Saturday, October 21, 2023

बुद्ध द्वारा दिए गए वह पांच अनमोल सूत्र

साधकों ! चाहे कोई स्त्री हो, वा पुरुष हो, चाहे कोई गृहस्थ हो,  वा प्रव्रजित हो,उसे पांच बातों पर निरन्तर विचार करते रहना चाहिए।  

कौन सी पांच बातों ? 

1. मैं जरा ( बुढ़ापा )-धर्मी हूँ, जरा से वशीभूत हूँ। 
2. मैं रोग धर्मी हूँ, रोग से वशीभूत हूँ। 

3. मैं मरण धर्मी हूँ, मरण से वशीभूत हूँ। 

4. चाहे स्त्री हो या पुरुष,चाहे गृहस्थ हो या प्रव्रजित हो उसे इस बात पर निरंतर विचार करते रहना चाहिए कि जितनी भी मेरी प्रिय वस्तुयें है,अच्छी लगने  वाली वस्तुयें है, उन सबका नाश, विनाश निश्चित है। 

5.उसे इस बात पर निरन्तर विचार करते रहना चाहिए कि कर्म  मेरा है, कर्म ही उत्तराधिकार है, मैं कर्म से ही उत्पन्न हुआ हूँ। कर्म ही मेरा बन्धु है, कर्म ही शरण स्थान है, इसीलिये जो भी भला -बुरा कर्म करूंगा वह मेरा उत्तराधिकार में आयेगा। 
 
संदर्भ: अंगुत्तर निकाय 

भवतू सब्ब् मंगलम् 🙏🏻🙏🏻🪷

Thursday, July 27, 2023

मनोवैज्ञानिक चिकित्सा में में विपश्यना की भूमिका (The Role of Vipassana in Psychiatric Practice- डॉ. आर. एम. चोखानी Dr R.M Chokhani )

मनोवैज्ञानिक चिकित्सा में में विपश्यना की भूमिका
The Role of Vipassana in Psychiatric Practice
- डॉ. आर. एम. चोखानी  Dr R.M Chokhani

यह पत्र धम्मगिरि पर 1986 ई. में आयोजित विपश्यना सेमिनार में उपस्थापित किया गया।
[The following was presented as a paper at the Vipassana Seminar held at Dhamma Giri in 1986; it has been duly revised and updated.]
चित्त या मन को नियंत्रित करने की जो पारंपरिक विधियां हैं उनका एक आधुनिक रूपान्तरण विपश्यना ध्यान विधि है जो आम जनता तथा मानसिक स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वालों में बहुत ही लोकप्रिय है
.     विपस्सना पालि भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है 'प्रज्ञा' या अन्तर्ज्ञान। यह आत्मपर्यवेक्षण से आत्मरूपान्तरण की प्रणाली है। इसका उद्देश्य है अंततः मानसिक संतुलन तथा समता प्राप्त करना (थ्रे सिदु सयाजी ऊ बा खिन, 1963) और अपने तथा औरों के लिए ऐसा जीवन जीना जो सबों के लिए लाभदायक हो (स. ना. गोयन्का, 1990)

आत्ममुक्ति के लिए ध्यान का अभ्यास विभिन्न संस्कृतियों में अपने अध्यात्म के संदर्भ में धार्मिक समूहों के सदस्यों द्वारा अपने समूह के सदस्यों के लिए विकसित किया गया । बुद्ध की शिक्षा में मनोवैज्ञानिक प्रणाली के साथ-साथ एक ब्रह्मांड विज्ञान है ( कुटज. 1, बोरिसेंको जे. जे. एण्ड वेनसन एच 1985)। इसे अभिधम्म कहा जाता है जो बहुत ही सुव्यवस्थित किंतु जटिल तरीके से व्याख्यायित है। इसमें मानसिक व्यापार क्रिया को समझने के लिए एक प्रत्यय समूह का उपस्थापन किया गया है तथा मानसिक विकार को ठीक करने का तरीका भी है जो आधुनिक मनश्चिकित्साओं के दृष्टिकोण से एकदम भिन्न है (गोलमैन. डी. 1977) 

मन का अभिधम्म मॉडेलः 
 मानसिक क्रिया का नमूना मोटे तौर पर 'वस्तु संबंध' का सिद्धांत है, इसकी मूल गतिशीलता संवेदी वस्तुओं के साथ मानसिक अवस्थाओं का नित नवीन सबंध होना है। पांच इन्द्रियां अपने-अपने विषयों को जैसे रूप, शब्द आदि जानती हैं और छठे इन्द्रिय धर्म को जानती है। मानसिक अवस्थाएं या चित्त सतत परिवर्तनशील है।
इस विश्लेषण में मानसिक अवस्था की सबसे छोटी इकाई चित्तक्षण का जो बोध या ज्ञान का क्षण है परिवर्तन दर अविश्वनीय रूप से तेज है, इतनी तेज कि जितनी देर में बिजली कौंधे, उतनी देर में वह दस लाख बार उत्पन्न होती है।
हर एक के बाद दूसरा उत्पन्न होने वाला चित्त कछ विशेष गुणों से बना होता है। चित्त में चैतसिक होते हैं जो उसे सुस्पष्ट प्रत्यक्षज्ञानात्मक लक्षण प्रदान करते हैं। इन गुणों की 52 मूल संज्ञानात्मक और भावात्मक श्रेणियां हैं (नारद थेर, 1968) चैतसिकों को मूलतः कुशल और अकुशल दो भागों में बाँटा जाता है। ठीक जैसे सिस्टेमिक डिसेन्सीटाईजेशन में, जहां तनाव इसके शारीरिक प्रतिपक्ष विश्राम द्वारा दूर किया जाता है, स्वस्थ स्थितियां अस्वस्थ स्थितियों की विरोधी हैं और उन्हें रोकती हैं। विपश्यना का उद्देश्य अस्वस्थ गुणों को, विकारों को मन से निर्मूल करना है। मानसिक स्वास्थ्य की ऑपरेशनल परिभाषा उनका सर्वथा अभाव होना है, जैसा अर्हत में होता है (गोलमैन. डी. 1977) (इसकी) 

प्रक्रिया तथा मनोवैज्ञानिक प्रभावः
“जो भी धर्म मन में उत्पन्न होता है उसके साथ-साथ शरीर में संवेदना होती है।” बुद्ध ने कहा वेदना समोसरणा सब्बेधम्मा | मन और शरीर का यह संबंध ही विपश्यना साधना के अभ्यास की कुंजी है। विपश्यना एकाग्र मन को प्रशिक्षित करती है ताकि वह निरपेक्ष भाव से अर्थात उपेक्षा भाव से शरीर पर होने वाली संवेदनाओं का आधार लेकर मेंटल प्रोसेसिंग मेकेनिक्स का अनुगमन करे। किसी दर्शक का यह परिप्रेक्ष्य मन में अतीत तथा भविष्य में होने वाले धर्म जैसे राग और द्वेष को नियंत्रित मुक्ति की अनुमति देता है जो स्मृति 'इच्छा' विचार, वार्तालाप, दृश्य, इच्छाएं भय तथा आसक्ति के अंतहीन प्रवाह के रूप में प्रकट होते हैं। मन के धरातल पर हजारों हजार हर प्रकार के राग द्वारा प्रेरित दृश्य उभरते हैं और बिना प्रतिक्रिया जगाये समाप्त हो जाते हैं और साथ ही उस व्यक्ति को वर्तमान की सच्चाई में स्थिर किये रहते हैं। (फ्लेशमेन. पी. डी. 1986)

ध्यान मन की कंडीशनिंग क्रिया को बदल करके डीकंडीशन करता है ताकि यह भविष्य के कर्मों का प्रधान निर्धारक नहीं हो (गोलमैन डी. 1977)

स्मृति का परिष्करण होता है और जीवन में जो भी स्थितियां आती हैं उनका जान-बूझ कर सामना किया जाता है। इस तरह जो सीमाएं हैं और जो परिस्थितियों की प्रतिक्रिया करके बनी थीं, उनसे मुक्त होता है। जीवन में अधिक मात्रा में जागरूकता आती है, सच्चाई को जानने लगता है तथा माया को दूर करता है। आत्म संयम और शांति बढ़ जाती है (फ्लेशमेन पी. 1986) ऐसा व्यक्ति शीघ्र निर्णय लेने के योग्य बनता है वह निर्णय जो ठीक और सही होगा और वह संगठित प्रयत्न कर सकता है जो मानसिक योग्यताओं को बढ़ा आधुनिक जीवन में सफलता प्राप्त करने में सहायता करेगी। 

