Tuesday, June 30, 2015

धनकर बौद्ध मठ हिमाचल प्रदेश

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Photo credit : wikipedia

धनकर बौद्ध मठ

धनकर बौद्ध मठ धनकर गांव में है जो कि हिमाचल के स्पीति में समुद्र तल से 3890 मीटर की उंचाई पर स्थित है । यह जगह ताबो और काजा दो प्रसिद्ध जगहो के बीच में भी है । स्पीति और पिन नदी के संगम पर स्थित ये जगह दुनिया में बौद्ध धर्म के भी और ऐतिहासिक विरासतो में भी स्थान रखती है

यह जगह प्राचीन काल का इतिहास आंखो के सामने खोलकर रख देती है । 1000 फुट उंची एक ढांग पर बनाया गया और दो नदियो के संगम पर स्थित ये किसी भी बौद्ध मठ के लिये आदर्श जगह मानी जाती है । ढांग जो कि हमारे यहां पर देशी भाषा में बोला जाता है यानि की पहाड का एक छोटी सा भाग और कर या कार का मतलब किला कहा जाता है इसीलिये इसका नाम धनकर जो कि अब अपभ्रंश में हो गया है पडा ।

यहां से स्पीति और पिन दोनो नदियो का अदभुत दृश्य दिखायी देता है । गोम्पा के नीचे गांव बसा हुआ है । गोम्पा और किला आपस में जुडे हुए थे । हालांकि लगातार होते वायु एवं जल के क्षरण के कारण अब ये विलुप्त होने की कगार पर खडे हैं क्योंकि ये जगह लगातार गिर रही है

ताबो गोम्‍पा

इस गोम्‍पा की स्‍थापना रिंगचेन जैंगपो ने 996 ई. में की थी। जैंगपो एक प्रसिद्ध विद्धान थे। इस मठ की स्‍थापना स्‍पीती के पूर्वी क्षेत्र में एक शिक्षा केंद्र के रुप में की गई थी। वह इस गोम्‍पा को एक उच्‍चतर अध्‍ययन के केंद्र के रुप में विकसित करना चाहते थे। इस गोम्‍पा में पेंटिग्‍स तथा धर्मग्रंथों का विशाल संग्रह है। इस गोम्‍पा की दीवारों पर सुंदर चित्र बने हुए हैं। ये चित्र अजंता गुफा की चित्रों की याद दिलाता हैं। तुस्‍लांग यहां का मुख्‍य मठ है। इस गोम्‍पा में 60 धार्मिक शिक्षक रहते हैं। इस गोम्‍पा का निर्माण ईट और मिट्टी से किया गया है। यहां कश्‍मीरी शैली में बनी हुए भगवान बुद्ध की एक मूर्त्ति स्‍थापित है। 1996 ई. में इस गोम्‍पा ने अपने स्‍थापना के 1000 वर्ष पूरे किए। दलाई लामा यहां हर वर्ष जुलाई और अगस्‍त महीने में होने वाले कालचक्र प्रवर्तन समारोह का शुभारंभ करते हैं।

गुफा भित्ति

ताबो गोम्‍पा के सामने ही प्रकृति निर्मित गुफा है। इन गुफाओं में अब सिर्फ एक ही गुफा 'फो गोम्‍पा' सुरक्षित अवस्‍था में है। बाकी गुफाओं के संरक्षण के लिए भारतीय पुरातत्‍व सर्वेक्षण विभाग प्रयत्‍नशील है। इन गुफाओं की दीवारों पर चित्र भी बने हुए हैं। कुछ चित्र अभी भी सुरक्षित अवस्‍था में हैं। इन चित्रों में कुछ पशुओं के चित्र भी हैं। इन पशुओं में जंगली बकरा तथा तेंदुआ शामिल है।

साभार : http://buddhkathaiye.blogspot.in/

Sunday, June 28, 2015

❇ " दक्षिणाविभङ्गसुत्तं " ❇ " दक्षिणाओं के प्रकार और दक्षिणा विशुद्धियाँ "

❇ " दक्षिणाविभङ्गसुत्तं "
❇ " दक्षिणाओंके प्रकार और दक्षिणा विशुद्धियाँ " ❇

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यह प्रसंग बडा ही रोचक है।
ऐसा मैंने सुना है कि एक समय भगवान् बुद्ध शाक्य प्रदेश स्थित कपिलवत्थु नगरी के न्यग्रोधाराम में साधना हेतु विराजमान थे।
वहां किसी समय महाप्रजापति गौतमीजी भगवान बुद्ध के लिए एक नवनिर्मित दुशाला लेकर जहां भगवान विराजमान थे वहां पहुंच कर, भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गयी। एक ओर बैठी महाप्रजापति गौतमी ने भगवान को यह निवेदन किया
" भन्ते ! यह नया दुशाला आप के लिए मैंने स्वयं काता है, स्वयं बुना है। अतः आप इसे कृपा करते हुए स्विकार करें । "
ऐसा कहे जाने पर भगवान ने महाप्रजापति गौतमी को यों उत्तर दिया " गौतमी इसे आप संघ को ही दे दें। संघ को दान करने से मेरा भी सम्मान हो जायेगा और संघ का भी। "
ऐसा कहे जाने पर आयुष्मान आनंद ने भगवान से यों निवेदन किया
भन्ते आप कृपा करके महाप्रजापति गौतमी द्वारा भेट किया गया यह दुशाला स्विकार कर लें। यह आपकी अभिभावक तथा आपका पालन-पोषण करने वाली, आपको दुध पिलाने वाली, माता हैं, मौसी है।
इसलिए आपसे अनुरोध है कि आप उन्हें निराश ना करें। उनके द्वारा लायी गयी भेट स्वीकार करें।

तब भगवान आनंद को संबोधित कर कहते हैं ----
" बात यहाँ यह है आनंद कि कोई प्राणी किसी न किसी अन्य प्राणी के सहारे ही बुद्ध का, धम्म का, संघ का शरणागत होता है ; परंतु आनंद उसके बदले यह जो अपने से बड़ों के प्रति अभिवादन, उठकर आदर-सत्कार करना, सेवा करना, चीवर पिण्डपात शयनासन और औषधि इत्यादि देना है ; उसे मैं इस प्राणी के प्रति किया गया प्रत्युपकार नहीं कहता ।
यहां आनंद कोई प्राणी किसी के सत्परामर्श के सहारे दुःख, दुःखसमुदय, दुःख निरोध तथा दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा के लिए निश्चिन्त होता है तब
इस प्राणी का उस प्राणी के प्रति किये गये अभिवादन, दान . को मैं प्रत्युपकार नहीं मानता।
आनंद यहाँ मैं तुम्हें 14 ( चौदह) व्यक्तिगत दक्षिणाएँ बताता हूँ, सुनो
☑ चौदह प्रातिपुद्गलिक दक्षिणाएँ इस प्रकार है

1 - तथागत अर्हत् सम्यक् संम्बुद्ध के निमित्त कोई दान देता है वह प्रथम दक्षिणा
2 - प्रत्येकसम्बुद्ध के लिए दूसरी दक्षिणा
3 - तथागत के ञ्ञानी ( अर्हत्) शिष्य के निमित्त तिसरी दक्षिणा ,
4 - अर्हत्वफल के साक्षात्कार में लगे भिक्षु के निमित्त, चौथी दक्षिणा,
5 - आनागामी भिक्षु के निमित्त पाँचवीं दक्षिणा
6 - अनागामी फल प्राप्ती हेतु लगे भिक्षु के प्रति --- छठी दक्षिणा
7 - सकृदागामी के निमित्त सातवीं दक्षिणा
8 - सकृदागामी फल के लिए लगे आठवीं दक्षिणा
9 - स्रोतापन्न के निमित्त नवीं दक्षिणा
10 - स्रोतापत्ति फल के साक्षात्कार में लगे भिक्षु के निमित्त दसवीं दक्षिणा
11 - ग्राम या संघ के बाहर रहने वाले वीतराग के लिए ग्यारहवीं दक्षिणा
12 - शीलवान के निमित्त बारहवीं दक्षिणा
13 - दुःशील व्यक्ति के लिए ⚫तेरहवीं दक्षिणा
14 - पशु-पक्षियों के लिए ⚫चौदहवीं दक्षिणा

