बुद्ध - धर्म - संघ शरण सर्वोपरि सर्वोच्च शरण
[अनाथपिण्डिक की कथा। धम्मपद गाथा 119 और 120].
अनाथपिण्डिक ने केवल विहार बनवाने के लिए ही चौवन करोड़ धन, बुद्धशासन के निमित्त त्याग दिया-बिखेर दिया। वह तीन रत्नों (बुद्ध, धर्म, संघ) को रत्न समझ, और किसी (रत्न) को रत्न ही न समझ, शास्ता के जेतवन में विहार करने के समय, प्रतिदिन तीन बार दर्शनार्थ जाता था। एक बार प्रातःकाल ही जाता, दूसरी बार जलपान करके जाता, तीसरी बार शाम को जाता।
और भी बीच बीच में जाता ही था। जाते समय 'श्रामणेर' वा अन्य बच्चे मेरे हाथ की ओर देखेंगे कि क्या ले कर आया है' सोच वह कभी खाली हाथ नहीं गया। प्रातःकाल जाते समय यवागु लिवा कर जाता, जलपान करके जाते समय घी, मक्खन, मधु, गुड़ आदि और शाम को जाते समय गन्ध, माला, वस्त्र आदि ले कर जाता। इस प्रकार प्रतिदिन परित्याग करते करते इसने कितना परित्याग किया, इसका (कोई) माप नहीं। बहुत से व्यापारियों ने भी, हाथ की लिखित देकर इससे अट्ठारह करोड़ धन ऋण लिया था। महासेट्ठी उनसे वह धन नहीं मंगवाता था और भी, इसका कुलायत अट्ठारह करोड़ धन नदी के किनारे गाड़ा हुआ था। जल-वायु से नदी के कूल के टूटने से वह समुद्र में बह गया। वहाँ वे लोहे की गागरें, जैसी की तैसी मुहर लगी हुई, समुद्र में बहती घूमती थीं और, इसके घर में पांच सौ भिक्षुओं को नित्यभात बँधा ही था। सेठ का घर भिक्षुसंघ के लिए चौरस्ते पर खोदी गई पुष्करणी की तरह था। वह सब भिक्षुओं के लिए माता-पिता तुल्य था। सो, उसके घर, सम्यक सम्बुद्ध भी जाते, अस्सी महास्थविर भी जाते, शेष जाने वाले भिक्षुओं की तो गणना ही नहीं थी।
वह घर सात तल्लों का और सात ड्योढ़ियों वाला था। उसकी चौथी ड्योढ़ी में एक मिथ्या-धारणा वाली देवी रहती थी। सम्यक सम्बुद्ध के घर में प्रवेश करते समय वह अपने विमान पर बैठी न रह सकती थी। बच्चों को साथ ले उतर कर, वह जमीन पर खड़ी होती। अस्सी महास्थविर तथा अन्य स्थविरों के भी प्रविष्ट होते तथा निकलते समय उसे वैसा ही करना पड़ता। उसने सोचा : जब तक श्रमण गौतम, अथवा उसके श्रावक इस घर में आते-जाते रहेंगे, तब तक मुझे सुख नहीं। मैं नित्य-प्रति उतर उतर कर जमीन पर नहीं खड़ी हो सकती, सो मुझे ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए, जिसमें ये लोग इस घर में प्रवेश न करें।
सो एक दिन वह लेटे हुए महाकर्मचारी के पास जाकर, अपना प्रकाश फैला कर खड़ी हो गई। “यहाँ कौन है ?" पूछने पर उत्तर दिया, "मैं चौथी ड्योढ़ी में रहने वाली देवी हूँ।"
"किस लिए आई है ?"