विपश्यना, स्वास्थ्य और डॉक्टरः अनुसंधान पुनर्विलोकनः
बहुत से आंकड़े (डाटा) प्राप्त हैं, जिनसे प्रमाणित हो जाता है कि विपश्यना ध्यान के अभ्यास से बहुत प्रकार के जैव मनोसामाजिक लाभ मिलते हैं। इससे विपश्यना की चिकित्सकीय अंतःशक्ति कितनी है- इसका भी पता चलता है। उदाहरणार्थ बहुत से रोगियों की रिपोर्टों का अध्ययन किया गया है जो विपश्यना के सकारात्मक प्रभावों को बताते हैं। ये परिणाम विभिन्न क्षेत्रों में पाये जाते हैं जैसे मनोकायिक रोगों में जैसे- पुराना दर्द, सर दर्द, उच्च रक्तचाप, पेपटिक अल्सर, सरदर्द, bronchial asthma (श्वसनी दमा), खाज आदि और ऐसा ही भिन्न-भिन्न मानसिक रोगों में जैसे शराब पीने की आदत या नशे की गोली संवेदन भेदक दवाओं का आदी। इसका अच्छा प्रभाव मानसिक रोगों पर भी पड़ता है जिसमें शराब तथा ड्रग के आदी लोग सम्मिलित हैं। विपस्सना का अच्छा प्रभाव विशेष समूहों में भी देखा गया जैसे- विद्यार्थी, कैदी, पुलिस विभाग के कर्मचारी और वैसे व्यक्ति जो पुराने दर्द तथा अन्य मानसिक रोगों से पीड़ित हैं—

जो भी हो, रोग से मुक्ति नहीं, बल्कि मानवीय दुःख का आवश्यक उपचार हो- यही विपश्यना का उद्देश्य है। दुःख का स्रोत है अविद्या अर्थात अपने सच्चे स्वभाव को न जानना। प्रज्ञा- आनुभूतिक स्तर पर सच्चाई का ज्ञान ही किसी को मुक्त कर सकती है (फ्लेशमेन पी. 1997) 'स्वयं को जानो'- सभी ज्ञानी जनों ने कहा है। विपश्यना अपने मन और शरीर की सच्चाई को जानने का एक व्यावहारिक रास्ता है।

काया तथा मन में गहरी दबी उन समस्यायों का पता लगाने तथा उनसे मुक्त होने की जो अप्रयुक्त अन्तःशक्ति है, उसको विकसित करना है एवं अपने लिए तथा अन्यों के लिए इसको उचित माध्यम बनाना ही विपश्यना है।

उपचार की आवश्यकता सबको है, सबसे अधिक आवश्यकता तो स्वयं डॉक्टरों को है। 'डॉ. अपना उपचार आप करो'- यह एक प्रसिद्ध कहावत है। फ्रायड एवं जुंग ने इस बात पर जोर दिया था कि विश्लेषण करने वाले को अपना विश्लेषण स्वयं करना चाहिए। जो कोमलता और करुणा किसी उपचार करने वाले को जीवन पर्यंत उपचार करने के पथ पर लाती है, जिसका मानवीय दुःखों से सतत पाला पड़ता है, वे उसे अपना इलाज करने को आवश्यक बनाती है। विपश्यना विभिन्न प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों को स्वीकार्य है तथा प्रासंगिक है क्योंकि यह हठधर्मिता से मुक्त है, अनुभव पर आधारित है, इसका केंद्र बिन्दु मानवीय दु:ख तथा इससे छुटकारा पाना है। इसके अभ्यास से, चिकित्सक अपनी स्वायत्तता तथा आत्मज्ञान को बढ़ाते हैं, साथ ही साथ वे अन्यों के लिए उनके जीवन के शोरगुल में उनकी योग्यता की वृद्धि करने में सहारा बनते हैं। विपश्यना वस्तुतः सभी प्रकार के उपचारों जिनमें आत्मोपचार तथा अन्य उपचार भी शामिल हैं, का मार्ग है (फ्लेशमेन 1991)

हम लोग पाते हैं कि अधिकतर आनुभविक शोध का संबंध इस बात को देखना है कि स्वतः नियामक योजना के रूप में विपश्यना ध्यान शारीरिक तथा आचरणिक उपायों के प्रयोग से संबंधित है।
विपश्यना के चिर प्रतिष्ठित परिप्रेक्ष्य पर भी ध्यान देना आवश्यक है जो ध्यान द्वारा चित्त की बदली हुयी अवस्थाओं की घटना क्रिया का वैज्ञानिक पहलू है।

रोगविषयक प्रयोग के लिए नमूनाः
विपश्यना ध्यान की रोग विषयक उपयोगिता अधिकांशत: इस बात से संबंधित है कि वह किसी विशेष समस्या का समाधान न होकर सकारात्मक मानसिक अवस्थाएं विकसित करने के लिए साधारण मनोवैज्ञानिक ढांचा का प्रबंध करे। साधारणतया परंपरागत मनश्चिकित्साओं का सहारा किसी विशेष समस्या को दूर करने के लिए लिया जाता है। फिर भी लेखक एक संज्ञानात्मक (कॉगनिटिव) चिकित्सकीय प्रविधि का प्रयोग कर रहा है जो विपश्यना ध्यान से व्युत्पन्न है और जो अनुपूरक चिकित्सा के रूप में काम में लाया जाता है। लेखक ने तनाव प्रबंधन तथा भय और फोबिया को कम करने में इसे प्रभावी पाया है। 

यह ध्यातव्य है कि चिकित्सक को विपश्यना ध्यान विधि से पूर्ण परिचित होना चाहिए और उसे स्वयं एक परिपक्व साधक होना चाहिए। विपश्यना की भाषा में कहें तो रोगी आनापान का अभ्यास करता है जबकि डॉक्टर मेत्ता ध्यान करता है।
औपचारिक चिकित्सा प्रारंभ करने के पूर्व चिकित्सक रोगी को विपश्यना के संभावित लाभ के बारे में विशेषकर विश्राम के बारे में बताता है। इससे यह होता है कि रोगी का भय कम हो जाता है और यह उसे उपचार में सक्रियता से भाग लेने तथा चिकित्सक को सहयोग देने के योग्य बनाता है। इसके अतिरिक्त इस बात को सुनिश्चित करना भी आवश्यक है कि विश्राम के लिए जो भौतिक वातावरण चाहिए वह वहां मिले अर्थात विपश्यना केंद्र पर जैसा वातावरण मिले, उसका कमरा भी शांत हो, आने-जाने वाले लोग कम हों और रोगी का विछावन पर्याप्त आरामदायक होना चाहिए।

रोगी को आराम से विछावन पर लेट जाने के लिए कहा जाता है, आंख मूंद कर आने-जाने वाली सास को ऊपर वाले ओठ के ऊपर और नासिका के नीचे छोटे से स्थान पर एकाग्रचित्त हो देखने के लिए कहा जाता है। सांस जैसी है उसी को देखना है, अंदर आती हुई सांस को. बाहर जाती सांस को। गहरी सांस हो या उथली, तेज सांस हो या धीमा; स्वाभाविक सांस को, सिर्फ सांस को देखने को कहा जाता है। जब उसका मन भागता है, उसे कहा जाता है कि वह फिर से उसी स्थान पर आती-जाती सांस को बार-बार देखे, बिना इस बात पर पश्चात्ताप किये कि उसका मन भाग गया था। मन भाग गया- इस बात से न तो वह घबड़ाये और न ही परेशान हो। 

दो बातें घटती हैं- पहली उसका मन आतीजाती सांस पर एकाग्र हो जाता है और दूसरी वह इस बात से अवगत हो जाता है कि मानसिक अवस्था और सांस में संबंध है। मन में चाहे कुछ भी हो- क्रोध, घृणा, भय, राग आदि । सांस की जो प्राकृतिक गति है वह इनमें से किसी के होने पर अस्वाभाविक हो जाती है। वह तब सिर्फ अपने को पर्यवेक्षण करते हुए जागरूक रहता है, स्मृतिमान, सावधान और तटस्थ रहता है। 

रोगी को स्वयं इस विधि का अभ्यास करने के लिए कहा जाता है, कम से कम दो बार दिन में सुबह और शाम कम से कम 30 मिनट के लिए। चिकित्सक रोगी को समय-समय पर जांच करता है और साथ ही साथ सलाह भी देता है और दसदिवसीय विपश्यना शिविर में भाग लेने के लिए प्रेरित करता है। रोगी को इस प्रकार उत्साहित किया जाता है, अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए प्रयास करने को कहा जाता है और इस तरह उसको यह बताया जाता है कि वह स्वयं अपने स्वास्थ्य तथा अपने कल्याण के लिए जिम्मेवार बने।

उपसंहारः
मेरा यह दावा है कि यह विधि उपचार के समय को कम करती है और यह रोगी को समाज का अच्छी तरह से सामना करने के लिए एक पैटर्न ऑफ जेनरल स्ट्रेस रिस्पॉन्सॅबिलिटि देती है जो स्पेसीफिक ऑभर लर्नेड मेलएडेप्टिम रेसपोन्सेज को उत्पन्न करने की संभावना कम करती है चाहे वह प्रतिक्रिया मनोवैज्ञानिक हो या शारीरिक । इसके अतिरिक्त रोगी की आंतरिक अवस्था में परिवर्तन होता है जिससे उसका ध्यान केंद्रित होता है, उसकी बोधात्मक और प्रेरक प्रणाली आदर्श रूप में कार्य करती है और उसकी चिंता कम हो जाती है। इसके बावजूद यह होता है कि उसे बाह्य वातावरण से परिवर्तन होते रहने वाली मांग आती हैं, और यह वह करता है आत्म नियंत्रण से तथा विपश्यना ध्यान से आंतरिक क्षमता को विकसित करके।
अनेक प्रकार की मानसिक बीमारियों को रोकने तथा ठकि करने में इस विधि के महत्त्व तथा इसकी सीमा को अध्ययन करने में सोफिस्टिकेटेड एक्सपेरीमेन्टल डिजायन्स से मल्टिसेंटर्ड क्लिनिकल परीक्षण हमें सहायता करेगा। इस बात को भी यहां स्पष्ट करना चाहिए कि कौन रोगी किस क्लिनिकल प्रोब्लम वाला विपश्यना ध्यान से लाभान्वित होगा, विपश्यना ध्यान जो उसके च्वायस की विधि है विस-एविस अन्य सेल्फ रेगुलेशन स्ट्रेटेजी उदाहरण स्वरूप वायोफीड बेक, हिप्नोसिस, प्रोग्रेसिभ रिलेक्सेसन आदि।

*The Role of Vipassana in Psychiatric Practice*
*Ref: U Ba Khin Journal*
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Saturday, July 22, 2023

अनाथपिण्डिक की कथा

बुद्ध - धर्म - संघ शरण सर्वोपरि सर्वोच्च शरण

[अनाथपिण्डिक की कथा। धम्मपद गाथा 119 और 120].

