Friday, August 10, 2018

।।ओकास।।- श्री राजेश चन्द्रा-

।।ओकास।।
-राजेश चन्द्रा-
बौद्धों में एक बड़ी प्यारी परिपाटी है कि जब श्रद्धालु उपासक-उपासिकाएं धम्म कार्य के लिए एकत्रित होते हैं तो पूजा-वन्दना-परित्त की शुरूआत 'ओकास' से करते हैं। 
यह विनय का पारम्परिक अंग है कि यदि ऐसे अवसर पर कोई पूज्य भिक्खु या भिक्खुगण अथवा कोई बौद्ध आचार्य उपस्थित हैं तो उपासकगण सर्वप्रथम हाथ जोड़कर, भिक्खु अथवा आचार्य के सामने हो कर कहते हैं:

'ओकास!'

पारम्परिक रूप से पूरी गाथा कुछ इस तरह होती है:

ओकास! अहं भन्ते,

तिसरनेन सह पंचसीलं धम्मं याचामि। 
अनुग्गहं कत्वा सीलं देथ मे भन्ते।।

दुतियम्पि ओकास! अहं भन्ते,

तिसरनेन सह पंचसीलं धम्मं याचामि। 
अनुग्गहं कत्वा सीलं देथ मे भन्ते।।

ततियम्पि ओकास! अहं भन्ते,

तिसरनेन सह पंचसीलं धम्मं याचामि। 
अनुग्गहं कत्वा सीलं देथ मे भन्ते।।

इन गाथाओं में पहला शब्द है 'ओकास!', इसके बाद की पंक्ति में याचना है:

त्रिशरण और पंचशील सहित धम्म की याचना करता हूँ, अनुगृह कीजिए, भन्ते जी, शील प्रदान कीजिये।

