने किस को मुझे ऐसा उपदेश करते सुना? मैंने तो मोघपुरुष! अनेक प्रकार से विज्ञान को प्रतीत्य-समुत्पन्न कहा है; प्रत्यय के बिना विज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता (–कहा है)। 
मोघपुरुष! तू अपनी ठीक से न समझी बात का हमारे पर लांछन लगाता है; अपना नुकसान कर रहा है, और बहुत पाप कमा रहा है; मोघपुरुष! यह तेरे लिए दीर्घकाल तक अहितकर, दुखकर होगा।”

☝तब भगवान ने भिक्खुओं को संबोधित किया--

“तो क्या मानते हो, भिक्खुओ! क्या इस... साति भिक्खु ने इस धर्म-विनय (=धर्म) में थोड़ा भी अवगाहन कर पाया (=उस्मीकत) है?”

🙏“क्या कर पायेगा, भन्ते? नहीं भन्ते!” ।

🌴ऐसा कहने पर केवट्टपुत्त साति भिक्खु गुमसुम हो, मूक हो, कंधा गिराकर, नीचे मुंह करके चिन्ता में पड़, प्रतिभाहीन हो बैठा रहा। तब भगवान ने साति भिक्खु को गुमसुम हो प्रतिभाहीन हो बैठे देख (उसे) यह कहा--

☝"मोघपुरुष! जानेगा तू इस अपनी बुरी धारणा को। अब मैं भिक्खुओं को पूछता हूं।”

 तब भगवान ने भिक्खुओं को संबोधित किया--

☝“भिक्खुओ! तुमने मुझे ऐसा धर्म उपदेश करते देखा है, जैसा कि साति भिक्खु अपनी ठीक से न समझी बात का, हमारे पर लांछन लगाता है; अपना नुकसान कर रहा है; और बहुत पाप कमा रहा है?”

🙏"नहीं भन्ते! भगवान ने तो भन्ते! हमें अनेक प्रकार से विज्ञान को प्रतीत्यसमुत्पन्न कहा है, प्रत्यय के बिना विज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं होता है (–कहा है)।"

☝"साधु, भिक्खुओ! तुम इस प्रकार मेरे उपदेशित धर्म को ठीक से जानते हो-‘अनेक प्रकार से से विज्ञान को प्रतीत्यसमुत्पन्न कहा है, प्रत्यय के बिना विज्ञान का  प्रादुर्भाव नहीं हो सकता' तो भी यह साति भिक्खु अपनी ठीक से न समझी यह उसके लिए दीर्घकाल तक अहितकर दुखकर होगा।"

☝"भिक्खुओ! जिस-जिस प्रत्यय (=निमित्त) से विज्ञान उत्पन्न होता है, वही-वही उसकी संज्ञा (=नाम) होती है।
🌴 चक्षु (=आंख) के निमित्त से रूप में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है; चक्षुर्विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है।
🌴 श्रोत्र के निमित्त से शब्द में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है; श्रोत्र-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है। 
🌴घ्राण (नाक) के निमित्त से गंध में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, घ्राण-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है।
🌴 जिह्वा के निमित्त से रस में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, रस-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है। 
🌴काया के निमित्त से स्पष्टव्य (=छुए जाने ले विषय) में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, काय-विज्ञान ही उसका नाम होता है। 
🌴मन के निमित्त से धर्म (=उपरोक्त पांच बाहरी इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान) में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, मनो-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है।

जैसे कि, भिक्खुओ! जिस निमित्त (=प्रत्यय) को लेकर (जो) आग जलती है, वही वही उसकी संज्ञा होती है। 
🍃काष्ठ के निमित्त से (जो) आग जलती है, काष्ठ-अग्नि ही उसकी संज्ञा होती है।
🍃 (लकड़ी की) चुन्नी के निमित्त से जो आग जलती है, चुन्नी की आग ही उसकी संज्ञा होती है। 
🍃तृण के निमित्त से (जो) आग जलती है, तृण-अग्नि ही उसकी संज्ञा होती है।
🍃 कंडे (=गोमय)के निमित्त से (जो) आग जलती है, कंडे की आग ही उसकी संज्ञा होती है।
🍃 भूसी (=तष) के निमित्त से (जो) आग जलती है, भूसी की आग ही उसकी संज्ञा होती है। 
🍃 कूड़े (=संकार) के निमित्त से (जो) आग जलती है, कूड़े की आग ही उसकी संज्ञा होती है। 
🌷ऐसे ही भिक्खुओ! जिस-जिस निमित्त से विज्ञान उत्पन्न होता है, वही-वही उसकी संज्ञा होती है। 
🌴 चक्षु (=आंख) के निमित्त से रूप में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है; चक्षुर्विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है।
🌴 श्रोत्र के निमित्त से शब्द में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है; श्रोत्र-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है। 
🌴घ्राण (नाक) के निमित्त से गंध में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, घ्राण-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है।
🌴 जिह्वा के निमित्त से रस में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, रस-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है। 
🌴काया के निमित्त से स्पष्टव्य (=छुए जाने ले विषय) में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, काय-विज्ञान ही उसका नाम होता है। 
🌴मन के निमित्त से धर्म (=उपरोक्त पांच बाहरी इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान) में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, मनो-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है।

☝भिक्खुओ! इस (पांच स्कंधों)को उत्पन्न देखते हो?” 

🙏हां, भन्ते!” ।

☝ “भिक्खुओ! अपने आहार से (उन्हें) उत्पन्न हुआ देखते हो?” 

🙏“हां, भन्ते!” ।

☝भिक्खुओ! जो उत्पन्न होनेवाला है, अपने आहार के निरोध से वह निरुद्ध (=नष्ट) होनेवाला होता है-इसे देखते हो?” ।

🙏“हां, भन्ते!”

☝भिक्खुओ! यह (पांच स्कंध) उत्पन्न हुआ है, या नहीं?—यह दुविधा करते सन्देह (=विचिकित्सा) उत्पन्न होती है न?”

🙏“हां, भन्ते!” । 

☝भिक्खुओ! अपने आहार से उत्पन्न हुआ है, या नहीं- यह दुविधा करते सन्देह (=विचिकित्सा) उत्पन्न होती है न?"

🙏 “हां, भन्ते!”

☝“भिक्खुओ! ‘जो उत्पन्न होनेवाला है, (वह) अपने आहार (=स्थिति के आहार) के निरोध से निरुद्ध होनेवाला होता है, या नहीं' -यह दुविधा करते सन्देह उत्पन्न होता है न?”

🙏“हां, भन्ते!” 

☝भिक्खुओ! ‘ये (=पांच स्कंध) उत्पन्न हैं' -यह अच्छी प्रकार प्रज्ञा से देखने पर सन्देह नष्ट हो जाता है न!”

🙏“हां, भन्ते!” ।

☝भिक्खुओ! इसे अपने आहार से उत्पन्न होनेवाला है जो उत्पन्न होने वाला है, (वह) अपने आहार के निरोध से निरुद्ध होने वाला होता है’ -यह ठीक से अच्छी प्रकार प्रज्ञा से देखने पर सन्देह नष्ट हो जाता है न?”

🙏“हां, भन्ते!” ।

☝" भिक्खुओ! ‘ये (पंच स्कंध) उत्पन्न हैं? –इस (विषय में) तुम सन्देह-रहित हो न?” 

🙏“हां, भन्ते!”

☝ भिक्खुओ! ‘वे अपने आहार से उत्पन्न है' -इस (विषय) में भी तुम सन्देह-रहित हो न?”

🙏 “हां, भन्ते!”

☝भिक्खुओ! ‘वे अपने आहार से उत्पन्न है अपने आहार के निरोध से निरुद्ध होनेवाला होता है-इस (विषय) में भी तुम सन्देह-रहित हो न?”

🙏“हां, भन्ते!” 

☝भिक्खुओ! ‘यह उत्पन्न है-इसे ठीक से अच्छी प्रकार जानना सुदृष्ट (=अच्छा दर्शन) है न?”

🙏हां, भन्ते!”

☝भिक्खुओ! ‘(यह) अपने आहार से उत्पन्न है-:।अपने आहार से निरोध से निरुद्ध होनेवाला होता है-यह ठीक से अच्छी प्रकार जानना सुदृष्ट है न?”

🙏हां, भन्ते!” 

☝“भिक्खुओ! क्या तुम इस ऐसे परिशुद्ध, उज्ज्वल, दृष्ट (=दर्शन, ज्ञान) में भी आसक्त होओगे, रमोगे, ‘(मेरा) धन है'–समझोगे, ममता करोगे? 
भिक्खुओ! 
(मेरे) उपदेशे धर्म को कुल्ल (=नदी पार करने के बेड़े) के समान, 
(यह) पार होने के लिए है, पकड़कर रखने के लिए नहीं है-(समझोगे)?”

🙏"(पकड़ कर रखने के लिए) नहीं है भन्ते!”

☝“भिक्खुओ! तुम इस ऐसे परिशुद्ध, उज्ज्वल, दृष्ट में भी आसक्त न होना, न रमना, ‘(मेरा) धन है'-न समझना ममता न करना। बल्कि भिक्खुओ! मेरे उपदेशे धर्म को कुल्ल (=बेड़े) के समान समझना, (यह) पार होने के लिए है, पकड़कर रखने के लिए नहीं है।” ।

🙏“हां, भन्ते!” 