अनाथपिण्डिक ने केवल विहार बनवाने के लिए ही चौवन करोड़ धन, बुद्धशासन के निमित्त त्याग दिया-बिखेर दिया। वह तीन रत्नों (बुद्ध, धर्म, संघ) को रत्न समझ, और किसी (रत्न) को रत्न ही न समझ, शास्ता के जेतवन में विहार करने के समय, प्रतिदिन तीन बार दर्शनार्थ जाता था। एक बार प्रातःकाल ही जाता, दूसरी बार जलपान करके जाता, तीसरी बार शाम को जाता।

और भी बीच बीच में जाता ही था। जाते समय 'श्रामणेर' वा अन्य बच्चे मेरे हाथ की ओर देखेंगे कि क्या ले कर आया है' सोच वह कभी खाली हाथ नहीं गया। प्रातःकाल जाते समय यवागु लिवा कर जाता, जलपान करके जाते समय घी, मक्खन, मधु, गुड़ आदि और शाम को जाते समय गन्ध, माला, वस्त्र आदि ले कर जाता। इस प्रकार प्रतिदिन परित्याग करते करते इसने कितना परित्याग किया, इसका (कोई) माप नहीं। बहुत से व्यापारियों ने भी, हाथ की लिखित देकर इससे अट्ठारह करोड़ धन ऋण लिया था। महासेट्ठी उनसे वह धन नहीं मंगवाता था और भी, इसका कुलायत अट्ठारह करोड़ धन नदी के किनारे गाड़ा हुआ था। जल-वायु से नदी के कूल के टूटने से वह समुद्र में बह गया। वहाँ वे लोहे की गागरें, जैसी की तैसी मुहर लगी हुई, समुद्र में बहती घूमती थीं और, इसके घर में पांच सौ भिक्षुओं को नित्यभात बँधा ही था। सेठ का घर भिक्षुसंघ के लिए चौरस्ते पर खोदी गई पुष्करणी की तरह था। वह सब भिक्षुओं के लिए माता-पिता तुल्य था। सो, उसके घर, सम्यक सम्बुद्ध भी जाते, अस्सी महास्थविर भी जाते, शेष जाने वाले भिक्षुओं की तो गणना ही नहीं थी। 

वह घर सात तल्लों का और सात ड्योढ़ियों वाला था। उसकी चौथी ड्योढ़ी में एक मिथ्या-धारणा वाली देवी रहती थी। सम्यक सम्बुद्ध के घर में प्रवेश करते समय वह अपने विमान पर बैठी न रह सकती थी। बच्चों को साथ ले उतर कर, वह जमीन पर खड़ी होती। अस्सी महास्थविर तथा अन्य स्थविरों के भी प्रविष्ट होते तथा निकलते समय उसे वैसा ही करना पड़ता। उसने सोचा : जब तक श्रमण गौतम, अथवा उसके श्रावक इस घर में आते-जाते रहेंगे, तब तक मुझे सुख नहीं। मैं नित्य-प्रति उतर उतर कर जमीन पर नहीं खड़ी हो सकती, सो मुझे ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए, जिसमें ये लोग इस घर में प्रवेश न करें।

सो एक दिन वह लेटे हुए महाकर्मचारी के पास जाकर, अपना प्रकाश फैला कर खड़ी हो गई। “यहाँ कौन है ?" पूछने पर उत्तर दिया, "मैं चौथी ड्योढ़ी में रहने वाली देवी हूँ।"
"किस लिए आई है ?"
"क्या तुम सेठ की करनी को नहीं देखते? वह अपने भविष्य का कुछ भी विचार न कर, धन ले जा कर, केवल श्रमण गौतम की पूजा करता है। धन को न व्यापार में लगाता है, न कर्मान्त (खेती) में। तुम सेठ को उपदेश दो, जिससे वह अपने काम में लगें; जिससे श्रावकों सहित श्रमण गौतम, इस घर में प्रवेश न किया करें।"
उस महाकर्मचारी ने उत्तर दिया-"मूर्ख देवी! सेठ जो धन खर्च करता है, वह कल्याणकारी बुद्ध-शासन के लिए खर्च करता है। यदि वह मेरी चोटी पकड़ कर मुझे बेच भी देगा, तो भी मैं कुछ न कहूंगा। तू जा।"

इसी तरह, एक दिन, उसने सेठ के पुत्र को जाकर उपदेश दिया। सेठ के पुत्र ने भी उसे पूर्वोक्त प्रकार से झाड़ लगाई। सेठ को तो वह जाकर, कुछ कह ही न सकती थी।

सेठ के निरन्तर दान देते रहने से, व्यापार न करने के कारण आमदनी कम हो जाने से, धन में बहुत न्यूनता आ गई और ऐसे ही क्रम से होते रहने से, उसके दरिद्र हो जाने पर, उसके पहनने के वस्त्र, बिस्तर, भोजन आदि भी पूर्वसदृश न रहे। ऐसा होने पर भी, वह भिक्षुसंघ को दान देता, लेकिन हां, अब प्रणीत आहार न दे सकता। एक दिन वन्दना करके बैठे उसे, शास्ता ने पूछा "गृहपति! तुम्हारे घर से दान दिया जाता है?"
“भन्ते! दिया जाता है, लेकिन वह होता है (केवल) कणी का चावल और मट्ठा।"
गृहपति! 'मैं रूखा-सूखा दान दे रहा हूँ' सोच संकुचित न हो, प्रसन्न (पवित्र) चित्त से बुद्धों, प्रत्येक-बुद्धों तथा बुद्ध-श्रावकों को दिया हुआ दान रूखा-सूखा दान नहीं होता, क्यों? (उसका) बड़ा फल होने से। चित्त प्रसन्न (पवित्र) रख सकने वाले का दान 'रूखा-सूखा-दान' नहीं होता- यह इस प्रकार जानना चाहिए :-----

नत्थि चित्तै पसन्नम्हि अप्पिका नाम दक्षिणा,
 तथागते वा सम्बुद्ध अथवा तस्स सावके। 
न किरत्थि अनोमदस्सिसु पारिचरिया बुढेसु अप्पिका,
सुखाय अलोणिकाय च पस्त फलं कुम्मासपिण्डिया॥ 

[चित्त प्रसन्न हो तो तथागत सम्यक सम्बुद्ध अथवा उसके श्रावक को दी गई दक्षिणा थोड़ी नहीं होती और न ही अनोमदर्शी आदि बुद्धों की, की हुई सेवा (परिचरिया) “थोड़ी" होती है। सूखे, अलूणे, कुल्माश-पिण्ड के (ही दान के) फल को देख।]

उसे और भी कहा कि हे गृहपति! तू अपना 'रूखा-सूखा' दान देता हुआ ही आठ आर्य पुद्गलों को दे रहा है। लेकिन वेलाम ब्राह्मण के जन्म में उत्पन्न होने के समय, सारे जम्बुद्वीप के हलों को रुकवा कर सात रत्न देते हुए, पांच महानदियों को एक साथ, एक प्रवाह करने की तरह (चित्त को प्रसन्नता से भरकर) महादान देने के समय, कोई त्रिशरण-गत वा पञ्च-शील रक्षक (सदाचारी) न मिला। इस प्रकार दान का अधिकारी पुद्गल मिलना भी दुर्लभ है। सो "मेरा दान रूखा-सूखा है" समझ, तू संकुचित मत हो। यह कह वेलामसूत्र कहा।

सो वह देवी यद्यपि पहले सेठ के साथ बात भी न कर सकती थी, तो भी अब सेठ के दुर्गति-प्राप्त होने से, 'शायद वह मेरी बात मान ले' सोच, आधी रात के समय, सेठ के शयनागार में प्रविष्ट हो, अपना प्रकाश फैला आकाश में खड़ी हुई।
सेठ ने उसे देख कर पूछा-"यह कौन है ?" 
“सेठ ! मैं चौथी ड्योढ़ी में रहने वाली देवी।" 
"किस लिए आई है ?" 
"तुझे नेक-सलाह देने की इच्छा से।"