➡ अब आगे दान की फलप्राप्ती बताते हैं
▪ वहां आनंद  पशु - पक्षियों के निमित्त किये गये दान की सौ गुणा,
▪ दुःशील के लिए दिये गये के 1000 गुणा,
▪ शीलवान व्यक्ति के निमित्त दिया गया दान का फल एक लाख गुणा,
▪ संघ बाहर के वीतराग के निमित्त --एक करोड़ गुणा, ▪ स्रोतापत्ति फल के साक्षात्कार में लगे हुए के निमित्त दिये गये दान के, सकृदागामी फल की आशा रखनी चाहिए।
▪ सकृदागामी के निमित्त दिया गया दान का फल --
अनागामी ।
▪ अनागामी के लिए दिये गये के निमित्त का फल अर्हत्व फल,
▪ अर्हत्व पद प्राप्त करने के लिए लगे के निमित्त दिया गया दान के निमित्त प्रत्येकसम्बुद्ध,
▪ तथा ' तथागत सम्यक् संम्बुद्ध ' के निमित्त किये गये दान की तो बात ही क्या है , अकल्पनीय है ।

☑ आगे भगवान बुद्ध , " 7 संघगत दक्षिणाएँ " बताते हुए कहते हैं ; आनंद , संघ के लिए की गई ये सात दक्षिणाएँ है । कौनसी सात ध्यान से सुनो ➡
⚫ बुद्धप्रमुख दोनों ( भिक्षुसंघ और भिक्षुणीसंघ ) के लिए दान करना । यह ➡ पहली संघगत दक्षिणा हुई ।
⚫बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद दोनों संघों को दान देना यह ➡ दूसरी संघगत दक्षिणा हुई ।
⚫केवल भिक्षुसंघ को ही दान देना यह ➡ तीसरी

⚫केवल भिक्षुणीसंघ को दान देना यह ➡ चौथी
⚫इतने भिक्षु तथा इतनी भिक्षुणियों को दान देना
यह ➡ पाँचवी संघगत दक्षिणा हुई ।
⚫इतने भिक्षुओं को ही दान देना यह ➡ छठी
⚫इतनी भिक्षुणियों को ही दान देना यह ➡ सातवीं
संघ के उद्देश्य से की गई दक्षिणा हुई ।
भगवान आगे दान कहते हैं
आनंद  मैं किसी भी तरह से संघ के लिए किये गये दान का महत्व व्यक्तिगत दक्षिणा से कम नहीं आँकता । अपितु संघ के लिए किया गया दान ही अधिक और महान फलदायी होता है ।
" न त्वेवाहं , आनन्द , केनचि परियायेन सङ्घगताय दक्खिणाय पाटिपुग्गलिकं दानं महप्फलतरं वदामि ।"

▶ " चार प्रकार की दक्षिणा विशुद्धियाँ "
▶ " चतस्सो दक्खिणाविसुद्धियो "
▪ भगवान यहां " चार प्रकार की दक्षिणा विशुद्धियाँ "
बताते हैं
▪ आनंद  ये चार प्रकार कौन-कौन से है , सुनो

▶ " यो सीलवा दुस्सीलेसु ददाती दानं,
धम्मेन लद्धं सुप्रसन्नचित्तो।
अभिसद्दहं कम्मफलं उळारं,
सा दक्खिणा दायकतो विसुज्झिति।। "
अर्थ ➡ " जो दाता स्वयं शीलवान हैं, जिसने देय धन
धर्मपूर्वक अर्जित किया है। दानविधि भी प्रसन्न मन से करता हैं। और वह उस दान के प्रति भविष्य में
( अगामिकाल में) सत्फल की आशा रखता हुआ श्रद्धा रखता है, ऐसा दान दाता की ओर से शुद्ध कहलाता है।

▶ " यो दुस्सीलो सीलवन्तेसु ददाती दानं,
धम्मेन लद्धं अप्रसन्नचित्तो।
अनभिसद्दह कम्मफलं उळारं,
सा दक्खिणा पटिग्गाहकतो विसुज्झति। "
अर्थ ➡ " परंतु जो दाता स्वयं दुःशील हो, उसका देय धन भी धर्मोपार्जित न हो, और वह उस दान के प्रति भविष्य में ( अगामिकाल में) सत्फल की आशा न रखता हुआ अश्रद्धापूर्वक किसी सुशील को दान करता हैं। ऐसा दान लेने वाले ( प्रतिग्राहक) की तरफ से शुद्ध कहलाता है।

▶ " यो दुस्सीलो दुस्सीलेसु ददाती दानं,
अधम्मेन लद्धं अप्पसन्नचित्तो।
अनभिसद्दहं कम्मफलं उळारं,
न तं दानं विपुलप्फलं ति ब्रूमि।।
अर्थ ➡ " जो स्वयं दुःशील हो और वह दूसरे दुःशील को दान देता हो और उसका देय धन भी धर्मोपार्जित न हो, और उसका दान भी अश्रद्धापूर्वक किया हो। और उसे उस दान के प्रति भविष्य में ( अगामिकाल में) किसी भी सत्फल की आशा भी ना हो, ऐसा दान कोई विशेष फल नहीं देता …… ऐसा मैं कहता हूँ।

▶ " यो सीलवा सीलवन्तेसु ददाती दानं,
धम्मेन लद्धं सुपसन्नचित्तो।
अभिसद्दहं कम्मफलं उळारं,
तं वे दानं विपुलप्फलं ति ब्रूमि।। "

अर्थ ➡ " जो दाता स्वयं शीलवान हैं और दूसरे शीलवान को अपना धर्मोपार्जित धन प्रसन्नता पूर्वक देता है। और भविष्य में ( अगामिकाल में) सत्फल की आशा रखता हुआ श्रद्धा पूर्वक दान करें तो वह दान अत्यधिक सुफल देनेवाला होता है। ऐसा मेरा कहना है।
▶ " यो वीतरागो वीतरागेसु ददाती दानं,
धम्मेन लद्धं सुपसन्नचित्तो।
अभिसद्दहं कम्मफलं उळारं,
तं वे दानं अभिसदानानमग्गं " ति।।

अर्थ ➡ " जो स्वयं वीतराग है तथा ऐसे ही दूसरे वीतराग को अपना धर्मोपार्जित धन प्रसन्नता पूर्वक दान करें, और भविष्य में उस दान के प्रति सत्फल की आशा रखता हुआ, श्रद्धा पूर्वक दान करता हैं तो वह दान सब दानोंमें श्रेष्ठ दान हैं।

मज्झिमनिकाय पालि, भाग 3,
सुत्त 42 दक्षिणाविभङ्गसुत्तं

साभार :

Pingala Wanjari

Pingala Wanjari

Saturday, June 27, 2015

प्राचीन बौद्ध स्थल “सोपारा" -वर्तमान-नालसोपारा (मुंबई)

प्राचीन बौद्ध स्थल “सोपारा" -वर्तमान-नालसोपारा (मुंबई)

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सोपारा महाराष्ट्र राज्य के ठाणे ज़िले में स्थित एक प्राचीन स्थान है। आजकल सोपारा दादर स्टेशन से वेस्टर्न सबर्बन रेलमार्ग पर लगभग 48 किलोमीटर दूर अंतिम पड़ाव 'विरार' से पहले पड़ता है।

'नाल' और 'सोपारा' दो अलग अलग गाँव थे। रेलवे लाइन के पूर्व की ओर 'नाल' है तो पश्चिम में 'सोपारा' गावँ है। वर्तमान में यह एक बड़ा शहर हो गया है। पुराने सोपारा गाँव के क़रीब चारों तरफ हरियाली और बहुत सारे पेड़ हैं।

सोपारा गाँव में सम्राट अशोक द्वारा ईसा पूर्व तीसरी सदी में निर्मित स्तूप भी है। यह स्तूप भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित है।

वहां बुद्ध और साथ ही किसी बौद्ध भिक्षु की मूर्ती भी थी. हमें बताया गया कि यहाँ से निकली मूर्तियाँ, शिलालेख आदि औरंगाबाद के संग्रहालय में प्रर्दशित हैं.