☝भिक्खुओ! उत्पन्न प्राणियों की स्थिति के लिए, आगे उत्पन्न होनेवाले (सत्त्वों) की सहायता (=अनुग्रह)के लिए ये चार आहार हैं। कौन से चार?-
🌷(पहला) स्थूल या सूक्ष्म कवलीकार (=कवल, कवल करके खाने योग्य) आहार; 
🌷दूसरा स्पर्श (आहार); 
🌷तीसरा मनःसंचेतना (=मन से विषय का ख्याल करके तृप्तिलाभ करना),
🌷 चौथा विज्ञान (=चेतना) ।

☝भिक्खुओ! इन चार आहारों का क्या निदान (=हेतु) है=क्या समुदय है? (ये) किससे जन्मे हैं=किस से संभूत हैं?—
☝भिक्खुओ! इन चारों आहारों का निदान है तृष्णा। समुदय है, तृष्णा। ये जन्मे हैं तृष्णा से= संभूत हैं तृष्णा से ।।

☝भिक्खुओ! इस तृष्णा का क्या निदान है?=क्या समुदय है? (ये) किससे जन्मे हैं=किस से संभूत हैं?—
☝भिक्खुओ! इन चारों आहारों का निदान है वेदना। समुदय है, वेदना। ये जन्मे हैं वेदना से= संभूत हैं वेदना से ।

☝भिक्खुओ! इस वेदना का क्या निदान है?=क्या समुदय है? (ये) किससे जन्मे हैं=किस से संभूत हैं?—
☝भिक्खुओ! इन चारों आहारों का निदान है स्पर्श। समुदय है, स्पर्श। ये जन्मे हैं स्पर्श से= संभूत हैं स्पर्श से ।

☝भिक्खुओ! इस स्पर्श का क्या निदान है?=क्या समुदय है? (ये) किससे जन्मे हैं=किस से संभूत हैं?—
☝भिक्खुओ! इन चारों आहारों का निदान है षड्-आयतन। समुदय है, षड्-आयतन। ये जन्मे हैं षड्-आयतन से= संभूत हैं षड्-आयतन से ।


☝भिक्खुओ! इस षड्-आयतन का क्या निदान है?=क्या समुदय है? (ये) किससे जन्मे हैं=किस से संभूत हैं?—
☝भिक्खुओ! इन चारों आहारों का निदान है नामरूप । समुदय है, नामरूप। ये जन्मे हैं नामरूप से= संभूत हैं नामरूप से ।


☝भिक्खुओ! इस नामरूप का क्या निदान है?=क्या समुदय है? (ये) किससे जन्मे हैं=किस से संभूत हैं?—
☝भिक्खुओ! इन चारों आहारों का निदान है विज्ञान । समुदय है, विज्ञान। ये जन्मे हैं विज्ञान से= संभूत हैं विज्ञान से ।


☝भिक्खुओ! इस विज्ञान का क्या निदान है?=क्या समुदय है? (ये) किससे जन्मे हैं=किस से संभूत हैं?—
☝भिक्खुओ! इन चारों आहारों का निदान है संस्कार । समुदय है, संस्कार। ये जन्मे हैं संस्कार से= संभूत हैं संस्कार से ।

☝भिक्खुओ! इस संस्कार का क्या निदान है?=क्या समुदय है? (ये) किससे जन्मे हैं=किस से संभूत हैं?—
☝भिक्खुओ! इन चारों आहारों का निदान है अविद्या । समुदय है, अविद्या। ये जन्मे हैं अविद्या से= संभूत हैं अविद्या से ।

🌷इस प्रकार भिक्खुओ! 
अ-विद्या के कारण संस्कार होता है, 
संस्कार के कारण विज्ञान, 
विज्ञान के कारण नाम-रूप, 
नाम-रूप के कारण षड्-आयतन, 
षड्-आयतन के कारण स्पर्श, 
स्पर्श के कारण वेदना, 
वेदना के कारण तृष्णा, 
तृष्णा के कारण उपादान (=ग्रहण या ग्रहण करने ही इच्छा), 
उपादान के कारण भव (=संसार), 
भव के कारण जन्म, 
जन्म के कारण जरा-मरण, शोक, रोना-कांदना, दुख=दौर्मनस्य, हैरानी-परेशानी होती है। 
🌷इस प्रकार इस सम्पूर्ण दुख-स्कंध(=दुखसमुदाय)की उत्पत्ति होती है।

☝“भिक्खुओ! जाति (=जन्म)के कारण जरा-मरण होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! जाति के कारण जरा-मरण होता है या नहीं-इसमें तुम्हें क्या जान पड़ता है? "

🙏जाति के कारण जरा-मरण होता है। भन्ते! हमको यही जान पड़ता है, कि जाति के कारण जरा-मरण होता है।

☝भिक्खुओ! भव के कारण जाति (=जन्म) होती है-यह जो कहा। भिक्खुओ! भव के कारण जाति होती है या नहीं-इसमें क्या जान पड़ता है?”

🙏भव के कारण, भन्ते! जाति होती है।” 

☝भिक्खुओ! उपादान के कारण भव होती है-यह जो कहा। भिक्खुओ! उपादान के कारण भव होती है या नहीं-इसमें क्या जान पड़ता है?”

🙏उपादान के कारण, भन्ते! भव होती है।”


☝भिक्खुओ! तृष्णा के कारण उपादान होती है-यह जो कहा। भिक्खुओ! तृष्णा के कारण उपादान होती है या नहीं-इसमें क्या जान पड़ता है?”

🙏तृष्णा के कारण, भन्ते! उपादान होती है।”


☝भिक्खुओ! वेदना के कारण तृष्णा होती है-यह जो कहा। भिक्खुओ! वेदना के कारण तृष्णा होती है या नहीं-इसमें क्या जान पड़ता है?”

🙏वेदना के कारण, भन्ते! तृष्णा होती है।”


☝भिक्खुओ! स्पर्श के कारण वेदना होती है-यह जो कहा। भिक्खुओ! स्पर्श के कारण वेदना होती है या नहीं-इसमें क्या जान पड़ता है?”

🙏स्पर्श के कारण, भन्ते! वेदना होती है।”


☝भिक्खुओ! षड्-आयतन के कारण स्पर्श होती है-यह जो कहा। भिक्खुओ! षड्-आयतन के कारण स्पर्श होती है या नहीं-इसमें क्या जान पड़ता है?”

🙏षड्-आयतन के कारण, भन्ते! स्पर्श होती है।”

☝भिक्खुओ! नामरूप के कारण षड्-आयतन होती है-यह जो कहा। भिक्खुओ! नामरूप के कारण षड्-आयतन होती है या नहीं-इसमें क्या जान पड़ता है?”

🙏नामरूप के कारण, भन्ते! षड्-आयतन होती है।”


☝भिक्खुओ! विज्ञान  के कारण नामरूप होती है-यह जो कहा। भिक्खुओ! विज्ञान के कारण नामरूप होती है या नहीं-इसमें क्या जान पड़ता है?”

🙏विज्ञान के कारण, भन्ते! नामरूप होती है।”


☝भिक्खुओ! संस्कार  के कारण विज्ञान होती है-यह जो कहा। भिक्खुओ! संस्कार के कारण विज्ञान होती है या नहीं-इसमें क्या जान पड़ता है?”

🙏संस्कार के कारण, भन्ते! विज्ञान होती है।”


☝भिक्खुओ!  अविद्या के कारण संस्कार होती है-यह जो कहा। भिक्खुओ! अविद्या के कारण संस्कार होती है या नहीं-इसमें क्या जान पड़ता है?”

🙏अविद्या के कारण, भन्ते! संस्कार होती है।”


☝🌷साधु, भिक्खुओ! तुम भी भिक्खुओ! इस प्रकार कहो, मैं भी ऐसे ही कहता हूं-‘इसके होनपर यह होता है, इसके उत्पन्न होने से यह उत्पन्न होता है। जो कि यह अविद्या के कारण संस्कार संस्कार के कारण विज्ञान विज्ञान के कारण नाम-रूप, नाम-रूप के कारण षड-आयतन,षड-आयतन के कारण स्पर्श, स्पर्श के कारण वेदना, वेदना के कारण तृष्णा, तृष्णा के कारण उपादान, उपादान के कारण भव, भव के कारण जाति, जाति के कारण जरा-मरण, जरा-मरण के कारण शोक, रोना=कांदना, दुख=दौर्मनस्य, हैरानी-परेशानी होती है। इस प्रकार इस सम्पूर्ण दुख-स्कन्ध (=दुख-पुंज) की उत्पत्ति होती है।

☝“अविद्या के पूर्णतया निरुद्ध होने से, (अविद्या के) नष्ट होने से संस्कार का नाश (=निरोध) होता है, 
संस्कार के निरोध से विज्ञान का निरोध होता है, विज्ञान के निरोध से नाम-रूप का निरोध होता है, 
नाम-रूप के निरोध से षड्-आयतन का निरोध होता है, 
षड्-आयतन के निरोध से स्पर्श का निरोध होता है, 
स्पर्श के निरोध से वेदना का निरोध होता है, वेदना के निरोध से तृष्णा का निरोध होता है, तृष्णा के निरोध से उपादान का निरोध होता है, उपादान के निरोध से भव का निरोध होता है, भव के निरोध से जाति का निरोध होता है, जाति के निरोध से जरा-मरण, शोक रोने-कांदने, दुख-दौर्मस्य हैरानी-परेशानी का निरोध होता है। इस प्रकार इस केवल दुख-स्कन्ध का निरोध होता है।"

☝भिक्खुओ! “जाति के निरोध से जरा-मरण का निरोध होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! जाति के निरोध से जरा-मरण का निरोध होता है या नहीं होता-यहां तुम्हें कैसा जान पड़ता है?”

