भदिद्कारता सुत्त
साभार : : Pingala Wanjari
अकेले में अनुरक्त रहने वाला एकांत प्रेमी एवं एकाग्रता से साधना करने वाला होता है ➡
उसके उद्देश नाम-कथन और विभङ्ग-विभाग का आज तुम्हें उपदेश करता हूँ। उसे सुनो, अच्छी तरह मनमें धारण करो,
कहता हूँ ➡
1 ] अतीत का अनुगमन न करें।
2 ] न भविष्य की चिंता में पडे।
3 ] जो अतीत था वह तो नष्ट हो गया।
4 ] जो भविष्य है वह अभी आया नहीं उसकी चिंता करना व्यर्थ है। और भिक्षुओं
5 ] केवल वर्तमान में जो हैं, उसे यथाप्रसंग देखना चाहिए । जो असंहारी है और न टलने वाला है अर्थात जो अटल हैं, विद्वानको दृढ़ता से उस परिस्थिति का सामना करना चाहिए।
6 ] क्या पता हमारा कब मरण हो जाय अतः अभी से ही, इसी क्षण से ही हमें अपने कर्तव्य में जुड़ना चाहीये ,कौन जानता है ,गई हुई साँस वापस आये ना आये , अगले ही पल मृत्यु हो । इसलिये बिना रुके शुभ कर्मों में लग जाना चाहिए। हम पामर मृत्युराज से नहीं लड़ सकते।
महासेना वाली मृत्यु से कोई समय निश्चित नहीं है ।
7 ] भिक्षुओं रात -दिन निरालस ,उद्योगी हो ,इस प्रकार विहार ने वाले को ही , शान्त एवं भद्देकरत्त /भद्रैकरत्न कहते हैं। अर्थात वह भिक्षु सर्वोपरि उत्तम माना जाता है। उसका लक्ष्य निश्चित है ।
वह भगवदुपदिष्ट वचनों का पालन ' जी-जान ' से करता हैं ।
भिक्षुओं कोई भिक्षु किस प्रकार अतीत का अनुगमन करता है
वह अज्ञानवश इस प्रकार चिंतन करने लगता है कि अतीत काल में मैं इस प्रकार के रूप वाला था, इस प्रकार के सुख भोगने वाला था । ऐसा सोचकर उसमें नन्दी, आसक्ति या यूं कहें कि राग उत्पन्न करता हैं।
मैं अतीत काल में इस प्रकार की वेदना वाला,
इस संज्ञा वाला , इस प्रकार के संस्कार वाला , इस प्रकार के विज्ञान वाला था , मैंने यह किया , मैंने वैसा किया था , मैं ऐसा था और क्या क्या नहीं ……………
इस प्रकार, भिक्षुओं वह अतीत का अनुगमन करता हैं। अपने बिते हुए कल से ➡ वह छुटकारा नहीं पाता । भिक्षुओं यह बड़ा दुखदायी होता है ।
भिक्षुओं अतीत का अचिंतन कैसे होता है
अतीत काल में मैं इस प्रकार के रूप वाला था । पहले मैं ऐसा था , यह सोच, उसमें राग उत्पन्न नहीं करता। अतीत में मैं इस वेदना वाला, इस संज्ञा वाला था , इस विज्ञानवाला था , ऐसा सोचकर भी वह उस भूतकाल में अटका पड़ा नहीं रहता । इस प्रकार भिक्षुओं वह अतीत का अनुगमन नहीं करता। इसे ही अतीत का अचिंतन कहते हैं । यह स्थिति साधना में बहुत सहायक होती है ।
कैसे भिक्षुओं भविष्य, अनागत की चिंता नहीं करता ध्यान से सुनो ➡
मैं भविष्य में इस प्रकार के रूप वाला होऊंगा, यह सोचकर उसमें नन्दी या राग उत्पन्न नहीं करता , आसक्ति नहीं जगाता । इसी प्रकार वेदना, संज्ञा वाला , इस संस्कार वाला , इस विज्ञान वाला होऊंगा के संदर्भ में भी, वह भविष्य में ऐसा होगा, सोचकर उसमें राग उत्पन्न नहीं करता। अनागत की चिंता नहीं करता। भिक्षुओं यह स्थिति साधक के लिए अच्छी मानी जाती है ।
कैसे भिक्षुओं प्रत्युत्पन्न अर्थात वर्तमान धर्मों में आसक्त होता है
यहां भिक्षुओ आर्योंके दर्शन से वंचित, अश्रुतवान,
जिसने सत्पुरुषों के साथ बैठकर धर्म के बारे मे कुछ सुना ही ना हो ऐसा अनाड़ी व्यक्ति रूपकों matter को ही मैं हूँ ऐसा मानता है और मैं अविनाशी हूँ । ये वेदना मेरी है और यह शरीर भी मैं ही हूँ । इस प्रकार मैं और मेरे के चक्कर में फँसकर प्रत्युत्पन्न धर्मोंमें आसक्त होता है।
