Tuesday, December 6, 2011

बुद्ध का भिक्षा पात्र वजन तीन सौ किलोग्राम

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साभार : विस्फ़ॊट.काम

अफगानिस्तान के काबुल संग्रहालय में रखे महात्मा बुद्ध के भिक्षा पात्र से जुडे कई अनुत्तरित सवालों के उत्तर तलाशने में भारत का विदेश मंत्रालय इन दिनों जुटा हुआ है। हरे ग्रेनाइट से बने करीब 300 किलोग्राम वजनी इस भिक्षा पात्र के बारे में माना जाता है कि वैशाली के लोगों ने बुद्ध को भेंट दिया था। इस बारे में विदेश मंत्रालय भी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाया है। इस भारी भरकम भिक्षा पात्र के उद्गम स्थान को लेकर तमाम सवाल बने हुए हैं। मंत्रालय ने इस विषय में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से जानकारी मांगी है।

वैशाली से राजद सांसद रघुवंश प्रसाद सिंह ने कहा ‘इस विषय को मैंने संसद में उठाया है । मैंने विदेश मंत्रालय से भी इसके बारे में जानकारी मांगी लेकिन अभी तक कुछ ठोस सामने नहीं आया है।’ विदेश मंत्रालय ने सिंह को यह जानकारी दी कि काबुल स्थित भारतीय दूतावास ने इस मामले की पड़ताल की है और यह पता चला है कि जिस पात्र के महात्मा बुद्ध का भिक्षा पात्र होने का दावा किया गया है, वह अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति नजीबुल्ला के शासनकाल में कंधार में था जिसे बाद में काबुल लाया गया। लोकसभा में रघुवंश प्रसाद सिंह के प्रश्न के उत्तर में भी विदेश राज्य मंत्री परनीत कौर ने बताया ‘महात्मा बुद्ध का भिक्षा पात्र इस समय काबुल संग्रहालय में है।’ इस भिक्षा पात्र के उद्गम के बारे में भी कई प्रश्न उठाये गए हैं कि 1.75 मीटर व्यास और करीब 300 किलोग्राम वजन वाला यह भिक्षा पात्र किस प्रकार से काबुल पहुंचा और इस पर फारसी और अरबी में उद्धरण किस प्रकार से अंकित किए गए। गोरखपुर विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास विभाग के पूर्व प्रो. शैलनाथ चतुर्वेदी ने कहा कि इस विषय पर एलेक्जेंडर कनिंघन में काफी शोध किया है और उनकी व्याख्या ठोस बातों पर आधारित रही है। जहां तक पात्र के आकार का प्रश्न है, पूर्व में भी बड़े आकार के कई ऐतिहासिक चिन्हों को विभिन्न काल में शासक एक स्थान से दूसरे स्थान ले गए। उन्होंने कहा कि चूंकि इस भिक्षा पात्र के कई स्थानों से होकर गुजरने का उल्लेख मिलता है, इसलिए इस पर स्थानीय भाषाओं में कुछ उल्लेख मिलना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हालांकि इस पर और शोध किए जाने की जरूरत है। विदेश मंत्रालय ने कहा कि इस भिक्षा पात्र पर अरबी और फारसी में कुछ पंक्तियां अंकित हैं। भारतीय दूतावास को इस पात्र के चित्र प्राप्त हुए हैं।

इस बारे में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के एक अधिकारी का कहना है कि इस विषय में जानकारी जुटाई जा रही है। बौद्ध धम्म मंडल सोसाइटी के श्रावस्ती धम्मिका ने बताया कि भिक्षा पात्र महात्मा बुद्ध की ज्ञान प्राप्ति से जुड़ा हुआ है । इस पात्र के बारे में कहा जाता है कि कुशीनारा जाते समय वैशाली के लोगों ने महात्मा बुद्ध को भेंट स्वरूप दिया था, जिसे कुषाण शासक कनिष्क पुष्पपुर (वर्तमान पेशावर) ले गया। श्रावस्ती धम्मिका के अनुसार, कई चीनी यात्रियों ने इस भिक्षा पात्र को तीसरी से नौवीं शताब्दी के बीच पेशावर और बाद में कंधार में देखने का दावा किया। इस पात्र में गांधार कला की झलक भी मिलती है। मध्ययुग में इस भिक्षा पात्र के कंधार के बाहरी क्षेत्र में बाबा का मकबरा में देखे जाने का उल्लेख किया गया है। उन्नीसवीं शताब्दी में अंग्रेज अधिकारी एलेक्जेंडर कनिंघम ने अपने आलेख ‘मिडिल ला, मिडिल वे’ में पृष्ठ संख्या 136 में इस भिक्षा पात्र का उल्लेख किया है । 1980 के अंत में अफगानिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति नजीबुल्ला इस पात्र को काबुल ले आए और इसे काबुल के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखा।  तालिबान के शासनकाल में उसके संस्कृति मंत्री ने बौद्ध धर्म से जुड़े सभी प्रतीक चिन्हों को तोड़ने का आदेश दिया था । लेकिन महात्मा बुद्ध के इस भिक्षा पात्र पर अरबी और फारसी में कुछ पंक्तियां लिखे होने के कारण इसे नहीं तोड़ा गया।