🙏‘जाति के निरोध से जरा-मरण का निरोध होता है' भन्ते! (यहा) भन्ते! हमें होता है-जाति के निरोध से जरा-मरण का निरोध होता है।”

☝भिक्खुओ! “भव के निरोध से जाति का निरोध होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! भव के निरोध से जाति का निरोध होता है या नहीं होता-यहां तुम्हें कैसा जान पड़ता है?”

🙏‘भव के निरोध से जाति का निरोध होता है' भन्ते! (यहा) भन्ते! हमें होता है-भव के निरोध से जाति का निरोध होता है।”


☝भिक्खुओ! “उपादान के निरोध से भव का निरोध होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! उपादान के निरोध से भव का निरोध होता है या नहीं होता-यहां तुम्हें कैसा जान पड़ता है?”

🙏‘उपादान के निरोध से भव का निरोध होता है' भन्ते! (यहा) भन्ते! हमें होता है- उपादान के निरोध से भव का निरोध होता है।”

☝भिक्खुओ! “तृष्णा के निरोध से भव का निरोध होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! तृष्णा के निरोध से भव का निरोध होता है या नहीं होता-यहां तुम्हें कैसा जान पड़ता है?”

🙏‘तृष्णा के निरोध से भव का निरोध होता है' भन्ते! (यहा) भन्ते! हमें होता है- तृष्णा के निरोध से भव का निरोध होता है।”

☝भिक्खुओ! “वेदना के निरोध से तृष्णा का निरोध होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! वेदना के निरोध से तृष्णा का निरोध होता है या नहीं होता-यहां तुम्हें कैसा जान पड़ता है?”

🙏‘वेदना के निरोध से तृष्णा का निरोध होता है' भन्ते! (यहा) भन्ते! हमें होता है- वेदना के निरोध से तृष्णा का निरोध होता है।”


☝भिक्खुओ! “स्पर्श के निरोध से वेदना का निरोध होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! स्पर्श के निरोध से वेदना का निरोध होता है या नहीं होता-यहां तुम्हें कैसा जान पड़ता है?”

🙏‘स्पर्श के निरोध से वेदना का निरोध होता है' भन्ते! (यहा) भन्ते! हमें होता है- स्पर्श के निरोध से वेदना का निरोध होता है।”

☝भिक्खुओ! “षड्-आयतन के निरोध से स्पर्श का निरोध होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! षड्-आयतन के निरोध से स्पर्श का निरोध होता है या नहीं होता-यहां तुम्हें कैसा जान पड़ता है?”

🙏‘षड्-आयतन के निरोध से स्पर्श का निरोध होता है भन्ते! (यहा) भन्ते! हमें होता है- षड्-आयतन के निरोध से स्पर्श का निरोध होता है।”

☝भिक्खुओ! “ नामरूप के निरोध से षड्-आयतन का निरोध होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! नामरूप के निरोध से षड्-आयतन का निरोध होता है या नहीं होता-यहां तुम्हें कैसा जान पड़ता है?”

🙏‘नामरूप के निरोध से षड्-आयतन का निरोध होता है भन्ते! (यहा) भन्ते! हमें होता है- नामरूप के निरोध से षड्-आयतन का निरोध होता है।”


☝भिक्खुओ! “ विज्ञान के निरोध से नामरूप का निरोध होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! विज्ञान के निरोध से नामरूप का निरोध होता है या नहीं होता-यहां तुम्हें कैसा जान पड़ता है?”

🙏‘विज्ञान के निरोध से नामरूप का निरोध होता है भन्ते! (यहा) भन्ते! हमें होता है- विज्ञान के निरोध से नामरूप का निरोध होता है।”

☝भिक्खुओ! “ संस्कार के निरोध से विज्ञान का निरोध होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! संस्कार के निरोध से विज्ञान का निरोध होता है या नहीं होता-यहां तुम्हें कैसा जान पड़ता है?”

🙏‘संस्कार के निरोध से विज्ञान का निरोध होता है भन्ते! (यहा) भन्ते! हमें होता है- संस्कार के निरोध से विज्ञान का निरोध होता है।”


☝भिक्खुओ! “अविद्या के निरोध से संस्कार का निरोध होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! अविद्या के निरोध से संस्कार का निरोध होता है या नहीं होता-यहां तुम्हें कैसा जान पड़ता है?”

🙏‘अविद्या के निरोध से संस्कार का निरोध होता है भन्ते! (यहा) भन्ते! हमें होता है- अविद्या के निरोध से संस्कार का निरोध होता है।”


☝🌷साधु, भिक्खुओ! तुम भी भिक्खुओ! इस प्रकार कहो, मैं भी ऐसे कहता हूं-
इसके न होने पर यह नहीं होता, 
इसके निरोध होने पर इसका निरोध होता है, 
जो कि यह विद्या के निरोध से संस्कार का निरोध होता है; 
संस्कार के निरोध से विज्ञान का निरोध होता है; विज्ञान के निरोध से नामरूप का निरोध होता है; 
नामरूप के निरोध से षड्-आयतन का निरोध होता है; 
षड्-आयतन के निरोध से स्पर्श का निरोध होता है; 
स्पर्श के निरोध से वेदना का निरोध होता है; वेदना के निरोध से तृष्णा का निरोध होता है; तृष्णा के निरोध से उपादान का निरोध होता है;उपादान के निरोध से भव का निरोध होता है; भव के निरोध से जाति का निरोध होता है; जाति के निरोध से वेदना का जरा-मरण, शोक, रोने-कांदने, दुख=दौर्मनस्य' हैरानी-परेशानी का निरोध होता है।


☝भिक्खुओ! इस प्रकार (पूर्वोक्त क्रम से) जानते-देखते हुए क्या तुम पूर्व के छोर (=पूर्व-अंत=पुराने समय जन्म) की ओर दौड़ोगे-“अहो! क्या हम अतीत-काल में थे, या हम अतीत-काल में नहीं थे? 
अतीत-काल में हम क्या थे? 
अतीत काल में हम कैसे थे? 
अतीत-काल में क्या होकर हम क्या हुए थे?” 

🙏 नहीं, भन्ते!” ।

☝भिक्खुओ! इस प्रकार जानते देखते हुए, क्या तुम बाद के छोर (=अपर-अंत=आगे आनेवाले समय) की ओर दौड़ोगे-“अहो! क्या हम भविष्य काल में होंगे, या हम भविष्य काल में नहीं होंगे? भविष्य काल में हम क्या होंगे? हम कैसे होंगे? भविष्य काल में क्या होकर हम क्या होंगे?” 

🙏नहीं, भन्ते!” ।

☝“भिक्खुओ! इस प्रकार जानते देखते हुए, क्या तुम इस वर्तमान काल में अपने भीतर इस प्रकार कहने-सुननेवाले (=कथंकथी) होंगे-“अहो! क्या मैं हूं, “या मैं नहीं हूं? मैं क्या हूं? मैं कैसा हूं? यह सत्त्व (=प्राणी) कहां से आया? वह कहां जाने वाला होगा?”

🙏“नहीं, भन्ते!”

☝भिक्खुओ! इस प्रकार देखते जानते क्या तुम ऐसा कहोगे-‘शास्ता (=उपदेष्टा) हमारे गुरु हैं, शास्ता के गौरव ( के ख्याल) से हम ऐसा कहते हैं–?”

🙏नहीं, भन्ते!”

☝“भिक्खुओ! इस प्रकार देखते जानते ऐसा कहोगे- ‘श्रमण (=संन्यासी) ने हमें ऐसा कहा, श्रमण के वचन से हम ऐसा कहते हैं ?',

🙏नहीं, भन्ते!” 

☝भिक्खुओ! इस प्रकार देखते-जानते क्या तुम दूसरे शास्ता के अनुगामी होगे?”

🙏 नहीं, भन्ते!”

☝“क्या तुम नाना श्रमण ब्राह्मणों के (जो वे) व्रत, कौतुक, मंगल (संबंधी क्रियाएं) हैं, उन्हें सार के तौर पर ग्रहण करोगे?”

🙏नहीं, भन्ते!”

☝क्या भिक्खुओ! जो तुम्हारा अपना जाना है, अपना देखा है, अपना अनुभव किया है; उसी को तुम कहते हो?”

