Saturday, June 22, 2013

श्री स. ना. गोयन्का द्वारा दस दिवसीय विपश्थना ध्यान विधि के आडियो एवं पी.डी.एफ़. लिंक

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श्री स. ना. गोयन्का द्वारा विपश्थना ध्यान विधि पर उपदेश को यहाँ से डाऊनलॊड किया जा सकता है। हिन्दी भाषा में उपदेश को डाऊनलोड करने के लिये पृष्ठ की १४ वीं कडी को चुनें  । हिन्दी के अतिरिक्त यह मराठी , बंगाली, अंगेजी, कन्नड, मलयालम , पंजाबी, तेलेगु और तमिल भाषा में भी उपलब्ध है ।

यह प्रवचन PDF में भी उपलब्ध हैं , डाऊनलोड करने के लिये यहाँ जायें

10 Day Discourses - MP3 Audio Download

Publisher: Pariyatti Digital Editions

Product Type: MP3 Audio

Description

All eleven Dhamma discourses given by S.N. Goenka during a ten-day meditation course. Includes chanting from the closing session on Day 11. Available in more than 40 languages. Hindi and English are spoken by S.N. Goenka - other languages are translations.

These discourses are also available in a book, "Discourse Summaries of S. N. Goenka".

Friday, June 21, 2013

Meditation reduces the risk of DEPRESSION in schoolchildren

  • Children taught 'mindfulness' have lower stress levels
  • Mindfulness is a meditative technique used to focus awareness on a particular thought or object
  • The practice was also shown to improve pupils'  school results

Children who are taught meditation are less likely to develop depression, a new study has revealed.

Teaching children a form of meditation called ‘mindfulness’ – a psychological technique which focuses awareness and attention – can reduce a pupil's stress levels meaning their mental health improves.

The technique can also improve their academic performance, the researchers found.

Teaching children 'mindfulness' - a technique which focuses the attention - can reduce their stress levels meaning their mental wellbeing improves

Teaching children 'mindfulness' - a technique which focuses the mind - can reduce their stress levels which in turn improves their mental health

Scientists at the University of Exeter, the University of Oxford, the University of Cambridge and the Mindfulness in Schools Project (MiSP), taught 256 pupils aged between 12 and 16 the MiSP curriculum.

The curriculum involved teaching the children nine lessons in how to better control their stress levels by directing what they focused their attention on.

This involved them recognising what it was that caused them to become stressed, and challenging their difficult emotions.

Professor Willem Kuyken of the University of Exeter, who led the study, claims that intervening to reduce stress levels in pupils by using techniques usually given to adults improves their mental health and academic performance.

He said: ‘We found that those young people who took part in the programme had fewer low-grade depressive symptoms, both immediately after completing the programme and at three-month follow-up.

‘This is potentially a very important finding, given that low-grade depressive symptoms can impair a child's performance at school, and are also a risk factor for developing adolescent and adult depression.’

It is important to find novel ways of boosting performance in schools at a time of budget cuts and other pressures explained Professor Katherine Weare, who was involved in implementing the lessons.

The technique can also improve their academic performance because they are more likely to do well academically if they are not depressed

The technique can also improve their academic performance because they are more likely to do well academically if they are not depressed

She said: ‘These findings are likely to be of great interest to our overstretched schools which are trying to find simple, cost effective, and engaging ways to promote the resilience of their students - and of their staff too - at times when adolescence is becoming increasingly challenging, staff are under considerable stress, and schools under a good deal of pressure to deliver on all fronts.

‘This study demonstrates that mindfulness shows great promise in promoting wellbeing and reducing problems - which is in line with our knowledge of how helpful well designed and implemented social and emotional learning can be.

‘The next step is to carry out a randomised controlled trial into the MiSP curriculum, involving more schools, pupils and longer follow-ups.’

However, teaching children to focus on their emotions is tough, according to the curriculum's co-creator, Richard Burnett.

He said: ‘Our mindfulness curriculum aims to engage even the most cynical of adolescent audiences with the basics of mindfulness.

‘We use striking visuals, film clips and activities to bring it to life without losing the expertise and integrity of classic mindfulness teaching.’
Around 80 per cent of the pupils said that they carried on using the techniques after the curriculum finished.'

Source : Daily Mail

Thursday, June 20, 2013

सिद्धांत की परिभाषा

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भगवान गौतम बुद्ध उस समय वैशाली में थे। उनके धर्मोपदेश जनता बड़े ध्यान से सुनती और अपने आचरण में उतारने का प्रयास करती थी। बुद्ध का विशाल शिष्य वर्ग भी उनके वचनों को यथासंभव अधिकाधिक लोगों तक पहुंचाने के सत्कार्य में लगा हुआ था। एक दिन बुद्ध के शिष्यों का एक समूह घूम-घूमकर उनके उपदेशों का प्रचार कर रहा था कि मार्ग में भूख से तड़पता एक भिखारी दिखाई दिया।
उसे देखकर बुद्ध के एक शिष्य ने उसके पास जाकर कहा- अरे मूर्ख! इस तरह क्यों तड़प रहा है? तुझे पता नहीं कि तेरे नगर में भगवान बुद्ध पधारे हुए हैं। तू उनके पास चल, उनके उपदेश सुनकर तुझे शांति मिलेगी। भिखारी भूख सहन करते-करते इतना शक्तिहीन हो चुका था कि वह चलने में भी असमर्थ था।
सायंकाल उस शिष्य ने तथागत को इस प्रसंग से अवगत कराया। तब बुद्ध स्वयं भिखारी के पास पहुंचे और उसे भरपेट भोजन करवाया। जब भिखारी तृप्त हो गया तो वह सुख की नींद सो गया। शिष्य ने आश्चर्यचकित हो पूछा- भगवन्! आपने इस मूर्ख को उपदेश तो दिया ही नहीं,बल्कि भोजन करा दिया। भगवान बुद्ध मुस्कराकर बोले- वह कई दिनों से भूखा था। इस समय भरपेट भोजन कराना ही उसके लिए सबसे बड़ा उपदेश है। भूख से तड़पता मनुष्य भला धर्म के मर्म को क्या समझेगा?
कथा का सार यह है कि प्रत्येक सिद्धांत अथवा सर्वस्वीकृत आचरण सभी परिस्थितियों में लागू नहीं होता। परिस्थिति के अनुसार उसका पालन, अपालन या परिवर्तन मान्य किया जाना ही श्रेष्ठ आचरण है।

साभार : I Am Proud To Be A "Buddhist"