Monday, December 5, 2011

ब्यग्घपज्ज सुत्त ( दीघजानु सुत्त ) – गृहस्थ जीवन के कल्याण के लिये उपयोगी बुद्ध देशना -Dighajanu (Vyagghapajja) Sutta: Conditions of Welfare

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बुद्ध ने मानवमात्र के बहुत से पक्षों और शाशवत सरोकारों को सम्बोधित किया है . इनमें से अधिकतर उनके द्वारा दी गई देशनाऒं से सम्बधित है जो उनके अनुयायियों , भिक्षुकों और जिज्ञासुओ को समय-२ पर दी गई हैं .  अन्य धर्मों  की हठीली प्रकृति के विपरीत बुद्ध धम्म व्यवहारिक सादगी पर प्रकाश डालता है .
व्यग्धपज्ज सुत्त मे बुद्ध समद्ध गृहस्थ को निर्देश देते हैं कि कैसे वे अपनी समृद्दि का संरक्षण और संवर्धन कर सकते हैं और कैसे धन के विनाश से बच सकते हैं . अकेला धन न तो सम्पूर्ण मानव का निर्माण करता है और न ही समरसता पूर्ण समाज का . धन का स्वामित्व मनुष्य की तूष्णा को बेलगाम बढा देता है और बदले मे छॊड जाती है असंतुष्ट इन्सान और उसका अविरुद्ध आध्यमित्क विकास . साधन विहीनों की नारजगी से और तृष्णा के असंयगत परिणामों समाज मे विसंगतियाँ जन्म देती हैं  .