🙏हां, भन्ते!” ।

☝🌷“साधु भिक्खुओ! मैंने भिक्खुओ! तुम्हें समयान्तर में नहीं तत्काल, यहीं दिखाई देनेवाले, विज्ञों द्वारा अपने आप में जानने योग्य इस धर्म के पास उपनीत किया (=पहुंचाया) है।
☝ भिक्खुओ! ‘यह धर्म समयान्तर में नहीं तत्काल फलदायक है, (इसका परिणाम) यहीं दिखाई देनेवाला है, (यह) विज्ञ-जनो द्वारा अपने आप में जानने योग्य है' -यह जो कहा है, वह इसी (उक्त कारण) से ही कहा है।

☝भिक्खुओ! तीन के एकत्रित होने से गर्भ धारण होता है-माता और पिता एकत्र होते हैं, किंतु माता ऋतुमती नहीं होती और गंधर्व' उपस्थित नहीं होता; तो गर्भधारण नहीं होता। माता-पिता एकत्र होते हैं, माता ऋतुमती होती है; किंतु गन्धर्व उपस्थित नहीं होता, तो भी गर्भधारण नहीं होता। जब माता-पिता एकत्र होते हैं, माता ऋतुमती होती है, और गंधर्व उपस्थित होता है; इस प्रकार तीनों के एकत्रित होने से गर्भधारण होता है। तब उस गुरु-भार-वाले गर्भ को बड़े संयम के साथ माता कोख में नौ या दस मास धारण करती है। फिर उस गुरु भार वाले गर्भ को बड़े संयम के साथ माता नौ या दस मास के बाद जनती है। तब उस जात (=सन्तान) को भिक्खुओ! माता अपने ही लोहित से पोसती है। भिक्खुओ! आर्यों के मत में यह लोहित (=खून) ही है, जो कि यह माता का दूध है।

🌷तब भिक्खुओ! वह कुमार बड़ा होने पर, इन्द्रियों के परिपक्व होने पर जो वह बच्चों के खिलौने हैं, जैसे कि-वंकक (=वंका), घटिक (=घड़िया), माक्खचिक (=मुंह का लटू), चिंगुलक (=चिंगुलिया), पात्र-आढक (=तराजू का खिलौना), रथक (=खिलौने की गाड़ी), धनुक (=धनुही)-उनसे खेलता है।

🌷तब भिक्खुओ! वह कुमार (और) बड़ा होने पर, इन्द्रियों के परिपक्व होने पर, संयुक्त संलिप्त हो, पांच (प्रकार के) काम-गुणों (विषय-भोगों)-चक्षु से विज्ञेय इष्ट (=अभिलषित) कान्त (=कमनीय), मनोज्ञ, प्रिय, कामनायुक्त, रंजनीय रूपों, श्रोत्र से विज्ञेय शब्दों, घ्राण से विज्ञेय गन्धों; जिह्वा से विज्ञेय रसों; काया से विज्ञेय स्पर्शो–को सेवन करता है। वह *चक्षु (=आंख) से प्रिय रूपों को देखकर राग-युक्त होता है* , अ-प्रिय रूपों को देखकर द्वेष-युक्त होता है। कायिक स्मृति (=होश)को न कायम रख छोटे चित्त से विहरता है। (वह) उस चित्त की विमुक्ति और प्रज्ञा की विमुक्ति (=मुक्ति)का ठीक से ज्ञान नहीं करता; जिससे कि उसकी सारी बुराइयां=अकुशल-धर्म निरुद्ध हो जाएं। वह इस प्रकार अनुरोध (=राग), विरोध में पड़ा सुखमय दुखमय न-सुख-न-दुखमय-जिस । किसी वेदना को वेदन (=अनुभव) करता है उसका वह अभिनन्दन करता है, अभिवादन करता है, अवगाहन करता है। इस प्रकार अभिनन्दन करते, अभिवादन करते, अवगाहन करते रहते उसे नन्दी (=तृष्णा) उत्पन्न होती है, वेदनाओं के विषय में जो यह नन्दी है, (यही) उसका उपादान है, उसके उपादान के कारण भव होता है, भव के कारण जाति, जाति के कारण जरा-मरण, शोक, रोना-कांदना, दुख=दौर्मनस्य, हैरानी-परेशानी होती है। इस प्रकार इस सम्पूर्ण दुख-स्कंध की उत्पत्ति=समुदय, होता है। वह श्रोत्र से प्रिय शब्दों को सुनकर... घ्राण से प्रिय गंधों को सूंघकर... जिह्वा से प्रिय रसों को चखकर... काया से प्रिय स्प्रष्टयों को छूकर... मन में प्रिय धर्मों को जानकर... । इस प्रकार इस सम्पूर्ण दुख-स्कंध की उत्पत्ति होती है।

🌷भिक्खुओ! यहां लोक में तथागत, अर्हत्, सम्यक्-सम्बुद्ध, विद्या-आचरण-युक्त, सुगत, लोक-विद्, पुरुषों के अनुपम-चाबुक-सवार, देवताओं-और-मनुष्यों के उपदेष्टा भगवान बुद्ध उत्पन्न होते हैं। वे ब्रह्मलोक, मारलोक, देवलोक सहित इस लोक को, देव-मनुष्य-सहित श्रमण-ब्राह्मण-युक्त (सभी) प्रजा को स्वयं समझ कर=साक्षात्कारकर (धर्म को) बतलाते हैं। वे आदि में कल्याण (-कारी), मध्य में कल्याण (-कारी), अंत में कल्याण (-कारी) धर्म को अर्थ-सहित=व्यञ्जन-सहित उपदेशते हैं। वे केवल (=मिश्रण-रहित) परिपूर्ण परिशुद्ध ब्रह्मचर्य को प्रकाशित करते हैं। उस धर्म को गृहपति या गृहपति का पुत्र, या और किसी छोटे कुल में उत्पन्न (पुरुष) सुनता है। वह उस धर्म को सुनकर तथागत के विषय में श्रद्धा लाभ करता है। वह उस श्रद्धा-लाभ से संयुक्त हो सोचता है-यह-वास जंजाल है, मैल का मार्ग है। प्रव्रज्या (=संन्यास) खुला मैदान है। इस नितान्त सर्वथा-परिशुद्ध, खरादे शंख जैसे (=उज्ज्वल) ब्रह्मचर्य का पालन घर में रहते सुकर नहीं है। क्यों न मैं सिर-दाढ़ी मुंड़ाकर, काषाय वस्त्र पहन, घर से बेघर हो प्रव्रजित हो जाऊं?' सो वह दूसरे समय अपनी अल्प भोग-राशि को या महा-भोग-राशि को, अल्प-ज्ञाति-मंडल को या महा-ज्ञाति-मंडल को छोड़ सिर-दाढ़ी मुंड़ा, काषाय वस्त्र पहन घर से बेघर हो प्रव्रजित (=संन्यासी) होता है।

🌷"वह इस प्रकार प्रव्रजित हो, भिक्खुओं की शिक्षा, समान-जीविका को प्राप्त हो, प्राणातिपात छोड़, प्राणिहिंसा से विरत होता है। दंड-त्यागी, शस्त्र त्यागी, लज्जालु, दयालु, सर्व प्राणियों, सारे प्राणि-भूतों का हित और अनुकम्पक हो विहरता है। अ-दिन्नादान (=चोरी) छोड़, दिन्नदायी (=दिए का लेनेवाला), दिए का चाहने वाला, पवित्र चित्त हो विहरता है। अ-ब्रह्मचर्य को छोड़ ब्रह्मचारी हो, ग्राम्य-धर्म मैथुन से विरत हो, आर-चारी (=दूर रहनेवाला) होता है। मृषावाद को छोड़, मृषावाद से विरत हो, सत्यवादी सत्य-संघ, लोक का अ-विसंवादक=विश्वास-पात्र होता है। पिशुन-वचन (=चुगली) छोड़, पिशुन-क्चन से विरत होता है-इन्हें फोड़ने के लिए यहां से सुनकर वहां कहनेवाला नहीं होता; या उन्हें फोड़ने के लिए वहां से सुनकर यहां कहनेवाला नहीं होता। (वह तो) फूटों को मिलानेवाला, मिले हुओं को न फोड़नेवाला, एकता में प्रसन्न, एकता में रत, एकता में आनन्दित हो, एकता करने वाली वाणी का बोलने वाला होता है। कटुवचन छोड़ कटु-वचन से विरत होता है। जो वह वाणी कर्ण-सुखा, प्रेमणीया, हृदयंगमा, सभ्य, बहुजन-कान्ता=बहुजन-मनाप है, वैसी वाणी का बोलनेवाला होता है। प्रलाप को छोड़ प्रलाप से विरत होता है। समय देखकर बोलनेवाला, यथार्थवादी=अर्थ-वादी, धर्म-वादी, विनय-वादी हो, तात्पर्य-युक्त, फल-युक्त, सार्थक, सारयुक्त वाणी का बोलनेवाला होता है।

🌷“वह बीज समुदाय, भूत-समुदाय के विनाश से विरत होता है। एकाहारी, रात को उपरत, विकाल (=मध्याह्नोत्तर)-भोजन से विरत होता है। माला, गंध विलेपन के धारण, मंडन, विभूषण से विरत होता है। उच्च-शयन और महाशयन से विरत होता है। सोना-चांदी लेने से विरत होता है। कच्चा अनाज लेने से विरत होता है। कच्चा मांस लेने से विरत होता है। स्त्री-कुमारी, दासी-दास, “भेड़-बकरी, मुर्गी-सूअर, हाथी-गाय, घोड़ा, खेत-घर लेने से विरत होता है। दूत बनकर जाने से विरत होता है। क्रय-विक्रय करने से विरत होता है। तराजू की ठगी, कांसे की ठगी, मान (=मन, सेर आदि तौल) की ठगी से विरत होता है। घूस, वंचना, जालसाजी, कुटिया-योग। छेदन, वध, बंधन, छापा मारने, ग्राम आदि के विनाश करने, डाका डालने से विरत होता है।