Wednesday, June 19, 2013

बौद्ध दर्शन के विकास व विनाश के षड़यंत्रों की साक्षी रही पहली सहस्राब्दी

बौद्ध दर्शन के विकास व विनाश के षड़यंत्रों की साक्षी रही पहली सहस्राब्दी
  • डा। तुलसी राम
पूर्वप्रकाशित और पुन:प्रकाशित साभार सहित  : जन विकल्प
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बुद्ध का चक्रवर्ती साम्राज्य ( चित्र को साफ़ देखने के लिये चित्र पर किल्क करें )
विगत् कुछ वर्षों में यूरोप तथा अमरीका के हजारों रोमन कैथोलिकों ने बौद्ध धर्म अपनाया है, जिनमें इटली के विश्व प्रसिद्ध फुटबाल खिलाड़ी राबर्टो बज्जियो तथा हालीबुड के सुपर स्टार रिचार्ड गेरे भी शामिल हैं। पिछले दिनों रोम के एक अखबार को दिये गये साक्षात्कार में सोवियत संघ के पूर्व राष्ट्रपति गोर्वाचोव ने ठीक ही कहा 'इक्कीसवीं सदी बुद्ध की सदी होगी।
मैंने तुझे नौका दी थी नदी पार करने के लिए न कि पार होने के बाद सिर पर ढोने के लिए।` बुद्ध की इस उक्ति से उनके तर्क-संगत दर्शन की साफ झलक मिल जाती है। उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण शिक्षा यह थी कि सत्य को पहले तर्क की कसौटी पर परखो, फिर उसमें विश्वास करो। इसे उन्होंने अपनी शिक्षाओं पर भी लागू किया। उन्होंने साफ कहा कि मेरी बात इसलिए नहीं मानो कि मैं स्वयं (बुद्ध) कह रहा हूं, बल्कि 'सत्य हो` तभी मानो। अब तक इस धरती पर किसी दार्शनिक या ईश्वर ने अपने बारे में ऐसा नहीं कहा।
ढाई हजार वर्ष पूर्व जब बुद्ध के विचार विकसित हुए उस समय भारत में कुल ६२ विचारधाराओं के मत केन्द्र प्रचलित थे, जिनमें ऊंच-नीच पर आधारित वैदिक विचारधारा सर्वोपरि थी। इस तथ्य की ज्वलंत पुष्टि संघ परिवार द्वारा शासित गुजरात के नवीं कक्षा के 'सामाजिक अध्ययन` नाम पाठ्यक्रम से होती है, जिसमें कहा गया है : 'वर्ण-व्यवस्था आर्यों द्वारा मानव जाति को दिया गया एक अमूल्य उपहार है।` यदि सही मायनों में देखा जाए तो इसी ऊंची-नीच पर आधारित वर्ण व्यवस्था के विरोध में तथागत् बुद्ध का दर्शन विकसित हुआ। यही कारण था कि आर्य संस्कृति की रक्षा करने का नारा देने वाले तत्वों ने हर सदी में बौद्ध धर्म को नष्ट करने का षड्यंत्र जारी रखा। इसी षड्यंत्र के तहत आज का 'संघ परिवार` स्कूली पाठ्यक्रमों में आर्य संस्कृति का गुणगान करते हुए एक तरफ वर्ण व्यवस्था को न्यायोचित ठहरा रहा है, तो दूसरी ओर बौद्ध धर्म को रोकने का प्रयास कर रहा है।
यदि विश्व स्तर पर देखा जाय तो बुद्ध के समय में चीन में कनफ्यूसियस विचार तथा ईरान में जोरोस्टर या जर्तुस्ती विचारधारा का बोलबाला था। बाकी दुनिया ग्रीस को छोड़कर लगभग विचार शून्य ही थी। उस समय भारत सैकड़ों रियासतों में बंटा हुआ था तथा हर एक दूसरे के खून के प्यासे थे। स्वयं बुद्ध के पिता शक्यवंशीय शुद्दोधन की राजधानी कपिलवस्तु हमेशा से पासवर्ती राज्य कोसल के निशाने पर थी। अंततोगत्वा कोसल के राजा विदुदाभ ने शाक्यों को बर्बाद कर दिया तथा बुद्ध की प्रिय स्थली श्रावस्ती के राजा प्रसेनजित् को अपने ही बेटे ने पदच्युत कर दिया। प्रसेनजित बुद्ध के प्रशंसक मगध सम्राट अजातशत्रु से सहायता के लिए भागा, किन्तु रास्ते में ही मर गया। एक तरफ ऐसा अशांत वातावरण तो दूसरी ओर जिसे आर्य संस्कृति कहा जाता है, उसके तहत वर्ण व्यवस्था-जन्य ऊंच-नीच का भेदभाव, वैदिक कर्मकाण्डों के चलते हजारों पशुओं, जिनमें गाय भी शामिल थी, की बलि, नरबलि, घातक हथियारधारी भगवानों का भय, पुनर्जन्म का मिथकीय आविष्कार, आत्मा का अमरत्व, अंधविश्वास तथा युद्धोन्माद आदि का बोलबाला था। तथागत् बुद्ध के दर्शन ने इन्हीं मान्यताओं के विरूद्ध शीघ्र ही एक विश्वव्यापी आंदोलन का रूप ले लिया। हैरत सिर्फ इस बात पर होती है कि बुद्ध का यह महान दर्शन चीन, जापान, श्रीलंका, वर्मा, थाईलैंड, वियतनाम, कम्बोडिया, लाओस, मध्य एशिया, साइबेरिया समेत लगभग समस्त एशिया, तथा दुनिया के अन्य लाखों लोगों के बीच आज भी विकासमान है, किन्तु सदियों पहले अपनी जन्मभूमि भारत में क्यों विलुप्त हो गया? हकीकत यह है कि आर्य संस्कृति के पालकों ने भारत में बौद्ध धर्म की हत्या कर दी। आज बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रभाव से पीड़ित होकर आर्य-पूजक लोग उसे हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग सिद्ध करने का विश्वव्यापी अभियान चला रहे हैं। यहां प्रश्न यह उठता है कि यदि हिन्दू धर्म तथा बौद्ध धर्म एक हैं, तो फिर विश्व भर के लोगों ने बौद्ध धर्म के बदले हिन्दू धर्म को क्‍यों नहीं अपनाया? जाहिर है, वर्ण व्यवस्था तथा ऊंच-नीच के कारण हिन्दू धर्म कहीं और नहीं फैला। विदेशों में यह सिर्फ प्रवासी भारतीयों तक सीमित है। एक समय था जब दुनिया की एक-तिहाई आबादी बौद्ध थी। अनेक हिन्दू इतिहासकार यह दावा पेश करते हैं कि अफ्रीकी देश मारीशस हिन्दू देश है किन्तु वहां वर्ण व्यवस्था नहीं है। इस संदर्भ में सर्वाधिक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि करीब १७० वर्ष पहले अंग्रेजों ने भारत से हजारों दलितों तथा अति पिछड़ी जातियों के लोगों को मारीशस में मजदूरी कराने के लिए जबरन भेजा था, जो वहीं बस गये तथा बाद में वे स्वयं वहां के शासक बन बैठे। असलियत यह है कि वहां आर्य संस्कृति के पोषक, विशेष रूप से ब्राह्मण तथा क्षत्रिय नहीं पहुंच सके, इसलिए मारीशस में वर्ण व्यवस्था उस रूप में नहीं जा सकी, जिस रूप में वह अभी भी भारत में है।
जहां तक बौद्ध धर्म का सवाल है, यह अन्य धर्मों की तरह नहीं है। बुद्ध ने इसे हमेशा 'धम्म` कहा। पाली में 'धम्म` का अर्थ सिद्धांत होता है, किन्तु संस्कृत में गलत अनुवाद करके इसे 'धर्म` बना दिया गया। बुद्ध के दार्शनिक विचार मूल रूप से आर्य-सांस्कृतिक मान्यताओं के विरूद्ध ईश्वर को न मानने, आत्मा के अमरत्व को इनकार करने, किसी ग्रंथ को स्वत: प्रमाण न मानने तथा जीवन को सिर्फ इसी शरीर तक सीमित मानने से संबद्ध थे। एक बार आत्मा तथा पुनर्जन्म पर दो भिक्षुओं के बीच चल रही गहन बहस में हस्तक्षेप करते हुए बुद्ध ने कहा कि जिस किसी भी वस्तु का जन्म होता है, उसका विनाश अवश्यंभावी है, किन्तु उस रूप में नहीं, उसका रूप बदल जाता है, जिसे बुद्ध ने 'प्रतीत्य-समुत्पाद` कहा तथा जिसमें आत्मा के लिए कोई स्थान नहीं है। इसे और भी साफ करते हुए बुद्ध ने कहा कि किसी भी जीवधारी की मृत्यु के साथ ही उसका हमेशा के लिए व्यक्तिगत विलोप हो जाता है, जिसे निर्वाण कहते हैं, अर्थात् पुनर्जन्म से संपूर्ण मुक्ति। यही प्रतीत्य-समुत्पाद बुद्ध के दर्शन की एकमात्र कुंजी है, जिसके कारण दुनिया के अनेक वैज्ञानिक दार्शनिकों ने उन्हें विश्व का पहला वैज्ञानिक बताया।
बुद्ध इस दुनिया को ईश्वर की कृति नहीं मानते थे। उनका तर्क यह था कि घड़ा मिट्टी का रूपान्तर है अर्थात् मिट्टी का गुण घड़े में चला गया। इसी तरह यदि शिशु पैदा होता है, तो वह अपने मां-बाप का रूपान्तर हो जाता है, न कि किसी ईश्वर की कृति का। मनुष्य अत्याचारी तथा दु:खदायी होता है, इसलिए मानव समाज का प्रचण्ड बहुमत दु:खी रहता है। यदि मनुष्य ईश्वर का रूपान्तर है तो ईश्वर स्वयं अत्याचारी एवं दु:खदायी है। यदि ईश्वर वैसा नहीं है तो मनुष्य उसका रूपान्तर या कृति भी नहीं है। इसी दार्शनिक पृष्ठभूमि में बुद्ध ने बौद्धगया में महाज्ञान प्राप्त करके दु:ख है, दु:ख का कारण है, दु:ख का निवारण है तथा दु:ख से मुक्ति है, का रहस्य ढूंढ निकाला। उनके दार्शनिक विचार शीघ्र ही अन्य विचारों पर हावी होकर उनके जीवनकाल में ही सारी दुनिया में फैल गये। बुद्ध के समकालीन राजा बिम्बसार, अजातशत्रु तथा प्रसेनजित ने बौद्ध धर्म के विकास में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया, किन्तु ईसा पूर्व तीसरी सदी में सम्राट अशोक ने इसे विश्वव्यापी बनाने का चमत्कारिक काम किया। अशोक के प्रयासों से श्रीलंका से लेकर यूनान तक बौद्ध धर्म की गूंज सुनायी देने लगी।