दूसरी बार भी 'ओकास!',

फिर वही याचना और अनुगृह प्रार्थना।

और तीसरी बार भी 'ओकास!',

फिर उपरोक्तानुसार वही याचना और अनुगृह प्रार्थना।

यह याचना-प्रार्थना अनिवार्य रूप से सिर्फ भन्ते के लिए ही नहीं है बल्कि यदि कोई आचार्य हैं तब 'भन्ते' के स्थान पर 'आचरियो' शब्द का प्रयोग करेंगे, भिक्खुनी है तो 'अय्या' सम्बोधन प्रयोग करेंगे । यदि कोई भी नहीं है तब भगवान की प्रतिमा के सम्मुख यही याचना की जाती है। भारत के पारम्परिक बौद्ध समाजों में ये परम्पराएं जीवित हैं जैसे असम, अरुणाचल, मणिपुर, बंगाल, लद्दाख इत्यादि के बौद्ध समाजों में।अस्तु।
याचना की प्रक्रिया में सबसे प्यारा शब्द है- ओकास।
यह पालि भाषा का शब्द है जिसका सहज-सा अर्थ है- अवकाश।
पालि शब्दकोश में इसके और भी समानार्थी अर्थ दिये हैं- अनुज्ञा, अनुमति, स्थान, इजाज़त इत्यादि लेकिन मौलिक रूप से यह 'अवकाश' शब्द का पालि संस्करण है।
धम्म के जानकार से अवकाश मांगना अर्थात उससे समय मांगना। यदि इसे अंग्रेजी में कहें तो यह लगभग ऐसा होगा- Venerable Bhanteji, please give me time- पूज्य भन्ते जी, कृपया मुझे समय दीजिए।
समय ले कर बात करना, मुलाकात करना, इस परिपाटी की शुरूआत भगवान बुद्ध के द्वारा की गयी जो कि बौद्धों के समस्त धार्मिक विधानों का एक विनय है, अनिवार्य अंग है।
जैसे राह चलते किसी व्यक्ति से हमें कोई पता पूछना हो तो हम बड़ी विनम्रतापूर्वक पूछते हैं। सर्वप्रथम तो हम उस व्यक्ति का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं- भाई साहब या बहन जी, सर या मैडम कह कर उन्हें उन्हें अपनी ओर मुखातिब करते हैं...
यह जो अपनी ओर मुखातिब करना है, विनम्रतापूर्वक ध्यानाकर्षित करना है यही अवकाश मांगना है, यही ओकास है...
ओकास अथवा अवकाश का ठीक-ठीक अर्थ मात्र समय मांगना भी नहीं है क्योंकि 'समय' शब्द भी पहले से ही पालि भाषा में मौजूद है। यदि आशय मात्र समय मांगना भर होता तो 'समय! अहं भन्ते' ऐसा उद्बोधन होता न कि 'ओकास! अहं भन्ते'।
ओकास अथवा अवकाश की याचना का अर्थ मात्र समय मांगना भर भी नहीं है बल्कि सम्पूर्ण चेतना में अवकाश मांगना है, अपनी जिज्ञासा समाधान, अपनी स्वीकृति के लिए अवकाश मांगना है, अंग्रेजी में कहें तो स्पेस मांगना है। स्पेस में टाइम अन्तर्निहित है।
कोई व्यक्ति अपने विचारों में मग्न है, जाने क्या चिन्तनधारा चल रही है, हम उसे टोकते हैं, रोकते हैं- भाई साहब, कृपया मुझे...
इतना बोलते ही हम उसकी चिन्तनधारा में अवरोध पैदा करते हैं, लेकिन ऐसा हमारा इरादा नहीं होता, अवरोध पैदा करना मकसद नहीं होता, बल्कि अपना लक्ष्य पाना हमारी जरूरत और व्याकुलता होती है क्योंकि हम किसी पते के लिए भटक रहे हैं। इसीलिए हमारे सम्बोधन में विनम्रता होती है और हमारी देह भाषा- बाडी लैंग्वेज- में भी याचना होती है, क्योंकि हम पता भर नहीं पूछ रहे हैं बल्कि उसकी चिन्तनधारा में, उसकी चेतना में भी थोड़ा-सा अवकाश मांग रहे हैं। दरअसल पता पूछने से पहले अप्रत्यक्ष रूप से बिना कहे ही हम एक निवेदन और कर रहे हैं- भाई साहब, आप जिन विचारों या भावनाओं में संलग्न हैं कृपया उसे थोड़ी देर के लिए विराम दे कर मेरी तरफ ध्यान दीजिए। वास्तव में हम ऐसा कहते नहीं हैं लेकिन हमारा अप्रत्यक्ष आशय यह भी होता है। बस में, ट्रेन में सफर करते समय हमें बैठने की जगह चाहिए होती  है तब वह भी ओकास है, अवकाश मांगना है, जगह मांगना, बैठने का स्थान मांगना। तब भी हमारी भाषा, देह भाषा विनम्रतापूर्ण होती है।
यह तो एक लौकिक उदाहरण मात्र हैं। जब हम धम्म के मार्ग पर चलने को प्रतिबद्ध होते हैं, धम्म मार्ग का पता जानना चाहते हैं, धम्म के क्षेत्र में मार्गदर्शन चाहते हैं तब तो हमारी विनम्रता व याचना पराकाष्ठा की होनी चाहिए।
मात्र इतना ही नहीं बल्कि आगे की पंक्तियाँ और भी गहरा विनय प्रदर्शन करती हैं- अनुग्गहं कत्वा- मुझ पर अनुगृह कीजिए। मात्र एक बार नहीं, दो बार नहीं बल्कि ऐसी विनम्र याचना तीन बार करने की परिपाटी है। तीन बार इसलिए कि हम शरीर से, वाणी से और मन से 'तिसरनेन सह पंचसीलं धम्मं याचामि' अर्थात त्रिशरण सहित पंचशील और धम्म की याचना करता हूँ या करती हूँ...
आगे हम पुनः कहते हैं- अनुग्गहं कत्वा- अनुगृह कीजिए- सीलं देथ मे भन्ते- भन्ते जी, मुझे शील प्रदान कीजिये।
बुद्ध का धम्म दुनिया का अनूठा धर्म है जो धम्म के मार्ग पर चलने के लिए प्रथम स्थान शील को देता है, इस लिए बौद्ध पूजा पद्धति में कोई मंत्र नहीं मांगता, कोई आरती-भजन नहीं मांगता, कोई पंचामृत-चरणामृत नहीं मांगता, बल्कि पहला कदम है- पंचसीलं धम्मं याचामि- पंचशील व धम्म की याचना करता हूँ...
याचना करने से भी पहले हम अवकाश मांगते हैं, स्पेस चाहते हैं, ओकास...
किसी की जिन्दगी में स्पेस मिले बिना, अवकाश मिले बिना उससे हमारा कोई रिश्ता क़ायम नहीं हो सकता। धम्म के लिए अवकाश मांगना एक आध्यात्मिक रिश्ता क़ायम करता है।
हम जिससे याचना कर रहे हैं, और याचना भी पैसे-कौड़ी, धन-सम्पदा जैसी लौकिक चीज़ों के लिए नहीं है, बल्कि सर्वोत्तम रत्न धम्म की याचना कर रहे हैं, तो प्रदाता की चेतना में हमारे लिए अवकाश भी होना चाहिए, उनके दिल में हमारे लिए जगह भी होनी चाहिए, इसलिए सर्वप्रथम हम 'ओकास' कहते हैं, कि हमें अवकाश दीजिए, अपनी चेतना में, अपने मन में, अपने ह्रदय में जगह दीजिए... एकबार ह्रदय में जगह मिल जाए तो फिर सबकुछ मिल जाता है...
अंजलीबद्ध मेरे हाथ जब भगवान की प्रतिमा के सामने उठते हैं तो विकल स्वर में कह उठता हूँ- ओकास... भगवान, इस अकिंचन को अपने दिल में जगह दे दीजिए... आंखों में आंसू छलक आते हैं, तो जैसे प्रतिमा बोल पड़ती है- अप्पमादेन सम्पादेथ- अप्रमादपूर्वक धम्म का सम्पादन करो...
भगवान! ओकास...

शास्ता! ओकास
बिना आपके और
न कोई आस

रहे विश्वास
आपके चरणों का
मैं हूँ दास

करिये नाश
संसार बन्धनों के
काटिये पाश

जन्मों की प्यास
रूखा है कण्ठ मेरा
मन उदास

सारे प्रयास
आ जाऊँ भगवान
तुम्हारे पास

शास्ता! ओकास...

श्री राजेश चन्द्रा - एक परिचय


शैक्षिक और व्यवसायिक पृष्ठ्भूमि से मूलत: कम्प्यूटर इंजीनियर , मास कम्युनिकेशन और जर्नलिज्म मे डिप्लोमा धारक और उतर प्रदेश मे प्रथम श्रेणी अधिकारी पद पर कार्यरत राजेश चन्द्रा हिन्दी साहित्य के युवा हस्ताक्षर हैं । उनकी अब तक प्रकाशित कृतियां है , ’ पूजा का दिया ’ , साक्षी चेतना - अमृता प्रीतम , बुद्ध का चक्र्वर्ती साम्राज्य ’आदि ।
आप एक सक्रिय समाज सेवी , धम्म प्रचारक व ध्यान प्रशिक्षक भी हैं ।