🌷वह शरीर के वस्त्र, और पेट के खाने से सन्तुष्ट रहता है। वह जहां-जहां जाता है (अपना सामान) लिए ही जाता है, जैसे कि पक्षी जहां कहीं उड़ता है, अपने पक्ष-भार के साथ ही उड़ता है। इसी प्रकार भिक्खु शरीर के वस्त्र, और पेट के खाने से सन्तुष्ट रहता है। वह इस प्रकार आर्य (=निर्दोष) शील-स्कंध (=सदाचार-समूहोसे युक्त हो; अपने भीतर निर्मल सुख को अनुभव करता है।

🌷“वह आंख से रूप को देखकर, निमित्त (=आकृति आदि) और अनुव्यंजन (=चिह) का ग्रहण करनेवाला नहीं होता। चूंकि चक्षु इन्द्रिय को अ-रक्षित रख विहरने वाले को, राग, द्वेष, बुराइयां=अ-कुशल धर्म उत्पन्न होते हैं; इसलिये वह उसे सुरक्षित रखता है; चक्षु-इन्द्रिय की रक्षा करता है-चक्षु-इन्द्रिय में संवर ग्रहण करता है। वह श्रोत्र से शब्द सुनकर निमित्त और अनुव्यंजन का ग्रहण करनेवाला नहीं होता...। घ्राण से गंध ग्रहणकर...। जिह्वा से रस ग्रहणकर...। काया से स्पर्श ग्रहणकर ...। मन से धर्म ग्रहणकर...। इस प्रकार वह आर्य इन्द्रिय-संवर से युक्त हो, अपने भीतर निर्मल सुख को अनुभव करता है। 
🌷 “वह आने-जाने में, जानकर करनेवाला (=संप्रजन्य-युक्त) होता है। अवलोकन-विलोकन में संग्रजन्य-युक्त होता है। समेटने में, फैलाने में, ...संघाटी-पात्र-चीवर के धारण करने में, ...खानपान भोजन आस्वादन में... । मल-मूत्र विसर्जन में, जाते-खड़े होते, बैठते, सोते-जागते, बोलते, चुप रहते। इस प्रकार वह आर्य स्मृति-संप्रजन्य से युक्त हो, अपने में निर्मल सुख को अनुभव करता है।

🌷वह इस आर्य-शील-स्कंध से युक्त, इस आर्य इन्द्रिय-संवर से युक्त, इस आर्य स्मृति-संप्रजन्य से युक्त हो, एकान्त में-अरण्ड, वृक्ष-छाया, पर्वत, कन्दरा, गिरि-गुहा, श्मशान, वन-प्रान्त, खुले मैदान, या पुआल के गंज में-वास करता है। वह भोजन के बाद आसन मारकर, काया को सीधा रख, स्मृति को सम्मुख ठहरा कर बैठता है। वह लोक में -
🌷(1) अभिध्या (=लोभ) को छोड़, अभिध्या रहित चित्तवाला हो विहरता है; चित्त को अभिध्या से शुद्ध करता है। 
🌷(2) व्यापद (=द्रोह)-दोष को छोड़कर, व्यापाद-रहित चित्त-वाला हो, सारे प्राणियों का हितानुकम्पी हो विहरता है; व्यापाद के दोष से चित्त को शुद्ध करता है। 
🌷(3) स्त्यान-मृद्ध (=शारीरिक-मानसिक आलस्य) को छोड़ स्त्यान-मृद्ध-रहित हो, आलोक-संज्ञावाला (=रोशन-ख्याल) हो, स्मृति और संप्रजन्य (=होश) से युक्त हो विहरता है...। 
🌷(4)औद्धत्य-कौकृत्य (=उद्धतपने और हिचकिचाहट) को छोड़, अनुद्धत भीतर से शान्त हो विहरता है। ...
🌷(5) विचिकित्सा (=सन्देह) को छोड़, विचिकित्सा-रहित हो, निस्संकोच भलाइयों में (लग्न) हो विहरता है; विचिकित्सा से चित्त को शुद्ध करता है।

☝वह इन (अभिध्या आदि) पांच नीवरणों को चित्त से हटा, उपक्लेशों (=चित्त-मलों) को जान, उनके दुर्बल करने के लिए, काम (=विषयों) से अलग हो, बुराइयों से अलग हो, विवेक से उत्पन्न एवं वितर्क-विचार-युक्त प्रीति-सुख-वाले *प्रथम ध्यान* को प्राप्त हो विहरता है। और फिर भिक्खुओ! वह वितर्क और विचार के शान्त होने पर, भीतर की प्रसन्नता=चित्त की एकाग्रता को प्राप्तकर, वितर्क-विचार-रहित, समाधि से उत्पन्न प्रीति-सुख वाले *द्वितीय ध्यान* को प्राप्त हो विहरता है। और फिर भिक्खुओ! वह प्रीति और विराग से उपेक्षावाला हो, स्मृति और संप्रजन्य से युक्त हो, काया से सुख अनुभव करता विहरता है। जिस (से युक्त) को कि आर्य लोग उपेक्षक, स्मृतिमान् और सुखविहारी कहते हैं, ऐसे *तृतीय ध्यान* को प्राप्त हो विहरता है। और फिर भिक्खुओ! वह सुख और दुख के विनाश से, सौमनस्य (=चित्त-तुष्टि) और दौर्मनस्य (=चित्त की असंतुष्टि) के पूर्व ही अस्त हो जाने से, दुख-सुख-रहित और उपेक्षक हो, स्मृति की शुद्धता से युक्त *चतुर्थ ध्यान* को प्राप्त हो विहरता है।

🌷“वह चक्षु से रूप को देखकर, प्रिय रूप में राग-युक्त नहीं होता; अ-प्रिय रूप में द्वेष-युक्त नहीं होता; विशाल चित्त के साथ कायिक स्मृति को कायम रखकर विहरता है। (वह) उस चित्त के विमुक्ति (=मुक्ति) और प्रज्ञा की विमुक्ति को ठीक से जानता है; जिसमें कि उसकी सारी बुराइयां=अकुशल-धर्म निरुद्ध हो जाते हैं। वह इस प्रकार अनुरोध विरोध से रहित हो, सुखमय, न-सुख-न-दुख-मय-जिस किसी देवता को अनुभव करता है, ...उसका वह अभिनंदन नहीं करता, अभिवादन नहीं करता, (उसमें) अवगाहन कर नहीं स्थित होता। इस प्रकार अभिनंदन न करते, अभिवादन न करते, अवगाहन न करते, जो वेदना-विषयक नन्दी (=तृष्णा) है, वह उसकी निरुद्ध (=नष्ट) हो जाती है। उस नन्दी के निरोध से उपादान (=रागयुक्त ग्रहण) को निरोध, होता है। उपादान के निरोध से भव का निरोध, भव के निरोध से जाति (जन्म) का निरोध, जाति के निरोध से जरा-मरण, शोक, रोने-कांदने, दुख=दौर्मनस्य, हैरानी-परेशानी का निरोध होता है। इस प्रकार इस सारे दुख-स्कंध (=दुख-पुंज) का निरोध होता है। 
🌷श्रोत्र से शब्द सुन कर...। 
🌷घ्राण से गंध सूंघ कर...।
🌷 जिह्वा से रस को चख कर...। 
🌷काया से स्पष्टव्य (स्पर्श वस्तु) को छू कर...।
🌷 मन से धर्म को जानकर प्रिय धर्मों में राग-युक्त नहीं होता, अ-प्रिय धर्मों में द्वेष-युक्त नहीं होता...। 

☝इस प्रकार इस सारे दुख स्कंध का निरोध होता है।

☝🌷भिक्खुओ! मेरे संक्षेप से कहे इस तृष्णा-संक्षय-विमुक्ति (=तृष्णा के विनाश से होने वाली मुक्ति) को धारण करो; केवट्टपुत्त साति भिक्खु को तृष्णा के महाजाल-तृष्णा के महा-संघाट में फंसा (जानो) ।”

🌷भगवा (भगवान) ने वह कहा, सन्तुष्ट हो उन भिक्खुओं ने भगवा के भाषण का अभिनन्दन किया।


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🌿🌿अर्थविशेष-

1, मोघ (बनारसी हिन्दी)=फजूल का आदमी।

2. रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान ये पांच।
    खन्ध (स्कंध) हैं। 
- वेदना, संज्ञा, संस्कार रूप के संबंध से विज्ञान
  ही की तीन अवस्थाएं हैं, इस प्रकार वे उसके
  अन्तर्गत हैं। 
- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, ये रूप-स्कंध हैं। 
- जिसमें न भारीपन है, और जो न जगह घेरता
  है, वह विज्ञान-स्कध है। 
- रूप और विज्ञान के मेल से ही सारा संसार
  बना है।

3. चक्षु आदि पांच  इन्द्रियां और छठा मन,
    ये छह आयतन है।

4. रूप चार-भूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु) को
    कहते हैं, 
                          और
             नाम विज्ञान को कहते हैं ।