इस तरह हम देखते हैं कि ईसा पूर्व की अर्द्ध सहस्राब्दी बौद्ध धर्म के उत्तरोत्तर विकास की अवधि थी। इस बीच पुष्यमित्र तथा मिहिरकुल दो ऐसे शासक हुए, जिन्होंने बौद्ध धर्म को समूल नष्ट करने की कोशिश की। पुष्यमित्र ने अंतिम मोर्य बौद्ध सम्राट बृहद्रथ को ई.पू. १८७ में मार कर शुंगवंश की स्थापना की थी। पुष्यमित्र बृहद्रथ का सेनापति था। सोलवहीं सदी के महान तिब्बती बौद्ध भिक्षु तथा इतिहासकार तारानाथ के अनुसार पुष्यमित्र बौद्ध धर्म का घनघोर दुश्मन था तथा उसने मध्य प्रदेश से लेकर पंजाब के जालंधर तक सैकड़ों बौद्ध मठों को ध्वस्त करने के साथ-साथ अनेक विद्वान भिक्षुओं की हत्या कर दी थी। पुष्यमित्र ने पाटलीपुत्र के विख्यात मठ कुक्कुटराम को भी ध्वस्त करने की कोशिश की थी, किन्तु अंदर से सिंह के दहाड़ने जैसी आवाज सुनकर वह भाग गया। पुष्यमित्र ने वैदिक कर्मकाण्डों तथा ब्राह्मणों के वर्चस्व को पुनर्जीवित करने का अथक प्रयास किया था। इसी तरह हूण शासक मिहिरकुल ने छठी ईसवी में कश्मीर से लेकर गान्धार तक बौद्ध मठों की भयंकर तोड़फोड़ की। प्रख्यात् चीनी बौद्ध यात्री, ह्उावेन सांग के अनुसार मिहिरकुल ने १६०० मठों को ध्वस्त कर दिया था। वह भारत आकर शिवपूजक बन गया था।
ईसा मसीह के जन्म के पूर्व बौद्ध धर्म की गूंज येरुशलम तक पहुंच चुकी थी। यही कारण है कि बुद्ध की करुणा तथा शांति की झलक बाइबिल में साफ दिखायी देती है। अनेक यूरोपी विद्वानों ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है कि बुद्ध का ईसा मसीह पर गहरा प्रभाव पड़ा था, विशेष रूप से उनका चर्च-सिस्टम बौद्ध मठों का प्रतिरूप है। ईसा की प्रथम सहस्राब्दी में बौद्ध धर्म का दार्शनिक विकास बड़ी तेजी से हुआ। इसे बौद्ध दार्शनिकों की सहस्राब्दी कहा जाए, तो अनुचित न होगा। पहली सदी से लेकर हजारहवीं सदी के बीच अश्वघोष, नागार्जुन, आर्यदेव, मैत्रेय, असंग, वसुबन्धु, दिग्नाग, धर्मपाल, शीलभद्र, धर्मकीर्ति, देवेन्द्रबोधि, शाक्यबोधि, शान्त रक्षित, कमलशील, कल्याणरक्षित, धर्मोत्तराचार्य, मुक्तकुंभ, रत्नकीर्ति, शंकरानंद, शुभकार गुप्त तथा मोक्षकार गुप्त आदि अनेक बौद्ध दार्शनिक पैदा हुए। अश्वघोष ने प्रथम सदी में वर्ण व्यवस्था के विरूद्ध 'वज्रसूची` (हीरे की सुई) नामक संस्कृत काव्य लिख कर ब्राह्मणवाद की नींव हिला दी थी। उक्त बौद्ध दार्शनिकों में नागार्जुन, असंग, वसुबन्धु, दिग्नाग तथा धर्मकीर्ति ने बौद्ध तर्कशा (लॉजिक) को वैज्ञानिक ऊंचाईयों तक पहुंचाते हुए हिन्दू तर्कशास्त्रियों को मूक बना दिया था। 'माध्यमक` लिख कर नागार्जुन 'शून्यवाद` के प्रवर्तक बने। वे बुद्ध के अनात्मवाद को शून्यवाद कहते थे। वे पूंजीवाद के भी प्रबल विरोधी थे। उन्होंने अपने समकालीन सत्वाहन राजा यज्ञश्री को एक पत्र लिखकर सारे धन को भिक्षुओं, गरीबों, मित्रों तथा ब्राह्मणों को दान में बांट देने का आग्रह किया था। नागार्जुन दूसरी सदी के दार्शनिक थे। चौथी सदी के पेशावर निवासी असंग अद्वैत विज्ञानवाद के प्रवर्तक थे। उनके छोटे भाई वसुबन्धु थे, जिन्होंने अयोध्या में रहकर बौद्ध त्रिपिटक के सार के रूप में 'अभिधम्म कोश` की रचना की थी। दिग्नाग पांचवीं सदी के दार्शनिक थे। वे बौद्ध तर्कशा तथा ज्ञान मीमांसा के सबसे महान प्रवर्तक थे। रूस तथा विश्व के अति विशिष्ट बौद्ध दार्शनिक श्चेर्वात्सकी ने इस तथ्य का रहस्योद्घाटन किया है कि यदि दिग्नाग जैसे दार्शनिकों ने बौद्ध लॉजिक को विकसति नहीं किया होता, तो तथाकथित 'हिन्दू लॉजिक` कभी पैदा ही नहीं होता, क्योंकि हिन्दू दार्शनिकों ने बौद्धों की तर्कसंगत तर्कणा के विरोध में अपनी लॉजिक विकसित की थी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि सातवीं-आठवीं सदी के दो अति महत्वपूर्ण हिन्दू दार्शनिक कुमारिल भट्ट तथा आदि शंकराचार्य का सारा दर्शन बौद्धों के खण्डन-मण्डन पर आधारित है। बौद्धों की दार्शनिक परंपरा में सातवीं सदी के सबसे महान दार्शनिक धर्मकीर्ति थे, जिन्होंने दिग्नाग के प्रमाण शा को आगे विकसित करते हुए अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'प्रमाणवार्तिकम्` की रचना की। श्चेर्वात्स्की ने धर्मकीर्ति की तुलना जर्मन दार्शनिक कान्ट से की है। धर्मकीर्ति को तत्कालीन नालन्दा बौद्ध विश्वविद्यालय के कुलपति तथा उद्भट विद्वान भिक्षु धर्मपाल ने भिक्षु बनाया था। धर्मकीर्ति ने 'न्याय बिन्दु` लिखकर न्याय दर्शन को सर्वाधिक संपन्न बताया तथा उन्होंने अपने समय के तमाम ब्राह्मणों को शाा़र्थ के लिए ललकारा था और जिसने भी उनके साथ शाा़र्थ किया, हार गया। इन हारे हुए वैदिक विद्वानों में कुमारिल भट्ट भी शामिल थे, जो शर्त के अनुसार नालंदा में बौद्ध भिक्षु बन कर धर्मपाल के शिष्य बन गये थे। किन्तु बाद में कुमारिल भट्ट की विजय को वैदिक कर्मकांडों की विजय समझा गया। अत: उन्होंने बौद्ध धर्म को नष्ट करने का हिंसक अभियान चलाया। कुमारिल भट्ट ने बौद्ध धर्म को 'फटा दूध` कहकर उस पर यह आरोप लगाया कि उसके चक्कर में आकर विभिन्न राजाओं ने वैदिक कर्मकांडों को नष्ट कर दिया था। हकीकत यह है कि बौद्ध धर्म ने हिंसा के बल पर कभी कोई परिवर्तन नहीं किया, बल्कि तर्कसंगत मस्तिष्क परिवर्तन के मध्यम से वैदिक कुरीतियों को बदला था, जबकि कुमारिल भट्ट ने स्वयं विभिन्न राजाओं को उकसा कर बौद्ध धर्म को समूल नष्ट करने का अभियान चलाया था, जिसमें आदि शंकराचार्य भी शामिल हो गये थे। शंकराचार्य दर्शन के प्रचारक स्वामी अपूर्नानन्द जी द्वारा मूलरूप से बांग्ला भाषा में लिखित तथा रामकृष्ण मठ द्वारा अधिकारिक रूप से प्रकाशित शंकराचार्य की आत्मकथा 'अचार्य शंकर` में प्रस्तुत यह तथ्य विचारणीय है, जिसमें कहा गया है : 'कुमारिल की इस विजय ने समस्त भारत के लोगों में वैदिक धर्म के नवजागरण की सृष्टि की। उस समय के मगध राज आदित्य सेन ने उस विजय को गौरवान्वित करने के लिए विशेष ठाट-बाट से कुमारिल भट्ट को प्रधान पुरोहित रख कर एक विराट अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किया। गौड़ देश (बंगाल) के हिन्दू राजा शशांक नरेन्द्र वर्धन वैदिक धर्म के अनुरागी थे। उन्होंने मौका पाकर हिन्दू धर्म के विजय अभियान के यज्ञ में बोध गया के जिस बोधि वृक्ष के नीचे बैठकर तथागत् ने सिद्धि प्राप्त की थी, उस बोधिद्रुम को काट डाला और बौद्ध मंदिर पर अधिकार स्थापित कर बुद्धदेव की मूर्ति को दिवाल उठा कर बंद कर दिया। केवल इतना ही नहीं, उन्होंने तीन बार उस वृक्ष के मूल को खोद कर उसे समूल नष्ट कर दिया। कुमारिल भट्ट ने उत्तर भारत में सर्वत्र विजयी होकर बुद्ध और जैन धर्मों के प्राधान्य को नष्ट किया।`
कुमारिल भट्ट ने 'श्लोक वार्तिका`, 'तंत्र वार्तिका` तथा 'तुप्तिका` नामक ग्रंथों को लिखकर वैदिक कर्मकाण्डों को चमत्कारित किया। उनके बौद्ध विनाश के अधूरे कार्य को शंकराचार्य ने पूरा किया। शंकराचार्य ने बौद्ध दर्शन को खण्डित करने के लिए अपनी प्रसिद्ध रचना 'ब्रह्मसूत्र भाष्य` को दिग्नाग के विज्ञानवाद, धर्मकीर्ति के बौद्ध न्याय तथा नागार्जुन के माध्ययक (शून्यवाद) के विरुद्ध खड़ा किया। शंकराचार्य ने बड़ी चालाकी से बौद्ध धर्म के विरूद्ध अभियान चलाया था, यहां तक कि जनता में भ्रम पैदा करने के लिए उन्होंने अपनी पुस्तक 'दसावतान स्न्नानेत` में बुद्ध वन्दना में एक श्लोक भी लिखा, जिसमें बुद्ध को सबसे बड़े योगी के रूप में प्रस्तुत करते हुए ध्यानमग्न अवस्था में उनके नेत्रों के नासिका पर उतरने का उन्होंने जिक्र किया है। शंकराचार्य ने बुद्ध को अपने मस्तिष्क का परिचालक भी बताया है, किन्तु दूसरी तरफ उन्होंने बौद्ध स्थलियों को नेस्तोनाबूद करने का अभियान भी चलाया। प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी तथा इतिहासकार विश्वंभर नाथ पाण्डे ने लिखा है कि बौद्ध विरोधी राजा 'सुधन्वा की सेना के आगे-आगे शंरकाचार्य चलते थे। स्मरण रहे कि उज्जैन के राजा