जिस प्रकार दक्षिण भारत के पश्चिमी तट पर ईसा पूर्व से ही “मुज़रिस” (कोडूनगल्लूर) विदेश व्यापर के लिए ख्याति प्राप्त बंदरगाह रहा उसी प्रकार उत्तर भारत के पश्चिमी तट पर उसी कालक्रम में सोपारा भी भारत में प्रवेश के लिए एक महत्वपूर्ण बंदरगाह था. इस बंदरगाह का संपर्क विभिन्न देशों से रहा है. सोपारा को सोपारका, सुर्परका जैसे विभिन्न नामों से जाना जाता था. प्राचीन अपरानता राज्य की राजधानी होने का भी गौरव सोपारा को प्राप्त है. इस्राइल के राजा सोलोमन के समय से ही बड़ी मात्रा में उनके देश से व्यापार का उल्लेख मिलता है. कदाचित बाइबिल में उल्लेखित भारतीय बंदरगाह “ओफिर” सोपारा ही था. बौद्ध साहित्य “महावंश” में उल्लेख है कि श्रीलंका के प्रथम राजा, विजय ने “सप्पारका” से श्रीलंका के लिए समुद्र मार्ग से प्रस्थान किया था. प्राचीन काल में सोपारा से नानेघाट, नासिक, महेश्वर होते हुए एक व्यापार मार्ग उज्जैन तक आता था. इस बात की पुष्टि नानेघाट में सातवाहन वंशीय राजाओं के शिलालेख से होती है, जो मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद हावी हो गए थे. सोपारा इनके आधीन आ गया था. नानेघाट में तो बाकायदा चुंगी वसूली एवं भण्डारण हेतु प्रयुक्त पत्थर से तराशा हुआ कलश आज भी विद्यमान है.

.साभार : http://buddhkathaiye.blogspot.in/

अरञ्‍ञसुत्तं

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ऐसा  सुना जाता है कि एक समय भगवान बुद्ध श्रावस्ती मे अनाथपिणिक के जेतवन आराम मे विहार कर रहे थे । तब कोई देवता रात बीतने पर अपनी चमक से सारे जेतवन को चमकाते हुये आया और भगवान बुद्ध का अभिवादन कर के एक और खडा हो गया ।

एक ओर खडा हो कर वह देवता भगवान से बोला ,

“ जंगल मे विहार करने वाले ब्रह्म्मचारी तथा एक  बार ही भोजन करने वालों का चेहरा कैसे खिला रहता है ? ”

शास्ता ने कहा ,

बीते हुये का वे शोक नही करते ,

आने वाले पर बडे मनसूबे नही  बाँधते ,

जो मौजूद है उसी से गुजारा करते हैं ;