5. गंदब्भ (गंदर्भ) - उत्पन्न होने वाला चेतना
    प्रवाह।

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Wednesday, July 17, 2019

🌷महास्कन्धक🌷

🌷महास्कन्धक🌷


1-बुद्धत्त्व लाभ और बुद्धकी प्रथम यात्रा

उरुवेला
🌹 (1) बोधि-कथा 
उस समय बुद्ध भगवान् उरुवेला में नेरंजरा नदी के तीर बोधि-वृक्ष के नीचे, प्रथम बुद्धपद (अभिसंबोधि)को प्राप्त हुए थे। भगवान् बोधिवृक्ष के नीचे सप्ताह भर एक आसन से मोक्ष का आनंद लेते हुए बैठे रहे । उन्होंने रात के प्रथम याम में प्रतीत्यसमुत्पादका अनुलोम (आदि से अन्त की ओर) और प्रतिलोम (अन्त से आदि की ओर) मनन किया।--“अविद्याके कारण संस्कार होता है, संस्कार के कारण विज्ञान होता है, विज्ञान के कारण नाम-रूप, नाम-रूप के कारण छ आयतन, छ आयतनों के कारण स्पर्श, स्पर्श के कारण वेदना, वेदना के कारण तृष्णा, तृष्णा के कारण उपादान, उपादान के कारण भव, भव के कारण जाति, जाति (जन्म)के कारण जरा (बुढ़ापा), मरण, शोक, रोना पीटना, दुःख, चित्त-विकार और चित्त-खेद उत्पन्न होते हैं । इस तरह इस (संसार)की–जो केवल दुःखों का पुंज है—उत्पत्ति होती है। अविद्या के बिल्कुल विराग से, (अविद्या का) नाश होने से, संस्कार का विनाश होता है। संस्कार-नाश से विज्ञान का नाश होता है। विज्ञान-नाश से नाम-रूप का नाश होता है। नाम-रूप के नाश से छ आयतनों का नाश होता है। छ आयतनों के नाश से स्पर्श का नाश होता है। स्पर्श-नाश से वेदना का नाश होता है। वेदना-नाश से तृष्णा का नाश होता है। तृष्णा-नाश से उपादान का नाश होता है। उपादान-नाश से भव का नाश होता है। भव-नाश से जाति का नाश होता है। जाति नाश से जरा, मरण, शोक, रोना-पीटना, दुःख, चित्त-विकार और चित्त-खेद नाश होते हैं। इस प्रकार इस केवल दुःख-पुञ्ज का नाश होता है। भगवान्ने इस अर्थको जानकर, उसी समय यह उदान कहा – 
जब धर्म होते जग प्रकट, 
सोत्साह ध्यानी विप्र (ब्राह्मण) को।
तब शांत हों कांक्षा सभी, 
देखे स-हेतू धर्म को ॥" 

फिर भगवान्ने रातके मध्यम-याम में प्र तीत्य - समुत्पाद को अनुलोम-प्रतिलोम से मनन किया।--“अविद्याके कारण संस्कार होता है० दुःख पुंजका नाश होता है। भगवान्ने इस अर्थको जानकर उसी समय यह उदान कहा--
"जब धर्म होते जग प्रकट, 
सोत्साह ध्यानी विप्र को।
तब शांत हों कांक्षा सभी ही 
जान कर क्षय-कार्य को ।” 

फिर भगवान्ने रात के अन्तिम-याम में प्रतीत्यसमुत्पाद को अनुलोम-प्रतिलोम करके मनन किया।--"अविद्या केवल दुःख-पुंज का नाश होता है। भगवान्ने इस अर्थको जानकर उसी समय यह उदान कहा--
“जब धर्म होते जग प्रकट, 
सोत्साह ध्यानी विप्रको। 
ठहरे कॅपाता मार-सेना, 
रवि प्रकाशै गगन ज्यों ॥

 🌹 (2) अजपाल कथा 
सप्ताह बीतने पर भगवान् उस समाधिसे उठकर, बोधि वृक्ष के नीचे से वहाँ गये, जहाँ अजपाल नामक बर्गद का वृक्ष था, वहाँ पहुँचकर अजपाल बर्गद के वृक्ष के नीचे सप्ताह भर मोक्ष का आनंद लेते हुए, एक आसन से बैठे रहे। उस समय कोई अभिमानी ब्राह्मण, जहाँ भगवान् थे, वहाँ आया। पास आकर भगवान्के साथ.... (कुशल क्षेम पूछ)....एक ओर खडा होगया। एक ओर खडे हुए उस ब्राह्ममण ने भगबान्से यों कहा-“हे गौतम ! ब्राह्मण कैसे होता है ? ब्राह्मण बनाने वाले कौन से धर्म है ?  भगवान्ने इस अर्थ को जानकर, उसी समय यह उदान कहा—

“जो विप्र बाहित-पाप मल-अभिमान-बिनु संयत रहे । 
वेदांत-पारग; ब्रह्मचारी ब्रह्मवादी धर्म से। 
सम नहिं कोई जिससा जगत् (में) ।"

🌹(3) मुचलिन्द कथा 
फिर सप्ताह बीतने पर भगवान् उस समाधिसे उठ, अजपाल बर्गद के नीचे से वहाँ गये, जहाँ मुचलिंद ( वृक्ष ) था। वहाँ पहुँचकर मुचलिद के नीचे सप्ताह भर मोक्ष का आनन्द लेते हुए एक आसन से बैठे रहे। उस समय सप्ताह भर अ-समय महामेघ, (और) ठंडी हवा-वाली बदली पडी । तब मुचलिन्द नाग-राज अपने घर से निकलकर भगवान्के शरीरको सात बार अपने देह से लपेटकर, शिरपर बळा फण तानकर खळा हो गया जिसमें कि भगवान्को शीत, उष्ण, डॅस, मच्छर, वात, धूप तथा रेंगनेवाले जन्तु न छूनें। सप्ताह बाद मुचलि न्द नागराज आकाश को मेघ-रहित देख, भगबान्के शरीरसे (अपने ) देह को हटाकर (और उसे) छिपाकर, बालक का रूप धारणकर भगवान्के सामने खडा हुआ। भगवान्ने इसी अर्थको जानकर उसी समय यह उदान कहा—
सन्तुष्ट देखनहार श्रुतधर्मा, सुखी एकान्तमें। 
निर्द्वन्द्व सुख है लोकमें, संयम जो प्राणी मात्रमें ॥ 
सब कामनायें छोडना, वैराग्य है सुख लोक में । 
है परम सुख निश्चय वही, जो साधना अभिमानका ॥

🌹 (4) राजायतन कथा 
सप्ताह बीतनेपर भगवान् फिर उस समाधिसे उठ, मुचलिद के नीचे से वहाँ गये, जहाँ राजायतन (वृक्ष) था। वहाँ पहुँचकर राजायतन के नीचे सप्ताह भर मोक्ष का आनन्द लेते हुए एक आसन से वैठे रहे। उस समय तपस्सु और भल्लिक, (दो) बनजारे उकल देश से उस स्थान पर पहुँचे। उनकी जात-बिरादरी के देवताने तपस्सु, भल्लिक बनजारो से कहा-"मार्ष (मित्र) ! बुद्धपद को प्राप्त हो यह भगवान् राजायतन के नीचे विहार कर रहे हैं । जो उन भगवान्को मट्ठे (मन्थ) और लड्डू (मधुपिंड)से सम्मानित करो, यह् (दान) तुम्हारे लिये चिरकाल तक हित और सुखका देनेवाला होगा। तब तपस्सु और भल्लिक बनजारे मट्ठा और लड्डू ले जहा भगवान् थे वहाँ गये। पास जाकर भगवान को अभिवादन कर एक तरफ खड़े हो गये। एक तरफ खड़े हुए तपस्सु और भल्लिक बनजारों ने यह कहा—
“भन्ते ! भगवान् ! हमारे मट्ठे और लड्डुओं को स्वीकार कीजिये, जिससे कि चिरकाल तक हमारा हित और सुख हो।”

उस समय भगवान्ने सोचा-“तथागत (भिक्षा को) हाथ में नहीं ग्रहण किया करते; मैं मट्ठा और लड्डू किस (पात्र) में ग्रहण करूं।" तब चारों महाराजा भगवानु के मन की बात जान, चारों दिशाओं से चार पत्थर के (भिक्षा-) पात्र भगवान्के पास ले गये-"भन्ते ! भगवान् ! इसमें मट्ठा और लड्डू ग्रहण कीजिये ।” भगवान्ने उस अभिनव शिलामय पात्र में मट्ठा और लड्डू ग्रहणकर भोजन किया। उस समय तपस्सु, भल्लिक बनजारों ने भगवान्से कहा--'भन्ते ! हम दोनों भगवान् तथा धर्म की शरण जाते हैं। आजसे भगवान् हम दोनोंको अंजलिबद्ध शरणागत उपासक जानें ।” संसारमें वही दोनों (बुद्ध और धर्म) दो वचनों-से प्रथम उपासक हुए।

🌹 (5) ब्रह्मयाचन कथा 
सप्ताह बीतनेपर भगवान् फिर उस समाधि से उठ, राजायतन के नीचे से जहाँ अजपाल बर्गद था, वहाँ गये। वहाँ अजपाल बर्गद के नीचे भगवान् विहार करने लगे। तब एकान्त में ध्यानावस्थित भगवान्के चित्तमें  वितर्क पैदा हुआ--"मैने गंभीर, दुर्दर्शन, दुर्-ज्ञेय, शांत, उत्तम, तर्क से अप्राप्य, निपुण, पण्डितों द्वारा जानने योग्य, इस धर्म को पा लिया। यह जनता काम-तृष्णा (आलय में) रमण करने वाली काम-रत काम में प्रसन्न है। काम में रमण करनेवाली इस जनता के लिये, यह जो कार्य कारण रूपी प्रतीत्य - समुत्पाद है, वह दुर्दर्शनीय है; और यह भी दुर्दर्शनीय है, जो कि यह सभी संस्कारों का शमन, सभी मन्त्रों का परित्याग, तृष्णाका क्षय, विराग, निरोध (दुख-निरोध), और निर्वाण है। मैं यदि धर्मोपदेश भी करूं और दूसरे उसको न समझ पावें, तो मेरे लिये यह तरदुद्द, और पीड़ा (मात्र) होगी। उसी समय भगवान्को पहिले कभी न सुनी, यह अद्भुत गाथायें सुझ पड़ीं—