।।104 साल बाद।।-राजेश चन्द्रा-

।।104 साल बाद।।
-राजेश चन्द्रा-



भगवान बुद्ध द्वारा प्रदत्त कम्मट्ठान अर्थात ध्यान-साधना के आलम्बन का निष्ठापूर्वक अभ्यास करते हुए लकुण्टक भद्दिय अरहत हो गये। वह भगवान का दर्शन करने आए। भगवान की वन्दना की। जब वह धम्मसभा से उठ कर जा रहे थे, बड़े मद्धम पगों से चलते हुए, तब भगवान ने उन्हें संकेतित करते हुए भिक्खुओं को सम्बोधित कर कहा: "पस्सथ भिक्खवे, अयं भिक्खु मातापितरो हन्त्वा निद्दुक्खो हुत्वा याति", वह देखो भिक्खुओं, यह भिक्खु माता-पिता की हत्या करके दुःख मुक्त हो गया है।"

"माता-पिता की हत्या करके यह भिक्खु दुःख मुक्त हो गया है", भगवान का यह कथन सुनकर सारे भिक्खु एक-दूसरे को हैरानी से देखने लगे।
वे इस गूढ़ कथन का अर्थ समझने का प्रयास कर ही रहे थे कि भगवान ने गाथाओं का संगायन करके और हैरान कर दिया:

मातरं पितरं हन्त्वा राजानो द्वे च खत्तिये।
रट्ठं सानुचरं हन्त्वा अनीघो याति ब्राह्मणो।।

- माता-पिता और दो क्षत्रिय राजाओं की हत्या कर तथा राष्ट्र को विनष्ट कर एवं अनुचर की हत्या करके ब्राह्मण निष्पाप होता है।

मातरं पितरं हन्त्वा राजानो द्वे च सोत्थिये।
वेय्यग्घपञ्चमं हन्त्वा अनीघो याति ब्रामणो।।

-माता-पिता और दो श्रोत्रिय राजाओं की हत्या कर तथा पांच बाघों की हत्या करके ब्राह्मण निष्पाप होता है।

इन गाथाओं को ठीक-ठीक शाब्दिक अर्थों में लिया जाय तो ये बड़ी भ्रमित करने वाली हैं। न केवल भ्रमित करने वाली बल्कि अर्थ का अनर्थ करने वाली भी। लेकिन भगवान का कथन प्रतीकात्मक है।
सम्पूर्ण त्रिपिटक में अनेकानेक प्रसंग ऐसे हैं जब भगवान प्रतीकों की भाषा में उपदेश करते हैं। दीघनिकाय का सीगाल सुत्त प्रतीकवाद का सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिक लोकप्रिय उदाहरण है जिसमें भगवान युवक सीगाल को छः दिशाओं के अर्थ समझाते हैं- पूर्व दिशा अर्थात माता-पिता, पश्चिम दिशा भार्या व बच्चे, उत्तर दिशा यानी मित्र एवं परिजन, दक्षिण दिशा अर्थात गुरू व आचार्य, नीचे की दिशा यानी अनुचर-परिचर-आश्रित तथा ऊपर की दिशा अर्थात अरहत-श्रमण। यह वह युवक है जो अपने दिवंगत पिता के कथनानुसार भोर में छः दिशाओं की वन्दना कर रहा था। भगवान ने उसे छः दिशाओं के प्रतीक अर्थ बताए और उनके सेवन की विस्तृत विधि बतायी। दीघनिकाय अर्थात दीर्घ यानी लम्बे प्रवचनों का संग्रह। यह सीगाल सुत्त दीघनिकाय में है। प्रतीकवाद की पराकाष्ठा देखना हो तो मज्झिम निकाय का वम्मीक सुत्त देखिये। उन प्रतीकों के अर्थ जान कर कुमार काश्यप अरहत हो गये।

यहाँ लकुण्टक भद्दिय के सन्दर्भ में इन गाथाओं को सुन कर भी धम्मसभा में बैठे भिक्खुओं में कोई स्रोतापन्न हो गया, कोई सकृतगामी, कोई अनागामी तो कोई अरहत। खुद्दकनिकाय के धम्मपद अट्ठकथा पकिण्णकवग्गो में की इन गाथाओं के सन्दर्भ में ऐसा ही उल्लेख है।

आचार्य अश्वघोष ने अट्ठकथाओं की टीकाओं में इन गाथाओं की बड़ी प्यारी और सटीक प्रतीक व्याख्या की है।
लकुण्टक भद्दिय को संकेतित करते हुए भिक्खुओं को सम्बोधित कर भगवान कहते हैं: "पस्सथ भिक्खवे, अयं भिक्खु मातापितरो हन्त्वा निद्दुक्खो हुत्वा याति", वह देखो भिक्खुओं, यह भिक्खु माता-पिता की हत्या करके दुःख मुक्त हो गया है।"

शब्दावली ध्यान देने योग्य है-"निद्दुक्खो हुत्वा" कि वह दुःख मुक्त हो गया है। और हुआ कैसे? माता-पिता की हत्या करके। माता-पिता कौन होते हैं? वे जन्मदाता होते हैं। आध्यात्मिक अर्थों में दुःख की जननी कौन है? दुःख की जननी तृष्णा है। दुःख का जनक कौन है? अस्मिमान अर्थात 'मैंपन' अथवा अस्मिता यानी अहंकार। तो दुःख के माता-पिता कौन हुए? माँ तृष्णा और पिता अहंकार।
अब इन प्रतीक अर्थों को सामने रख कर भगवान के कथन को देखिये:"अयं भिक्खु मातापितरो हन्त्वा निद्दुक्खो हुत्वा याति", यह भिक्खु माता-पिता की हत्या करके दुःख मुक्त हो गया है।" अर्थात तृष्णा और अहंकार की हत्या करके यह भिक्खु दुःख मुक्त हो गया है।
भगवान के द्वारा संगायित गाथाओं में माता-पिता, क्षत्रिय राजा, श्रोत्रिय राजा, राष्ट्र, अनुचर, बाघ, ब्राह्मण इन शब्दों का लौकिक अर्थ से कोई सम्बन्ध नहीं है। ये सारे आध्यात्मिक प्रतीक हैं।