व्यग्धपज्ज सुत्त मे बुद्ध समद्ध गृहस्थ को निर्देश देते हैं कि कैसे वे अपनी समृद्दि का संरक्षण और संवर्धन कर सकते हैं और कैसे धन के विनाश से बच सकते हैं .
लेकिन बुद्ध  भौतिक कल्याण के साथ चार आवशयक आध्यात्मिक कल्याणॊं के साधन संलग्न करते हैं : विशवास , शील , उदारता और प्रज्ञा जिनके पालन के साथ सामाजिक विसंगतियाँ भी कम होगीं और भौतिक और अध्यात्मिक निर्देशों का पालन से समाज में आर्दश नागरिक का निर्माण भी होगा .
                           व्यग्धपज्ज सुत
ऐसा सुना जाता है :
एक समय भगवान बुद्ध कोलिय प्रदेश के कर्करपत्र नामक कोलियाँ के एक निगम मे विहार करते थे . तब दीघजानु नामक कोलियपुत्र भगवान के किकट आया और नमन करके एक ओर बैठ गया और भगवान बुद्ध को सम्बोधित किया :
"भन्ते ! हम गृहस्थजन काम भोगों मे लिप्त रहने वाले , पुत्र पौत्रों की भीड मे अपनी जीवन यात्रा करते रहते हैं . माला , गन्ध-विच्छॆदन करना , काशी के चन्दन का लेप , और सोने चाँदी का संग्रह करना ही हमारा जीवन लक्षय बन गया है . हम जैसे लोगों के लिये भी भन्ते आप ऐसे धम्म की देशना करें जिस का आचरण करके हमारा यह जन्म और परलोक भी सुतकर और हितकर हो . ”
भगवान बुद्ध ने उत्तर दिया :
“ एक गृहस्थ के जीवन मे मंगल और सुख के लिये चार साधन व्यग्धपज्ज साहायक होते हैं . यह चार साधन हैं :
“ सतत प्रयास की उपल्ब्धि ( उत्थानपाद – सम्पदा ), उपलब्ध की रक्षा ( आरक्ष-सम्पदा ) , अच्छी मित्रता ( कल्याण मित्रता ) तथा संतुलित जीविका ( समजीविता ) .”
 व्यग्धपज्ज : “ निरतंर  प्रयास की उपल्ब्धि ( उत्थानपाद – सम्पदा ) क्या है , भन्ते ! ”
“ इसमें व्यधपज्ज जिस किसी काम से गृहस्थ आजीविका अर्जित करता है चाहे खेती से , धनुर्विधा से , पशुपालन से , राजा की नौकरी से उसमें उसको पारंगत होना चाहिये और आलस्य न करना चाहिये . उसको अपने कार्य के उचित तौर तरीके जानने चाहिये और अपने कार्य मे निपुणता और दक्षता  उत्पन्न करनी चाहिये .यह  निरतंर  प्रयास की उपल्ब्धि ( उत्थानपाद – सम्पदा ) कहलाती है .’”
व्यग्धपज्ज : “ भन्ते ! आरक्ष-सम्पदा क्या है ? ”
“इसमें ,व्यधपज्ज , जो सम्मपति एक गृहस्थ द्वारा मेहनत , ईमानदारी और सही तरीकों से कमाई गई होती है , उसे वह ऐसा देखभाल करके ऐसा संचालन करता है , ताकि राजा उसको हडप न ले , चोर उसे चुरा न सके , आग उसे जला न सके , पानी उसे बहा न दे और न ही भटके हुये उत्तराधिकारी उसे ले उडॆं . यह आरक्ष-सम्पदा है .”
व्यग्धपज्ज : “भन्ते !! कल्याण मित्रता क्या है ? ”
“इसमें ,व्यधपज्ज , जिस किसी ग्राम या शहर मे गृहस्थ रहता है , वह जुडता है , बातचीत करता है , अन्य गृहस्थों या उनके पुत्रों के साथ बहस करता है ,चाहे चाहे वह वृद्ध या युवा  तथा सुसंस्कृत हों , श्रद्धा सम्पन्न , शील कुशलता से पूर्ण हों ,त्याग और बुद्धि से सम्पन्न हों . वह श्रद्धालुओं की श्रद्धा के अनुसार कार्य करता है , शीलवानों के शील के साथ , त्यागियों के त्याग के साथ , प्रज्ञावानों की प्रज्ञा के साथ . यह कल्याण मित्रता कहलाती है .”
 व्यग्धपज्ज: “भन्ते !! समजीविता क्या है ? ”
यहाँ पर व्यग्धपज्ज , एक गृहस्थ अपनी आय तथा व्यय जानते हुये एक संतुलित जीवन यापन करता है , न फ़िजूलखर्ची न कंजूसी , यह जानते हुये कि उसका आय व्यय से बढकर रहेगी , न कि उसका व्यय आय से बढकर .
“ जैसे कि एक तुलाधर सुनार , या उसका शार्गिद तराजू पकडकर जानता है कि कितना झुक गया है , कितना उठ गया है ,उस प्रकार एक गृहस्थ अपनी आय तथा व्यय को जान कर संतुलित जीवन जीता है , न वह बेहद खर्चीला न बेहद कंजूस , इस प्रकार समझते हुये कि उसकी आय  व्यय से बढकर रहेगी न कि उसका व्यय आय से अधिक होगा .”
“ व्यग्धपज्ज , यदि एक गृहस्थ कम आय वाला खर्चीला जीवन व्यतीत करेगा , तो लोग उसे कहेगें , ’ यह च्यक्ति अपनी सम्पत्ति का ऐसे आनन्द ले रहा है जैसे कोई बेल फ़ल खाता है . ’ , यदि व्यग्धपज्ज , एक प्रचुर आय वाला गृहस्थ कंजूसी का जीवन व्यतीत करेगा तो लोग कहेगें कि ’ यह व्यक्ति भुक्खड की तरह मरेगा ’ .”