"क्या तुम सेठ की करनी को नहीं देखते? वह अपने भविष्य का कुछ भी विचार न कर, धन ले जा कर, केवल श्रमण गौतम की पूजा करता है। धन को न व्यापार में लगाता है, न कर्मान्त (खेती) में। तुम सेठ को उपदेश दो, जिससे वह अपने काम में लगें; जिससे श्रावकों सहित श्रमण गौतम, इस घर में प्रवेश न किया करें।"
उस महाकर्मचारी ने उत्तर दिया-"मूर्ख देवी! सेठ जो धन खर्च करता है, वह कल्याणकारी बुद्ध-शासन के लिए खर्च करता है। यदि वह मेरी चोटी पकड़ कर मुझे बेच भी देगा, तो भी मैं कुछ न कहूंगा। तू जा।"
इसी तरह, एक दिन, उसने सेठ के पुत्र को जाकर उपदेश दिया। सेठ के पुत्र ने भी उसे पूर्वोक्त प्रकार से झाड़ लगाई। सेठ को तो वह जाकर, कुछ कह ही न सकती थी।
सेठ के निरन्तर दान देते रहने से, व्यापार न करने के कारण आमदनी कम हो जाने से, धन में बहुत न्यूनता आ गई और ऐसे ही क्रम से होते रहने से, उसके दरिद्र हो जाने पर, उसके पहनने के वस्त्र, बिस्तर, भोजन आदि भी पूर्वसदृश न रहे। ऐसा होने पर भी, वह भिक्षुसंघ को दान देता, लेकिन हां, अब प्रणीत आहार न दे सकता। एक दिन वन्दना करके बैठे उसे, शास्ता ने पूछा "गृहपति! तुम्हारे घर से दान दिया जाता है?"
“भन्ते! दिया जाता है, लेकिन वह होता है (केवल) कणी का चावल और मट्ठा।"
गृहपति! 'मैं रूखा-सूखा दान दे रहा हूँ' सोच संकुचित न हो, प्रसन्न (पवित्र) चित्त से बुद्धों, प्रत्येक-बुद्धों तथा बुद्ध-श्रावकों को दिया हुआ दान रूखा-सूखा दान नहीं होता, क्यों? (उसका) बड़ा फल होने से। चित्त प्रसन्न (पवित्र) रख सकने वाले का दान 'रूखा-सूखा-दान' नहीं होता- यह इस प्रकार जानना चाहिए :-----
नत्थि चित्तै पसन्नम्हि अप्पिका नाम दक्षिणा,
तथागते वा सम्बुद्ध अथवा तस्स सावके।
न किरत्थि अनोमदस्सिसु पारिचरिया बुढेसु अप्पिका,
सुखाय अलोणिकाय च पस्त फलं कुम्मासपिण्डिया॥
[चित्त प्रसन्न हो तो तथागत सम्यक सम्बुद्ध अथवा उसके श्रावक को दी गई दक्षिणा थोड़ी नहीं होती और न ही अनोमदर्शी आदि बुद्धों की, की हुई सेवा (परिचरिया) “थोड़ी" होती है। सूखे, अलूणे, कुल्माश-पिण्ड के (ही दान के) फल को देख।]
उसे और भी कहा कि हे गृहपति! तू अपना 'रूखा-सूखा' दान देता हुआ ही आठ आर्य पुद्गलों को दे रहा है। लेकिन वेलाम ब्राह्मण के जन्म में उत्पन्न होने के समय, सारे जम्बुद्वीप के हलों को रुकवा कर सात रत्न देते हुए, पांच महानदियों को एक साथ, एक प्रवाह करने की तरह (चित्त को प्रसन्नता से भरकर) महादान देने के समय, कोई त्रिशरण-गत वा पञ्च-शील रक्षक (सदाचारी) न मिला। इस प्रकार दान का अधिकारी पुद्गल मिलना भी दुर्लभ है। सो "मेरा दान रूखा-सूखा है" समझ, तू संकुचित मत हो। यह कह वेलामसूत्र कहा।
सो वह देवी यद्यपि पहले सेठ के साथ बात भी न कर सकती थी, तो भी अब सेठ के दुर्गति-प्राप्त होने से, 'शायद वह मेरी बात मान ले' सोच, आधी रात के समय, सेठ के शयनागार में प्रविष्ट हो, अपना प्रकाश फैला आकाश में खड़ी हुई।
सेठ ने उसे देख कर पूछा-"यह कौन है ?"