माता= तृष्णा
पिता=अहंकार
दो क्षत्रिय राजा अथवा दो श्रोत्रिय राजा = शाश्वतवादी मिथ्या दृष्टि, उच्छेदवादी मिथ्यादृष्टि
राष्ट्र= पांच उपादान स्कन्ध
अनुचर=राग
पांच व्याघ्र= ज्ञान के पांच आवरण
ब्राह्मण= मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्खा इन चार ब्रम्ह विहारों में सुप्रतिष्ठित व्यक्ति

संसार का सारा प्रपंच, जन्म-जरा-मरण, रोग-शोक-दुःख के ये सारे कारक हैं। इन प्रतीकों को मन के सामने रख कर भगवान के द्वारा उपदेशित गाथाओं का अर्थ कीजिए:

मातरं पितरं हन्त्वा राजानो द्वे च खत्तिये।
रट्ठं सानुचरं हन्त्वा अनीघो याति ब्राह्मणो।।

- माता-पिता अर्थात तृष्णा व अहंकार और दो क्षत्रिय राजाओं यानी मिथ्या दृष्टि, उच्छेदवादी मिथ्यादृष्टि की हत्या कर तथा राष्ट्र अर्थात पांच उपादान स्कन्ध को विनष्ट कर एवं अनुचर अर्थात राग की हत्या करके ब्राह्मण निष्पाप होता है।

मातरं पितरं हन्त्वा राजानो द्वे च सोत्थिये।
वेय्यग्घपञ्चमं हन्त्वा अनीघो याति ब्रामणो।।

-माता-पिता अर्थात तृष्णा व अहंकार और दो क्षत्रिय राजाओं यानी मिथ्या दृष्टि, उच्छेदवादी मिथ्यादृष्टि की हत्या कर तथा पांच बाघों यानी ज्ञान के पांच आवरणों की हत्या करके ब्राह्मण निष्पाप होता है।

बौद्धिक रूप से अभी और विस्तृत व्याख्या की गुंजाइश है लेकिन भगवान के वचनों-कथनों के सटीक अर्थ ध्यानाभ्यास से समझ में आते हैं। यदि उस तल पर जा कर नहीं समझा तो अर्थ का अनर्थ कर देने या कर लेने का खतरा हमेशा विद्यमान रहता है। और तो और, बुद्ध वचनों की निन्दा-आलोचना का पापदोष का खतरा भी मंडराता है। यद्यपि भगवान बड़ी विनम्रता से कहते हैं- जैसे सोनार सोने को आग में तपा कर जांचता-परखता है ऐसे तुम मेरे वचनों यूँ ही मत मान लो, जांचों-परखो तब मानों। भगवान तो न्योता देते हैं- एहि पस्सिको- आओ और देखो।
भगवान के इस कथन का भी बौद्धिक लोग कभी-कभी अर्थ का अनर्थ लगाते हुए तर्क या विवेचना के बजाय कुतर्क करने लगते हैं। भगवान के इस कथन को भी गौर से देखिये- जैसे सोनार सोने को आग में तपाता है...
आग में तपाना यानी ध्यान की आग में तपाना, विपस्सना में तपना। 
ज्यादातर बौद्धिक लोग, इंटेलेक्चुअल लोग, ध्यान तो कभी करते नहीं और बुद्ध वचनों की विवेचना-विश्लेषण करने लगते हैं। नतीजा क्या होता है? अर्थ का अनर्थ होता है और बुद्ध वचनों के साथ खिलवाड़ का पापदोष लगता है, वह अलग। भगवान ने जांचने-परखने की खुली छूट दी है लेकिन सोनार की तरह, आग में तपा कर यानी ध्यान-साधना की आग में तपा कर परखिये। तब यदि दोष दिखे तो त्याज्य को त्याग दीजिए और ग्राह्य को गृहण कर लीजिये।
संयुक्त निकाय में दो बड़े प्यारे सुत्त हैं जो इस बार की अमावस्या और पूर्णिमा पर बड़े सामयिक हो गये हैं। सामयिक इन अर्थों में कि अभी 13 जुलाई'2018 को, अमावस्या के दिन, सूर्य ग्रहण पड़ा है तथा 27 जुलाई'2018 को, आषाढ़ पूर्णिमा के दिन, जिसे प्रचलित परम्परा में गुरू पूर्णिमा कहा जाने लगा है, 104 साल के बाद सदी का सबसे लम्बा चन्द्र ग्रहण पड़ेगा। एक पखवारे के अन्दर सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण की यह दुर्लभ खगोलीय घटना है जो सदियों में कभी-कभी होती है। इस अवसर पर बौद्ध देशों के श्रद्धालु उपोसथ धारण करने के साथ सूर्य ग्रहण पर सुरिय परित्त तथा चन्द्र ग्रहण पर चन्द परित्त का पाठ करते हैं। ये दोनों सुत्त सदियों से महापरित्राण पाठ का अनिवार्य अंग हैं।
अब यदि इन सुत्तों को भी ठीक-ठीक इनके शाब्दिक अर्थों में लिया जाए तो बौद्धिक लोगों के विवेचना-आलोचना का अच्छा विषय है। लेकिन यदि इनके प्रतीक अर्थों को देखा जाय तो सच में परित्त है अर्थात रक्षा है।
पहले इन सुत्तों को बिना प्रतीक अर्थों के यथारूप में देखते हैं। पहले चन्दपरित्तं( पालि):