सुधन्वा ने अनगिनत मठों को धवस्त कराया था। जिन चार पीठों की स्थापना शंकराचार्य ने की, वहां पुराने बौद्ध मठ हुआ करते थे, आचार्य शंकर का तथाकथित 'विश्व विजय` अभियान कुछ और न होकर वास्तव में बौद्धों के ऊपर हिंसक विजय का अभियान था। शंकर ने इसे 'विश्व विजय` इस लिए कहा था, क्योंकि उनके समय (आठवीं सदी) तक बौद्ध धर्म विश्व के दर्जनों देशों में फैल चुका था। इस तरह हम देखते हैं कि पहली सहस्राब्दी जहां एक ओर बौद्ध दर्शन के विकास के रूप में उमड़ कर सामने आयी, वहीं दूसरी ओर कुमारिल भट्ट तथा शंकराचार्य ने उसके विनाश की ठोस नींव भी डाली। इस तरह पांचवीं सदी से दसवीं सदी के बीच वर्ण व्यवस्था पर आधारित ब्राह्मणवाद या आधुनिक हिन्दूत्व की नींव पड़ी। यह वही समय था जब वर्ण व्यवस्था को ईश्वरीय ठहराने वाले अनेक हिन्दू ग्रंथों की रचना की गयी, जिनमें याज्ञवल्क्य स्मृति, मनुस्मृति, गीता, महाभारत, कौटिल्य का अर्थशा, वाल्मीकि रामायण तथा सारे पुराण आदि शामिल थे। इन सारे ग्रंथों में वर्ण व्यवस्था को ईश्वरीय ठहराते हुए बौद्ध दर्शन पर हमला किया गया है, किन्तु अक्सर बुद्ध का जिक्र किए बिना। एक भी हिन्दू ग्रंथ ऐसा नहीं है, जिसमें वर्ण व्यवस्था को ईश्वरीय न कहा गया हो। हिन्दू लोग इन ग्रंथों को ईश्वर के मुख से निकला अनन्तकालीन कहकर रहस्यमयी सिद्ध करने का सतत् प्रयत्न करते रहते हैं, किन्तु एक अकाट्य सत्य यह है कि चूंकि बौद्ध दर्शनिकों ने हमेशा वर्ण व्यवस्था का विरोध किया, इसलिए उसे पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से ब्राह्मणों ने नये ग्रंथों की रचना करके उन्हें 'इश्वरीय` बना दिया, जबकि ये सारे ग्रंथ बुद्ध के बाद के हैं। वर्ण व्यवस्था को दैवी ठहराने वाले इन तमाम हिन्दू ग्रंथों के रचनाकाल को निर्धारित करने की यह सबसे बड़ी कुंजी है। अन्यथा, इन ग्रंथों में बौद्धों का जिक्र कैसे आता? गीता का अठारहवां अध्याय सिर्फ वर्ण व्यवस्था को ईश्वरीय बताने के लिए लिखा गया। कौटिल्य के 'अर्थशा` में शूद्र विरोधी कानून हंै। याज्ञवल्क्य स्मृति में बौद्धों के दर्शन को अपशकुन बताया गया है। वाल्मीकि रामायण में बौद्धों को चोरों की तरह दण्ड देने की बात है। मनुस्मृति की तो बात ही कुछ और है।
इस काल की एक खास बात यह है कि जहां एक तरफ ब्राह्मणों ने लाखों बौद्ध भिक्षुओं का कत्लेआम कराया तथा बौद्ध मठों को ध्वस्त करने के बाद बचे-खुचे को मंदिरों में बदल दिया था, वहीं इस कुत्सित उद्देश्य के साथ बड़ी चालाकी से बुद्ध के प्रति तथाकथित 'आत्म सात्करण` के सिद्धान्त को अपनाते हुए 'अग्निपुराण` में उन्हें विष्णु का अवतार घोषित कर दिया था। साथ ही, बुद्ध की नैतिक शिक्षाओं को अपना बनाकर ब्राह्मणों ने लोगों के समक्ष पेश करना शुरू कर दिया। उन्होंने पाली भाषा को प्रतिबंधित कर दिया, क्योंकि बौद्ध धर्म के वर्चस्व के स्थापित होते ही वर्ण व्यवस्था का मिथकीय रूप बड़ी तेजी से लागू होने लगा। कालिदास जैसे संस्कृत कवियों ने बौद्धों के खिलाफ टिप्पणी की। उन्होंने 'मेघदूत` में 'दिग्नागिनाम् पथि परिहरन्` अर्थात् दिग्नागों के बताये गये रास्ते पर चलने से लोगों को मना कर दिया। स्मरण रहे कि महान बौद्ध दार्शनिक दिग्नाग का आम जनता में बहुत असर था, इसलिए कालिदास को उक्त टिप्पणी करनी पड़ी। संस्कृत साहित्य में बौद्धों के खिलाफ अनगिनत टिप्पणियां मिलती हैं। आत्मसात्करण के संदर्भ में एक ऐतिहासिक तथ्य यह है कि आज हिन्दू लोग गाय को 'गोमाता` कहकर गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने की मांग करते हुए धार्मिक दंगा फैलाने का सतत् प्रयत्न करते रहते हैं, किन्तु सदियों पहले ये हिन्दू वैदिक यज्ञों में हजारों गायों की न सिर्फ बलि चढ़ाते थे, बल्कि उसका मांस भी खाया करते थे। सर्वप्रथम तथागत बुद्ध ने ही इन बलियों के विरूद्ध संघर्ष चलाकर गोहत्या बंद करायी थी तथा उन्होंने स्वयं गाय को माता कहकर पुकारा था। 'दीर्घ निकाय` समेत अनेक बौद्ध ग्रंथों में इसके उदाहरण मिलते हैं। गोमाता तथा गोहत्या से संबंधित बुद्ध की शिक्षा को अपहृत करके ब्राह्मणों ने उल्टा आरोप बौद्धों पर लगा दिया कि वे गोमांस भक्षण करते हैं। बौद्धों के खिलाफ इस आरोप को ब्राह्मणों ने इतने बड़े पैमाने पर प्रचारित किया कि देश भर में बौद्ध बदनाम हो गये। वास्तविकता यह थी कि बुद्ध की शिक्षा के अनुसार भिक्षा में मिली किसी भी वस्तु को खाने का प्रावधान था, भले ही वह गोमांस क्यों न हो, किन्तु बुद्ध ने किसी जीव को मार कर खाने को कड़ाई से प्रतिबंधित किया था। इसके अनुसार बौद्ध भिक्षु भिक्षा में मिले किसी भी पशु मांस को खा लेते थे। स्वयं तथागत् बुद्ध ने कुशीनारा में चुन्दक नामक लोहार द्वारा भोजदान में दिये गये सूअर के मांस को खाकर निर्वाण प्राप्त किया था। इस तरह बुद्ध की नैतिक शिक्षाओं को ब्राह्मणों ने उल्टा करके बौद्धों को हमेशा बदनाम किया।
ईसा की दूसरी सहस्राब्दी भारत में बौद्ध धर्म के लिए समापन की अवधि थी। इसके पहले ही भारत में इस्लाम पहुंच चुका था तथा सल्तनत स्थापित हो चुकी थी। मध्य एशिया से आने वाले मुस्लिम हमलावरों ने बौद्ध स्थलियों को तोड़ऩे में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की, जिसके पीछे स्वार्थी ब्राह्मणों की भूमिका पथ प्रदर्शक की थी। बारहवीं-तेरहवीं सदी में बख्तियार खिलजी नाम एक हमलावर उत्तर भारत की उन समस्त बौद्ध स्थलियों पर गया, जिनका सीधा संबंध बुद्ध से था। उसने कुशी नगर की विश्व प्रसिद्ध सात मीटर लंबी सुनहरी मूर्ति को तीन टुकड़ों में तोड़कर फेंक दिया था। उसने ही नालंदा विश्वविद्यालय को जलाकर हमेशा के लिए राख कर दिया था। इसके पहले हिन्दू राजा शशांक ने नालंदा विश्वविद्यालय को जलाया था। बख्तियार ने उदान्तपुरी (बिहार शरीफ) के प्रख्यात बौद्ध मठ के विशाल टावर को किला समझ कर ध्वस्त कर दिया, जिसमें सैकड़ों बौद्ध भिक्षु मारे गये तथा हजारों बौद्ध ग्रंथ खून से लथ-पथ होकर नष्ट हो गये। बचे-खुचे बहुमूल्य बौद्ध ग्रंथों को जीवित बचे कुछ भिक्षु अपने रक्त रंजित चीवरों में छिपाकर बर्मा, नेपाल तथा तिब्बत ले गये। स्मरण रहे कि हजरत मोहम्मद के समय बौद्ध पश्चिम एशिया में फैल चुका था, इसलिए वहां के अरबी भाषी लोगों ने 'बुद्ध पूजा` को गलत उच्चारण के कारण 'बुत पूजा` कहकर विरोध किया, जिसके चलते मुस्लिम हमलावार जहां भी गये, उन्होंने बुद्ध मूर्तियों को तोड़ डाला। मुस्लिम विजेताओं ने अफगानिस्तान से लेकर मध्य एशिया तक फैले बौद्ध धर्म को समूल नष्ट कर दिया।
बौद्धों की कीमत पर भारत में ईसाई तथा इस्लाम धर्म जरूर पनपा, जिसके कारण ए.एल. बाशम जैसे नामी इतिहासकारों ने हिन्दू धर्म को उदार कहकर अपनी श्रद्धांजली पेश की, जो सही नहीं है। हकीकत यह है कि इन दोनों धर्मों का विकास हिन्दू धर्म की उदारता के कारण नहीं, बल्कि उसके वर्ण व्यवस्थावादी कट्टरता के कारण हुआ। यदि हिन्दू धर्म उदार होता, तो इस धरती से उत्पन्न विश्व के सर्वश्रेष्ठ दर्शन बौद्ध धर्म को क्रूरता के साथ नष्ट नहीं करता। प्रसिद्ध भारतीय दार्शनिक देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने बौद्ध धर्म को भारतीय इतिहास का करिश्मा कहा है। अत: यह करिश्मा आज भी जारी है। हाल ही में एक अमरीकी मीडिया सर्वेक्षण में बौद्ध धर्म को सर्वाधिक तीव्र गति से पनपने वाला धर्म बताया गया। विगत् कुछ वर्षों में यूरोप तथा अमरीका के हजारों रोमन कैथोलिकों ने बौद्ध धर्म को अपनाया है, जिनमें इटली के विश्व प्रसिद्ध फुटबाल खिलाड़ी राबर्टो बज्जियो तथा हालीबुड के सुपर स्टार रिचार्ड गेरे भी शामिल हंै। विगत् दिनों रोम के एक अखबार को दिये गये एक साक्षात्कार में सोवियत संघ के पूर्व राष्ट्रपति गोर्वाचोव ने ठीक ही कहा : 'इक्कीसवीं सदी बुद्ध की सदी होगी।`
यह भी देखें :
भगवान्‌ बुद्ध - अवतारवाद का अधूरा सत्य : http://preachingsofbuddha.blogspot.in/2012/10/blog-post.html