"बड़े सेठ! तू भविष्य की चिन्ता नहीं करता। बेटे-बेटी की ओर नहीं देखता। तूने श्रमण गौतम के शासन के लिए बहुत धन खर्च कर दिया। सो, तू चिरकाल तक धन खर्च करते रहने से तथा (खेती आदि) नवीन कर्मान्तों के न करने से, श्रमण गौतम के कारण निर्धन हो गया। ऐसा होने पर भी तू श्रमण गौतम का पीछा नहीं छोड़ता। आज भी श्रमण तेरे घर में आते ही हैं। जो कुछ वह ले गये, सो अब वापिस नहीं मंगवाया जा सकता; वह ले जायें। लेकिन अब से, तू श्रमण गौतम के पास जाना और उसके श्रावकों को इस घर में आने देना-बन्द कर दे। (चलते चलते जरा) रुक कर भी, श्रमण गौतम को बिना देखे, अपने व्यापार और वाणिज्य को करते हुए, कुटुम्ब को पाल।"

उसने उसे पूछा-"जो नेक-सलाह तू मुझे देना चाहती है, वह यही है?" 
"हाँ! यही है।"
"तुझ जैसे सौ हज़ार और लाख देवताओं के उपदेश से भी मैं हिलने वाला नहीं। दस-बलधारी के प्रति मेरी श्रद्धा सुमेरु पर्वत की तरह अचल है, सुप्रतिष्ठित है। मैंने कल्याणकारी त्रिरत्न-शासन के लिए जो धन खर्च किया है, उसे तूने 'अनुचित' कहा। तूने बुद्ध-शासन को दोष दिया। इस प्रकार की अनाचारिणी, दुश्शीला और मनहूस के साथ मैं एक घर में नहीं रह सकता। निकल, मेरे घर से, शीघ्र निकल और किसी दूसरी जगह जा।" 

श्रोतापन्न, आर्य-श्रावक अनाथपिण्डिक की बात सुन कर, न ठहर सकने के कारण, वह अपने निवास स्थान पर गई और बच्चों को हाथ से पकड़े हुए, वहाँ से निकल आई। लेकिन निकल कर, अन्य निवास स्थान न मिलने के कारण, 'सेठ से क्षमा मांग, वहीं रहूंगी' सोच, नगर-रक्षक देवपुत्र के पास जा, उसे प्रणाम कर, खड़ी हुई।
"किस लिए आई?' पूछने पर, वह बोली-"स्वामी ! मैंने बिना सोचे समझे, सेठ को (कुछ) कह दिया। उसने क्रुद्ध हो, मुझे निवास स्थान से निकाल दिया। सेठ के पास ले जा, उससे क्षमा दिलवा मुझे रहने के लिए स्थान दिलवाइए।"
“तूने सेठ को क्या कहा ?"
"स्वामी ! मैंने सेठ को कहा कि अब से बुद्ध-उपस्थान (सेवा), संघ-उपस्थान मत करो। श्रमण गौतम को घर में मत आने दो।"
“तूने अनुचित कहा। बुद्धशासन की निन्दा की। मैं तुझे लेकर सेठ के पास जाने की हिम्मत नहीं कर सकता।" 

वह, उससे कुछ सहायता न पा, चारों महाराजाओं के पास गई। उनसे भी वैसा ही इन्कार मिलने पर शक्र देवेन्द्र के पास जा, वह हाल कह, बड़ी नम्रता से याचना करने लगी-“हे देव! निवास स्थान न मिलने से, मैं बच्चों को हाथ से पकड़े पकड़े, अशरणा हो घूमती हूँ। अपनी कृपा से, मुझे निवास स्थान दिलवाइये।"
उसने भी कहा-"तूने अनुचित किया जो बुद्ध-शासन की निन्दा की! मैं भी तेरे पक्ष में सेठ के साथ बातचीत तो नहीं कर सकता; लेकिन एक ऐसा उपाय बताता हूँ कि जिससे सेठ क्षमा कर दे।"
"अच्छा ! देव! कहें।" 

“मनुष्यों ने तमस्सुक देकर सेठ के हाथ से अट्ठारह करोड़ की संख्या में धन लिया है। तू सेठ के मुनीम का भेष बना, किसी को बिना जनाये, उन लेखों को ले, कुछ यक्ष तरुणों के साथ, एक हाथ में लेख और एक हाथ में कलम लेकर, उन पुरुषों के घर जा; और घर के बीच में खड़ी हो, अपने यक्ष-बल (आनुभाव) से उन्हें डरा, 'यह तुम्हारे लेख हैं। हमारे सेठ ने अपने ऐश्वर्य के समय में तुम्हें कुछ नहीं कहा, लेकिन अब वह निर्धन (दुर्गति-प्राप्त) हो गया है। तुमने जो कार्षापण लिए हैं सो दो' कह अपनी यक्षपन की सामर्थ्य दिखा कर, वह सब अट्ठारह करोड़ सोना वसूलकर सेठ के खाली कोठे को भर। दूसरे अचिरवती नदी के किनारे गड़ा धन, नदी-कूल के टूट जाने से समुद्र में बह गया है, उसे भी अपने सामर्थ्य से लाकर, खाली कोठे भर। और भी, अमुक स्थान पर बिना स्वामी का अट्ठारह ही करोड़ धन है, उसे भी ला कर खाली कोठे भर। इस चौवन करोड़ धन से इन खाली कोठों को भरने से दण्ड-कर्म कर के, महासेठ से क्षमा मांगना।"
वह 'देव! अच्छा' कह, उसके कथन को स्वीकार कर, तदनुसार सब धन लाकर, आधी रात के समय, सेठ के शयनागार में प्रविष्ट हो, अपना प्रकाश फैला, आकाश में खड़ी हुई। 

 “यह कौन है ?" पूछने पर बोली-“सेठ जी! मैं तुम्हारी चौथी ड्योढ़ी में रहने वाली अंधी-मूर्ख देवी हूँ। मैंने अपनी महामोह भरी मूढ़ता के कारण, बुद्धगुणों को न जानकर, पिछले दिनों में आपसे जो कुछ कहा, मेरे उस दोष को क्षमा करें। मैने देवेन्द्र शक्र के कथनानुसार आपका ऋण वसूलकर अट्ठारह करोड़; समुद्र में बहा हुआ अट्ठारह करोड़, जिस किसी स्थान में बिना स्वामी का अट्ठारह करोड़;-इस प्रकार चौवन करोड़ लाकर, खाली कोठों को भरने से, दण्ड चुका दिया; जेतवन विहार के निर्माण में जितना धन खर्च हुआ, उतना एकत्र कर दिया. निवास-स्थान न मिलने से मैं कष्ट पा रही हूँ। सेठ जी! मैंने अज्ञान से जो भूल कर दी, उसे क्षमा करें।"

अनाथपिण्डिक ने, उसकी बात सुन, यह कहती है-'मैंने दण्ड भुगत लिया, और अपने दोष को स्वीकार करती हूँ' सोच विचार किया कि इसे सम्यक सम्बुद्ध के पास ले चलना चाहिए; इसका विचार कर तथागत अपने गुणों को जनायेंगे। सो उसे कहा, “अम्म ! देवी ! यदि तू मुझसे क्षमा प्रार्थना करना चाहती है, तो शास्ता के सम्मुख क्षमा-प्रार्थना करना।"

"अच्छा! ऐसा करूँगी; लेकिन मुझे शास्ता के पास ले चलना।" उसने 'अच्छा' कह, रात्रि समाप्त होने पर प्रातःकाल ही उसे ले, शास्ता के पास जा, शास्ता को उसका सब किया-कराया कह सुनाया। शास्ता ने कहा:---

 “हे गृहपति! जब तक पाप-कर्म करने वाले का पाप पकता नहीं है, तब तक वह सुख भोगता है, लेकिन जब उसका पाप-कर्म पकता है (फल देता है), तब से वह दुःख ही दुःख भोगता है। इसी प्रकार जब तक पुण्य-कर्म करने वाले का पुण्य पकता नहीं, तब तक वह दुःख भोगता है, लेकिन जब उसका पुण्य-कर्म पकता है, तब से वह सुख ही सुख भोगता है." 

कह, धम्मपद की इन दो गाथाओं को कहा :----

119. पापोपि पस्सति भद्रं, याव पापं न पच्चति।
यदा च पच्चति पापं, अथ पापो पापानि पस्सति।
120. भद्रोपि पस्सति पापं, याव भद्रं न पच्चति।
यदा च पच्चति भद्रं, अथ भद्रो भद्रानि पस्सति।

अर्थ:-------
119. पापी भी पाप को तब तक अच्छा ही समझता है जब तक पाप का विपाक (पाप का फल देना) नहीं होता और जब पाप का विपाक होता है, तब पापी पापों को देखने लगता है।
120. भद्र (पुण्य करने वाला व्यक्ति) भी तब तक पाप को देखता है जब तक पुण्य का विपाक नहीं होता. जब पुण्य का परिपाक होता है, तब वह भद्र व्यक्ति पुण्यों को देखने लगता है।

इन गाथाओं के कहे जाने के अन्त में, वह देवी श्रोतापत्ति-फल में प्रतिष्ठित हुई। उसने शास्ता के चक्रांकित चरणों में गिर कर कहा-“भन्ते ! मैंने राग में अनुरक्त हो, द्वेष ( क्रोध) से दूषित हो, मोह से मूढ़ हो, अविद्या से अंधी हो, आपके गुणों को न जानने के कारण अपशब्दों का प्रयोग किया, सो आप मुझे क्षमा करें।" शास्ता से क्षमा मांग, उसने सेठ से क्षमा माँगी।

उस समय अनाथपिण्डिक ने शास्ता के सम्मुख अपना गुण वर्णन किया। "भन्ते ! यह देवी 'बुद्ध-सेवा आदि मत कर' (कह) मना करने पर भी, मुझे रोक नहीं सकी, 'दान नहीं देना चाहिए' कह रोकने पर भी, मैंने दान दिया ही। भन्ते! क्या यह मेरा गुण नहीं?" 
 