एवं मे सुतं, एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डकस्स आरामे। तेन खो पन समयेन, चन्दिमा देवपुत्तो राहुना असुरिन्देन गहितो होति। अथ खो चन्दिमा देवपुत्तो भगवन्तं अनुस्सरमानो, तायं वेलायं इमं गाथं अभासि:

1. नमो मे बुद्धवीरत्थु विप्पमुत्तोसि सब्बधि। 
सम्बाधपटिपन्नोस्मिं तस्स मे सरणं भवाति।।

अथ खो भगव चन्दिमं देवपुत्तं आरब्भ राहुं असुरिन्दं गाथाय अज्झभासि:

2. तथागतं अरहन्तं चन्दिमा सरणं गतो।
राहुं चन्दं पमुञ्चस्सु बुद्धा लोकानुकम्पकाति।।

अथ खो राहु असुरिन्दो चन्दिमं देवपुत्तं मुञ्चित्वा तरमानरूपो येन वेपचित्ति असुरिन्दो तेनुपसंकमि, उपसंकमित्वा संविग्गो लोमहट्टजातो एकमन्तं अट्ठासि; एकमन्तं ठितं खो राहुं असुरिन्दं वेपचित्ति असुरिन्दो गाथाय अज्झभासि:

3. किन्नुसन्तरमानोव राहु चन्दं पमुञ्चसि।
संविग्गरूपो आगम्म किन्नुभीतोव तिट्ठति'ति।।

4. सत्तधा मे फले मुद्धा जीवन्तो न सुखं लभे। 
बुद्धगाथाभिगीतोम्हि नो चे मुञ्चेय चन्दिमन्ति।।

चन्द्र परित्राण(हिन्दी अनुवाद):

ऐसा मैंने सुना। एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन आराम में विहार करते थे। उस समय देवपुत्र चन्द्रमा को असुरेन्द्र राहु ने पकड़ लिया था। तब देवपुत्र चन्द्रमा ने भगवान को स्मरण करते हुए यह गाथा कहा:

1. हे बुद्धवीर! आपको मेरा नमस्कार है, आप सर्वप्रकार से विमुक्त हैं, मैं भारी विपत्ति में पड़ा हूँ, अतः आप मुझे अपनी शरण दीजिये। 

तब भगवान ने देवपुत्र चन्द्रमा के लिए असुरेन्द्र राहु को गाथा में यह कहा:

2. हे असुरेन्द्र राहु! देवपुत्र चन्द्रमा अरहत तथागत के शरणागत हुए हैं। बुद्ध लोकानुकम्पी हैं। आप देवपुत्र चन्द्रमा को मुक्त कर दीजिये।

तब असुरेन्द्र राहु ने देवपुत्र चन्द्रमा को छोड़कर घबराए हुए मन से जहाँ असुरेन्द्र वेपचित्री थे, वहाँ पहुँचे। पहुँच कर संविग्न और रोमांचित हो कर एक ओर खड़े हो गये। एक ओर खड़े हुए असुरेन्द्र राहु को असुरेन्द्र वेपचित्री ने गाथाओं में कहा:

3. हे असुरेन्द्र राहु! घबराए हुए मन से तुमने देवपुत्र चन्द्रमा को छोड़ क्यों दिया? संविग्न और भयभीत होकर यहाँ आकर क्यों खड़े हुए हो?

4. देवपुत्र चन्द्रमा को छोड़ देने का आदेश बुद्ध ने गाथाओं में दिया है। यदि देवपुत्र चन्द्रमा को न छोड़ते तो मेरे सिर के सात टुकड़े हो जाते और सुख से जीना मुश्किल हो जाता।

और अब सुरियपरित्तं(पालि):

एवं मे सुतं, एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डकस्स आरामे। तेन खो पन समयेन, सुरियो देवपुत्तो राहुना असुरिन्देन गहितो होति। अथ खो सुरियो देवपुत्तो भगवन्तं अनुस्सरमानो, तायं वेलायं इमं गाथं अभासि:

1. नमो मे बुद्धवीरत्थु विप्पमुत्तोसि सब्बधि। 
सम्बाधपटिपन्नोस्मिं तस्स मे सरणं भवाति।।

अथ खो भगव सुरियं देवपुत्तं आरब्भ राहुं असुरिन्दं गाथाय अज्झभासि:

2. तथागतं अरहन्तं सुरियो सरणं गतो।
राहुं सुरियं पमुञ्चस्सु बुद्धा लोकानुकम्पकाति।।

3. यो अन्धकारे तमसी पभंकरो 
वेरोचनो मण्डली उग्गतेजो ।
मा राहु गिली चरं अन्तलिक्खे
पजं मम राहु पमुञ्च सूरियन्ति।।

अथ खो राहु असुरिन्दो सुरियं देवपुत्तं मुञ्चित्वा तरमानरूपो येन वेपचित्ति असुरिन्दो तेनुपसंकमि, उपसंकमित्वा संविग्गो लोमहट्टजातो एकमन्तं अट्ठासि; एकमन्तं ठितं खो राहुं असुरिन्दं वेपचित्ति असुरिन्दो गाथाय अज्झभासि:

3. किन्नुसन्तरमानोव राहु सुरियं पमुञ्चसि।
संविग्गरूपो आगम्म किन्नुभीतोव तिट्ठति'ति।।