इसी से उनका चेहरा खिला रहता है ॥

आने वाले पर बडे मनसूबे बाँध,

बीते हुये का शोक करते रह ,

मूर्ख लोग फ़ीके पडे रहते हैं ,

हरा नरकट ( ईख )जैसे कट जाने पर ॥                         

    संयुत्तनिकायो -१०. अरञ्‍ञसुत्तं

Friday, June 26, 2015

कान्हेरी गुफाएं

कान्हेरी  गुफाएं
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photo credit : wikipedia
प्राचीन अभिलेखों में कान्‍हाशैल, कृष्‍णगिरी, कान्‍हागिरी के नाम से उल्लिखित कान्हेरी  (19° 13’ उत्‍तर, 72° 55’ पू.) मुम्‍बई के उत्‍तर में स्थित है और यह बौद्धों का प्रमुख केंद्र था। कान्‍हेरी सलसेत्‍ती द्वीप में स्थित है और थाणे से 6 मील की दूरी पर है। गुफाओं का उत्खनन ज्‍वालामुखीय संकोणाश्‍म निक्षेप में किया गया है। कई स्थानों पर इन पहाडियों की ऊंचाई औसत समुद्र तल से 1550’ है। कान्हेरी की ख्‍याति इस बात से है कि यहां एक ही पहाड़ी में सर्वाधिक संख्‍या में गुफाओं का उत्खनन हुआ है। इसके पश्चिम में बोरीविली रेलवे स्‍टेशन है और खाड़ी के पार अरब सागर है।
कान्‍हेरी इसलिए फूला-फला क्‍योंकि यह सोपारा (सुरपरक, द सुपारा आफ ग्रीक; अरबी लेखकों का सुबारा; उत्‍तरी कोंकण की प्राचीन राजधानी) एक विकसित पत्‍तन- कल्‍याण, चेमुला, ग्रीक भूगोलविदों का सामिल्ला, ट्राम्‍बे के द्वीप पर शिलाहारों का चेमुला जैसे प्राचीन समुद्री पत्‍तन शहरों के निकट था; वस्य, शायद वसाई अथवा बस्सीन, श्री स्तानर अथवा थाणा, घोड़ाबंदर जैसी अन्य नजदीकी प्राचीन बसावटें थी। प्राय: ऐसा विश्वास किया जाता है कि बौद्ध धर्म सर्वप्रथम सोपार स्थित अपरंथ (पश्चिमी भारत) में आया जो कान्हेरी के अत्यंत निकट है। इन गुफाओं का उत्‍खनन तीसरी शताब्‍दी ई.पू. के मध्‍य में किया गया था और ये 11 वीं शताब्‍दी ईसवी तक इस्तेमाल में रहीं। इनका उल्‍लेख 16 वीं शताब्दी में पुर्तगालियों जैसे आंरभिक आगंतुकों तथा यूरोप के अन्‍य यात्रियों और समुद्री यात्रियों द्वारा किया गया।
यहां पाए गए अनगिनत संदाता अभिलेखों में प्राचीन नगरों जैसे सुपारक (सोपारा), नासिका (नासिक), चेमुली (चेमुला); कल्‍याण (कल्‍याण), धेनुकाकट (धान्‍यकटक, आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले में आधुनिक अमरावती) का उल्‍लेख मिलता है। संदाताओं में राजपरिवारों के सदस्यों से लेकर आम आदमी तक समाज के सभी वर्गो के व्यक्ति शामिल थे। अभिलेखों में वर्णित प्रतिष्ठित राजपरिवारों में गौतमीपुत्र सातकर्णी (लगभग 106-130 ई.); वसिष्‍ठीपुत्र श्री पुलुमावी (लगभग 130 से 158 ई.) श्री यज्ञ सातकर्णी (लगभग 172 से 201 ई.); मधारीपुत्र शकसेना (लगभग तीसरी शताब्‍दी ई. के अंत में); सातवाहन राजवंश के शासक जिनकी प्राचीन राजधानी प्रतिष्‍ठान थी (आधुनिक पैठन, जिला औरंगाबाद); राष्‍ट्रकूट राजवंश के अमोघवर्ष जिसका काल 853 ई. था, आदि शामिल हैं।
कान्‍हेरी में हुए उत्‍खनन इस प्रकार के हैं :- (i) चैत्यगृह, बौद्ध समुदाय का पूजा स्‍थल (ii) विहार या बौद्ध विहार- इनमें एक या अनेक प्रकोष्‍ठ होते हैं जहां बौद्ध भिक्षु रहा करते थे। (iii) पौड़ियां अथवा जल कुंड, जिनका उत्खनन वर्षा जल संचयन के लिए बुद्धिमत्‍तापूर्वक किया गया था ताकि इस जल को ग्रीष्‍म काल के दौरान प्रयोग में लाया जा सके और (iv) चट्टानों को काटकर बनाई गई बेंचे और आसान।
कान्‍हेरी में चट्टान काट कर बनाई गई गुफाओं के उत्खनन का आंरभ संयोगवश अपरंथ में बौद्ध धर्म के आगमन से जुड़ा हुआ है। ये गुफाएं आम तौर पर छोटी हैं और इनमें एक प्रकोष्‍ठ है जिसमें आगे की ओर स्तंभ युक्‍त बरामदा है जिस तक सीढ़ीयों का मार्ग जाता है। इन गुफाओं में जल संचयन के लिए निरपवाद रूप से एक जलकुंड है। आंरभिक उत्‍खनन बहुत छोटे और सीधे-सादे थे। उनमें कोई आलंकारिक तत्‍व नहीं थे। स्तंभ सपाट वर्गाकार या अष्‍टकोणीय थे और इनमें आधार फ़लक नहीं हैं जिनका प्रचलन बाद में शुरु हुआ। कान्‍हेरी में जो सर्वाधिक विशिष्‍ट उत्खनन हुआ, वह गुफा संख्या-3 का उत्खनन है जो कि एक चैत्यगृह है जिसका उत्खनन यज्ञ सातकर्णी (लगभग) 172 से 201 ई.) के शासन काल के दौरान किया गया था। यह चैत्यगृह भारत के सबसे बड़े चैत्‍यागृहों में से एक है। इससे बड़ा चैत्यगृह केवल करला का है जो पुणे जिले में है। यह चैत्यगृह करला के चैत्यगृह से बहुत अधिक मेल खाता है। निर्माण योजना की दृष्टि से इसमें एक आयताकार हॉल है जो गजपृष्ठीय है। एक बरामदा है और  आगे की ओर एक खुला प्रांगण है। हॉल की लंबाई 26.36 मीटर, चौड़ाई 13.6 मीटर और ऊंचाई 12.9 मीटर है। 24 स्तंभों की एक पंक्ति हॉल को एक केंद्रीय मध्‍य भाग और पार्श्‍व गलियारों में विभक्‍त करती है। मध्‍य भाग की छत ढ़ोलाकार महराबी है जबकि गलियारे सपाट हैं। मध्‍य भाग की मेहराबी छत में काष्‍ठ की कड़ियों के प्रावधान के प्रमाण हैं जो अब प्रचलन में नहीं है। हॉल के स्तंभ एक जैसे नहीं हैं और विभिन्‍न शैलियों और आकारों के हैं और इनमें एक रूपता नहीं है। हॉल के अर्धवृत्तकक्ष में एक स्‍तूप निर्मित है जिसका व्‍यास 4.9 मीटर और ऊंचाई 6.7 मीटर है। हॉल का अग्रभाग दो बंधनों के दो समूहों के साथ तीन द्वारों द्वारा वेधित है। प्रत्‍येक समूह को द्वारों के बीच आयताकार आलों में तराशा गया है। अलंकरण रहित एक विशाल चैत्‍य खिड़की प्रकाश की व्यवस्था के लिए बनाई गई थी। पार्श्‍वभित्तियों पर वरद मुद्रा में खड़े बुद्ध की दो विशाल प्रतिमाओं तथा अन्‍य बोधिसत्‍व प्रतिमाओं को बारीकी से उकेरा गया है। ये मूर्तियां बाद में जोड़ी गई हैं और इनका काल लगभग पांचवीं से छठी शताब्‍दी ई. है।
चैत्यगृह के निकट कभी दो संरचनात्‍मक स्‍तूप हुआ करते थे। एक स्‍तूप पत्‍थर का था जिसमें तांबे के दो कलश मिले थे जिनमें राख थी। एक छोटा सोने का बॉक्‍स है जिसमें कपड़े का एक टुकड़ा, एक चांदी का बॉक्‍स, एक माणिक, एक मोती, सोने के कुछ टुकड़े, तांबे की दो प्‍लेटें थी जिनमें से एक सन् 324 की थी। दूसरा स्‍तूप ईंटों का बना था जिसमें से एक उत्‍कीर्णित पत्‍थर मिला जिसकी लिपि पाँचवीं से छठी शताब्‍दी ई. की है।
गुफा संख्‍या-1 एक अधूरा निर्मित चैत्यगृह है जिसमें मूल रूप से एक स्तंभ युक्‍त हॉल के अलावा, दो मंजिला बरामदा और एक द्वारमंडप बनाने की योजना थी। यह गुफा पांचवीं से छठी शताब्‍दी की है क्‍योंकि संपीडित कुशन या अमलक शीर्ष वाले स्तंभ आम तौर पर उसी अवधि के प्रतीत होते हैं।
दरबार हॉल’ के नाम से ज्ञात गुफा संख्‍या-11 में सामने की ओर बरामदे सहित एक विशाल हॉल है। इस हॉल की पृष्‍ठभित्ति में मंदिर है और दोनों ओर प्रकोष्‍ठ हैं। हॉल का फर्श, दो पत्‍थर की कम ऊंची बेंचे एलोरा की गुफा सं. 5 से मेल खाती हैं। बुद्ध की धर्मचक्रप्रवर्तन मुद्रा मंदिर के सौंदर्य को चार चांद लगा देती है। गुफा में विभिन्‍न कालों के 4 अभिलेख हैं- एक शक 775 (सन् 853) का है जो राष्‍ट्रकूट वंश के राजा अमोघवर्ष और उसके सामंत शिलाहार राजकुमार, कपार्दिन के शासन काल का है। इस अभिलेख में पुस्‍तकों की खरीद और क्षतियों की मरम्‍मत के लिए उपलब्‍ध कराए गए विभिन्‍न उपहारों और निधियों के दान को लेखबद्ध किया गया है।
यहां की मूर्ति कला गुफा संख्‍या 2, 3, 41, 67, 89, 90 आदि में देखी जा सकती हैं। बुद्ध की छवि या मुद्रा या तो खड़े हुए रूप में है या बैठे हुए रूप में। बैठी हुई मुद्रा की मूर्तियों में कुछ मामलों में बोधिसत्व भी उनकी बगल में बैठे हुए हैं और बहुत ही विरले मामलों में उनके संगी- साथी भी उनके साथ आसीन हैं। यहां बुद्ध के अलावा अवलोकितेश्‍वर की मूर्ति भी विद्यमान है और जिसे यहां महत्‍व प्राप्‍त है। (अवलोकितेश्‍वर ने सभी प्राणियों की मुक्ति तक बुद्धत्व प्राप्त करने से इन्कार कर दिया था)। अवलोकितेश्‍वर की मूर्ति प्रमुख रूप से गुफा संख्‍या 2, 41 और 90 में देखी जा सकती है जिनमें वे आठ बड़े संकटों अर्थात् पोतभंग, अग्निकांड, जंगली हाथी, शेर, सांप, चोर, कारावास, दानव से अपने भक्‍तों को बचने के लिए उपदेश दे रहे हैं। अवलोकितेश्‍वर की एक अन्‍य रोचक मूर्ति गुफा संख्‍या 41 में पाई गई है जिसकी चार भुजाएं और ग्‍यारह मुख हैं। यह अपनी किस्म की भारत में एकमात्र मूर्ति है। इस रूप की उपासना चीन, चीनी तुर्कीस्‍तान, कम्‍बोडिया और जापान में 7वीं - 8वीं सदी में लोकप्रिय थी। जातक कथाएं भी चित्रित पाई जाती हैं। उदाहरण के लिए गुफा सं. 67 में दीपांकर जातक की कथाएं हैं।
कान्‍हेरी की बौद्ध संस्थापना में कुछ गुफाओं के फर्श पर निर्मित छोटे संरचनात्‍मक स्‍तूपों के रूप का एक रोचक साक्ष्‍य है। ऐसे स्‍तूप गुफा संख्‍या-33 और 38 आदि में भी मिले थे। इन स्‍तूपों में प्राय: मिट्टी के फलक काफी संख्‍या में मिले जो बौद्ध धर्म की 10वीं सदी ईसवी की लिपि में उत्‍कीर्णित किए गए थे। एक अन्‍य उल्‍लेखनीय विशेषता यह है कि एक अलग-थलग और निर्जन टीले पर समाधि मौजूद है। यहां पत्‍थर निर्मित और ईंट निर्मित संरचनात्‍मक स्‍तूप, प्रतिष्ठित संन्यासियों के जले हुए अवशेषों पर निर्मित पाए गए हैं। 
साभार : http://asi.nic.in/asi_hn_monu_tktd_maharashtra_upnagar.asp