कैसे भिक्षुओं साधक प्रत्युत्पन्न धर्मोंमें आसक्त नहीं होता
यहां भिक्षुओ आर्योंके दर्शन को प्राप्त कर, बहुश्रुत आर्यश्रावक, रूपकों मैं और मेरे के तौर पर नहीं देखता। वह धर्म के मर्म को ज़ड सहित जान लेता है जैसा समझाया गया हो बिल्कुल वैसे ही ग्रहण कर लेता है । इस प्रकार भिक्षुओं वर्तमान धर्मोंमें वह आसक्त नहीं होता। यही बात , यही गुण उसे साधना में बहुत काम आता है । ऐसा साधक प्रगति करता हुआ आगे बढता चला जाता है ।
अतीतका अनुगमन न करने वाला , या यूं कहें कि भूत भविष्य में जो साधक कदापि रमन नहीं करता । जो केवल और केवल इसी क्षण में , वर्तमान से ही जुड़ा रहता है । उसका केवल वास्तविकता से ही नाता रहता है । जिसके शब्दकोश में कल्पना को कोई स्थान ना हो ऐसा शांत मुनिजन भद्देकरत्त या भद्रैकरत्न कहलाता है।
स्त्रोत -- मज्झिमनिकाय पालि 3 , भद्देकरत्तसुत्तं
साभार :
Pingala Wanjari
साभार : : Pingala Wanjari
"अतीत का पीछा न करो ।भगवान भिक्षुओं को संबोधित करते हुए कहते हैं भिक्षुओं ' भद्देकरत्त ' अर्थात जो भिक्षु
भविष्य के भ्रम जाल मे न फ़ंसो।
अतीत व्यतीत हो गया ।
भविष्य अभी अनागत है ।
यहाँ अभी इस क्षण जीवन जैसा है , उसी को धारण करो
साधनाभ्यासी ,स्थिरता और मुक्त भाव मे जीता है ।
कल की प्रतीक्षा की , तो विलम्ब होगा।
मृत्यु अचानक धर दबोचती है
उससे हम क्या समझोता कर सकते हैं ?
भिक्खुजन उसी का आह्वान करते हैं
जो दिन और रात
सचेतानावस्था मे जागृत रहता है
जो जानता है कि
एकान्तवास का उत्तमतर मार्ग क्या है । ”
स्त्रोत : मॆट्टा सुत्त(M. 131); भदिद्कारता सुत्त, आंनद भद्दकारता सुत्त
“Do not pursue the past.
Do not lose yourself in the future.
The past no longer is.
The future has not yet come.
Looking deeply at life as it is
in the very here and now,
the practitioner dwells
in stability and freedom.
We must be diligent today.
To wait until tomorrow is too late.
Death comes unexpectedly.
How can we bargain with it?
The sage calls a person who knows
how to dwell in mindfulness
night and day
‘one who knows
the better way to live alone.’”
Source : Bhaddekaratta Sutta (M. 131); Ananda Bhaddekaratta Sutta (M. 132); Mahakaccana Bhaddekaratta Sutta (M. 133);
अकेले में अनुरक्त रहने वाला एकांत प्रेमी एवं एकाग्रता से साधना करने वाला होता है ➡
उसके उद्देश नाम-कथन और विभङ्ग-विभाग का आज तुम्हें उपदेश करता हूँ। उसे सुनो, अच्छी तरह मनमें धारण करो,
कहता हूँ ➡
1 ] अतीत का अनुगमन न करें।
2 ] न भविष्य की चिंता में पडे।
3 ] जो अतीत था वह तो नष्ट हो गया।
4 ] जो भविष्य है वह अभी आया नहीं उसकी चिंता करना व्यर्थ है। और भिक्षुओं
5 ] केवल वर्तमान में जो हैं, उसे यथाप्रसंग देखना चाहिए । जो असंहारी है और न टलने वाला है अर्थात जो अटल हैं, विद्वानको दृढ़ता से उस परिस्थिति का सामना करना चाहिए।
6 ] क्या पता हमारा कब मरण हो जाय अतः अभी से ही, इसी क्षण से ही हमें अपने कर्तव्य में जुड़ना चाहीये ,कौन जानता है ,गई हुई साँस वापस आये ना आये , अगले ही पल मृत्यु हो । इसलिये बिना रुके शुभ कर्मों में लग जाना चाहिए। हम पामर मृत्युराज से नहीं लड़ सकते।
महासेना वाली मृत्यु से कोई समय निश्चित नहीं है ।