4. सत्तधा मे फले मुद्धा जीवन्तो न सुखं लभे। 
बुद्धगाथाभिगीतोम्हि नो चे मुञ्चेय सूरितन्ति।।

सूर्य परित्राण(हिन्दी अनुवाद) :

ऐसा मैंने सुना। एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन आराम में विहार करते थे। उस समय देवपुत्र सूर्य को असुरेन्द्र राहु ने पकड़ लिया था। तब देवपुत्र सूर्य ने भगवान को स्मरण करते हुए यह गाथा कहा:

1. हे बुद्धवीर! आपको मेरा नमस्कार है, आप सर्वप्रकार से विमुक्त हैं, मैं भारी विपत्ति में पड़ा हूँ, अतः आप मुझे अपनी शरण दीजिये। 

तब भगवान ने देवपुत्र सूर्य के लिए असुरेन्द्र राहु को गाथा में यह कहा:

2. हे असुरेन्द्र राहु! देवपुत्र सूर्य अरहत तथागत के शरणागत हुए हैं। बुद्ध लोकानुकम्पी हैं। आप देवपुत्र सूर्य को मुक्त कर दीजिये।

3. जो काले अन्धकार में प्रकाशित होता है, वैरोचन आभा वलय के साथ उग्रतेज हो अन्तरिक्ष में विचरण करता है। हे राहु! ऐसे सूर्य को ग्रसित न करो। राहु! मेरे शरणागत हुए मेरे पुत्र सूर्य को छोड़ दो।

तब असुरेन्द्र राहु ने देवपुत्र सूर्य को छोड़कर घबराए हुए मन से जहाँ असुरेन्द्र वेपचित्री थे, वहाँ पहुँचे। पहुँच कर संविग्न और रोमांचित हो कर एक ओर खड़े हो गये। एक ओर खड़े हुए असुरेन्द्र राहु को असुरेन्द्र वेपचित्री ने गाथाओं में कहा:

3. हे असुरेन्द्र राहु! घबराए हुए मन से तुमने देवपुत्र सूर्य को छोड़ क्यों दिया? संविग्न और भयभीत होकर यहाँ आकर क्यों खड़े हुए हो?

4. देवपुत्र सूर्य को छोड़ देने का आदेश बुद्ध ने गाथाओं में दिया है। यदि देवपुत्र सूर्य को न छोड़ते तो मेरे सिर के सात टुकड़े हो जाते और सुख से जीना मुश्किल हो जाता।

प्रथमदृष्ट्या लगता है कि हम कोई पौराणिक मिथकीय आख्यान पढ़ या सुन रहे हैं। असुरेन्द्र राहु से ग्रसित चन्द्रमा और सूर्य भगवान बुद्ध की शरण में आए हैं, हाथ जोड़ कर मुक्त किये जाने की प्रार्थना कर रहे हैं और भगवान असुरेन्द्र राहु को चन्द्र एवं सूर्य को मुक्त कर देने के लिए आदेशित करते हैं, फिर असुरेन्द्र राहु घबरा कर उन्हें मुक्त भी कर देते हैं। पूरा प्रसंग मिथकीय कथानक जैसा लग रहा है।
दरअसल ये दो खगोलीय घटनाएं हैं- चन्द्र ग्रहण की और सूर्य ग्रहण की जिनको पृष्ठभूमि में रख कर इन दो प्रतीक सुत्तों की रचना हुई है। काव्य शास्त्र के अनुसार इसमें मानवीकरण अलंकार का प्रयोग हुआ है जिसे अंग्रेजी में परसोनीफिकेशन(personification) कहते हैं। यहाँ सूर्य-चन्द्र, राहु, वेपिचित्र का मानवीकरण कर दिया गया है और इसके बहाने बड़ा गहरा संदेश दिया गया है। वह संदेश पकड़ पाये तो समझिये इन सुत्तों का पाठ अथवा श्रवण सार्थक हुआ अन्यथा यह भी अंधश्रद्धा का कारक है।

प्रसंग श्रावस्ती का है। भगवान ने श्रावस्ती में अपने जीवन के सर्वाधिक वर्षावास श्रावस्ती में किये- पच्चीस वर्षावास। वर्षावास जिसे अब चौमासा कहा जाता है, चार महीने का प्रवास होता है। चार महीने में कम से कम चार पूर्णिमा पड़ती हैं, चार अमावस्या पड़ती हैं, कृष्णपक्ष की चार अष्टमियां और शुक्लपक्ष की चार अष्टमियां। चार को पच्चीस से गुणा करें तो सौ होता है। सिर्फ श्रावस्ती के वर्षावासों की गणना करें तो भगवान के वर्षावास काल में सौ पूर्णिमाएं और सौ अमावस्याएं पड़ीं श्रावस्ती प्रवास के दौरान पड़ीं। सूर्य ग्रहण अथवा चन्द्र ग्रहण जब भी पड़ता है तो पूर्णिमा अथवा अमावस्या को ही पड़ता है। इन सौ पूर्णिमाओं एवं सौ अमावस्याओं की अवधि में कई-कई बार चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण पड़े होंगे। खगोलविज्ञानियों के लिए यह शोथ का रोचक विषय भी है कि भगवान के पूरे जीवनकाल में कितनी बार सूर्य अथवा चन्द्र ग्रहण पड़ा।
निश्चित ही ये ऐसे ही किसी अवसर का है जब सूर्य ग्रहण पड़ा और चन्द्र ग्रहण पड़ा।
भगवान अरहत हैं, सम्यक सम्बुद्ध हैं। वह बड़े उपायकौशल से सांसारिक संवाद को भी आध्यात्मिक अर्थ दे देते हैं। एकबार भिक्खुगण आपस में एक उबड़-खाबड़ भूमि की चर्चा कर रहे थे कि अमुक भूमि रमणीय है अथवा नहीं है तो भगवान ने सारी वार्ता सुनकर कहा- जहाँ श्रमण रमण करते हैं वही भूमि रमणीय है। एकबार भिक्खुगण एक झोपड़ी की चर्चा कर रहे थे कि वहाँ बारिश में पानी टपकता है जहाँ वे साधनारत थे तब उस अवसर पर भी भगवान ने कहा:

यथागारं दुच्छन्नं वुट्ठी समतिविज्झति।
एवं अभावितं चित्तं रागो समतिविज्झति।।

-यदि घर की छत में छेद हों, तो जैसे उसमें बारिश का पानी आ जाता है, ऐसे ही संयमरहित चित्त में राग प्रविष्ट हो जाता है।

यथागारं सुच्छन्नं वुट्ठी न समतिविज्झति।
एवं सुभावितं चित्तं रागो न समतिविज्झति।।

-यदि घर की छत में छेदरहित हो, तो जैसे उसमें बारिश का पानी नहीं आ पाता, उसी प्रकार संयमित चित्त में राग प्रविष्ट नहीं होता।

इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान हर अवसर को अन्तर्मुखी अर्थ दे देते हैं। पच्चीस वर्षावासों की लम्बी अवधि में किसी अवसर पर घटित चन्द्र ग्रहण एवं सूर्य ग्रहण पर प्रस्तुत भगवान ने चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण के बहाने एक गहरा आध्यात्मिक संदेश दिया है।
एक बात और ध्यान देने की है कि जब भगवान उपासकों से सांकेतिक, प्रतीकात्मक संवाद करते हैं तो संकेतों का अर्थ भी विस्तार से बताते हैं जैसे युवक सीगाल के प्रसंग में, लेकिन जब वे साधना में परिपक्व भिक्खुओं से वार्ता करते हैं तब संकेतों व प्रतीकों को प्रायः अव्याख्यायित ही छोड़ देते हैं। वे साधना में परिपक्व लोग थे जो संक्षेप व संकेत में कही बात का भी अर्थ जान लेते थे। ये चंदपरित्त एवं सुरियंपरित्त का संवाद भिक्खुओं के सम्मुख है इस लिए इसका अर्थविस्तार नहीं है।
आध्यात्मिक अर्थों में चन्द्र हमारे मन का प्रतीक है और सूर्य हमारी चेतना का तथा राहु समस्त अकुशल वृत्तियों का प्रतीक है। आज खगोलविज्ञानी भी इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं कि चन्द्रमा की कलाओं के साथ हमारे मन की हलचलों का गहरा सम्बन्ध है। पूर्णिमा के दिन पागलपन के दौरे ज्यादा पड़ते हैं। उस दिन तनाव-अवसाद-उन्माद, आत्महत्या-हत्या की घटनाएं अधिक होती हैं। पूर्णिमा के दिन समन्दर में ज्वारभाटा ज्यादा आता है। इसी प्रकार सूर्य के साथ हमारी चेतना के उतार-चढ़ाव का गहन सम्बन्ध है। सूर्य के धब्बों की संख्या बढ़ने पर धरती पर उथल-पुथल बढ़ जाती है, युद्ध, आँधी-तूफ़ान, बाढ़ इत्यादि की घटनाएं अधिक होती हैं। दोनो महायुद्धों के समय सूर्य धब्बों की संख्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ी हुई थी।
हमारे आध्यात्मिक जीवन में भी ऐसा होता है कि कभी-कभी हमारा चन्द्रमा रूपी मन मोह ग्रसित हो जाता है, समस्त नकारात्मक तरंगें घेर लेती हैं अर्थात हमारे मन को चन्द्र ग्रहण लग जाता है। कभी-कभी हमारी चेतना समस्त अंधकार से भर जाती है, अपना ही हित-अहित नहीं सूझता है। यानी कि हमारी चेतना को सूर्य ग्रहण लग गया, हमें अकुशल वृत्तियों के राहु ने ग्रसित कर लिया। हमारी चेतना मोह ग्रसित, लोभ ग्रसित, काम ग्रसित हो जाती है। ऐसे अवसर पर अपने अंतर के बुद्धत्व की शरण में जाना ही अंतिम उपाय है। यही है बुद्धं सरणं गच्छामि। बुद्ध के शरणागत होने पर ही हमारी चेतना, हमारा मन नकारात्मक वृत्तियों के राहु से मुक्त होता है। यही है ग्रहण से मुक्ति।
इस सुत्त में करुमामय भगवान कहते हैं"पजं मम राहु पमुञ्च सूरियन्ति- राहु! सूर्य मेरा पुत्र है, उसे छोड़ दो।"