“सेठ ! मैं चौथी ड्योढ़ी में रहने वाली देवी।"
"किस लिए आई है ?"
"तुझे नेक-सलाह देने की इच्छा से।"
"बड़े सेठ! तू भविष्य की चिन्ता नहीं करता। बेटे-बेटी की ओर नहीं देखता। तूने श्रमण गौतम के शासन के लिए बहुत धन खर्च कर दिया। सो, तू चिरकाल तक धन खर्च करते रहने से तथा (खेती आदि) नवीन कर्मान्तों के न करने से, श्रमण गौतम के कारण निर्धन हो गया। ऐसा होने पर भी तू श्रमण गौतम का पीछा नहीं छोड़ता। आज भी श्रमण तेरे घर में आते ही हैं। जो कुछ वह ले गये, सो अब वापिस नहीं मंगवाया जा सकता; वह ले जायें। लेकिन अब से, तू श्रमण गौतम के पास जाना और उसके श्रावकों को इस घर में आने देना-बन्द कर दे। (चलते चलते जरा) रुक कर भी, श्रमण गौतम को बिना देखे, अपने व्यापार और वाणिज्य को करते हुए, कुटुम्ब को पाल।"
उसने उसे पूछा-"जो नेक-सलाह तू मुझे देना चाहती है, वह यही है?"
"हाँ! यही है।"
"तुझ जैसे सौ हज़ार और लाख देवताओं के उपदेश से भी मैं हिलने वाला नहीं। दस-बलधारी के प्रति मेरी श्रद्धा सुमेरु पर्वत की तरह अचल है, सुप्रतिष्ठित है। मैंने कल्याणकारी त्रिरत्न-शासन के लिए जो धन खर्च किया है, उसे तूने 'अनुचित' कहा। तूने बुद्ध-शासन को दोष दिया। इस प्रकार की अनाचारिणी, दुश्शीला और मनहूस के साथ मैं एक घर में नहीं रह सकता। निकल, मेरे घर से, शीघ्र निकल और किसी दूसरी जगह जा।"
श्रोतापन्न, आर्य-श्रावक अनाथपिण्डिक की बात सुन कर, न ठहर सकने के कारण, वह अपने निवास स्थान पर गई और बच्चों को हाथ से पकड़े हुए, वहाँ से निकल आई। लेकिन निकल कर, अन्य निवास स्थान न मिलने के कारण, 'सेठ से क्षमा मांग, वहीं रहूंगी' सोच, नगर-रक्षक देवपुत्र के पास जा, उसे प्रणाम कर, खड़ी हुई।
"किस लिए आई?' पूछने पर, वह बोली-"स्वामी ! मैंने बिना सोचे समझे, सेठ को (कुछ) कह दिया। उसने क्रुद्ध हो, मुझे निवास स्थान से निकाल दिया। सेठ के पास ले जा, उससे क्षमा दिलवा मुझे रहने के लिए स्थान दिलवाइए।"
“तूने सेठ को क्या कहा ?"