“ इस प्रकार संचित धन सम्म्पति , व्यग्धपज्ज , चार प्रकार से नाश होती है :
“ १- अधिक भोग विलास
२- मदिरापान की लत
३- जुआ
४- पापी लोगों से दोस्ती , संगति तथा सांठ- गांठ . “
“ जैसे कि एक बडे तालाब मे चार जल प्रवेश तथा चार जल निकास के रास्ते हों , यदि कोई व्यक्ति प्रवेश मार्ग बन्द कर दे तथा निकास मार्ग खोल दे तथा काफ़ी वर्षा न हो , तो तालाब में जल की कमी की उम्मीद रहेगी लेकिन वृद्दि की नही ; वैसे ही संचित सम्म्पति के विनाश के लिये चार रास्ते हैं - अधिक भोग विलास , मदिरापान की लत, जुआ और पापी लोगों से दोस्ती , संगति तथा सांठ- गांठ .
जमा पूंजी की समृद्दि के चार मार्ग हैं :
१.- काम भोगों मे संयम
२- मदिरापान मे संयम
३- जुये मे रत न होना
४- अच्छे लोगों से मित्रता , संगति तथा सांठ-गांठ .”
“ जैसे कि एक बडा तालाब हो, जिसमें चार प्रवेश तथा चार निकास हों . यदि कोई व्यक्ति प्रवेश खोल दे तथा निकास बद कर दे और बारिश भी खूब हो जाये , तो उस तालाब मे अवशय ही जल बढने की संभावना रहेगी तथा घटने की नहीं , इसी प्रकार ये चार बातें जमा पूँजी की वृद्दि के स्त्रोत हैं . ”
“ ये चार बातें व्यग्धपज्ज , एक गृहस्थ के इसी जीवन काल मे कल्याण तथा प्रसन्नता में सहायक हैं . ”
“ आध्यात्मिक विकास के साधन ”
“ इसके अतिरिक्त व्यग्धपज्ज एक गृहस्थ के कल्याण के लिये चार बातें आवाशय्क है :
१. श्रद्धा की उपल्ब्धि ( श्रद्धा सम्पदा )
२. शीलों की उपल्ब्धि ( शील सम्पदा )
३. त्याग की उपलब्धि ( त्याग सम्पदा )
४. प्रज्ञा की उपल्ब्धि ( प्रज्ञा सम्पदा )
व्यग्धपज्ज: “भन्ते !! श्रद्धा की उपल्ब्धि क्या है ?
“ इसमें एक गृहस्थ श्रद्धा सम्पन्न होता है , वह समयक सम्बुद्ध तथागत की बुद्धत्व उपल्ब्धि मे आशवस्त होता है ; यथातथ्य वे सम्युक बुद्ध है , पूर्णतया ज्ञान प्राप्त , विधा तथा आचरणॊं से सम्पन्न , सुगत , लोकों को जानने वाले , सिखाये जाने योग्य मनुष्यों के नायक , देव तथा मनुष्यों के गुरु , सर्वज्ञ तथा धन्य है . इसे कहते हैं श्रद्धा सम्पदा .”
व्यग्धपज्ज: “भन्ते !! शीलों की उपल्ब्धि क्या है ?
“ इसमे एक गृहस्थ प्राणी हत्या से , चोरी से , यौन मिथ्याचार से , झूठ बोलने से तथा नशीले पदार्थ से जो स्मऋतिनाश तथा प्रमाद उत्पन्न करते हैं – विरत रहता है . यह कहलाता है  शील सम्पदा
 व्यग्धपज्ज: “भन्ते !! त्याग की उपलब्धि क्या है ?
“इसमें एक गृहस्थ अपने को चित्तमलों तथा धन लोलोपता से मुक्त रख कर घर मे रहता है, त्याग मे संलग्न, मुक्त हस्त . उदारता मे आनन्दित, जरुरतमदॊं की सहायता करने वाला , दान दक्षिणा मे प्रसन्न . यह कहलाता है – त्याग सम्पदा .”
व्यग्धपज्ज: “भन्ते !!प्रज्ञा की उपल्ब्धि क्या है ?
“ इसमॆ एक गृहस्थ जो प्रज्ञावान है ; वह ऐसी प्रज्ञा से सम्पन्न है , पंच स्कन्धों की उत्पति तथा लय को समझता है ; वह आर्य विपस्सना से सम्पन्न है ; जो दु:ख विमुक्ति का लाभ देती है . इसे कहते हैं प्रज्ञा की उपलब्धि –प्रज्ञा सम्पदा .”
“ यह चार बातें ;व्यधपज्ज ,एक गृहस्थ के अगले जन्मों कल्याण और प्रसन्नता के लिये सहायक हैं .”
अपने कर्तव्यों को ध्यान तथा मेहनत से करने वाला,
बुद्धिमानी से धन संचय करने वाला,
वह संतुलित जीवन च्यतीत करता है ,
संचित का संरक्षण करते हुये ।
श्रद्धा तथा शील से भी सम्पन्न ,
उदार तथा धन्लोलुपताविहीन,
सदा पथ शोधन को प्रवृत,
जो परलोक मे कल्याण्कर है।
यूँ श्रद्धा से ओत-प्रोत गृहस्थ को,
उनके द्वारा , जिनका ’सम्यक सम्बुद्ध ’ समुचित नाम है,
यह आथ बाते बताई गई हैं ,
जो लोक और परलोक मे आनन्दकर है । “
अंगुतर निकाय VIII.54 ( Dighajanu (Vyagghapajja) Sutta: Conditions of Welfare , translated from the Pali by
Narada Thera का हिन्दी अनुवाद :  मंगलमय जीवन –शांति , प्रसन्नता एवं समृद्दि की कुजीं से लिया गया है । साभार : राजेश चन्द्रा जी । )