जैसे रोते हुए बच्चे को जब मां अपने सीने से लगा लेती है तो वह चुप हो जाता है, अपने को सुरक्षित पाता है, राहत महसूस करता है ऐसे ही सूर्य को यानी हमारी चेतना, हमारे मन को भगवान अपना पुत्र कह रहे हैं। जब हम बच्चे की तरह उनके शरणागत होते हैं यानी अपने अंतर के बुद्धत्व की शरण जाते हैं तो हमारा परित्राण होता है। परित्राण अर्थात रक्षा, इसी को पालि भाषा में परित्त कहते हैं। क्योंकि हमारी चेतना, हमारा मन परमचैतन्य हमारे बुद्धत्व का ही अंश है इन अर्थों में वे बुद्धपुत्त हैं।
आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन भगवान ने पंच भिक्खुओं को दीक्षा दी थी- कौण्डिण्य, वप्प, भद्दिय, अस्सजी, महानाम को। भारत के आध्यात्मिक इतिहास में उस दिन पहली बार गुरु-शिष्य परम्परा का शुभारम्भ हुआ। भगवान बुद्ध को लोकगुरू कहा गया है इस कारण आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा भी कहते हैं। इस पूर्णिमा की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज हर धार्मिक पंथ में यह पूर्णिमा 'गुरू पूर्णिमा' के रूप में स्थापित हो गयी है।
104 साल के बाद यह अद्भुत संयोग बना है कि आषाढ़ पूर्णिमा के दिन पूर्ण चन्द्र ग्रहण पड़ रहा है- 235 मिनट का अर्थात लगभग 3 घण्टा 54 मिनट का यानी लगभग चार घण्टा। बौद्ध उपासक-उपासिकाएं इस दिन उपोसथ धारण करें, ध्यान-साधना करें, दान-पुण्य करें और आध्यात्मिक अर्थों को धारण करते हुए चंदपरित्त का पाठ करें। बौद्ध जगत में ऐसी आस्था है कि ऐसे दुर्लभ अवसर पर इस परित्त का पाठ करने से लम्बित कार्य अविलम्ब हो जाते हैं, कारागार से मुक्ति मिलती है, लम्बी बीमारियों से मुक्ति मिलती है। आस्थाएं अपनी जगह हैं लेकिन सही अर्थों को धारण करने से अज्ञान से मुक्ति तो मिलती ही है। यही तो वास्तविक परित्राण है। 

आलवक यक्ष ने भगवान से प्रश्न किया:"किसूधं वित्तं पुरिसस्स सेट्ठं- मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ धन क्या है?"
भगवान ने उत्तर दिया:"सद्धीध वित्तं पुरिसस्स सेट्ठं- श्रद्धा ही मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ धन है।"
अर्थ को समझ कर धम्म धारण किया जाए तो ही श्रद्धा फलीभूत होती है अन्यथा यही श्रद्धा अंधश्रद्धा बन जाती है। श्रद्धा से धम्म को धारण करें इसी में परित्राण है।

श्री राजेश चन्द्रा - एक परिचय


शैक्षिक और व्यवसायिक पृष्ठ्भूमि से मूलत: कम्प्यूटर इंजीनियर , मास कम्युनिकेशन और जर्नलिज्म मे डिप्लोमा धारक और उतर प्रदेश मे प्रथम श्रेणी अधिकारी पद पर कार्यरत राजेश चन्द्रा हिन्दी साहित्य के युवा हस्ताक्षर हैं । उनकी अब तक प्रकाशित कृतियां है , ’ पूजा का दिया ’ , साक्षी चेतना - अमृता प्रीतम , बुद्ध का चक्र्वर्ती साम्राज्य ’आदि ।
आप एक सक्रिय समाज सेवी , धम्म प्रचारक व ध्यान प्रशिक्षक भी हैं ।

Sunday, August 5, 2018

।।दर्पण।। - श्री राजेश चन्द्रा-

।।दर्पण।।
-राजेश चन्द्रा-
बौद्ध विनय के मुताबिक सौन्दर्य प्रसाधन के सामान साथ में रखना भिक्खुओं के लिए निषिद्ध है लेकिन एक युवा भिक्खु अपने झोले में हमेशा एक दर्पण रखता था। उसके साथी गुरुभाई ने गुरूजी से शिकायत कर दी कि अमुक भिक्खु अपने झोले में दर्पण रखता है। गुरूजी ने युवक को बुलाया, पूछा- सुना है तुम अपने पास दर्पण रखते हो?
युवक ने पूरे आत्मविश्वास से झट से दर्पण झोले से निकाल कर दिखाते हुए कहा- जी गुरूजी, रखता हूँ।
गुरूजी ने कहा- क्या तुम्हें नहीं मालूम कि सौन्दर्य प्रसाधन के सामान भिक्खुओं के लिए निषिद्ध हैं?
भिक्खु ने कहा- जी, मालूम है।
गुरूजी ने पूछा- फिर क्यों रखते हो?
युवक ने बड़ी मासूमियत से कहा- गुरूजी, इसका प्रयोग मैं मुसीबत के समय करता हूँ।
गुरूजी ने हैरानी से पूछा- मुसीबत के समय? वह कैसे?
युवक ने उत्तर दिया- जब मैं किसी मुसीबत, परेशानी में होता हूँ, तब इस इस दर्पण में देखता हूँ। इसमें मुझे अपनी मुसीबत-परेशानी का कारण दिखायी दे जाता है।
गुरूजी आशीष की मुद्रा में मुस्करा रहे थे कि युवक ने अपनी बात पूरी की- और गुरूजी, अपनी मुसीबत-परेशानी के निवारण का उपाय भी दिख जाता है...

श्री राजेश चन्द्रा - एक परिचय

शैक्षिक और व्यवसायिक पृष्ठ्भूमि से मूलत: कम्प्यूटर इंजीनियर , मास कम्युनिकेशन और जर्नलिज्म मे डिप्लोमा धारक और उतर प्रदेश मे प्रथम श्रेणी अधिकारी पद पर कार्यरत राजेश चन्द्रा हिन्दी साहित्य के युवा हस्ताक्षर हैं । उनकी अब तक प्रकाशित कृतियां है , ’ पूजा का दिया ’ , साक्षी चेतना - अमृता प्रीतम , बुद्ध का चक्र्वर्ती साम्राज्य ’आदि ।
आप एक सक्रिय समाज सेवी , धम्म प्रचारक व ध्यान प्रशिक्षक भी हैं ।