शास्ता ने, “हे गृहपति ! तू श्रोतापन्न आर्य-श्रावक है, अचल श्रद्धा वाला है, विशुद्ध-दृष्टि है; यदि यह अल्प-शाक्य देवी तुझे दान देने से रोकने पर भी, नहीं रोक सकी, तो यह आश्चर्य की बात नहीं। आश्चर्य तो यह है कि बुद्ध के अनुत्पन्न हुए रहने पर भी, उनके ज्ञान के अपरिपक्व रहने पर भी, पूर्व समय में पण्डितों ने, कामावचर लोक के स्वामी 'मार' के आकाश में खड़े होकर यदि इस प्रत्येक-बुद्ध दान दोगे तो इस नरक में पकोगे कहते हुए अस्सी हाथ गहरा अंगारों का ढे़र दिखाकर 'दान मत दो' मना करने पर भी, पद्म की कलि के बीच में खड़े होकर प्रत्येक-बुद्ध को दान दिया। यह कह, अनाथपिण्डिक के याचना करने पर पूर्वजन्म की कथा खदिर-अंगार जातक कही।

खदिर-अंगार जातक
https://www.palikanon.com/english/pali_names/ku/khadirangaara_jat_40.htm

Thursday, July 20, 2023

लोक-भ्रांति - " सत्यनारायण गोयन्का"

लोक-भ्रांति  - " सत्यनारायण गोयन्का"
आर्यभट्ट और पाइथागोरस ने अपने-अपने वैज्ञानिक शोध द्वारा जानकर जब यह घोषित किया कि पृथ्वी चपटी नहीं बल्कि गोल है, तब अनेक लोगों ने उन पर मूर्खता के लांछन लगाये होंगे, यह कहते हुए कि आंखों के सामने पृथ्वी दूर-दूर तक चपटी ही स्पष्ट दिखती है। इसे गोल कैसे मान लें!

इसी प्रकार जब गेलीलियो ने यह कहा कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है और इसी के कारण हमें यह भ्रम होता है कि सूरज और चंद्रमा पूर्व में उगते हैं और पश्चिम में अस्त होते हैं। तब इस सच्चाई को भी सुन कर उस समय के कई लोगों ने उसकी हँसी उड़ाई होगी कि हम सूरज और चांद को प्रत्यक्ष पूर्व में उगते और पश्चिम में डूबते देखते हैं। ये दोनों ही पृथ्वी की परिक्रमा करते रहते हैं तब हम यह कैसे मान लें कि सूरज नहीं घूमते बल्कि पृथ्वी घूमती है। परंतु कुछ समय पश्चात अन्य वैज्ञानिकों ने भी अनुसंधान द्वारा इन सच्चाइयों को जाना  स्वीकार किया। इस कारण समय बीतते-बीतते अनेक लोगों द्वारा भी इसे स्वीकार किया जाने लगा।

फिर भी उस समय के और आज के भी कुछ लोगों के मन में यह भ्रांति है ही कि सूरज और चांद किसी सर्वशक्तिमान की आज्ञा के आधार पर उदय-अस्त होते हैं। मुझे स्मरण है कि छोटी उम्र में मैं भी ईश्वरभक्ति का एक गीत गाया करता था जिसमें यह पद था -- ‘सूरज व चांद घूमते किसके आधार हैं?" यानी उन दिनों मैं भी यही समझता था कि परमपिता परमात्मा की कृपा के आधार पर ही ये घूमते हैं।

अनेक वैज्ञानिकों की शोध के द्वारा यह सत्य पुष्ट होता गया कि सूरज और चांद नहीं घूमते बल्कि पृथ्वी ही अपनी धुरी पर घूमती रहती है। तब अधिकांश लोगों के मन से यह भ्रांति दूर होने पर भी कुछ तो ऐसे थे ही और आज भी हैं ही जो इस वैज्ञानिक शोध की सच्चाई को नहीं स्वीकारते और सर्वशक्तिमान परमपिता परमात्मा की इच्छा के आधार को ही स्वीकारते रहते हैं।

इसी प्रकार न्यूटन ने यह वैज्ञानिक शोध की कि प्रकृति में ऐसी गुरुत्वाकर्षण शक्ति है जो एक-दूसरे ग्रह को अपनी ओर खींचती है। इसे भी तब अनेक लोगों ने स्वीकार नहीं किया। लेकिन समय बीतते-बीतते यह वैज्ञानिक सच्चाई भी लोगों की समझ में आने लगी और तब स्वीकार की गई। । ठीक इसी प्रकार अध्यात्म जगत के सर्वोच्च वैज्ञानिक तपस्वी सिद्धार्थ गौतम ने जब प्रकृति की यह सच्चाई ढूंढ निकाली कि वह स्वयं ही अपने पुरुषार्थ से मुक्त हुए, किसी अन्य के द्वारा उन्हें मुक्ति नहीं मिली। उन्होंने अपने द्वारा मुक्ति की खोज की तो उसका विवरण इन शब्दों में प्रकट किया – 

''अनेकजातिसंसारं संधाविस्सं अनिब्बिसं' यानी मैं अनेक जन्म-जन्मांतरों तक इस सच्चाई की खोज करता हुआ संसार-चक्र में बिना रुके दौड़ लगाता ही रहा । खोज यही थी कि मृत्यु के बाद पुनः जन्म देकर जो हमारे लिए नई देह का नया घर बनाता है, वह कौन है? उस घर बनाने वाले की गवेषणा में ही बार-बार दुःखमय जन्म लेता गया, इसीलिए कहा—

"गहकारं गवेसन्तो दुक्खा जाति पुनप्पुनं''। इस बार-बार जन्म लेने और उसके लिए नया-नया देहरूपी घर बनाने वाला आखिर वह ईश्वर है कौन? खोज करते-करते यह जान लिया कि कोई ईश्वर नहीं है। हम स्वयं ही हैं जो बार-बार नये जन्म लेकर देहरूपी नया गृह बनाते रहते हैं। इस खोज द्वारा यह सच्चाई स्पष्ट हुई कि जब तक मानस में अनेक जन्मों के कर्म-संस्कार संगृहीत हैं और हम तृष्णा द्वारा नये-नये संस्कार बनाते रहते हैं तब तक उनके कारण हमारा पुनर्जन्म होता रहता है। अतः यह स्पष्ट हुआ कि स्वयं हम ही बार-बार अपने लिए नया-नया जन्म और उसके लिए नया-नया घर बनाते रहते हैं। अन्य कोई घर बनाने वाला नहीं है। यह केवल एक मिथ्या, काल्पनिक मान्यता ही है। 

अपने अनुसंधान द्वारा इस अनजानी सच्चाई को लोगों के सामने रखते हुए उन्होंने यह स्पष्ट किया कि व्यक्ति स्वयं ही अपना मालिक है, उसके परे और कौन मालिक होगा भला! "अत्ता हि अत्तनो नाथो, को हि नाथो परोसिया' । अनुसंधान की गयी इस सच्चाई को सुन कर लोगों को बहुत अटपटा लगा होगा।

जब अध्यात्म के इस सर्वोच्च वैज्ञानिक ने अपनी शोध द्वारा यह भी घोषित किया कि 'अत्ता हि अत्तनो नाथी, अत्ता हि अत्तनो गति" - तब तो समाज में भूकंप उठ खड़ा हुआ होगा। हमें सद्गति अथवा अधोगति प्रदान करने वाले तो ऊपर आकाश में बैठे हुए ईश्वर के प्रतिनिधि धर्मराज अथवा यमराज हैं। यह कैसी मान्यता है जो उनके अस्तित्व को ही नहीं स्वीकारती और कहती है कि अपनी सद्गति या दुर्गति अथवा इन दोनों के परे जन्म-मरण की गतियों से सर्वथा मुक्ति का पुरुषार्थ स्वयं हमें ही करना होता है। अन्य किसी सर्वशक्तिमान की कृपा से यह नहीं होता। उस समय भी अनेक लोगों की यह मान्यता थी कि उस परमपिता परमात्मा का पूजन-अर्चन करके अथवा उसका नाम-स्मरण करके उसे प्रसन्न कर लेंगे तब वह हमें भव-सागर से तार देगा। कुछ लोग तब भी और अब भी, इस मान्यता को मान कर ही चलते हैं कि – 

“पुनरपि जन्मम्, पुनरपि मरणम्, पुनरपि जननीजठरे शयनम्'' इस दुस्तर भव-संसार को पार । करने के लिए किसी परमात्मा की याचना करते हैं। इस जनमान्यता को भी परमोच्च वैज्ञानिक सम्यक सम्बुद्ध द्वारा निरर्थक बताये जाने पर लोगों को बहुत चोट लगी होगी । लेकिन सम्बुद्ध के इस कथन का आधार कोई कल्पना नहीं थी, बल्कि स्वानुभूति द्वारा शोध किये गये और जाने गये निसर्ग के नियमों की सच्चाई का ही उद्घाटन था, न कि इस प्रकार की घोषणा करके वे किसी नये संप्रदाय की स्थापना करना चाहते थे।