Tuesday, June 18, 2013

आधारभूत प्रश्न

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एक दिन बुद्ध प्रातः भिक्षुओं की सभा में पधारे. सभा में प्रतीक्षारत उनके शिष्य यह देख चकित हुए कि बुद्ध पहली बार अपने हाथ में कुछ लेकर आये थे. उनके हाथ में एक रूमाल था. बुद्ध के हाथ में रूमाल देखकर सभी समझ गए कि इसका कुछ विशेष प्रयोजन होगा.
बुद्ध अपने आसन पर विराजे. उन्होंने किसी से कुछ न कहा और रूमाल में कुछ दूरी पर पांच गांठें लगा दीं.
सब उपस्थित यह देख मन में सोच रहे थे कि अब बुद्ध क्या करेंगे, क्या कहेंगे. बुद्ध ने उनसे पूछा, “कोई मुझे यह बता सकता है कि क्या यह वही रूमाल है जो गांठें लगने के पहले था?”
शारिपुत्र ने कहा, “इसका उत्तर देना कुछ कठिन है. एक तरह से देखें तो रूमाल वही है क्योंकि इसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है. दूसरी दृष्टि से देखें तो पहले इसमें पांच गांठें नहीं लगीं थीं अतः यह रूमाल पहले जैसा नहीं रहा. और जहाँ तक इसकी मूल प्रकृति का प्रश्न है, वह अपरिवर्तित है. इस रूमाल का केवल बाह्य रूप ही बदला है, इसका पदार्थ और इसकी मात्रा वही है.”
“तुम सही कहते हो, शारिपुत्र”, बुद्ध ने कहा, “अब मैं इन गांठों को खोल देता हूँ”, यह कहकर बुद्ध रूमाल के दोनों सिरों को एक दूसरे से दूर खींचने लगे. “तुम्हें क्या लगता है, शारिपुत्र, इस प्रकार खींचने पर क्या मैं इन गांठों को खोल पाऊंगा?”
“नहीं, तथागत. इस प्रकार तो आप इन गांठों को और अधिक सघन और सूक्ष्म बना देंगे और ये कभी नहीं खुलेंगीं”, शारिपुत्र ने कहा.
“ठीक है”, बुद्ध बोले, “अब तुम मेरे अंतिम प्रश्न का उत्तर दो कि इन गांठों को खोलने के लिए मुझे क्या करना चाहिए?”
शारिपुत्र ने कहा, “तथागत, इसके लिए मुझे सर्वप्रथम निकटता से यह देखना होगा कि ये गांठें कैसे लगाई गयीं हैं. इसका ज्ञान किये बिना मैं इन्हें खोलने का उपाय नहीं बता सकता”.
“तुम सत्य कहते हो, शारिपुत्र. तुम धन्य हो, क्योंकि यही जानना सबसे आवश्यक है. आधारभूत प्रश्न यही है. जिस समस्या में तुम पड़े हो उससे बाहर निकलने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि तुम उससे ग्रस्त क्योंकर हुए. यदि तुम यह बुनियादी व मौलिक परीक्षण नहीं करोगे तो संकट अधिक ही गहराएगा”.
“लेकिन विश्व में सभी ऐसा ही कर रहे हैं. वे पूछते हैं, “हम काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, परिग्रह, आदि-आदि वृत्तियों से बाहर कैसे निकलें”, लेकिन वे यह नहीं पूछते कि “हम इन वृत्तियों में कैसे पड़े?”

Sunday, June 16, 2013

चिकित्सा विज्ञान के समान है चार आर्य सत्य

सभी बीमारियाँ पहले मस्तिष्क में जन्म लेती हैं। जब तक मानसिक पेटर्न उस अनुरूप न बन जाय, तब तक वह शरीर पर प्रकट नहीं होती है। असाध्य मानसिक या शारीरिक रोग की जड़ें सदा ही गहरे अवचेतन मन में होती है। छिपी हुई जडों को उखाडकर रोग को ठीक किया जा सकता है। मनुष्य की देह (सिक्रेशन) सबसे अधिक दवाएँ बनाने का कारखाना है । हमारी देह के उपचार में काम आने वाली सभी दवाओं के केमिकल्स हमारी देह में बनाए जाते है। इन सब दवाओं का निर्माण हमारी सोच एवं भावनाओं पर निर्भर है। नकारात्मक सोच व नकारात्मक भावनाओं से हमारे सिक्रेशन प्रभावित होते हैं । दुनिया के सबसे धीमे मारने वाले भंयकर जहर भी इसी देह में बनते है।
हमारी स्थूल देह के पीछे क्वान्तम भौतिकीय देह है जो कि सूक्ष्म है, अदृश्य है। स्थूल देह का जन्म इसी सूक्ष्म देह की बदौलत है। उसमें परिवर्तन इसी के आधार पर होते हंै।
वातावरण वास्तव में हमारी देह का विस्तार है।जैसे दो तारो व ग्रहो के बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध न होने के उपरान्त वं आपस में भी सम्बंन्धित है। वैसे ही हमारी देह के अणुओं के बीच सम्बन्ध न होने के बावजूद आपस में सम्बन्धित है।
हमारी देह का रूपाकार किसी शिल्प कृति से कम नहीं है।भीतर बैठी प्रज्ञा का यह आवरण मूर्ति के रूप में दिखता है। इसके निश्चित आकार-प्रकार है । इसके साथ ही हमारी देह के परमाणु बहती हुई नदी की तरह है। हमारी देह में कुछ भी स्थाई नहीं है। हमारी कोशिकाओं के प्रत्येक कण बदलते जाते हैं। हमारी रक्त कणिकाएँ नब्बे दिन में बदल जाती हैं। हड्डियों का ठोस ढांचा जिसके चारों ओर शरीर लिपटा रहता है, वह स्वयं भी एक सौ बीस दिन में पूरी तरह बदल जाता है। ( अनित्यता )

मेडिकल सांइस भी अब मानसिक लक्षणॊं की प्रमुखता को मानने लगा है । हाँलाकि यह क्रम बहुत पहले हिपोक्रेट्स से शुरु हुआ था  । हिप्पोक्रेट्स से लेकर गैलन और आखिरकार होम्योपैथी के प्रवर्तक डां  हैनिमैन ने इन्सान के स्वाभाव का विशेलेषण करने मे बहुत अंह भूमिका निभायी । जहाँ हिप्पोक्रेट्स (400 ई.पू.) का मानना था कि शरीर चार ह्यूमर ( Humor ) अर्थात रक्त,कफ, पीला पित्त और काला पित्त से बना है. Humors का असंतुलन, सभी रोगों का कारण है . वही गैलन Galen (130-200 ई.) ने इस शब्द  का इस्तेमाल  शारीरिक स्वभाव के लिये किया , जो यह निर्धारित करता है  कि शरीर  रोग के प्रति किस हद तक संवेदन्शील है । डां हैनिमैन ; आर्गेनान आफ़ होम्योपैथी मे स्पष्ट रुप से लिखते हैं ( पूरे लेख के लिये देखें : http://drprabhattandon.wordpress.com/2011/06/17/constitutional-prescribing-body-language-and-homeopathy/ )

सूत्र २१३ – रोग के इलाज के लिये मानसिक दशा का ज्ञान अविवार्य

इस तरह , यह बात स्पष्ट है कि हम किसी भी रोग का प्राकृतिक ढंग से सफ़ल इलाज उस समय तक नही कर सकते जब तक कि हम प्रत्येक रोग , यहां तक नये रोगों मे भी  , अन्य लक्षणॊं कॆ अलावा रोगी के स्वभाव और मानसिक दशा मे होने वाले परिवर्तन पर पूरी नजर नही रखते । यादि हम रोगी को आराम पहुंचाने के लिये ऐसी दवा नही चुनते जो रोग के सभी लक्षण  के साथ उसकी मानसिक अवस्था या स्वभाव पैदा करनेच मे समर्थ है तो रोग को नष्ट करने मे सफ़ल नही हो सकते ।

शारिरिक लक्षण दरअसल मन के लक्षण का रुपक मात्र हैं । एक होम्योपैथ के रुप मे मै यह कह सकता हूँ कि अधिकांश रोगियों में हमें मानसिक लक्षणॊं के आधार पर चुनाव करने से ही सफ़लता मिल जाती है । अगर हम २५०० वर्ष पूर्व भगवान्‌ बुद्ध के दर्शन का अवलोकन करे और उसे होम्योपैथी के प्रवर्तक डां हैनिमैन के सिद्धातों के अनुरुप देखें तो एक ही बात साफ़ दिखाई पडती है और वह है हमार मन । तभी तो  भगवान बुद्ध कहते हैं :

मनोपुब्बङ्गमा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया।

मनसा चे पदुट्ठेन, भासति वा करोति वा।

ततो नं दुक्खमन्वेति, चक्‍कंव वहतो पदं॥

मन सभी प्रवॄतियों का अगुआ है , मन ही प्रधान है , सभी धर्म मनोनय हैं । जब कोई व्यक्ति अपने मन को मैला करके कोई वाणी बोलता है , अथवा शरीर से कोई कर्म करता है तो दु:ख उसके पीछे ऐसे हो लेता है , जैसे गाडी के चक्के बैल के पीछे हो लेते हैं ।

Mind precedes all mental states. Mind is their chief; they are all mind-wrought. If with an impure mind one speaks or acts, suffering follows one like the wheel that follows the foot of the ox.