"स्वामी ! मैंने सेठ को कहा कि अब से बुद्ध-उपस्थान (सेवा), संघ-उपस्थान मत करो। श्रमण गौतम को घर में मत आने दो।"
“तूने अनुचित कहा। बुद्धशासन की निन्दा की। मैं तुझे लेकर सेठ के पास जाने की हिम्मत नहीं कर सकता।"
वह, उससे कुछ सहायता न पा, चारों महाराजाओं के पास गई। उनसे भी वैसा ही इन्कार मिलने पर शक्र देवेन्द्र के पास जा, वह हाल कह, बड़ी नम्रता से याचना करने लगी-“हे देव! निवास स्थान न मिलने से, मैं बच्चों को हाथ से पकड़े पकड़े, अशरणा हो घूमती हूँ। अपनी कृपा से, मुझे निवास स्थान दिलवाइये।"
उसने भी कहा-"तूने अनुचित किया जो बुद्ध-शासन की निन्दा की! मैं भी तेरे पक्ष में सेठ के साथ बातचीत तो नहीं कर सकता; लेकिन एक ऐसा उपाय बताता हूँ कि जिससे सेठ क्षमा कर दे।"
"अच्छा ! देव! कहें।"
“मनुष्यों ने तमस्सुक देकर सेठ के हाथ से अट्ठारह करोड़ की संख्या में धन लिया है। तू सेठ के मुनीम का भेष बना, किसी को बिना जनाये, उन लेखों को ले, कुछ यक्ष तरुणों के साथ, एक हाथ में लेख और एक हाथ में कलम लेकर, उन पुरुषों के घर जा; और घर के बीच में खड़ी हो, अपने यक्ष-बल (आनुभाव) से उन्हें डरा, 'यह तुम्हारे लेख हैं। हमारे सेठ ने अपने ऐश्वर्य के समय में तुम्हें कुछ नहीं कहा, लेकिन अब वह निर्धन (दुर्गति-प्राप्त) हो गया है। तुमने जो कार्षापण लिए हैं सो दो' कह अपनी यक्षपन की सामर्थ्य दिखा कर, वह सब अट्ठारह करोड़ सोना वसूलकर सेठ के खाली कोठे को भर। दूसरे अचिरवती नदी के किनारे गड़ा धन, नदी-कूल के टूट जाने से समुद्र में बह गया है, उसे भी अपने सामर्थ्य से लाकर, खाली कोठे भर। और भी, अमुक स्थान पर बिना स्वामी का अट्ठारह ही करोड़ धन है, उसे भी ला कर खाली कोठे भर। इस चौवन करोड़ धन से इन खाली कोठों को भरने से दण्ड-कर्म कर के, महासेठ से क्षमा मांगना।"
वह 'देव! अच्छा' कह, उसके कथन को स्वीकार कर, तदनुसार सब धन लाकर, आधी रात के समय, सेठ के शयनागार में प्रविष्ट हो, अपना प्रकाश फैला, आकाश में खड़ी हुई।
“यह कौन है ?" पूछने पर बोली-“सेठ जी! मैं तुम्हारी चौथी ड्योढ़ी में रहने वाली अंधी-मूर्ख देवी हूँ। मैंने अपनी महामोह भरी मूढ़ता के कारण, बुद्धगुणों को न जानकर, पिछले दिनों में आपसे जो कुछ कहा, मेरे उस दोष को क्षमा करें। मैने देवेन्द्र शक्र के कथनानुसार आपका ऋण वसूलकर अट्ठारह करोड़; समुद्र में बहा हुआ अट्ठारह करोड़, जिस किसी स्थान में बिना स्वामी का अट्ठारह करोड़;-इस प्रकार चौवन करोड़ लाकर, खाली कोठों को भरने से, दण्ड चुका दिया; जेतवन विहार के निर्माण में जितना धन खर्च हुआ, उतना एकत्र कर दिया. निवास-स्थान न मिलने से मैं कष्ट पा रही हूँ। सेठ जी! मैंने अज्ञान से जो भूल कर दी, उसे क्षमा करें।"
अनाथपिण्डिक ने, उसकी बात सुन, यह कहती है-'मैंने दण्ड भुगत लिया, और अपने दोष को स्वीकार करती हूँ' सोच विचार किया कि इसे सम्यक सम्बुद्ध के पास ले चलना चाहिए; इसका विचार कर तथागत अपने गुणों को जनायेंगे। सो उसे कहा, “अम्म ! देवी ! यदि तू मुझसे क्षमा प्रार्थना करना चाहती है, तो शास्ता के सम्मुख क्षमा-प्रार्थना करना।"
"अच्छा! ऐसा करूँगी; लेकिन मुझे शास्ता के पास ले चलना।" उसने 'अच्छा' कह, रात्रि समाप्त होने पर प्रातःकाल ही उसे ले, शास्ता के पास जा, शास्ता को उसका सब किया-कराया कह सुनाया। शास्ता ने कहा:---
“हे गृहपति! जब तक पाप-कर्म करने वाले का पाप पकता नहीं है, तब तक वह सुख भोगता है, लेकिन जब उसका पाप-कर्म पकता है (फल देता है), तब से वह दुःख ही दुःख भोगता है। इसी प्रकार जब तक पुण्य-कर्म करने वाले का पुण्य पकता नहीं, तब तक वह दुःख भोगता है, लेकिन जब उसका पुण्य-कर्म पकता है, तब से वह सुख ही सुख भोगता है."