महान वैज्ञानिक तपस्वी सिद्धार्थ गौतम ने अपने अनुसंधान का वर्णन करते हुए कहा कि "पुब्बे अननुस्सुतेसु" -- मैंने वह सच्चाई ढूंढ निकाली जिसे पहले कभी सुनी ही नहीं थी। उसने अपने खोजे हुए मुक्ति के मार्ग पर स्वयं चल कर अपने सारे संचित कर्म-संस्कारों को भग्न कर लिया और नये संस्कार बनाने वाली तृष्णा का नितांत क्षय कर लिया। अब पुनर्जन्म कहां? न कोई पुराना कर्म-संस्कार बचा जो पुनर्जन्म दे सके और न ही कोई तृष्णा रही जो पुनर्जन्म के लिए नया संस्कार बनाये। दोनों को ही स्वयं नष्ट करके यह जान लिया कि अब मेरा पुनर्जन्म नहीं हो सकता और यह भी जान लिया कि पहले जो अनेक बार पुनर्जन्म होते रहे, वे भी मेरे ही अपने कर्म-संस्कारों के कारण हुए। व्यक्ति स्वयं अपनी नासमझी से तृष्णा के कारण नये-नये कर्म-संस्कार बनाता रहता है और इसलिए बार-बार जन्म लेता रहता है। अपने पूर्व संचित कर्म-संस्कारों को नष्ट कर दें और नये न बनने दें यानी ''खीणं पुराणं, नवं नत्थि सम्भवं" - तब पुनर्जन्म कैसे हो? इस अवस्था को प्राप्त कर लेने पर ही गौतम सम्यक सम्बुद्ध ने कहा- "अयं अन्तिमा जाति" -- यह मेरा अंतिम जन्म है। "नत्थि दानि पुनड्भवति"- अब पुनः जन्म नहीं होगा।

संभव है कि बुद्ध के द्वारा जानी और प्राप्त हुई इस सच्चाई की घोषणा को लोगों ने नहीं माना होगा। लेकिन सत्य तो सत्य है। सम्यक सम्बुद्ध ने प्रकृति के अटूट नियमों की सच्चाई प्रकाशित की जो कि अंध-मान्यता और अंधश्रद्धा से नितांत दूर थी। उस महान वैज्ञानिक की खोज की गई प्रकृति के नियमों की सच्चाइयों को अन्य लोग भी अपनी अनुभूति द्वारा जान लें, इसीलिए उन्होंने अष्टांगिक आर्य मार्ग पर पटिपत्ति यानी प्रतिपत्ति यानी प्रतिपादन करना सिखाया। इसी पटिपत्ति के अभ्यास के कारण पांच तपस्वी साथियों ने भी अरहंत यानी अरिहंत अवस्था प्राप्त की। अरिहंत उसे कहते हैं जिसने अपने सभी अरियों यानी अपने कर्म-संस्काररूपी दुश्मनों का हनन कर लिया । अरहंत होने पर उनके वे पांचों साथी भी इस अवस्था पर पहुँचे जहां पुनर्जन्म नहीं होता - ''नत्थि दानि पुनभवोति'। ऐसे ही अन्य पचपन लोगों को भी भगवान ने यही मुक्ति का मार्ग । सिखाया, जिस पर चल कर वे सब अनार्य से आर्य हो गये। पृथकजन से अरहंत हो गये, भव-मुक्त हो गये।

इस कल्याणकारी आर्यमार्ग को अनेक लोगों तक पहुँचाने के लिए अब इन साठ लोगों ने अलग-अलग मार्ग से अलग-अलग स्थानों पर पहुँच कर अधिक से अधिक लोगों के हित-सुख के लिए आर्यमार्ग की यही विपश्यना विद्या सिखायी। इससे उन्हें लाभ होना स्वाभाविक था। जब स्वानुभूति द्वारा धर्म का स्वयं लाभ होता है तब साधक के मन में यह करुण-भाव जागता ही है कि इसे अन्य अनेक लोग भी अपना कर लाभान्वित हों। इस कारुणिक भावना को ही -- 'एहिपस्सिको' कहा गया यानी आओ, तुम भी इस मार्ग पर चल कर देखो! इसी आह्वान के कारण अनेकों ने विपश्यना का अभ्यास किया और लाभान्वित हुए। अतः भगवान की शिक्षा उनके जीवनकाल में ही फैलने लगी। जैसे परमात्मा संबंधी भ्रांतियों को दूर किया वैसे ही आत्मा संबंधी भ्रांतियों को भी।

उनके द्वारा प्रशिक्षित विपश्यना के अभ्यास से जो शरीर और चित्त से संबंधित संवेदनाओं की अनुभूति होती है, उनसे साधक जान लेता है कि ये अनित्य हैं, दुःख हैं, अनात्म हैं। अनित्य की सच्चाई तो आसानी से समझ में आ जाती है और कुछ अंशों में दुःख की भी, परंतु अनात्म को लेकर कुछ लोगों के मन में संदेह रहा ही होगा। क्योंकि वे मानते थे कि हमारे भीतर कोई नित्य, शाश्वत, ध्रुव आत्मा तो है ही।

यही समस्या मेरे लिए भी थी। मैं स्वयं कट्टर सनातनी घर में जन्मा और पला और इसका मुझपर गहरा प्रभाव था। बुद्ध की विपश्यना का अभ्यास करने के लिए मेरे मन में जो झिझक थी वह इसीलिए कि इसमें आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाता। परंतु जब पहले ही शिविर में से निकला तो सारे विरोध दूर हो गये। मैंने देखा कि आखिर मैं कर क्या रहा हूं? इस साधना द्वारा अपने अंतर्मन के विकारों को दूर करके उसे निर्मल बनाने का काम ही तो कर रहा हूं। इसमें किसी को क्या विरोध हो सकता है? मुझे भी क्या विरोध हो सकता है? उस समय मेरे मन में यह भाव जागा कि यदि कोई विश्व-नियंता ईश्वर है तो मुझे अपने चित्त को निर्मल करते हुए देख कर वह प्रसन्न ही होगा, इसका विरोध क्यों करेगा? इसी प्रकार यदि कोई आत्मा है तो चित्त को निर्मल कर लेने से उस बेचारी का भला ही होगा, वह नाराज क्यों होगी? और यदि आत्मा और परमात्मा है ही नहीं, तो उनकी मान्यताओं का वृथा बोझ अपने सिर पर क्यों उठाये फिरू?

मेरे अनुभव की यह बिल्कुल प्रारंभिक अवस्था थी। लेकिन जैसे-जैसे और शिविर लेता गया, गहराई में जाकर शरीर और चित्त के संबंधों की गहरी जानकारी अनुभूति द्वारा होती गई, तब बात खूब समझ में आयी कि यह तो कुदरत का कानून है, निसर्ग का नियम है कि जैसा बीज वैसा फल । इस नियम को कोई भी शक्ति बदल नहीं सकती। न कोई देवी, न देवता, न ईश्वर, न ब्रह्म और न कोई गुरु महाराज । बीज नीम का बोया हो तो निसर्ग के नियमों के अनुसार उसमें से नीम ही उत्पन्न होगा। आम का बोया हो तो उसमें से आम ही उत्पन्न होगा। यह सच्चाई खूब समझ में आयी कि ऐसी कोई बाह्य शक्ति है ही नहीं जो नीम के बोये हुए बीज से आम पैदा कर दे अथवा आम के बोये हुए बीज से नीम पैदा कर दे। जैसा बीज वैसा फल। ठीक इसी प्रकार जैसा कर्म-बीज वैसा ही कर्म-फल। इस नियम को कोई बदल नहीं सकता। यदि किसी दुष्कर्म का दुष्फल आया है तो कोई हजार प्रार्थना करे, पूजन-अर्चन करे, कर्मकांड करे तो भी उससे छुटकारा नहीं मिल सकता । विपश्यना की साधना द्वारा यथाकृत नहीं, यथा कल्पित नहीं, यथा आरोपित नहीं बल्कि यथाभूत सत्य को समतापूर्वक देखते-देखते ही कोई दुष्कर्म के बीज का उन्मूलन कर सकता है। इसी प्रकार किसी सत्कर्म का सफल आया है तो इसमें भी कोई बाह्य शक्ति रुकावट पैदा नहीं कर सकती । प्रकृति के नियमों की यह सच्चाई खूब समझ में आने लगी तो विपश्यना की वैज्ञानिकता भी खूब समझ में आने लगी । भिन्न-भिन्न दार्शनिक मान्यताओं के जंजाल से स्वतः छुटकारा हो गया। आत्मा और परमात्मा संबंधी सारे संदेह भी दूर हो गये।

जैसे इन दिनों वैसे ही उन दिनों में भी, विपश्यना करने वाले अनेक साधकों के मन से मिथ्या काल्पनिक मान्यताओं और उनके आधार पर मिथ्या विश्वासों के जंजाल दूर होते गये। अनेक लोग प्रकृति के नियमों की सच्चाई स्वीकार करने लगे। परंतु कुछ अज्ञानी और विरोधी संप्रदायवादियों ने बुद्ध का विरोध तो किया ही। यथा—