यह धर्म पाया कष्टसे, इसका न युक्त प्रकाशना । 
नहिं राग-द्वेष-प्रलिप्त को है सुकर इसका जानना। 
गंभीर उल्टी-धारयुत दुर्दृश्य सूक्ष्म प्रवीणका।
तम-पुंज-छादित रागरतद्वारा न संभव देखना ॥”

{ इस प्रकार (वैशाख पूर्णिमा के दूसरे दिन) प्रतिपद की रात को यह मन में कर (1) बोधि वृक्षके नीचे सप्ताह भर एक आसनसे बैठे।•••तब भगवान्ने आठवे दिन समाधि से उठ•••• (2) (वज्र-) आसन से थोड़ा पूर्वलिये उत्तर दिशा में खड़े हो.••• (वज्र -) आसन और बोधि वृक्षको, बिना पलक गिराये (अनिमेष) नेत्रों से देखते सप्ताह बिताया। वह स्थान अनिमेषं चैत्य नामवाला हुआ। फिर•••• (3) (वज्र-)आसन और खड़े होने (अनिमेष चैत्य) के स्थान के बीच, पूव से पश्चिम लम्बे रत्न-चंक्रम (रत्नमय टहलने के स्थान) पर टहलते सप्ताह बिताया, वह रत्न-चंक्रम चैत्य नामवाला हुआ।•••• (4) उसके पश्चिम दिशा में देवताओं ने रत्नघर बनाया। वहाँ आसन मार बेठ अभिधर्म-पिटक....पर विचार करते सप्ताह बिताया। वह स्थान रत्नघर-चैत्य नामवाला हुआ। इस प्रकार बोधि के पास चार सप्ताह बिता, पाँचवें सप्ताह बोधिवृक्ष से जहाँ•••• (5) अजपाल न्यग्रोध था, (भगवान्) वहाँ गये। उस न्यग्रोध (बर्गद) के नीचे बकरी चरानेवाले (अजपाल) जाकर बैठते थे, इसलिये उसका अजपाल न्यग्रोध नाम हुआ ।... बोधिसे पूर्वदिशा में यह वृक्ष था।•••• (6) मुचलन्द वृक्ष के पास वाली पुष्करिणी में उत्पन्न यह दिव्य शक्तिधारी नागराज था।... महाबोधि के पूर्वकोण मे स्थित (उस) मुचलिन्द वृक्ष से•••• (7) दक्षिण दिशा में स्थित राजायतन वृक्षके पास गए। (--अट्ठकथा) }}

 भगवान्के ऐसा समझने के कारण, (उनका) चित्त धर्मप्रचार की ओर न झुककर अल्प-उत्सुकता की ओर झुक गया। तब सहापति ब्रह्मा ने भगवान्के चित्त की बात को जानकर विचार किया-- लोक नाश हो जायगा रे ! जब तथागत अर्हत् सम्यक् संबुद्ध का चित्त धर्म-प्रचार की ओर न झुक, अल्प उत्सुकता (उदासीनता) की ओर झुक जाये ।”

(ऐसा विचार कर) सहापति ब्रह्मा, जैसे बलवान् पुरुष (बिना परिश्रम) फैली बाँह को समेंट ले, समेटी बाँह को फैला दे, ऐसे ही ब्रह्मलोक से अन्तर्धान हो, भगवान्के सामने प्रकट हुए। फिर सहापति ब्रह्मा ने उपरना (चद्दर) एक कंधे पर करके, दाहिने जानु को पृथिवी पर रख, जिधर भगवान् थे उधर हाथ जोड़, भगवान से कहा-“भन्ते ! भगवान् धर्मोपदेश करें,सुगत ! धर्मोपदेश करें। अल्पमल वाले प्राणी भी हैं, धर्म के न सुनने से वह नष्ट हो जायेंगे। (उपदेश करें) धर्म को सुनने वाले भी होवेंगे” 
सहापति ब्रह्माने यह कहा, और यह कहकर यह भी कहा—

"मगध में मलिन चित्तवालों से चिन्तित, पहिले अशुद्ध धर्म पैदा हुआ।
(अब संसार ) अमृत के द्वारको खोलने वाले विमल (पुरुष) से जाने गये इस धर्मको सुने । । 
“पथरीले पर्वतके शिखरपर खड़ा (पुरुष) जैसे चारों ओर जनता को देखे। 
उसी तरह हे सुमेध ! हे सर्वत्र नेत्रवाले ! धर्मरूपी महल पर चढ़ सब जनताको  देखो।
"हे शोक-रहित ! शोक-निमग्न जन्मजरा से पीडित जनता की ओर देखो। 
उठो वीर ! हे संग्रामजित् ! हे सार्थवाह ! उऋण-ऋण ! जग में विचरो, धर्मप्रचार करो, भगवान् ! जाननेवाले भी मिलेंगे।" । 

तब भगवान्ने ब्रह्मा के अभिप्राय को जानकर, और प्राणियों पर दया करके, बुद्ध-नेत्र से लोक का अवलोकन किया। बुद्ध-चक्षु से लोक को देखते हुए भगवान्ने जीवों को देखा, उनमें कितने ही अल्पमल, तीक्ष्ण-बुद्धि, सुन्दर-स्वभाव, समझाने में सुगम प्राणियों को भी देखा। उनमें कोई कोई परलोक और दोष से भय करते, विहर रहे थे। जैसे उत्पलिनी, पद्मिनी (पद्मसमुदाय) या पुंडरीकिनी में से कितने ही उत्पल, पद्म या पुंडरीक उदक में पैदा हुए उदक में बँधे उदक से बाहर न निकल (उदक के) भीतर ही डूबकर पोषित होते हैं। कोई कोई उत्पल (नीलकमल), पद्म (रक्तकमल), या पुंडरीक (श्वेतकमल) उदक में उत्पन्न, उदक में बँधे (भी) उदक के बराबर ही खड़े होते हैं। कोई कोई उत्पल, पद्म या पुंडरीक उदक में उत्पन्न, उदकसे  बँधे (भी), उदक से बहुत ऊपर निकलकर, उदक से अलिप्त (हो) खड़े होते हैं । इसी तरह भगवान्ने बुद्ध-चक्षु से लोक को देखा—अल्पमल, तीक्ष्णबुद्धि, सुस्वभाव, सुबोध्य प्राणियों को देखा जो परलोक तथा बुराईसे भय खाते विहर रहे थे। देखकर सहापति ब्रह्मा से गाथाद्वारा कहा—

‘उनके लिये अमृत का द्वार बंद होगया, जो कानवाले होने पर भी, श्रद्धाको छोड़ देते हैं। 'हे ब्रह्मा ! (वृथा) पीड़ा का विचार कर मैं मनुष्यों को निपुण, उत्तम, धर्म को नहीं कहता था।'

🌹 (6) धर्म चक्र प्रवर्तन 
तब ब्रह्मा सहापति--‘भगवान्ने धर्मोपदेश के लिये मेरी बात मानली' यह जान, भगवान को, अभिवादन कर प्रदक्षिणा कर वहीं अन्तर्धान हो गये।
उस समय भगवान्के (मनमें) हुआ--"मैं पहिले किसे इस धर्मकी देशना (उपदेश) करू इस धर्मको शीघ्र कौन जानेगा ?" फिर भगवान्के (मनमें ) हुआ—“यह आलार-कालाम पण्डित, चतुर मेधावी चिरकाल से निर्मल-चित्त है, मैं पहिले क्यों न आलार-कालाम को ही धर्मोपदेश दें ? वह इस धर्मको शीघ्र ही जान लेगा।” तब (गुप्त) देवता ने भगवान्से कहा-“भन्ते ! आलार-कालाम को मरे एक सप्ताह हो गया। भगवान्को भी ज्ञान-दर्शन हुआ--"आलार-कालाम को मरे एक सप्ताह हो गया। तब भगवान्के (मनमें) हुआ--"आलार-कालाम महा-आजानीय था, यदि वह इस धर्म को सुनता, शीघ्र ही जान लेता।" 

फिर भगवान्के (मनमें) हुआ--"यह उद्दकरामपुत पण्डित, चतुर, मेधावी, चिरकाल से निर्मल चित्त है, क्यों न मैं पहिले उद्दक-रामपुत्त को ही धर्मोपदेश करू ? वह इस धर्म को शीघ्र ही जान लेगी।' तब (अन्तर्धान) देवता ने आकर कहा--"भन्ते ! रात ही उद्दकरामपुत्त मर गया। भगवान्को भी ज्ञान-दर्शन हुआ।.... उद्दकरामपुत्त महा-आजानीय था, यदि वह इस धर्म को सुनता, शीघ्र ही जान लेता।" 

फिर भगवान्के (मन में) हुआ--"पञ्च-वर्गीय भिक्षु मेरे बहुत काम करने वाले थे, उन्होंने साधना में लगे मेरी सेवा की थी। क्यों न मैं पहिले पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को ही धर्मोपदेश दूँ।" भगवान्ने सोचा--"इस समय पञ्चवर्गीय भिक्षु कहाँ विहर रहे हैं ?" भगवान्ने अ-मानुष विशुद्ध दिव्य नेत्रों से देखा--"पञ्चवर्गीय भिक्षु वाराणसी के ऋषिपतन मृगदाव में विहारकर रहे हैं।"