Tuesday, November 22, 2011

“इहि पस्सिको ”- आओ और देखो


इहि पस्सिको


बुद्ध कहते थे ’ इहि पस्सिको’ - आओ और देख लो । मानने की आवशकता नही है । देखो और फ़िर मान लेना । बुद्ध इसके लिये  किसी धारणा का आग्रह नही करते । और बुद्ध के देखने की जो प्रक्रिया थी उसका नाम है विपस्सना ।
विपसन्ना बहुत सीधा साधा प्रयोग है । अपनी आती जाती शंवास के प्रति साक्षीभाव । शवास सेतु  है , इस पार देह , उस पार चैतन्य और मध्य मे शवास है । शवास को ठीक से देखने का मतलब है कि अनिवार्य रुपेण से हम शरीर को अपने से भिन्न पायेगें । फ़िर शवास अनेक अर्थों मे महत्वपूर्ण है , क्रोध मे एक ढंग से चलती है दौडने मे अलग , आहिस्ता चलने मे अलग , अगर चित्त शांत है तो अलग और अगर तनाव मे है तो अलग । विपस्सना का अर्थ है शांत बैठकर , शवास को बिना बदले देखना । जैसे राह के किनारे बैठकर कोई राह चलते यात्रियों को  देखे , कि नदी तट पर बैठ कर नदी की बहती धार को देखे । आई एक तरगं तो देखोगे और नही आई तो भि देखोगे   । राह पर निकलती कारें , बसें तो देखोगे नही तो नही देखोगे । जो भी है जैसा भी है उसको वैसे ही देखते रहो । जरा भी उसे बदलने की कोशिश न करें । बस शांत  बैठकर शवास को देखो । और देखते ही देखते शवास और भी अधिक शांत हो जाती है क्योंकि देख्ने मे ही शांति है ।
कहते हैं कि एक बार बुद्ध अपने कुछ अनुयायियों  के साथ यात्रा कर रहे  थे . जब वे एक झील के पास से गुजर रहे थे तब बुद्ध को प्यास की  अनूभूति हुई , तब बुद्ध ने अपने एक अनुयायी से कहा , " भिक्षुक मुझे प्यास लगी है  और  इस झील से पानी लेकर आओ’। ” जैसे ही शिष्य झील के समीप पहुँचा उसी समय    एक बैलगाड़ी झील से होती हुई गुजरी  ।  परिणाम स्वरुप झील का पानी बहुत गन्दा और मटमैला हो गया । तब  शिष्य ने सोचा, "मैं बुद्ध को  यह  गंदा पानी पीने के लिये कैसे दे सकता हूँ ?"   वह वापस आ गया और बुद्ध से कहा, " शास्ता पानी तो  वहाँ बहुत गंदा है और मुझे नहीं लगता कि यह पीने के लिए उपयुक्त  है."  लगभग आधे घंटे के बाद, बुद्ध ने दोबारा शिष्य से पानी लने के लिये कहा । वह वापस  झील के नजदीक गया और उसने पाया   कि पानी अभी भी मैला था.  वह लौट आया  और  बुद्धको सूचित किया.  कुछ समय बाद फिर से बुद्ध ने  शिष्य  को वापस जाने के लिए कहा . इस बार  शिष्य ने पाया कि पानी अपेक्षाकृत काफ़ी साफ़ है , मिट्टी नीचे बैठ चुकी है  ।  वह एक बर्तन में थोड़ा सा पानी एकत्र कर के बुद्ध के लिये ले गया । बुद्ध ने पानी में देखा, और अनुयायी को देखते हुये कहा , " आयुस तुम जानते हो कि तुमने पानी को साफ़ करने के लिये क्या किया , तुमने पानी को कुछ देर के लिये छॊड दिया और मिट्टी नीचे बैठ गयी । इसी तरह यह मन भी है , अगर वह परेशान है , व्याकुल है तो उसे थोडा समय दो , वह अपने आप शांत हो जायेगा । तुमको उसे शांत करने के लिये कोई विशेष प्रयास नही करना है , मन की शांति एक सरल प्रक्रिया है , इसके लिये विशेष प्रयास  नही करना पडता है ।”
( बुद्ध से संबधित इस गाथा के लिये साभार : रोहित पवार )

Wednesday, November 16, 2011

बीते हुये का शोक कैसा …… वर्तमान मे रहो …वर्तमान मे जियो !!

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ऐसा  सुना जाता है कि एक समय भगवान बुद्ध श्रावस्ती मे अनाथपिणिक के जेतवन आराम मे विहार कर रहे थे । तब कोई देवता रात बीतने पर अपनी चमक से सारे जेतवन को चमकाते हुये आया और भगवान बुद्ध का अभिवादन कर के एक और खडा हो गया ।

एक ओर खडा हो कर वह देवता भगवान से बोला ,

“ जंगल मे विहार करने वाले ब्रह्म्मचारी तथा एक  बार ही भोजन करने वालों का चेहरा कैसे खिला रहता है ? ”

शास्ता ने कहा ,

बीते हुये का वे शोक नही करते ,

आने वाले पर बडे मनसूबे नही  बाँधते ,

जो मौजूद है उसी से गुजारा करते हैं ;

इसी से उनका चेहरा खिला रहता है ॥

आने वाले पर बडे मनसूबे बाँध,

बीते हुये का शोक करते रह ,

मूर्ख लोग फ़ीके पडे रहते हैं ,

हरा नरकट ( ईख )जैसे कट जाने पर ॥                         

 