परिव्राजक मागण्डिय -- उन दिनों की एक बुद्ध-विरोधी मान्यता का प्रसिद्ध परिव्राजक था मागण्डिय। गौतम बुद्ध जिस आसन पर बैठ कर गये, उसे देख कर उसने भगवान को गालियां देते हुए कहा कि श्रमण गौतम भ्रूणहा है यानी भ्रूणों की हत्या करने वाला है। अंततः धर्म सीख कर वह भी अरहंत हुआ।

मागण्डिया -- ब्राह्मण मागण्डिय की पुत्री मागण्डिया परम सुंदरी थी। ब्राह्मण मागण्डिय ने बुद्ध के सुंदर रूप को देख कर उनसे अपनी पुत्री का विवाह करना चाहा। भगवान ने अस्वीकार कर दिया। सुंदरी मागण्डिया को इससे बहुत चोट लगी। आगे जाकर वह कौशांबी देश के राजा उदयन की रानी बनी और जब भगवान उस नगर में विहार करते हुए गुजरे तब उन पर अपना गुस्सा निकालने के लिए उसने कुछ भाड़े के लोगों को उनके पीछे लगा दिया जो उन्हें भिन्न-भिन्न प्रकार से गालियां देते हुए साथ चलने लगे, जैसे कि तू चोर है, मूर्ख है, गधा है, ऊंट है...।।

अक्कोस भारद्वाज -- जब इसने देखा कि बहुत बड़ी संख्या में लोग भगवान बुद्ध के अनुयायी होते जा रहे हैं तब वह इसे सहन नहीं कर सका। वह अत्यंत क्रोधित हो, गालियां बकते हुए भगवान के पास आया लेकिन भगवान की शांति देख कर उनकी ओर आकर्षित हुआ और उनसे विपश्यना सीख कर क्रोधमुक्त हो गया। 

वेरज ब्राह्मण - इसने भी भगवान पर ये लांछन लगाये कि श्रमण गौतम रूखा है, निर्भोगी है, अक्रियावादी है, उच्छेदवादी है, घृणा करने वाला है, लोकधर्म का नाश करने वाला है, अप्रगल्भ यानी देवलोक में उत्पन्न नहीं होने वाला है, आदि..।

भिक्षुओं को गालियां -- भगवान के सत्कार को सहन नहीं कर सकने के कारण कुछ विरोधी लोग उनके भिक्षुओं को भी गालियां दिया करते थे।
कई विरोधियों ने भगवान पर मिथ्या लांछन लगा कर उन्हें बदनाम करने का निष्फल प्रयत्न किया। यथा –

चिञ्चा माणविका -- एक सुंदरी युवती गर्भवती का भेष बना कर भगवान की धर्मसभा में उन्हें अपशब्द कहने लगी -- "अरे मथमुंडे, अपने होने वाले बच्चे के लिए तेरे पास कुछ नहीं है तो अपने इन धनी अनुयायियों को कह, वे कुछ प्रबंध करेंगे।'' भगवान इस मिथ्या लांछन से रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए। यह देख कर वह स्वयं घबरा उठी। उसके पेट पर बँधी रस्सी ढीली पड़ गई और लकड़ी का टुकड़ा पांव पर आ गिरा। 

सुंदरी परिव्राजिका -- विरोधियों ने एक सुंदरी परिव्राजिका को मार कर उसकी लाश जेतवन विहार के किसी गड्ढे में फिंकवा दी। फिर यह झूठी बात फैलाई कि भिक्षुओं ने उसके साथ दुष्कर्म करके उसका वध कर दिया। परंतु यह मिथ्यारोपण भी सफल नहीं हुआ। सच्चाई सामने आ गयी। इस प्रकार के अवरोधों के रहते हुए भी धीरे-धीरे अधिक से अधिक लोगों को भगवान की शिक्षा स्वीकार होने लगी। क्योंकि वह स्वानुभूत सच्चाई पर आधारित थी, न कि अंधविश्वासों पर और साथ-साथ आशुफलदायिनी भी थी।

शील, समाधि, प्रज्ञा-- ये तीनों सार्वजनीन धर्म हैं, सर्व धर्म हैं, सब के धर्म हैं। किसी को भी सांप्रदायिक बाड़े में नहीं बाँधते । जब यह बात लोगों की समझ में आने लगी तब आर्य अष्टांगिक मार्ग पर चलते हुए विपश्यना के अभ्यास द्वारा अधिक से अधिक लोग सदाचारी बन कर लाभान्वित होने लगे। यही सच्चाई हम आज भी देख रहे हैं कि किस प्रकार सभी संप्रदायों के लोग लाखों की संख्या में बिना झिझक विपश्यना को स्वीकार कर रहे हैं, उनमें से कोई आत्मा या परमात्मा को माने या न माने। परंतु विपश्यना के अभ्यास से उनके मन का बुरा स्वभाव क्षीण होता जाता है और अच्छा स्वभाव सबल होता जाता है। इसी में सबका कल्याण है। शील, समाधि, प्रज्ञा के अभ्यास में कल्याण ही कल्याण समाया हुआ है।

कल्याणमित्र, 
सत्यनारायण गोयन्का

दिसम्बर 2011 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित

Wednesday, April 5, 2023

RATANA SUTTA (A Buddhist prayer to combat epidemics) रतन – सुत्त

 

THE JEWEL DISCOURSE


एक बार जब वैशाली नगरी भयंकर रोगों, अमानवी उपद्रवों और दुर्भिक्ष-पीड़ाओं से संतप्त हो उठी , तो इन तीनों प्रकार के दुःखों का शमन करने के लिए महास्थविर आनंद ने भगवान के अनंत गुणों का स्मरण किया ।



कोटीसतसहस्सेसु , चक्कवालेसु देवता ।
यस्साणं पटिगण्हन्ति , यञ्च वेसालिया पुरे।।
रोगा-मनुस्स-दुब्भिक्खं , सम्भूतं तिविधं भयं।
खिप्पमन्तरधापेसि, परित्तं तं भणामहे।।


शत-सहत्र-कोटि चक्रवालों के वासी सभी देवगण जिसके प्रताप को स्वीकार करते हैं तथा जिसके प्रभाव से वैशाली नगरी रोग अमानवी उपद्रव और दुर्भिक्ष से उत्पन्न त्रिविध भय से तत्काल मुक्त हो गई थी उस परित्राण को कह रहे हैं ।




यानीध भूतानि समागतानि ,
भुम्मानि वा यानि व अन्तलिक्खे ।
सब्बेव भूता सुमना भवन्तु ,
अथोपि सक्कच्च सुणन्तु भासितं ।।१।।

इस समय धरती या आकाश में रहने वाले जो भी प्राणी उपस्थित हैं वे सौमनस्य पूर्ण हों / प्रसन्न – चित्त हों और कथन / धर्म वाणी को आदर के साथ सुनें ।।

तस्मा हि भूता निसामेथ सब्बे ,
मेत्तं करोथ मानुसिया पजाय ।
दिवा च रत्तो च रहन्ति ये बलिं,
तस्मा हि ते रक्खथ अप्पमत्ता ।।२।।

यहां उपस्थित आप सभी ध्यान से सुनें और मनुष्यों के प्रति मैत्री भाव रखें । जिन मनुष्यों से आप दिन रात बलि / भेंट – पूजा – प्रसाद ग्रहण करते हैं प्रमाद रहित होकर उनकी रक्षा करें ।।

यं किञ्चि वित्तं इध वा हुरं वा,
सग्गेसु वा यं रतनं पणीतं।
न नो समं अत्थि तथागतेन,
इदम्पि बुद्धे रतनं पणीतं ।
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।३।।

इस लोक में अथवा अन्य लोकों में जो भी धन-संपत्ति है, और स्वर्गों में जो भी अमूल्य-रत्न हैं, उनमें से कोई भी तथागत(बुद्ध)के समान (श्रेष्ठ) नहीं है।
सचमुच यह भी बुद्ध में उत्तम गुण – रत्न है !
इस सत्य कथन के प्रभाव से कल्याण हो !!

खयं विरागं अमतं पणीतं,
यदज्झगा सक्यमुनी समाहितो ।
न तेन धम्मेन समत्थि किञ्चि,
इदम्पि धम्मे रतनं पणीतं ।
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।४।।

समाहित-चित्त से शाक्य-मुनि भगवान बुद्ध ने जिस राग – विमुक्त आश्रव – हीन श्रेष्ठ अमृत को प्राप्त किया था, उस लोकोत्तर निर्वाण -धर्म के समान अन्य कुछ भी नहीं है ।
सचमुच यह भी धर्म में उत्तम – रत्न है !
इस सत्य कथन के प्रभाव से कल्याण हो !!

यं बुद्धसेट्ठो परिवण्णयी सुचिं,
समाधिमानन्तरिकञ्ञमाहु ।
समाधिना तेन समो न विज्जति,
इदम्पि धम्मे रतनं पणीतं ।
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।५।।

जिस परम विशुद्ध आर्य – मार्गिक समाधि की प्रशंसा स्वयं भगवान बुद्ध ने की है और जिसे “आनन्तरिक” याने तत्काल फलदायी कहा है, उसके समान अन्य कोई भी समाधि नहीं है ।
सचमुच यह भी धर्म में उत्तम – रत्न है !
इस सत्य कथन के प्रभाव से कल्याण हो !!