Thursday, June 25, 2015

मैत्री भावना

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अक्‍कोच्छि मं अवधि मं, अजिनि [अजिनी (?)] मं अहासि मे।

ये च तं उपनय्हन्ति, वेरं तेसं न सम्मति॥

’मुझे कोसा ’ मुझे मारा’ ’मुझे हराया’ जो मन मे ऐसी गाँठॆं बाँधतें रहते हैं , उनका वैर शांत नही होता है ।

 

अक्‍कोच्छि मं अवधि मं, अजिनि मं अहासि मे।

ये च तं नुपनय्हन्ति, वेरं तेसूपसम्मति॥

’मुझे कोसा ’ मुझे मारा’ ’मुझे हराया’ जो मन मे ऐसी गाँठॆं नहीं बाँधतें हैं , उनका वैर शांत हो जाता है ।

धम्मपद : यमकवग्गो, गाथा ३-४

बाहर के दुश्मनो को जीतना कोई जीत नहीं है।
हिंसा के बल पर एक को जीत लेंगे तो अधिक बलवान दूसरा अपना सिर उठाएगा और हमें डराएगा।
जय पराजय का यह चक्र हमें सदा अशांत ही रखेगा।
हम सदा अपने से अधिक बलवान से भयभीत ही रहेंगे। निर्भयता हमसे कोसो दूर रहेगी।
भगवान् ने कहा है की सच्चा विजयी तो वही है, जो की अपने आप को जीत चूका है।
सचमुच जिसने अपना मन जीत लिया, उसने जग जीत लिया।जो अपने मानसिक व्यसनों का गुलाम है, वह चक्रवर्ती सम्राट होकर भी पराजित ही है।
यदि किसी दूसरे को जीतना ही है तो अपने निश्छल प्यार से जीतो, असीम करुणा से जीतो।
डंडे और बंदूक की जीत, जीत नहीं होती।हर डंडे के मुकाबले में कोई न कोई बड़ा डंडा तैयार हो जाता है।
परंतु जिसे प्यार से जीत लें, मैत्री और करुणा से जीत लें, वह जीत फिर हार में नहीं बदल सकती। कोई उससे बड़ी मैत्री पैदा करके उस विजय को पुष्ट ही करेगा। उसके नष्ट होने की कोई आशंका नहीं।।

साभार :

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 परेश गुजराती

Tuesday, June 23, 2015

‘ मेस ऐनक ’ अफगानिस्तान- अतीत मे जाता हुआ एक और ‘बामियान’


मेस ऐनक वर्तमान पीढ़ी की सबसे महत्वपूर्ण पुरातात्विक खोज है। वर्तमान में यह एक विशाल तांबे के भंडार पर बैठा है । यह तो निशिचित ही है कि यह आने वाले कुछ महीनों मे पूर्णताया नष्ट कर दिया जायेगा  । लेकिन साथ ही मे नष्ट होगा पुरातत्वविदों के लिये एक अनमोल खजाना।