7 ] भिक्षुओं रात -दिन निरालस ,उद्योगी हो ,इस प्रकार विहार ने वाले को ही , शान्त एवं भद्देकरत्त /भद्रैकरत्न कहते हैं। अर्थात वह भिक्षु सर्वोपरि उत्तम माना जाता है। उसका लक्ष्य निश्चित है ।
वह भगवदुपदिष्ट वचनों का पालन ' जी-जान ' से करता हैं ।
भिक्षुओं कोई भिक्षु किस प्रकार अतीत का अनुगमन करता है
वह अज्ञानवश इस प्रकार चिंतन करने लगता है कि अतीत काल में मैं इस प्रकार के रूप वाला था, इस प्रकार के सुख भोगने वाला था । ऐसा सोचकर उसमें नन्दी, आसक्ति या यूं कहें कि राग उत्पन्न करता हैं।
मैं अतीत काल में इस प्रकार की वेदना वाला,
इस संज्ञा वाला , इस प्रकार के संस्कार वाला , इस प्रकार के विज्ञान वाला था , मैंने यह किया , मैंने वैसा किया था , मैं ऐसा था और क्या क्या नहीं ……………
इस प्रकार, भिक्षुओं वह अतीत का अनुगमन करता हैं। अपने बिते हुए कल से ➡ वह छुटकारा नहीं पाता । भिक्षुओं यह बड़ा दुखदायी होता है ।
भिक्षुओं अतीत का अचिंतन कैसे होता है
अतीत काल में मैं इस प्रकार के रूप वाला था । पहले मैं ऐसा था , यह सोच, उसमें राग उत्पन्न नहीं करता। अतीत में मैं इस वेदना वाला, इस संज्ञा वाला था , इस विज्ञानवाला था , ऐसा सोचकर भी वह उस भूतकाल में अटका पड़ा नहीं रहता । इस प्रकार भिक्षुओं वह अतीत का अनुगमन नहीं करता। इसे ही अतीत का अचिंतन कहते हैं । यह स्थिति साधना में बहुत सहायक होती है ।
कैसे भिक्षुओं भविष्य, अनागत की चिंता नहीं करता ध्यान से सुनो ➡
मैं भविष्य में इस प्रकार के रूप वाला होऊंगा, यह सोचकर उसमें नन्दी या राग उत्पन्न नहीं करता , आसक्ति नहीं जगाता । इसी प्रकार वेदना, संज्ञा वाला , इस संस्कार वाला , इस विज्ञान वाला होऊंगा के संदर्भ में भी, वह भविष्य में ऐसा होगा, सोचकर उसमें राग उत्पन्न नहीं करता। अनागत की चिंता नहीं करता। भिक्षुओं यह स्थिति साधक के लिए अच्छी मानी जाती है ।
कैसे भिक्षुओं प्रत्युत्पन्न अर्थात वर्तमान धर्मों में आसक्त होता है
यहां भिक्षुओ आर्योंके दर्शन से वंचित, अश्रुतवान,
जिसने सत्पुरुषों के साथ बैठकर धर्म के बारे मे कुछ सुना ही ना हो ऐसा अनाड़ी व्यक्ति रूपकों matter को ही मैं हूँ ऐसा मानता है और मैं अविनाशी हूँ । ये वेदना मेरी है और यह शरीर भी मैं ही हूँ । इस प्रकार मैं और मेरे के चक्कर में फँसकर प्रत्युत्पन्न धर्मोंमें आसक्त होता है।
कैसे भिक्षुओं साधक प्रत्युत्पन्न धर्मोंमें आसक्त नहीं होता
यहां भिक्षुओ आर्योंके दर्शन को प्राप्त कर, बहुश्रुत आर्यश्रावक, रूपकों मैं और मेरे के तौर पर नहीं देखता। वह धर्म के मर्म को ज़ड सहित जान लेता है जैसा समझाया गया हो बिल्कुल वैसे ही ग्रहण कर लेता है । इस प्रकार भिक्षुओं वर्तमान धर्मोंमें वह आसक्त नहीं होता। यही बात , यही गुण उसे साधना में बहुत काम आता है । ऐसा साधक प्रगति करता हुआ आगे बढता चला जाता है ।
अतीतका अनुगमन न करने वाला , या यूं कहें कि भूत भविष्य में जो साधक कदापि रमन नहीं करता । जो केवल और केवल इसी क्षण में , वर्तमान से ही जुड़ा रहता है । उसका केवल वास्तविकता से ही नाता रहता है । जिसके शब्दकोश में कल्पना को कोई स्थान ना हो ऐसा शांत मुनिजन भद्देकरत्त या भद्रैकरत्न कहलाता है।
स्त्रोत -- मज्झिमनिकाय पालि 3 , भद्देकरत्तसुत्तं
साभार :
Pingala Wanjari
सचमुच, वर्तमान के प्रवाह में उतरने की कुशलता हासील होनी चाहिये. वैसे समझने में सरल है लेकीन आचरण के लिये जटील. भूत और भविष्य से छुटकारा चाहिये, बस!
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