ये पुग्गला अट्ठ सतं पसत्था,
चत्तारि एतानि युगानि होन्ति,
ते दक्खिणेय्या सुगतस्स सावका,
एतेसु दिन्नानि महप्फलानि,
इदम्पि संघे रतनं पणीतं ।
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।६।।

जिन आठ प्रकार के आर्य पुदग्ल (व्यक्तियों) की संतों ने प्रशंसा की है (मार्ग और फल की गणना से) जिनके चार जोड़े होते हैं, वे ही बुद्ध के श्रावक संघ (शिष्य ) दक्षिणा के उपयुक्त पात्र हैं । उन्हें दिया गया दान महाफलदायी होता है ।
सचमुच यह भी संघ में उत्तम – रत्न है !
इस सत्य कथन के प्रभाव से कल्याण हो !!

ये सुप्पयुत्ता मनसा दल्हेन ,
निक्कामिनो गोतमसासनम्हि।
ते पत्तिपत्ता अमतं विगय्ह ,
लद्धा मुधा निब्बुतिं भुञ्जमाना।
इदम्पि संघे रतनं पणीतं ,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।७।।

जो आर्य पुद्गल भगवान बुद्ध के साधना शासन में दृढ़ता-पूर्वक एकाग्रचित्त और वितृष्ण हो कर संलग्न हैं, तथा जिन्होंने सहज ही अमृत में गोता लगा कर अमूल्य निर्वाण रस का आस्वादन कर लिया है और प्राप्तव्य को प्राप्त कर लिया है ( उत्तम अरहंत फल को पा लिया है )।
सचमुच यह भी संघ में उत्तम – रत्न है !
इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो !!

यथिन्दखीलो पठविं सितो सिया ,
चतुब्भि वातेहि असम्पकम्पियो ।
तथूपमं सप्पुरिसं वदामि ,
यो अरियसच्चानि अवेच्च पस्सति।
इदम्पि संघे रतनं पणीतं ,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।८।।

जिस प्रकार पृथ्वी में (दृढ़ता से) गड़ा हुआ इंद्र-कील (नगर-द्वार-स्तंभ) चारों ओर के पवन-वेग से भी प्रकंपित नहीं होता, उस प्रकार के व्यक्ति को ही मैं सत्पुरूष कहता हूं, जिसने (भगवान के साधना-पथ पर चल कर) आर्य-सत्यों का सम्यक दर्शन (साक्षात्कार ) कर उन्हें स्पष्टरूप से जान लिया है ; (वह आर्यपुद्गल भी प्रतेक अवस्था में अविचलित रहता है ) ।
सचमुच यह भी (आर्य )संघ में उत्तम – रत्न है !
इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो !!

ये अरियसच्चानि विभावयन्ति ,
गम्भीरपञ्ञेन सुदेसितानि ।
किञ्चापि ते होन्ति भुसप्पमत्ता,
न ते भवं अट्ठममादियन्ति ।
इदम्पि संघे रतनं पणीतं ,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।९।।

जिन्होंने गंभीर – प्रज्ञावान भगवान बुद्ध के द्वारा उपदिष्ट आर्यसत्यों का भली प्रकार साक्षात्कार कर लिया है, वे स्रोतापन्न यदि किसी कारण से बहुत प्रमादी भी हो जायं ( और साधना के अभ्यास में सतत तत्पर न भी रहें ) तो भी आठवां जन्म ग्रहण नहीं करते ।(अधिक से अधिक सातवें जन्म में उनकी मुक्ति निश्चित है ) ।
सचमुच यह भी (आर्य )संघ में उत्तम – रत्न है !
इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो !!

सहावस्स दस्सन-सम्पदाय ,
तयस्सु धम्मा जहिता भवन्ति ।
सक्कायदिट्ठि विचिकिच्छितं च ,
सीलब्बतं वा पि यदत्थि किञ्चि ।।१०।।

दर्शन – प्राप्ति ( स्रोतापन्न फल प्राप्ति ) के साथ उसके ( स्रोतापन्न व्यक्ति के ) तीन बंधन छूट जाते हैं — सत्कायदृष्टि ( आत्म सम्मोहन ) , विचिकित्सा ( संशय ) , शीलव्रत परामर्श ( विभिन्न व्रतों आदि कर्मकांडो से चित्तशुद्धि होने का विश्वास ) अथवा अन्य जो कुछ भी ऐसे बंधन हों ।

चतूहपायेहि च विप्पमुत्तो ,
छच्चाभिठानानि अभब्बो कातुं ।
इदम्पि संघे रतनं पणीतं ,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।११।।

वह चार अपाय गतियों ( निरय लोकों ) से पूरी तरह मुक्त हो जाता है । छह घोर पाप कर्मों (मातृ-हत्या, पितृ-हत्या, अर्हंत-हत्या, बुद्ध का रक्तपात, संघ-भेद एवं मिथ्या आचार्यों के प्रति श्रद्धा) को कभी नहीं करता ।
सचमुच यह भी (आर्य )संघ में उत्तम – रत्न है !
इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो !!

किञ्चापि सो कम्मं करोति पापकं,
कायेन वाचा उद चेतसा वा ।
अभब्बो सो तस्स पट्ठिच्छादाय ,
अभब्बता दिट्ठपदस्स वुत्ता ।
इदम्पि संघे रतनं पणीतं ,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।१२।।

भले ही वह / स्रोतापन्न व्यक्ति, काया, वचन अथवा मन से कोई पाप कर्म कर भी ले तो उसे छिपा नहीं सकता । भगवान ने कहा है – निर्वाण का साक्षात्कार करने वाला अपने दुष्कृत कर्म को छिपाने में असमर्थ है ।
सचमुच यह भी (आर्य )संघ में उत्तम – रत्न है !
इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो!!

वनप्मपगुम्बे यथा फुस्सितग्गे ,
गिम्हानमासे पठमस्मिं गिम्हे ।
तथूपमं धम्मवरं अदेसयि ,
निब्बानगामिं परमं हिताय ।
इदम्पि बुद्धे रतनं पणीतं ,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।१३।।

ग्रीष्म ऋतु के प्रारंभिक माह में जिस प्रकार सघन वन प्रफूल्लित वृक्षशिखरों से शोभायमान होता है, उसी प्रकार भगवान बुद्ध ने श्रेष्ठ धर्म का उपदेश दिया जो निर्वाण की ओर ले जाने वाला तथा परम हितकारी है।
सचमुच यह भी (आर्य ) संघ में उत्तम रत्न है !
इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो!!

वरो वरञ्ञू वरदो वराहरो ,
अनुत्तरो धम्मवरं अदेसयि ।
इदम्पि बुद्धे रतनं पणीतं ,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।१४।।

सर्वश्रेष्ठ निर्वाण के दाता, श्रेष्ठ धर्म के ज्ञाता ,श्रेष्ठ मार्ग को दर्शाने वाले, सर्वश्रेष्ठ बुद्ध ने सर्वोच्च धर्म का उपदेश दिया है ।
सचमुच यह भी बुद्ध में उत्तम गुण रत्न है ।
इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो ।।

खीणं पुराणं नवं नत्थि सम्मवं ,
विरत्तचित्तायतिके भवस्मिं ।
ते खीणबीजा अविरूल्हिछन्दा ,
निब्बन्ति धीरा यथा ‘ यं पदीपो ।
इदम्पि संघे रतनं पणीतं ,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।१५।।

जिनके सारे पुराने कर्म क्षीण हो गये हैं और नये कर्मों की उत्पत्ति नहीं होती ; पुनर्जन्म में जिनकी आसक्ति समाप्त हो गयी है, वे क्षीण – बीज / अरहंत तृष्णा – विमुक्त हो गये हैं । वे इसी प्रकार निर्वाण को प्राप्त होते हैं जैसे तेल समाप्त होने पर दीपक ।
सचमुच यह भी आर्य संघ में श्रेष्ठ रत्न है ।
इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो।।

यानीध भूतानि समागतानि ,
भुम्मानि वा यानिव अन्तलिक्खे ।
तथागतं देवमनुस्सपूजितं ,
बुद्धं नमस्साम सुवत्थि होतु ।।१६।।

इस समय धरती या आकाश में रहने वाले जो प्राणी यहां उपस्थित हैं, हम सभी समस्त देवों और मनुष्यों द्वारा पूजित –
तथागत बुद्ध को नमस्कार करते हैं , कल्याण हो !

यानीध भूतानि समागतानि ,
भुम्मानि वा यानिव अन्तलिक्खे ।
तथागतं देवमनुस्सपूजितं ,
धम्मं नमस्साम सुवत्थि होतु ।।१७।।

इस समय धरती या आकाश में रहने वाले जो प्राणी यहां उपस्थित हैं, हम सभी समस्त देवों और मनुष्यों द्वारा पूजित –
तथागत और धर्म को नमस्कार करते हैं , कल्याण हो !

यानीध भूतानि समागतानि ,
भुम्मानि वा यानिव अन्तलिक्खे ।
तथागतं देवमनुस्सपूजितं ,
सघं नमस्साम सुवत्थि होतु ।।१८।।

इस समय धरती या आकाश में रहने वाले जो प्राणी यहां उपस्थित हैं, हम सभी समस्त देवों और मनुष्यों द्वारा पूजित – तथागत और संघ को नमस्कार करते हैं , कल्याण हो !

भवतु सब्ब मंगलं
सबका मंगल हो