मनोपुब्बङ्गमा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया।

मनसा चे पसन्‍नेन, भासति वा करोति वा।

ततो नं सुखमन्वेति, छायाव अनपायिनी [अनुपायिनी (क॰)]॥

मन सभी प्रवॄतियों का अगुआ है , मन ही प्रधान है , सभी धर्म मनोनय हैं । जब कोई व्यक्ति अपने मन को उजला रख कर कोई वाणी बोलता है , अथवा शरीर से कोई ऐसा कर्म करता है तब सुख उसके पीछॆ ऐसे हो लेता है जैसे कभी संग न छॊडने वाली छाया संग-२ चलने लगती है ।

Mind precedes all mental states. Mind is their chief; they are all mind wrought. If with a pure mind one speaks or acts, happiness follows one like one's never-departing shadow.

 भगवान्‌ बुद्ध एक  चिकित्सक की भूमिका में :

डां प्रवीन  गोस्वामी मेरे परम  मित्रों मे से एक हैं , वह एक अच्छे होम्योपैथिक चिकित्सक भी हैं और एक अच्छे साधक भी । बोधगया मे वह अकसर   ध्यान शिविर आयोजित कराते रहते हैं । पिछ्ले दिनों उनकी एक पोस्ट ने मेरा ध्यान बरबस खीचां । एक छोटी सी कहानी में जो ओशो के एक प्रवचन से ली गई थी , बुद्ध से किसी व्यक्ति ने पूछा कि आप कौन हैं ? आप का परिचय क्या है ? क्या आप दार्शिनिक  हैं , विचारक हैं , संत हैं , योगी या ज्ञाता या ईशवर के दूत ? भगवान बुद्ध ने कहा कि मै सिर्फ़ एक चिकित्सक हूँ ।

One day somebody went to Buddha and asked, “Who are you? Are you a philosopher, or a thinker or a saint or a yogi?” Buddha replied, “I am only a healer, a physician.”

This answer of his is truly marvellous: Only a healer — I know something about the inner diseases and that is what I discuss with you.

The day we understand that we will have to do something about these mindoriented diseases — because anyway we will never be able to eradicate all the bodyoriented diseases completely — that day we will see that religion and science have come closer to each other. That day we will see that medicine and meditation have come nearer to each other. My own understanding is that no other branch of science will help as much as medicine in bridging this gap.

From Medication to Meditation – OSHO, page no 15

Osho from the blog : Mind-Oriented Diseases

जिस प्रकार एक चिकित्सक को रोगी को स्वस्थ करने के लिये चार तथ्यों की आवशयकता पडती है

  • रोग
  • रोग का कारण ( aetiology )
  • रोग का उपचार (आरोग्य )
  • भैषज्य ( रोग दूर करने की दवा )

उसी प्रकार भगवान्‌ बुद्ध दु:ख रुपी रोग का चिकित्सा पद्द्ति द्वारा इलाज करते हैं । बुद्ध ने संसार मे दुख देखा । वह जानते थे कि इस दुख को कोई भी आध्यात्मिक उपदेश ठीक नही कर सकता बल्कि उसे एक विशेष सिस्टम द्वारा ठीक किया जा सकता है ।

भगवान बुद्ध के अनुसार

  • अगर दुख है  तो
  • दुख के  कारण भी होगे ( समुदय )
  • कारण है तो उसे दूर भी किया जा सक्लता है ( निदान )
  • दूर करने के लिये उपाय यानि दवा भी होगी । ( अष्टांगिक मार्ग )

भगवान्‌ बुद्ध की भैषज्य गुरु के रुप मे उपासना चीन , जापान , तिब्बत आदि कई देशों मे है । इस उपासना का प्रतिपादक सूत्र है , भैषज्यगुरु वैदूय्रप्रभराज सूत्र “ जिसका अनुवाद चीनी और तिब्बती भाषा में उपलब्ध है ।

भैषज्यगुरु मंत्र

नमो भगवते भैषज्यगुरु वैडूर्यप्रभराजाय
तथागताय अर्हते सम्यक्संबुद्धाय तद्यथा
ॐ भैषज्ये भैषज्ये भैषज्य समुद्गते स्वाहा
तद्यथा ॐ भैषज्ये भैषज्ये भैषज्य समुद्गते स्वाहा

चार आर्य सत्य

सम्बोधि को उपल्ब्ध होकर बुद्ध ने चार आर्य सत्यों को अनुभव किया ।

  • दुख
  • दुखसमुदय
  • दुख निरोध
  • दुखनिरोधगामिनी प्रतिपद

१. दुख :  समस्त प्राणी दु:ख में है

बुद्ध ने इस आर्य सत्य में दैनिक जीवन में घटित सभी घटनाओं का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है ।

इदं खो पन, भिक्खवे, दुक्खं अरियसच्‍चं।

जातिपि दुक्खा, जरापि दुक्खा, ब्याधिपि दुक्खो, मरणम्पि दुक्खं,

अप्पियेहि सम्पयोगो दुक्खो, पियेहि विप्पयोगो दुक्खो, यम्पिच्छं न लभति,

तम्पि दुक्खं; संखित्तेन पञ्‍चुपादानक्खन्धा दुक्खा। इदं खो पन, भिक्खवे ।

दु:ख सामान्यत: पीडा के रुप में अनुवादित होता है लेकिन इसमॆ तनाव , असंन्तुष्टि और शारीरिक पीडाऒ सहित नकारात्मक भावनाओं की एक विस्तृत श्रंखला समाहित है । प्राणिमात्र के जीवन में रुग्णता , प्रियजनों के वियोग , मनोवांक्गित की अप्राप्ति, वृद्धावस्था और मृत्यु के रुप मे दु:ख अस्तिव में है ।

२. दुखसमुदय – दु:ख का कारण ‘ तृष्णा ’

इदं खो पन, भिक्खवे, दुक्खसमुदयं अरियसच्‍चं – यायं तण्हा पोनोभविका नन्दिरागसहगता

तत्रतत्राभिनन्दिनी, सेय्यथिदं – कामतण्हा, भवतण्हा, विभवतण्हा।

दु:ख का कारण , दूसरा आर्य सत्य है । दु:ख का कारण है तृष्णा जो बार-२ प्राणियों मे उत्पन्न होती रहती है । प्राणिमात्र सुखद्‌ संवेदानाओं की कामना करता है और दु:खद संवेदानाओं से बचने की कोशिश करता  है । ये संवेदानायें कायिक भी हो सकती हैं और मानसिक भी और जब इन कामनाओं की परिपूर्ति नही होती तो दु:ख उत्पन्न होता है ।

३. दु:ख निरोध : तूष्णाओं और कामनाओं का मूलोच्छेद

इदं खो पन, भिक्खवे, दुक्खनिरोधं अरियसच्‍चं यो तस्सायेव तण्हाय असेसविरागनिरोधो चागो पटिनिस्सग्गो मुत्ति अनालयो।

तीसरा आर्य सत्य हमॆ बताता है कि दु:ख का नाश संभव है । किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर अन्य वस्तु की उत्पति होती है । कार्यकारण का यह सिद्धांत उनकी महत्वपूर्ण खोज है । यह चिकित्साशास्त्र के इस बात का पोषक है कि रोग दूर होगा और रोगी स्वस्थ हो सकता है । बुद्ध का भी यह कहना है कि कार्यकारण के इस चक्र को तोड्कर हम निर्वाण ( शान्ति )  को प्राप्त कर सकते हैं ।

४. दुखनिरोधगामिनी प्रतिपद : दु:ख मुक्ति का मार्ग है आर्य अष्टांगिक मार्ग

इदं खो पन, भिक्खवे, दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा अरियसच्‍चं – अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि। सम्मा संकल्पो । सम्मा वाचा । सम्मा कम्मन्तो । सम्मा आजीवो । सम्मा वायामो । सम्मा सति । सम्मा समाधि ।

यह चौथा आर्य सत्य है जो हमॆ तृष्णा से मुक्ति का मार्ग दिखाता है । यदि रोग है और उसके ठीक होने की संभावना है तब निशचित रुप से उसे ठीक करने की दवा भी होगी । चिकित्साशास्त्र के इसी सिद्धान्त को बुद्ध ने चौथे आर्य सत्य में प्रस्तुत किया है । दु:ख निरोध के लिये भगवान्‌ बुद्ध नें अष्टांगिक मार्ग बताये हैं जिससे दु:ख को कम किया जा सकता है , शिथिल भी किया जा सकता है और अन्तत: समूल नाश भी किया जा सकता है और तब निर्वाण की उपलब्धि होती है ।

आर्य अंष्टागिक मार्ग

the eight fold path[15]