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एक बार  दोबारा इतिहास  अफगानिस्तान मे दोहराने जा रहा है । हाँ , फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि जहाँ बामियान मे सन्‌ 2001 में तालिबान ने  गौतम बुद्ध की प्रतिमाओं को नष्ट मजहबी उन्माद और नफ़रत के कारण किया दूसरी ओर  मेस ऐनक मे धार्मिक उन्माद वजह नही बल्कि मेस ऐनक के गर्भ मे छिपे तांबे के बड़े भण्डार हैं जो अफगानिस्तान सरकार के लिये कमाई का स्त्रोत साबित होने जा रहे हैं ।
एक समय था कि अफगानिस्तान का पूर्वी हिस्सा प्राचीन काल में बौद्ध धर्म का केंद्र हुआ करता था । वहाँ कई मठ और विहार इसकी पुष्टि भी करते हैं । बामियान मे विशाल बुद्ध की प्रतिमा को लोग नही भूले होगें ।
सन्‌ १९६३ में एक फ्रांसीसी भूविज्ञानी को  लोगार प्रांत के पूर्वी भाग  एक सर्वेक्षण के लिये भेजा गया । उनका गंतव्य था मेस ऐनक गाँव मे पहाडॊं के ऊपर जमे ताँबे की विशाल तहों की खोज करना । लेकिन खुदाई के दौरान पुरातत्वविद को कुछ ऐसा दिखाई दिया जिसकी उन्होनें कल्पना भी नही की होगी । उन्होने पाया इतिहास की अनमोल धरोहर – हजारों साल पहले की जमीन कॆ गर्भ मे समाया एक बौद्ध शहर । पुरातत्वविद का यह अनुमान था कि यह लगभग छ वर्ग किमी के दायरे मे या इससे कुछ अधिक के दायरे में  फ़ैला हुआ था और यह सिल्क रोड का सबसे धनी अंतिम स्टेशन था ।
सन्‌ १९७८ में  मार्क्सवादी तख्तापलट और  १९७९ में  सौर कम्युनिस्ट क्रांति और सोवियत आक्रमण नें इस छेत्र मे हस्तक्षेप किया । अराजकता के इस दौर में  सोवियत संघ ने  पहाड़ में परीक्षण के लिये सुरंगों की खुदाई और उससे तांबा निकालने की व्यवाहारिकता  की जांच करने के लिए मेस ऐनक का दौरा किया। सोवियत के जाने के बाद   तालिबान के युग के दौरान, परित्यक्त सोवियत सुरंगों में से कई अल-कायदा के ठिकाने बन गये और  दूरस्थ घाटी में  प्रशिक्षण शिविर भी बन गये । दिसंबर २००१ के अमेरिकी हमले के दौरान अमेरिका के विशेष बलों ने सुरंग पर हमला किया जिसका प्रमाण गुफ़ाओं के छ्त और मुँह पर जले हुये निशान हैं । सन्‌ २००४ मे फ्रेंच पुरातत्वविदों ने इस छेत्र का एक बार फ़िर से सर्वेक्षण किया  और पाया कि गर्भ मे समाया यह बौद्ध नगर है ।
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इतिहास की इस धरोहर के बाहर आते ही पेशावर लुटेरॊ की जैसे बाढ सी आ गयी जिनमे अधिकाशं पाकिस्तानी लुटैरे थे । अधिकाशं लूट गान्धार कला मे बनी बुद्ध की मूर्ति की थी जिसकी कीमत लाखो डालर आँकी गई ।
पुरात्तव से जुडी होने के कारण अब अफ़गान सरकार का ध्यान गया । स्थल की सुरुक्षा के लिये गार्ड नियुक्त किये गये । लेकिन सब कुछ ठीक ठाक नही चला । सन्‌ २००४ में, स्थल की सुरुक्षा के लिए गार्ड मे आपस में ही भिडॆ  और अन्त सुरुक्षा कर्मियों की मृत्यु से हुआ । अब सब कुछ अफ़गान सरकार के नियंत्रण से बाहर था । लेकिन इस बात से अब इन्कार करना संभव भी नही था कि मेस ऐनक इस सदी बहुत ही महतपूर्ण खोज थी ।
मेस ऐनक की घाटी मे उत्खनन  के दौरान 19 अलग पुरातात्विक स्थलों की खोज हुई  जिनमें चार  मठ, एक पारसी आग मंदिर और प्राचीन तांबे का बर्तन,  ताँबा गलाने की कार्यशालायें, खनिक बस्तियाँ और  कई बौद्ध स्तूप और साथ ही साथ दो छोटे किलों और एक गढ़ पाये गये । पुरात्तव विशेषज्ञों ने बुद्ध के जीवन से जुडॆ भित्तीय चित्र ,कुषाण, सासानी साम्राज्य और इंडो-पार्थियन साम्राज्य से जुडॆ सिक्कों के ढेर, 1,000 से अधिक मूर्तियां, और कई पूरी तरह से संरक्षित भित्तिचित्रों की भी खोज की ।
वस्तुत: स्थिति अब साफ़ दिखने लगी है ,  मेस ऐनक पहली शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर दसंवी शताब्दी तक एक प्रमुख  बौद्ध केन्द्र था । सिल्क रुट के माध्यम से यह भारत के प्रमुख केन्द्र जैसे नांलदा , बोद्धगया और सारनाथ से जुडा था । भारत से बौद्ध संस्कृति दक्षिण एशियाई देशों मे इसी रुट से ही गुजरी और साथ ही में चीनी बौद्ध भिक्षुओं के लिये एक महत्वपूर्ण रोक बिंदु स्थान भी रहा  ।
सन्‌ 2008 में चीनी एक बार फ़िर से लौटॆ लेकिन इस बार तीर्थ यात्रियों की तरह नही और न ही  विद्धानॊ की तरह बल्कि इस बार  एक सफ़ल व्यपारी की तरह उन्होने  मेस ऐनक में प्रवेश किया । एक चीनी खनन संघ - चीनी मैटलर्जिकल समूह और जियान्गजी ( Jiangxi )  कॉपर समूह ने पूरी साइट को तीन अरब डॉलर के लिए  30 साल के पट्टे पर खरीदा और उनके अनुसार घाटी में तांबा  संभावित 100 अरब डालर के आस पास का है ।  यह  दुनिया में संभवत: सबसे बड़ी ऐसी जमा है, और आने वाले दिनों मे यह अफगानिस्तान की पूरी अर्थव्यवस्था की पूरी रीढ साबित होगी । अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई की सरकार पूरा भरोसा है कि यह  राष्ट्रीय आर्थिक पुनरुत्थान के लिये  एक महत्वपूर्ण घटक साबित होगा । कुछ प्रेक्षकों का अनुमान है यह परियोजना वर्ष 2016 तक वर्ष चीनी खनन कम्पनी को 300 अरब डालर और अफगान सरकार को कुल रॉयल्टी के रुप  40 अरब डालर का मुनाफ़ा प्रदान कर सकती है ।
हामिद करजई की सरकार को काम खत्म होने का बेसब्री से इंतजार है. जितनी जल्दी पुरातत्ववेत्ता अपना काम यहां खत्म कर लेंगे, उतनी ही जल्दी सरकार इन खदानों से तांबा निकालने का काम शुरू कर सकती है । लेकिन दूसरी ओर प्राचीन धरोहर को निकालने का काम बहुत ध्यान से किया जा रहा है, ताकि ये कलाकृतियां खराब ना हो सकें । इसके लिये अफगानिस्तान (दाफा) में फ्रांसीसी पुरातत्व मिशन के पुरातत्वविदों ने एक प्रमुख बचाव खुदाई शुरु की है जिसमें चीन ने २ लाख डलर , अमेरिका ने १ लाख डालर और विशव बैंक ने ८ लाख डालर की सहायता प्रदान की है ।
‘ Saving Mes Aynak ‘ सेविंग मेस ऐनक वृत्त चित्र
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ब्रेंट ई हुफ़मैन द्वारा निर्देशित Saving Mes Aynak नामक एक वृत्तचित्र इसी  पुरातात्विक स्थल की कहानी है जो इस स्थल और इससे जुडे प्रमुख पात्र जैसे फ्रेंच पुरातत्वविद् प्रमुख फिलिप मारकिस ,  अफगान पुरातत्व राष्ट्रीय संस्थान में पुरातत्वविद् अब्दुल कदीर टेमोर, चीन मैटलर्जिकल समूह निगम के  प्रबंधक लियू विनमिंग ,  अमेरिकी पुरातत्वविद् लौरा टिड्स्को और स्थानीय अफ़गान नागरिकों और सहायकों की मदद से बनाई गई है ।
इस डाक्यूमेन्ट्री फ़िल्म का प्रीमियर सन्‌ २०१४ में IDFA फिल्म समारोह , एम्स्टर्डम में और 2015 में Full frame festival अमेरिका मे हो चुका है । 

Wednesday, June 17, 2015

भदिद्कारता सुत्त “ Bhaddekaratta Sutta ”

भदिद्कारता सुत्त
साभार : : Pingala Wanjari
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"अतीत का पीछा न करो ।
भविष्य के भ्रम जाल मे न फ़ंसो।
अतीत व्यतीत हो गया ।
भविष्य अभी अनागत है ।
यहाँ अभी इस क्षण जीवन जैसा है , उसी को धारण करो
साधनाभ्यासी ,स्थिरता और मुक्त भाव मे जीता है ।
कल की प्रतीक्षा की , तो विलम्ब होगा।
मृत्यु अचानक धर दबोचती है
उससे हम क्या समझोता कर सकते हैं ?
भिक्खुजन उसी का आह्वान करते हैं
जो दिन और रात
सचेतानावस्था मे जागृत रहता है
जो जानता है कि
एकान्तवास का उत्तमतर मार्ग क्या है । ”
स्त्रोत : मॆट्टा सुत्त(M. 131); भदिद्कारता सुत्त, आंनद भद्दकारता सुत्त
“Do not pursue the past.
Do not lose yourself in the future.
The past no longer is.
The future has not yet come.
Looking deeply at life as it is
in the very here and now,
the practitioner dwells
in stability and freedom.
We must be diligent today.
To wait until tomorrow is too late.
Death comes unexpectedly.
How can we bargain with it?
The sage calls a person who knows
how to dwell in mindfulness
night and day
‘one who knows
the better way to live alone.’”
Source : Bhaddekaratta Sutta (M. 131); Ananda Bhaddekaratta Sutta (M. 132); Mahakaccana Bhaddekaratta Sutta (M. 133);