    संयुत्तनिकायो -१०. अरञ्‍ञसुत्तं                                                          

 

Saturday, July 23, 2011

Time is fleeting …Act Today

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Do not pursue the past.
Do not lose yourself in the future.
The past no longer is.
The future has not yet come.
Looking deeply at life as it is.
In the very here and now, the practitioner dwells in stability and freedom.
We must be diligent today.
To wait until tomorrow is too late.
Death comes unexpectedly.
How can we bargain with it?
The sage calls a person who knows how to dwell in mindfulness night and day,
'one who knows the better way to live alone.'
Bhaddekaratta Sutta

Tuesday, May 17, 2011

धम्म का फ़ल धम्म के मार्ग पर चलने से ही सम्भव !!



 
बहुम्पि चे संहित [सहितं (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)] भासमानो, न तक्‍करो होति नरो पमत्तो।
गोपोव
गावो गणयं परेसं, न भागवा सामञ्‍ञस्स होति॥

धर्म्ग्रथॊ का कोई भी कितना पाठ करे , लेकिन प्रमाद के कारण मनुष्य यदि उन धर्म्ग्रथों के अनुसार आचरण नही करता तो दूसरों की गावों गिनने वाले ग्वालों की तरह श्रमत्व का भागी नही होता ।
धम्मपद १९

एक समय भगवान बुद्ध श्रावस्ती में मिगारमाता के पुष्वाराम मे विहार कर रहे थे । धम्म सीखने और सुनने के लिये मोग्गालन नामक ब्राहमण लेखाकार भी अकसर आता रहता था । एक दिन वह जल्दी आ गया और भगवान को अकेले पाकर बोला कि उसके मन मे अकसर यह प्रशन उठता है कि भगवान के पास जो लोग आते हैं उनमे से कुछ परम ज्ञान को  उपलब्ध होते हैं लेकिन कुछ लोग जो नजदीक होते हुये भी इस सुख की प्राप्ति नही कर पाते हैं । तो भगवन , आप जैसा अदभुद शिक्षक और पथपदर्शक होते हुये भी कुछ को निर्वाण सुख प्राप्त होता है और कुछ को नही ? तो भगवन , आप करुणा से ही आप सबको निर्वाण सुख दे कर भवसागर से मुक्ति क्यों नही प्रदान कर देते ।
बुद्ध ने मोग्गालन से पूछा , " ब्राहमण , मै तुमको इस प्रशन का उत्तर दूगाँ , लेकिन पहले तुमको जैसा लगे इस प्रशन का उत्तर दो । ब्राहमण , "यह बताओ कि क्या तुम राजगृह आने - जाने का मार्ग अच्छी तरह से जानते हो ? "
मोग्गालन मे कहा , " गौतम ! मै निशचय ही राजगृह का आने - जाने का मार्ग अच्छी तरह से जानता हू‘ं । "
" जब कोई एक आदमी आता है और  राजगृह का मार्ग पूछता है  लेकिन  उसे छोड्कर वह अलग मार्ग पकड लेता है , वह पूर्व की बजाय पशिचम मे चल देता है । तब एक दूसरा आदमी आता है और वह भी  रास्ता पूछता है और तुम उसे उसे भी ठीक ठाक वैसे ही रास्ता बताते हो जैसा पहले क  बता था और वह भी तुम्हारे बताये रास्ते पर चलता है औए सकुशल राजगृह पहुँच जाता है "
ब्राहमण बोला , " तो मै क्या करुँ , मेरा काम रास्ता बता देना है । "
भगवान बुद्ध बोले , " तो ब्राहमण , मै भी क्या करुँ , तथागत का काम भी केवल मार्ग बताना होता है । "
इसलिए बुद्ध पूर्णिमा को सिर्फ़ प्रासांगिक न बनायें बल्कि उस मार्ग पर चलने की कोशिश करें जिसको भगवान बुद्ध ने देशना दी  है , याद रखें :
 

चार आर्य सत्य
१. दु:ख है।
२. दु:ख का कारण है ।
३. दु:ख का निदान है ।
४. वह मार्ग है , जिससे दु:ख का निदान होता है ।
अष्टागिंक मार्ग
१. सम्यक दृष्टि ( अन्धविशवास तथा भ्रम से रहित )  ।
२. सम्यक संकल्प (उच्च तथा बुद्दियुक्त )  ।
३. सम्यक वचन ( नम्र , उन्मुक्त , सत्यनिष्ठ )  ।
४. सम्यक कर्मान्त ( शानितपूर्ण , निष्ठापूर्ण ,पवित्र )  ।
५. सम्यक आजीव ( किसी भी प्राणी को आघात या हानि न पहुँचाना )  ।
६. सम्यक व्यायाम ( आत्म-प्रशिक्षण एवं आत्मनिग्रह हेतु )  ।
७. सम्यक स्मृति ( सक्रिय सचेत मन )  ।
८. सम्यक समाधि ( जीवन की यथार्थता पर गहन ध्यान ) ।

बुद्ध पूर्णिमा की सप्रेम शुभकामनायें !!