कह, धम्मपद की इन दो गाथाओं को कहा :----
119. पापोपि पस्सति भद्रं, याव पापं न पच्चति।
यदा च पच्चति पापं, अथ पापो पापानि पस्सति।
120. भद्रोपि पस्सति पापं, याव भद्रं न पच्चति।
यदा च पच्चति भद्रं, अथ भद्रो भद्रानि पस्सति।
अर्थ:-------
119. पापी भी पाप को तब तक अच्छा ही समझता है जब तक पाप का विपाक (पाप का फल देना) नहीं होता और जब पाप का विपाक होता है, तब पापी पापों को देखने लगता है।
120. भद्र (पुण्य करने वाला व्यक्ति) भी तब तक पाप को देखता है जब तक पुण्य का विपाक नहीं होता. जब पुण्य का परिपाक होता है, तब वह भद्र व्यक्ति पुण्यों को देखने लगता है।
इन गाथाओं के कहे जाने के अन्त में, वह देवी श्रोतापत्ति-फल में प्रतिष्ठित हुई। उसने शास्ता के चक्रांकित चरणों में गिर कर कहा-“भन्ते ! मैंने राग में अनुरक्त हो, द्वेष ( क्रोध) से दूषित हो, मोह से मूढ़ हो, अविद्या से अंधी हो, आपके गुणों को न जानने के कारण अपशब्दों का प्रयोग किया, सो आप मुझे क्षमा करें।" शास्ता से क्षमा मांग, उसने सेठ से क्षमा माँगी।
उस समय अनाथपिण्डिक ने शास्ता के सम्मुख अपना गुण वर्णन किया। "भन्ते ! यह देवी 'बुद्ध-सेवा आदि मत कर' (कह) मना करने पर भी, मुझे रोक नहीं सकी, 'दान नहीं देना चाहिए' कह रोकने पर भी, मैंने दान दिया ही। भन्ते! क्या यह मेरा गुण नहीं?"
शास्ता ने, “हे गृहपति ! तू श्रोतापन्न आर्य-श्रावक है, अचल श्रद्धा वाला है, विशुद्ध-दृष्टि है; यदि यह अल्प-शाक्य देवी तुझे दान देने से रोकने पर भी, नहीं रोक सकी, तो यह आश्चर्य की बात नहीं। आश्चर्य तो यह है कि बुद्ध के अनुत्पन्न हुए रहने पर भी, उनके ज्ञान के अपरिपक्व रहने पर भी, पूर्व समय में पण्डितों ने, कामावचर लोक के स्वामी 'मार' के आकाश में खड़े होकर यदि इस प्रत्येक-बुद्ध दान दोगे तो इस नरक में पकोगे कहते हुए अस्सी हाथ गहरा अंगारों का ढे़र दिखाकर 'दान मत दो' मना करने पर भी, पद्म की कलि के बीच में खड़े होकर प्रत्येक-बुद्ध को दान दिया। यह कह, अनाथपिण्डिक के याचना करने पर पूर्वजन्म की कथा खदिर-अंगार जातक कही।
खदिर-अंगार जातक
https://www.palikanon.com/english/pali_names/ku/khadirangaara_jat_40.htm
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