१. सम्यक दृष्टि- उचित समझ

चार आर्य सत्यों को समझना और स्वीकार करना ।

२. सम्यक संकल्प-उचित उद्देशय

दान , मैत्री और करुणा के संकल्पॊ को विकसित करना ।

३. सम्यक वाचा- उचित वाणी

मिथ्या , चुगली , कठॊर और व्यर्थ भाषण से विरत रहना । सत्य , सौम्य , विनभ्र और अर्थपूर्ण वाणी विकसित करना ।

४. सम्यक कर्मान्त-उचित कर्म

हिंसा , चोरी और लैंगिक दुराअचार से विरत रहना । परोपकार , ईमानदारी और विशवास विकसित करना ।

५. सम्यक आजीविका –उचित जीविका

(मानव अथवा  पशु ) हिंसा के व्यवसाय , पशु मांस की बिक्री , मानवों की बिक्री , शस्त्र , विष और मादक पदार्थॊम की बिक्री के व्यवसाओं से विरत रहना । ऐसे व्यवसाय जो अनैतिक , शीलरहित और अवैधानिक हैं ।

६. सम्यक व्यायाम-उचित प्रयास

प्रकट हो चुकी अकुशल वृतियों से विरत रहना , जो प्रकट नही हुई हैं उन अकुशल वृतियों को प्रकट न होने देने का अभ्यास । प्रकट कुशल वृतियों को पोषित करना , अप्रकट कुशल वृतियों को विकसित करने  का प्रत्न्न करना ।

७. समयक स्मृति-उचित विचार

शरीर , शरीर की मुद्राओं और संवेदानाओं के प्रति स्मृतिपूर्ण होना । मन और उसमॆम उत्पन्न विचारों , भावनाओं व संवेदानाओं के प्रति स्मृतिपूर्ण होना ।

८. सम्यक समाधि-उचित चिंतन मनन

प्रज्ञा के विकास और उपल्ब्धि के लिये मन को एकाग्रता व अनुशान का प्रशिक्षण देने हेतु ध्यान का अभ्यास करना ।

मझिजमनिकाये अकुसल्कुसल्धम्मा

भगवान्‌ बुद्ध के अनुसार अष्टांगी मार्ग पर कुशलता के साथ चलने के लिये अकुशल तत्वों का त्याग अनिवार्य है । अकुसला संहिता धम्म में वर्जित यह तत्व हैं :

१.लोभ

२.द्धेष

३.मोह

इन प्रमुख तत्वों पर नियंत्रण अत्यावशयक है क्योंकि इन तत्वों से भी तो अन्य अकुशल तत्व उत्पन्न होते हैं । यह तत्व हैं :

प्राणातिपातो- अर्थात जीवन संहार

अदिन्नादानं- अप्राप्त को प्राप्त करने की कुचेष्ठा

कामेसु मिच्छाचारो- अर्थात अशुद्धता

मुसावादो- मिथ्यावादी आचरण

पिसुणावाचा- झूठी निन्दा

फ़रुसावाचा- अर्थात कटुवाणी

सम्फ़प्पलापो–व्यर्थ वाद विवाद

अभिज्झा- लोभ लालच

व्यापादो- अथात दूसरों के अहित की कामना

मिच्छादिट्ठि- यानि भ्रमित दृष्टिकोण

अस्तित्व के तीन लक्षण

बुद्ध ने यह भी खोजा कि सकल अस्तित्व की तीन और विशेषतायें हैं :

अनिन्यता

सब कुछ अनित्य है और प्रत्येक वस्तु कुछ और होने की प्रक्रिया में है ।

दु:खता

चूँकि सब कुछ अनित्य है , इसलिये अस्तित्व भी दु:खबद्ध है । सुख के लिये तृष्णा हमेशा रहेगी . असुखद से विकर्षण हमेशा रहेगा . जो कि अस्तित्व के परिवर्तन्कारी स्वभाव का परिणाम है ।

अनात्मता

नित्य अथवा अपरिवर्तनीय आत्मा जैसा कोई तत्व नही है । स्व जिसके अस्तित्व में हम संस्कारित हैं , यह हमारे भिन्न –२ मानसिक व शारीरिक अवययों के सिवा कुछ भी नही है , जो कि कार्यु कारण की सतत स्थायी परिवर्तन की अवस्था में है ।

संदर्भित ग्रन्थ

१. इस लेख की मुख्य थीम भिक्षु बुद्ध रत्न डां मनोज भन्ते के लेख से ली गयी है जो बोद्ध गया मन्दिर मैनेजंमैन्ट कमेटी द्वारा प्रकाशित जर्नल ‘ प्रज्ञा ’ मॆ सन्‌ २०१२ की बुद्ध जंयती को प्रकाशित हुई थी ।

२. ‘ स्वर्ग कोई भी जा सकता है ,बस अच्छे बनो ’ टी. वाई .ली. की पुस्तक का श्री राजेश चन्द्रा जी द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद ।

३. आचार्य गोयन्का जी द्वारा हिन्दी मे अनुवादित “ धम्मपद

४. महास्थविर ज्ञानातिलोक द्वारा संग्रहित बुद्ध वचन का भिक्षु आनन्द कौसल्लायन द्वारा हिन्दी अनुवाद

५. अनगरिक  धर्मपाल द्वारा संग्रहित बुद्ध की शिक्षा का भिक्षु आनन्द कौसल्लायन  और त्रिपटिकाचार्य भिक्षु धर्मरक्षित द्वारा हिन्दी अनुवाद

६. डां सैमुएल हैनीमैन द्वारा रचित आरेगान आफ़ होम्योपैथी का छवाँ संस्करण ।

Tuesday, June 4, 2013

झुकने रहने की कला–लाओत्से सूत्र

घाटी का रहस्य

लाओत्से कहता है हीनता से बाहर आने का एक  और  रास्ता है। और वह रास्ता है: घाटी के राज को जान लेना। वर्षा होती है; पहाड़ खाली रह जाते हैं, घाटियां भर जाती हैं, लबालब भर जाती हैं। राज क्या है? राज यह है कि घाटी पहले से ही खाली है। जो खाली है वह भर जाता है। पहाड़ पहले से ही भरे हैं, वे खाली रह जाते हैं। अहंकार रोग है, तो निरहंकारिता में राज है, कुंजी है।

लाओत्से कहता है, एक और ही रास्ता है। और वह रास्ता है: घाटी के राज को जान लेना। वर्षा होती है; पहाड़ खाली रह जाते हैं, घाटियां भर जाती हैं, लबालब भर जाती हैं। राज क्या है? राज यह है कि घाटी पहले से ही खाली है। जो खाली है वह भर जाता है। पहाड़ पहले से ही भरे हैं, वे खाली रह जाते हैं। अहंकार रोग है, तो निरहंकारिता में राज है, कुंजी है।

तुम जब तक दूसरे से अपने को तौलोगे और दूसरे से आगे होना चाहोगे तब तक तुम पाओगे कि तुम सदा पीछे हो। जिसने आगे होना चाहा, वह सदा पाएगा कि वह पीछे है। जिसने प्रतिस्पर्धा की, वह सदा पाएगा कि हार गया। लेकिन जो पीछे होने को राजी हो गया, जीवन की इस व्यर्थ दौड़ को देख कर, समझ कर, ध्यान से जो पीछे खड़ा हो गया, और जिसने कहा हम दौड़ते नहीं आगे होने को, लाओत्से कहता है, एक अनूठा चमत्कार घटित होता है कि जो आगे होने की दौड़ में होते हैं वे हीन हो जाते हैं और जो पीछे खड़े हो जाते हैं उनकी श्रेष्ठता की कोई सीमा नहीं है।

सच तो यह है कि पीछे तुम खड़े ही जैसे होते हो वैसे ही श्रेष्ठ हो जाते हो, हीनता मिट जाती है। क्योंकि तुलना ही न रही तो हीन कैसे हो सकते हो? किसी से तौलोगे तो पीछे हो सकते हो। तौलते ही नहीं किसी से, पीछे, सबसे पीछे ही खड़े हो गए, अपने तईं खड़े हो गए, अपने हाथ से ही संघर्ष छोड़ दिया और पीछे आ गए, अब तो तुम्हें हीनता का कैसे बोध होगा? हीनता का घाव भर जाएगा; और श्रेष्ठता के फूल उस घाव की जगह प्रकट होने शुरू हो जाते हैं। श्रेष्ठ केवल वे ही हो पाते हैं जो श्रेष्ठ होने की दौड़ में नहीं पड़ते। और हीन से हीनतर होता जाता है मनुष्य, जितनी ही दौड़ में पड़ता है।

अब लाओत्से के वचन हम समझने की कोशिश करें।

“यह कैसे हुआ कि महान नदी और समुद्र खड्डों के, घाटियों के स्वामी बन गए? झुकने और नीचे रहने में कुशल होने के कारण।’ उनकी कला एक ही है कि वे झुकना जानते हैं। झुकना बड़ी से बड़ी कला है। वस्तुतः जहां जितनी झुकने की क्षमता होगी उतना जीवन होगा। जीवन का लक्षण ही झुकना है।

लाओत्से को बहुत प्रिय है झुकने की कला। वह कहता है, जब तुम्हें कोई झुकाने आए तुम पहले से ही झुक जाना। तुम उसे इतना भी मौका मत देना कि झुकाने की कोशिश उसे करनी पड़े। – ओशो

देखें यहाँ भी : हीनता की ग्रंथी – इनफीरियारिटी कांप्लेक्स

‘महात्मा’ बुद्ध या ‘भगवान्‌’ बुद्ध–क्या उचित है ?