Saturday, February 19, 2011

‘यह भी गुज़र जाएगा|’ “This too shall pass '’

अनित्य

अनित्यता बौद्ध धर्म की एक महत्वपूर्ण ईकाई है . बुद्ध ने खोजा कि सब कुछ अनित्य है और प्रत्येक वस्तु कुछ और होने की प्रक्रिया मे है. नशवरता का यह बोध हमे अपनी अपने जीवन मे भी दिखता है . हम सब वय: परिवर्तन के दौर मे है . जो हम आज से बीस साल पहले थे वह आज नही है , यहाँ तक कि हमारे विचार हर पल बदलते रहते हैं . प्रकृति मे भी यह बदलाव आसानी से देखा जा सकता है , कली का फ़ूल बनना , फ़ूल का मुरझाना , और यहाँ तक तारे और आकाश गंगा भी परिवर्तन के दौर मे हैं . ज़ेन बौद्ध गुरु - - Thich Naht Hanh  के अनुसार हमें अपने आप को सागर की तंरगों के समान सोचना चहिये . लहरों की मुख्य विशेषता इसकी अस्थायी प्रवृति है , इसी तरह हम भी एक दिन नशवरता मे मिल जाते हैं जैसे कभी हुये ही न हों .

एक सूफ़ी कहानी कहती हूँ- फरीदुद्दीन अत्तार की लिखी हुई . आज सुबह जब मैने इसे पढा तो लगा कि यह  अनित्यता का बोध हमे जीवन मे करा सकती है.

अत्तार ने लिखा की एक दरवेश दिन रात बंदगी करता | जो कुछ उसने अपने गुरुओं से सीखा उसका अभ्यास करता रहा | फिर उसके जी में आया कि ‘अब मैं हज करूँ’ | जब हज के लिए वह निकला तो दूर मुश्किल यात्रा थी|महीनों लगने थे|चलते-चलते एक गाँव पहुँचा| थका हुआ था, भूख भी लगी हुई थी| अनजान रास्ता था| उसने एक राहगीर से कहा कि ‘मुझ दरवेश को ठहरने के लिए कहाँ जगह मिल सकती है?’ उसने जवाब दिया- ‘यहाँ शाक़िर नाम का इनसान रहता है, तू उसके घर चला जा|वह इस इलाके का सबसे अमीर आदमी है और बहुत दयावान और दिलदार आदमी है |वैसे तो इस इलाके का सबसे बड़ा सेठ हमदाद है लेकिन हमदाद की जगह तू शाक़िर के घर जा|

दरवेश शाक़िर के घर गया| शाक़िर का अर्थ होता है – जो शुक्राना करता रहता है| जब उसके पास पहुँचा तो जैसा उसके बारे में सुना था, बिल्कुल वैसा ही निकला| शाक़िर ने उसे अपने घर में पनाह दी | भोजन दिया, बिस्तर दिया| शाक़िर की बीवी, बच्चों ने उसकी बहुत ख़ातिर की |दो दिन वह ठहरा, तीसरे दिन जब वह चलने लगा तो उन्होंने उसको रास्ते के लिए खाना , पानी, खजूरें आदि सब दिया| चलते समय दरवेश ने कहा कि ‘शाक़िर! तू कितना अच्छा है| तू कितना अमीर है, तूने मुझे इतना कुछ दिया कि तुझे इस बारे में ज़रा भी सोचना नहीं पड़ा. जबकि तू मुझे जानता भी नहीं है|

शाक़िर ने अपने मकान की ओर नज़र दौड़ाई और कहा कि ‘गुज़र जाएगा|’ दरवेश पूरे रास्ते सोचता रहा क्योंकि उसके मुर्शदों ने कहा था कि जल्दबाज़ी में कोई निर्णय मत लिया करो और जब किसी से बात सुनो तो उसकी गहराई में जाया करो| वह अपने दिल की धड़कनों को सुनते हुए, ज़िक्र करते हुए, मन के किनारे बैठा और मन के विचारों को देखता रहा, देखता रहा और सोचता रहा कि शाक़िर ने अपने धन, अपनी अमीरी, अपनी दौलत की ओर इशारा करते हुए ये क्यों कहा कि ‘गुज़र जाएगा’| कहीं कोई आने वाली घटना के बारे में कह रहा था या फिर ऐसे ही बोल गया | मक्‍के पहुँचा, हज किया, वहीं ठहर गया| फिर एक साल बाद लौटना हुआ| उसके चित्त में यह विचार था कि एक बार मैं शाक़िर को मिलूं| पर जब वहाँ पहुँचा तो उसने देखा कि शाक़िर का मकान है ही नहीं| लोगों ने बताया कि अब वह हमदाद के घर में नौकर है|उन्होंने बताया कि बाढ़ आई थी, उसमे उसका मकान बह गया, भेड़ – बकरियाँ बह गई, बहुत ग़रीब हो गया है |इसलिए उसको नौकरी करनी पड़ी, उसे वहीं जाकर मिल लो |