भगवान भिक्षुओं को संबोधित करते हुए कहते हैं  भिक्षुओं ' भद्देकरत्त ' अर्थात जो भिक्षु
अकेले में अनुरक्त रहने वाला एकांत प्रेमी एवं एकाग्रता से साधना करने वाला होता है
उसके उद्देश नाम-कथन और विभङ्ग-विभाग का आज तुम्हें उपदेश करता हूँ। उसे सुनो, अच्छी तरह मनमें धारण करो,
कहता हूँ
1 ] अतीत का अनुगमन न करें।
2 ] न भविष्य की चिंता में पडे।
3 ] जो अतीत था वह तो नष्ट हो गया।
4 ] जो भविष्य है वह अभी आया नहीं उसकी चिंता करना व्यर्थ है। और भिक्षुओं
5 ] केवल वर्तमान में जो हैं, उसे यथाप्रसंग देखना चाहिए । जो असंहारी है और न टलने वाला है अर्थात जो अटल हैं, विद्वानको दृढ़ता से उस परिस्थिति का सामना करना चाहिए।
6 ] क्या पता हमारा कब मरण हो जाय अतः अभी से ही, इसी क्षण से ही हमें अपने कर्तव्य में जुड़ना चाहीये ,कौन जानता है ,गई हुई साँस वापस आये ना आये , अगले ही पल मृत्यु हो । इसलिये बिना रुके  शुभ कर्मों में लग जाना चाहिए। हम पामर मृत्युराज से नहीं लड़ सकते।
महासेना वाली मृत्यु से कोई समय निश्चित नहीं है ।
7 ] भिक्षुओं रात -दिन निरालस ,उद्योगी हो ,इस प्रकार विहार ने वाले को ही , शान्त एवं भद्देकरत्त /भद्रैकरत्न कहते हैं। अर्थात वह भिक्षु सर्वोपरि उत्तम माना जाता है। उसका लक्ष्य  निश्चित है ।
वह भगवदुपदिष्ट वचनों का पालन ' जी-जान ' से करता हैं ।
भिक्षुओं कोई भिक्षु किस प्रकार अतीत का अनुगमन करता है
वह अज्ञानवश इस प्रकार चिंतन करने लगता है कि अतीत काल में मैं इस प्रकार के रूप वाला था, इस प्रकार के सुख भोगने वाला था । ऐसा सोचकर उसमें नन्दी, आसक्ति या यूं कहें कि राग उत्पन्न करता हैं।
मैं अतीत काल में इस प्रकार की वेदना वाला,
इस संज्ञा वाला , इस प्रकार के संस्कार वाला , इस प्रकार के विज्ञान वाला था , मैंने यह किया , मैंने वैसा किया था , मैं ऐसा था और क्या क्या नहीं ……………
इस प्रकार, भिक्षुओं वह अतीत का अनुगमन करता हैं। अपने बिते हुए कल से वह छुटकारा नहीं पाता । भिक्षुओं यह बड़ा दुखदायी होता है ।
भिक्षुओं अतीत का अचिंतन कैसे होता है
अतीत काल में मैं इस प्रकार के रूप वाला था । पहले मैं ऐसा था , यह सोच, उसमें राग उत्पन्न नहीं करता। अतीत में मैं इस वेदना वाला, इस संज्ञा वाला था , इस विज्ञानवाला था , ऐसा सोचकर भी वह उस भूतकाल में अटका पड़ा नहीं रहता । इस प्रकार भिक्षुओं वह अतीत का अनुगमन नहीं करता। इसे ही अतीत का अचिंतन कहते हैं । यह स्थिति साधना में बहुत सहायक होती है ।
कैसे भिक्षुओं भविष्य, अनागत की चिंता नहीं करता ध्यान से सुनो
मैं भविष्य में इस प्रकार के रूप वाला होऊंगा, यह सोचकर उसमें नन्दी या राग उत्पन्न नहीं करता , आसक्ति नहीं जगाता । इसी प्रकार वेदना, संज्ञा वाला , इस संस्कार वाला , इस विज्ञान वाला होऊंगा के संदर्भ में भी, वह भविष्य में ऐसा होगा, सोचकर उसमें राग उत्पन्न नहीं करता। अनागत की चिंता नहीं करता। भिक्षुओं यह स्थिति साधक के लिए अच्छी मानी जाती है ।
कैसे भिक्षुओं प्रत्युत्पन्न अर्थात वर्तमान धर्मों में आसक्त होता है
यहां भिक्षुओ आर्योंके दर्शन से वंचित, अश्रुतवान,
जिसने सत्पुरुषों के साथ बैठकर धर्म के बारे मे कुछ सुना ही ना हो ऐसा अनाड़ी व्यक्ति रूपकों matter को ही मैं हूँ ऐसा मानता है और मैं अविनाशी हूँ । ये वेदना मेरी है और यह शरीर भी मैं ही हूँ । इस प्रकार मैं और मेरे के चक्कर में फँसकर प्रत्युत्पन्न धर्मोंमें आसक्त होता है।
कैसे भिक्षुओं साधक प्रत्युत्पन्न धर्मोंमें आसक्त नहीं होता
यहां भिक्षुओ  आर्योंके दर्शन को प्राप्त कर, बहुश्रुत आर्यश्रावक, रूपकों मैं और मेरे के तौर पर नहीं देखता। वह धर्म के मर्म को ज़ड सहित जान लेता है जैसा समझाया गया हो बिल्कुल वैसे ही ग्रहण कर लेता है । इस प्रकार भिक्षुओं वर्तमान धर्मोंमें वह आसक्त नहीं होता। यही बात , यही गुण उसे साधना में बहुत काम आता है । ऐसा साधक प्रगति करता हुआ आगे बढता चला जाता है ।
अतीतका अनुगमन न करने वाला , या यूं कहें कि भूत भविष्य में जो साधक कदापि रमन नहीं करता । जो केवल और केवल इसी क्षण में , वर्तमान से ही जुड़ा रहता है । उसका केवल वास्तविकता से ही नाता रहता है । जिसके शब्दकोश में कल्पना को कोई स्थान ना हो ऐसा शांत मुनिजन भद्देकरत्त या भद्रैकरत्न कहलाता है।
स्त्रोत -- मज्झिमनिकाय पालि 3 , भद्देकरत्तसुत्तं
साभार :
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Pingala Wanjari






Monday, June 15, 2015

अफगानिस्तान के बामियान में 14 साल बाद फिर 'मुस्कुराए' बुद्ध

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काबुल
अफगानिस्तान में बुद्ध फिर ‘मुस्कराए’ हैं! अफगानिस्तान के बामियान में 14 साल पहले महात्मा बुद्ध की जिन दो विशाल मूर्तियों को तालिबान ने तबाह कर दिया था, ठीक उसी जगह एक बार फिर 3-D टेक्नीक से बुद्ध की वैसी ही मूर्तियां बनाई गईं। चीन के एक दंपती ने इस परियोजना को पूरा किया। दंपती ने काबुल के उत्तर-पश्चिम में 230 किलोमीटर पर स्थित हजराजात की बामियान घाटी में चट्टान की खाली गुफाओं में 3D लेजर लाइट प्रॉजेक्शन टेक्नीक का प्रयोग किया। दंपती जॉनसन यू और लियान हू छठी शताब्दी में बनाई गई दो प्रतिमाओं को ढहाए जाने से दुखी थे और उन्होंने इस परियोजना को पूरा करने का फैसला किया।

उन्होंने चट्टान में खाली गुफाओं में केवल एक रात के लिए प्रतिमाएं वापस लाने के लिए अफगान सरकार और यूनेस्को से अनुमति ली। सात जून को हुए इस समारोह मे प्रॉजेक्टरों की मदद से पूर्व की प्रतिमाओं के आकार की होलोग्राफिक प्रतिमाएं प्रदर्शित की गईं।

महात्मा बुद्ध की मूर्तियां 115 फीट और 174 फीट लंबी थीं और ये 1500 साल से ज्यादा समय तक खड़ी रहीं। मार्च 2001 में तालिबान ने इन्हें उड़ा दिया था। यूनेस्को ने इन्हें वर्ल्ड हेरिटेज साइट के तहत सूचीबद्ध किया हुआ था।

साभार : http://tinyurl.com/qawotdo

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Chinese Duo Use 3D Technology to ‘Resurrect’ Bamiyan Buddhas in Afghanistan

Kabul: Fourteen years after the Taliban blew up the world-famous Buddhas of Bamiyan, the giant statues were resurrected with 3D light projection technology in the empty cavities where they once stood.

The project is the initiative of a Chinese couple who used the technology to give new life to the statues in the cliff off the Bamiyan Valley by projecting Buddha's virtual images. The statues were located in Hazarajat, 230 kilometers northwest of Kabul.

The couple – Janson Yu and Liyan Hu – was saddened by the destruction of the two 16thcentury statues. They obtained permissions from Afghanistan and the UNESCO to bring the statues back for just one night.