तब भगवान् उरुबेला में इच्छानुसार विहारकर, जिधर वाराणसी है, उधर चारिका (रामत) के लिये निकल पड़े। उपक आजीवक 'ने भगवान् को बोधि (बोध गया) और गया के बीच में जाते देखा । देखकर भगवान्से बोला--"आयुष्मान् (आवुस) ! तेरी इन्द्रियाँ प्रसन्न हैं, तेरी कांति परिशुद्ध तथा उज्वल है। किसको (गुरु) मानकर, हे आबुस ! तू प्रब्रजित हुआ है ? तेरा गुरु कौन है ? तू किसके धर्म को मानता है ?"
यह कहने पर भगवान्ने उपक आजीवकसे गाथा में कहा—
मैं सबको पराजित करनेवाला, सबको जाननेवाला हूँ। 
सभी धर्मों में निलेप हूँ। सर्व-त्यागी (हूँ), तृष्णाके क्षय से मुक्त हूँ। 
मैं अपने ही जानकर उपदेश करूंगा।
मेरा आचार्य नहीं है मेरे सदृश (कोई) विद्यमान नहीं । 
देवताओं सहित (सारे) लोक में मेरे समान पुरुष नहीं । 
मैं संसार में अर्हत् हूँ, अपूर्व उपदेशक हूँ । 
मैं एक सम्यक् संबुद्ध, शान्ति तथा निर्वाण को प्राप्त हूँ । 
धर्म का चक्का घुमाने के लिये काशियों के नगर को जा रहा हूँ।
(वहाँ) अन्धे हुए लोक में अमृत-दुन्दुभी बजाऊँगा ।” 
आयुष्मान् ! तू जैसा दावा करता है उससे तो अनन्त जिन हो सकता है।" 
मेरे ऐसे ही आदमी जिन होते हैं, जिनके कि चित्तमल (आस्रव) नष्ट हो गये हैं। 
मैने बुराइयोंको जीत लिया है, इसलिये हे उपक ! मैं जिन हूँ ।” 
ऐसा कहने पर उपक आजीवक—“होवोगे आवुस !" कह, शिर हिला, बेरास्ते चला गया।

🌹-वाराणसी 
तब भगवान् क्रमशः यात्रा करते हुए, जहाँ वाराणसी में ऋषि-पतन मृगदाव था, जहाँ पञ्चवर्गीय भिक्षु थे, वहाँ पहुँचे। पञ्चवर्गीय भिक्षुओंने भगवान्को, दूर से आते हुए देखा। देखते ही आपस में पक्का किया
“आवुसो ! साधना-भ्रष्ट जोडू बटोरू श्रमण गौतम आ रहा है। इसे अभिवादन नहीं करना चाहिये और न प्रत्युत्थान (सत्कारार्थ खडा होना) करना चाहिये। न इसका पात्र-चीवर (आगे बढ़कर) लेना चाहिये । केवल आसन रख देना चाहिये, यदि इच्छा होगी तो बैठेगा।"

जैसे जैसे भगवान् पञ्चवर्गीय भिक्षुओं के समीप आते गये, वैसे ही वैसे वह.... अपनी प्रतिज्ञापर स्थिर न रह सके। (अन्त में) भगवान्के पास जाने पर एकने भगवान्का पात्र-चीवर लिया, एकने आसन बिछाया; एकने पादोदक (पैर धोने का जल), पादपीठ (पैर का पीढ़ा) और पादकठलिका (पैर रगडनेकी लकडी) ला पास रक्खी। भगवान् बिछाये आसनपर बैठे। बैठकर भगवान्ने पैर धोये। उस समय वह लोग भगवान्के लिये ‘आवुस' शब्दको प्रयोग करते थे। ऐसा करने पर भगवान्ने कहा—
भिक्षुओ ! तथागत को नाम लेकर या ‘आवुस' कहकर मत पुकारो। भिक्षुओ ! तथागत अर्हत् सम्यक्सम्बुद्ध हैं। इधर कान दो, मैंने जिस अमृतको पाया है, उसका तुम्हें उपदेश करता हूँ । उपदेशानुसार आचरण करने पर, जिसके लिये कुलपुत्र घर से बेघर हो सन्यासी होते हैं, उस अनुपम ब्रह्मचर्य फल को, इसी जन्म में शीघ्र ही स्वयं जानकर, साक्षात्कारकर, लाभकर विचरोगे।" । 
“ऐसा कहने पर पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने भगवान्से कहा--‘आवुस ! गौतम ! उस साधना में, उस धारणा में और उस दुष्कर तपस्या में भी तुम आर्यों के ज्ञानदर्शन की पराकाष्ठा की विशेषता, उत्तरमनुष्य-धर्म (दिव्य शक्ति) को नहीं पा सके; फिर अब साधनाभ्रष्ट, जोडू-बटोरू हो तुम आर्य-ज्ञान-दर्शन की पराकाष्ठा, उत्तर-मनुष्य-धर्म को क्या पाओगे।'' 

यह कहने पर भगवान्ने पञ्चवर्गीय भिक्षुओं से कहा--"भिक्षुओ ! तथागत जोडू-बटोरू नहीं हैं, और न साधना से भ्रष्ट हैं, । भिक्षुओ ! तथागत अर्हत् सम्यक् संबुद्ध हैं ०।०.... लाभकर विहार करोगे।
दूसरी बार भी पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने भगवान्से कहा-“आवुस ! गौतम ०" दूसरी बार भी भगवान्ने फिर (वही) कहा० । 
तीसरी बार भी पञ्चवर्गीय भिक्षुओंने भगवान्से (वही) कहा ०। ऐसा कहने पर भगवान्ने पञ्चवर्गीय भिक्षुओं से कहा-“भिक्षुओ ! इससे पहले भी क्या मैंने कभी इस प्रकार बात की है ?"
भन्ते ! नहीं 
“भिक्षुओ ! तथागत अर्हत् सम्यक् संबुद्ध हैं,…  मैंने जिस अमृतको पाया है, उसका तुम्हें उपदेश करता हूँ । उपदेशानुसार आचरण करने पर, जिसके लिये कुलपुत्र घर से बेघर हो सन्यासी होते हैं, उस अनुपम ब्रह्मचर्य फल को, इसी जन्म में शीघ्र ही स्वयं जानकर, साक्षात्कारकर, लाभकर विचरोगे।"

तब भगवान् पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को समझाने में समर्थ हुए; और पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने भगवान्के (उपदेश) सुनने की इच्छासे कान दिया, चित्त उधर किया।.....
“भिक्षुओ ! साधुको यह दो अतियां सेवन नहीं करनी चाहिये। कौनसी दो ? 
(1) जो यह हीन, ग्राम्य, अनाडी मनुष्यों के (योग्य), अनार्य (-सेवित), अनर्थो से युक्त, कामवासनाओं में लिप्त होना है; और 
(2) जो दुःख (-मय), अनार्य (-सेवित) अनर्थो से युक्त आत्म-पीडा में लगना है। भिक्षुओ ! इन दोनों ही अतियों में न जाकर, तथागत ने मध्यम-मार्ग खोज निकाला है, (जोकि) सब नाशवान् है, यह विरज, विमल धर्मचक्षु उत्पन्न हुआ। 

इस उपदेश के कहे जाने के समय आयुष्मान् कौण्डिन्य को--"जो कुछ उत्पन्न होनेवाला है वह सब नाशवान् है’--यह विरज, निर्मल धर्म का नेत्र उत्पन्न हुआ।
इस प्रकार भगवान्के धर्म के चक्के के घुमाने (धर्म-चक्र के प्रवर्तन करने) पर भूमि के देवताओंने शब्द किया-“भगवान्ने यह वाराणसी के ऋषिपतन मृगदाव में उस अनुपम धर्म के चक्के को घुमाया जोकि किसी भी साधु, ब्राह्मण, देवता, मार, ब्रह्मा या संसार के किसी व्यक्ति से रोका नहीं जा सकता।' भूमि के देवताओं के शब्द को सुनकर चतुमहाराजिक देवताओं ने शब्द सुनाया..... चतुमहाराजिक देवताओं के शब्द को सुनकर त्रयस्त्रिंश देवताओं ने.... याम देवताओं ने.... तुषित देवताओं ने.... निमाणरति देवताओं ने.... वशवर्ती देवताओं ने....  ब्रह्म कायिक देवताओं ने.... । इस प्रकार उसी क्षणमें, उसी मुहूर्त में यह शब्द ब्रह्मलोक तक पहुँच गया और यह दस हजारों वाला ब्रह्मांड कंपित, सम्प्रकंपित, संवेपित हुआ । देवताओं के तेज से भी बढ़कर बहुत भारी, विशाल प्रकाश लोक में उत्पन्न हुआ।

तब भगवान्ने उदान कहा-“ओहो ! कौंडिन्य ने जान लिया (आञ्ञा) । ओहो ! कौंडिन्य ने जान लिया।" इसीलिये आयुष्मान् कौंडिन्य का आञ्ञा कौंडिन्य नाम पडा।

** उस समयके नंगे साधुओका एक सम्प्रदाय था। मक्खली
1 वर्तमान सारनाथ, बनारस। गोसाल इनका एक प्रधान आचार्य था।
2 आञ्ञा— ज्ञानी 

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