दरवेश बहुत हैरान हुआ कि इतना नेक आदमी इतने दुख में! फिर वह हमदाद के घर गया और जब शाक़िर को मिला तो उसके बदन पर फटे हुए कपड़े, उसकी बीवी और बेटियाँ भी उसके साथ में थीं| दरवेश ने कहा कि ‘ बड़ा दुख हुआ तेरे जैसे नेक आदमी के साथ इतनी त्रासदी?’ शाक़िर ने गम्भीर स्वर में कहा-‘ यह भी गुज़र जाएगा|’ |

हमदाद भी नेक आदमी था, उसने भी दरवेश को पनाह दी | कुछ समय वह यहीं रहा|फिर जब दरवेश जाने लगा तो शाक़िर ने उतना तो नहीं पर फिर भी उसको कुछ रूखा-सूखा खाने को साथ में दिया | दो-चार साल गुज़र गए पर दरवेश हमेशा शाक़िर को याद करता| फिर एक दिन मक्का जाने का मन हो गया| फिर उसी रास्ते से गुज़रा, फिर हमदाद के घर गया| जब वहाँ पहुँचा तो मालूम हुआ कि हमदाद की तो मौत हो गई है और उसने अपना सब कुछ शाक़िर को दे दिया क्योंकि उसकी अपनी कोई औलाद नहीं थी|

शाक़िर फिर से अमीर हो गया|उसके बदन पर फिर रेशमी वस्त्र, उसकी बीवी फिर सुंदर कपड़ों में है|उसकी बेटियों की शादियाँ अमीरों के घर हो चुकी हैं| दरवेश अंदर गया और कहता कि ‘अरे वाह शाक़िर! इतना अच्छा........ खुदा ने खूब रहमत की तेरे ऊपर|’ शाक़िर ने फिर गंभीर स्वर में कहा- ‘यह भी गुज़र जाएगा|’

कुछ दिन दरवेश उसके घर ठहरा फिर मक्‍के गया|इस बार वह मक्‍के करीब दो साल रहा| जब वापिस लौटा तो मन में चाह उठी कि अपने उस दोस्त को मिलूं| जब पहुँचा तो मालूम हुआ कि शाक़िर तो मर चुका है| फकीर ने लोगों से पूछा- ‘उसकी कब्र कहाँ है? मैं उसकी कब्र पर जाकर नमाज़ पढ़ूंगा| दुआ करूँगा अपने उस दोस्त के लिए|' लोगों ने शाक़िर की कब्र का पता दिया| जब कब्र के पास दरवेश पहुँचा तो उस कब्र पर एक तख़्ती लगी हुई थी, जिस पर लिखा था- ‘यह भी गुज़र जाएगा|’ पढ़कर दरवेश बहुत रोया, कहता-‘ यह भी गुज़र जाएगा’, अब इसका गहरा अर्थ और क्या हो सकता है? दरवेश ने बहुत दुआएँ की|

फिर अपने डेरे को निकला तो उसके बाद कई साल गुज़र गए| फिर कई सालो बाद एक काफिला मक्‍के की ओर जा रहा था तो उसे लगा की जिंदगी की एक हज और कर सकता हूँ| चल तो नहीं सकता पर ऊँट की सवारी मिल गई तो उस पर बैठकर चल दिया| रास्ते में शाक़िर का गाँव आना था, उससे रहा न गया और सोचा कि एक बार तो शाक़िर की कब्र पर फूल चढ़ाऊं और दुआ करूँ| और जब वह वहाँ पहुँचा तो जिस जगह शाक़िर की कब्र थी, अब वहाँ कब्र ही नहीं है|लोगों से पूछा कि कब्र कहाँ गई तो कहते कि तूफान आया था, कहीं ज़मीन धँस गई, टूट-फूट हुई, सब तहस-नहस हो गया| और वह कब्र कहाँ गई, पता नहीं|दरवेश आया भी लम्बे समय बाद था|सब बदल चुका था, जहाँ उसकी कब्र थी, अब वहाँ आबादी हो गई थी और ढूँढने पर भी न मिली|

आज दरवेश को शाक़िर का यह वचन पूरी तरह समझ आ गया कि ‘यह भी गुज़र जाएगा’ उसकी तो कब्र भी गुज़र गई, पता ही नहीं कि कहाँ है