The event, on June 7, saw projectors displaying huge holographic images of the exact size of the precious monuments that were damaged in the Taliban attacks. The display was accompanied by music.

"The projections were not widely publicized, but over 150 people came to see the spectacle. Crowds remained well into the night and some people played music while others looked on," a journalist who witnessed the show was quoted as saying by The Atlantic.

The statues of standing Buddhas – measuring 115 feet and 174 feet respectively – were carved out of sandstone cliffs. They survived for more than 1,500 years. But the Taliban blew them up in 2001, as part of its campaign to remove all non-Islamic art from Afghanistan.

The statues were among the most famous cultural landmarks of the region, and the site was listed by UNESCO as a World Heritage Site, along with the archaeological remains of the Bamiyan Valley.

Source : http://www.indiawest.com/news/india/chinese-duo-use-d-technology-to-resurrect-bamiyan-buddhas-in/article_130cecf6-133a-11e5-a296-5b4a1ee8a17c.html

चीन में हजार हाथों वाली बुद्ध प्रतिमा का जीर्णोद्धार

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बीजिंग। चीन के विशेषज्ञों ने बुद्ध की आठ सौ साल पुरानी प्रतिमा का जीर्णोद्धार कर दिया है। अपने हजार हाथों के लिए प्रसिद्ध यह प्रतिमा देश के दक्षिण-पश्चिम प्रांत में स्थित है। जीर्णोद्धार के काम में सात वर्ष का समय लगा।

शिन्हुआ समाचार एजेंसी के अनुसार, अब पर्यटक हजार हाथों वाली प्रतिमा ‘कियानशू गुआनयिन’ को नए रूप में देख सकते हैं। इससे पहले भी चार बार इस प्रतिमा की मरम्मत हो चुकी है। कामगारों ने सोने के 10 लाख पत्तरों और 227 उपकरणों का इस्तेमाल कर 830 हाथों को फिर से बना दिया। प्रतिमा को पूरी तरह से साफ भी किया गया।

सांस्कृतिक विरासत के अनुसंधानकर्ता और इस परियोजना के निदेशक झान चांगफा ने कहा कि अब ‘कियानशू गुआनयिन’ के अगले 50 वर्षो तक इसी तरह चमकते रहने की उम्मीद है। यह प्रतिमा 7.7 मीटर ऊंची और 12.5 मीटर चौड़ी है। इसका निर्माण सोंग राजवंश (1127 से 1279) के काल में हुआ था।

साभार : http://tinyurl.com/nj5yd5s

Friday, June 12, 2015

पात्र और सामाग्री ( The Container and the Content )

 

AFGHANISTAN-BUDDHAS/

ब्रिसबेन  में एक स्थानीय पत्रकार ने मुझसे बडा ही अटपटा सा प्रशन पूछा . “ अजह्न्ह , आप की क्या प्रतिक्रिया होगी अगर कोई इन्सान बुद्ध धर्म की सबसे पवित्र पुस्तक जैसे त्रिपटक को शौचालय मे बहा दे । “

एक क्षण रुके बगैर मैने उससे कहा , “ अगर कोई बुद्ध धर्म की सबसे पवित्र पुस्तक को शौचालय मे बहा देगा तो मै सबसे पहले मै रुकी हुई पाइपलाइन को खुलवाने के लिये एक योग्य प्लम्बर को बुलाऊगाँ । “

संभवत: उसको मेरे उत्तर  की अपेक्षा नही थी । वह हँसा और मुझसे बोला कि क्या आप इस बात से उद्देलित नही होगे ।

मैने उससे कहा , “  हो सकता है कि बुद्ध धम्म के विरोधी बुद्ध की कई प्रतिमाओं को उडा दें , कई मंदिरों को नष्ट कर दें या बौद्ध भिक्खुओं और भिक्खुनियों की हत्या तक कर दें लेकिन फ़िर भी मैं उनको बौद्ध धर्म को नष्ट करने की अनुमति नही दे सकता । आप एक शौचालय में एक पवित्र पुस्तक को बहा सकते हैं लेकिन क्या आप बौद्ध धम्म के मूल आधार क्षमा , करुणा , शांति और मैत्री को शौचालय मे बहा सकते हैं । “

कोई  भी पुस्तक , मूर्ति , मन्दिर , विहार या उसको संचालित करने वाले पुजारी और महंत धर्म नही हो सकते । वे केवल “ पात्र “ हैं । पात्र वह जिसमे सामाग्री रखी जाती है । वह ह्मेशा पात्र ही रहेगें ।

लेकिन दूसरी तरफ़ यह पुस्तकें हमें क्या सिखाती हैं ? बुद्ध की मूर्ति हमॆ क्या दर्शाती है ? भिक्खुओं के गुण हमें किस बात की शिक्षा देते हैं ?  यह वह  “ सामाग्री  “ हैं जिसको हमें बचाना है ।

जब हम पात्र और सामाग्री के बीच के अंतर को समझ लेगें तब हम पात्र के नष्ट हो जाने के बाद भी सामाग्री की रक्षा कर सकते हैं ।

यह भी संभव है कि हम अधिक संख्या मे धम्म की पुस्तकें छ्पवायें , यह भी हो सकता है कि हम बहुत से भिक्खुओं और भिक्खुनियों को प्रशिक्षित कर लें लेकिन जिस दिन हम दूसरों के लिये हमारे प्यार और सम्मान को खो बैठते हैं और अपने आप को हिंसा मे लिप्त कर लेते हैं तो मेरे अनुसार पूरे के पूरे धर्म को ही शौचालय मे बहा बैठते हैं ।

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अजह्न्ह ब्रह्म्ह की पुस्तक “ GOOD ? BAD ? WHO KNOWS ” मे से ली गई कहानी “ The Container and the Content ” का हिन्दी अनुवाद ।

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The Container and the Content – Ajahn Brahm

A local journalist called and asked me “ What would you do, Ajahn Brahm, if someone took a Buddhist Holy Book and flushed it down the toilet?”

Without hesitation I answered “Sir, if someone took a Buddhist Holy Book and flushed it down the toilet, the first thing I would do is call a plumber!”

When the journalist finished laughing, he confided in me that that was the most sensible answer he had heard.

Then I went further. I explained that someone may blow up many statues of the Buddha, burn down Buddhist temples or kill Buddhist monks and nuns; they may destroy all of this but I will never allow them to destroy Buddhism. You may flush a Holy Book down a toilet, but you will never flush forgiveness, peace and compassion down a toilet.

The book is not the religion, nor the statue, the building or the priest. These are only “containers.”

What does the book teach us? What does the statue represent? What qualities are the priests supposed to embody? This is the “content”.

When we recognize the difference between the container and the contents, then we will preserve the contents even when the container is being destroyed.

We can print more books, build more temples and statues and even train more monks and nuns, but when we lose our love and respect for others and ourselves and replace it with violence, then the whole religion has gone down the toilet.

Thursday, June 11, 2015

यूँनगैंग गुफा,चीन ( Yungang Caves , China )

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यूँनगैंग गुफाएं चीन के शांक्सी जिले में है। यहा की 252 गुफाएं और 51,000 मुर्तिया एक साथ, 5 और 6 वीं शताब्दी की चीन की बौद्ध गुफा कला की उत्कृष्टता का प्रतिनिधित्व करती हैं। यहा की गुफाएं चीन के उत्तरी वेह राजवंश के समय बनाना शुरू हुई थी। 398 और 484 ईसवी के समय में और 60 साल बाद बन के तैयार हुई पर इन गुफाओं में बाद के कई राजवंशो ने भी काम कराया इस का काम 16 सदी में आखरी बार खत्म हुआ। आज यहा 252 गुफाएं और 51,000 मुर्तिया है।

साभार : http://buddhkathaiye.blogspot.in/2015/03/blog-post_55.html