बुद्ध धम्म की सबसे बडी विशेषता उसका वैज्ञानिक दृष्टिकोण है , बुद्ध धम्म परलोक वाद , ईशवरवाद और आत्मा की सत्ता मे यकीन नही करता । विशव मे फ़ैले अनगिन्त धर्मों मे से बुद्ध धम्म अपनी अलग छवि रखता है और यह छवि बुद्ध के वैज्ञानिक दृष्टिकोण में है । लेकिन फ़िर भी यह एक ताज्जुब  सा लगता है कि बुद्ध धम्म के अनुयायी गौतम बुद्ध को भगवान्‌ की उपाधि देते हैं । यह उपाधि बुद्ध की उन शिक्षाओं के बिल्कुल विपरीत है जिसमें उन्होनें कहा है :
न हेत्थ देवो ब्रह्मा वा , संसारस्सत्थिकारको ।
सुद्ध्धम्मा पवतन्ति , हेतुसम्भार्पच्चया ॥ 
(विसुद्धि २१६८९,पच्चयपरिग्गहकथा )
संसार का निर्माण करने वाला न कोई देव है न ब्रम्हा । हेतु-प्रत्यय यानि कारणॊं पर आधारित मात्र शुद्ध धर्म प्रवतरित हो रहे हैं ।
तुम्हेहि किच्चमातप्पं , अक्खातारो तथागता ॥
धम्मपद २७६, मग्गवग
मैं तो मार्ग आख्यात करता हूँ, तुम्हारी मुक्ति के लिये तपना तो तुम्हें ही पडेगा ।
ईशवरीय सत्ता के अभाव में मानव जीवन कैसे अपनी जीवन यात्रा आरम्भ करे । बुद्ध ने इस पर कहा कि तुम स्वालम्बी बनॊ । ( अत्तदीपा भवथ अत्तसरणा ) । तुम ही अपने स्वामी हो ( अत्ता हि अत्तनो नाते ) । किसी भी पर्वत , वन , आराम , वृख्श , चैत्य आदि को देवता मानकर उसकी शरण मे मत जाओ क्योंकि इनसे दु:ख मुक्ति संभव नही है ।
भगवान्‌ शब्द का शाब्दिक अर्थ
आम भाषा में भगवान शब्द का अर्थ है ईशवर या परमात्मा , सर्वशक्तिमान , सृष्टि का रचयिता , पालनहारक और इसका संहार करने वाला जिसका नाम जपने से , ध्यान लगाने से वह प्रसन्न हो जाता है और भक्तो के पापों को क्षमा करके उन्हें भवसागर से पार निकाल लेता है ।
लेकिन फ़िर बुद्ध अनुयायियों द्वारा बुद्ध को भगवान्‌ शब्द की उपाधि क्यूं । इसके लिये थोडा और गहराई में जाना पडेगा । पालि भाषा मॆ कई शब्द संस्कृत भाषा के अनुरुप ही हैं लेकिन कही-२ उनके  शाब्दिक अर्थ अलग-२  हैं ।

संस्कृत-पालि तुल्य शब्दावली

पालि भाषा के अधिकांश शब्दों की संस्कृत शब्दों में बहुत अधिक समानता पायी जाती है। दूसरे शब्दों में यों कहें कि पालि शब्द संस्कृत शब्दों से व्युत्पन्न से लगते हैं। नीचे कुछ प्रमुख शब्दों के तुल्य पालि शब्द दिये गये हैं-
संस्कृत -- पालि
अच्युत -- अच्चुत
अग्नि -- अग्ग
अहिंसा -- अहिंसा
अक्षर -- अक्खर
अमृत -- अमत
अनात्मन -- अनत्त
अप्रमाद -- अप्पमाद
आर्य -- अरिय
आत्मन -- अत्त / अत्तन
ऋषि -- इसि
ऋद्धि -- इद्धि
ऋजु -- उजु
वृद्ध - वुद्ध
कृत -- कत
स्थविर -- थेर
औषध -- ओसध
राज्य -- रज्ज
ईश्वर -- इस्सर
तीर्ण -- तिण्ण
पूर्व -- पुब्ब
शरण -- सरण
दोष -- दोस
भिक्षु -- भिक्खु
ब्रह्मचारिन् -- ब्रह्मचारिन्
ब्राह्मण -- ब्राह्मण
बुद्ध -- बुद्ध
चक्र -- चक्क
चन्द्र -- चन्द
चित्र -- चित्त
चित्त -- चित्त
दृढ -- दल्ह
दण्ड -- दण्ड
दर्शन -- दस्सन
देव -- देव
धर्म -- धम्म
धर्मस्थ -- धर्मत्थ
ध्रुव -- धुव
दुःख -- दुक्ख
गन्धर्व -- गन्धब्ब
गुप्त -- गुत्त
हंस -- हंस
ध्यान -- झान
कर्म -- कम्म
काम -- काम
स्कन्ध -- खन्ध
शान्ति -- खान्ति / खान्ती
क्षत्रिय -- खत्तिय
क्षेत्र -- खेत्त
क्रोध -- कोध
मर्त्य -- मच्च
मृत्यु -- मच्चु
मार्ग -- मग्ग
मैत्र -- मेत्र
मिथ्यादृष्टि -- मिच्छादिट्ठि
मोक्ष -- मोक्ख
मुक्त -- मुत्त
निर्वाण -- निब्बान
नित्य -- निच्च
प्रव्रजित -- पब्बजित (a homeless monk)
प्रकीर्णक -- पकिन्नक (scattered, miscellaneous)
प्राण -- पान (breath of life)
प्रज्ञा -- पन्ना (intelligence, wisdom, insight)
प्रज्ञाशिला -- पन्नासिला (higher intelligence and virtue)
परिनिर्वाण -- परिनिब्बन
प्रतिमोक्ष -- पतिमोक्ख
प्रिय -- पिय (dear, friend, amiable)
पुष्प -- पुप्फ
पुत्र -- पुत्त
सर्व -- सब्ब (all, whole)
सत्य -- सच्च
श्रद्धा -- सद्धा
स्वर्ग -- सग्ग
सहस्र -- सहस्स (a thousand)
श्रमण -- समन (religious recluse)
सम्योजन -- सन्नोजन / संयोजन
स्रोतस् -- सोत (stream)
शुक्ल -- सुक्क (light, pure, bright, white)
शून्यता -- सुन्नता (emptiness (nibbana), the Void)
तृष्णा -- तन्हा (thirst, craving)
त्रिपिटक -- तिपिटक
सूत्र -- सुत्त
स्थान - थान (condition, state, stance)
वक् / वच् -- वच (voice, word, speech)
वर्ग -- वग्ग (chapter, section; all chapter headings)
व्रण -- वन (wound, sore)
वन -- वन (forest, jungle (of desires))
विजान -- विजान (understanding, knowing)
विज्ञान -- विन्नान (cognition, consciousness, one of the five khandhas)
वीर्य -- विरिय (vigor, energy, exertion)
चार आर्य सत्य
चत्वारि आर्यसत्यानि -- चत्तारि अरियसच्चानि (four noble truths)
1) दुःख -- दुक्ख
2) समुदय -- समुदय (origin, cause of ill)
3) निरोध -- निरोध (destruction of ill, cessation of ill)
4) मार्ग -- मग्ग (road, way)
आर्याष्टांग मार्ग -- अरिय अट्ठांगिक मग्ग (THE NOBLE EIGHTFOLD PATH)
1) सम्यग्दृष्टि -- सम्मदिट्ठि (right insight, right understanding, right vision)
2) सम्यक् संकल्प -- सम्मसंकप्प (right aspiration, right thoughts [right thoughts in the Theravada terminology denote the thoughts free from ill will, hatred, and jealousy)
3) सम्यग्वाक् -- सम्मवाच (right speech)
4) सम्यक् कर्मान्त -- सम्मकम्मन्त (right action)
5) सम्यग्जीव -- सम्मजीव (right livelihood, right living)
6) सम्यग्व्यायाम -- सम्मवयाम (right effort)
7) सम्यक्स्मृति -- सम्मसति (right memory, right mindfulness)
8) सम्यक्समाधि -- सम्मसमाधि (right concentration)
स्त्रोत: विकीपीडिया
पालि भाषा मे भगवान्‌ का अर्थ
पालि का भगवान्‌ अथवा भगवतं दो शब्दों से बना है – भग + वान्‌ । पालि में भग मायने होता है – भंग करना , तोडना , भाग करना उपलब्धि को बांटना आदि और वान्‌ का अर्थ है धारण्कर्ता , तृष्णा आदि । यानि जिसने तृष्णाओं को भंग कर दिया हो वह भगवान्‌।
पालि ग्रंथों मे बुद्ध के लिये प्रयुक्त भगवान्‌ अथवा भगवा शब्द को परिभाषित करने के बहुत से उदाहरण है :
भग्गरागोति भगवा ’ : जिसने राग भग्न किया कर लिया वह भगवान्‌
‘ भग्ग्दोसोति भगवा ’ : जिसने द्धेष भग्न किया हो वह भगवान्‌
‘ भग्गमोहोति भगवा , भग्गमानोति भगवा , भग्ग किलेसोति भगवा , भवानं अंतकरोति भगवा म भग्गकण्ड्कोति भगवा ’..: जिसने मोह भंग कर लिया , अभिमान नष्ट कर लिया , क्लेष भग्न कर लिया , भव संस्कारों का अंत कर लिया , कंटक भग्न कर लिये वह भगवान्‌।
‘भग्गमोहोति भगवा’: मोह भग्न कर लिया , इस अर्थ में भगवान्‌ ।
‘भग्गमानोति भगवा’ : अभिमान नष्ट कर लिया , इस अर्थ में भगवान्‌ ।
‘भग्गदिट्‌ठीति भगवा’ : दार्शिनिक मान्याताओं को भग्न कर लिया , इस अर्थ में भगवान्‌ ।
‘भग्गकण्डकोति भगवा’: कंटक भग्न किया , इस अर्थ में भगवान्‌ ।
‘भग्गकिलेसोति भगवा’: क्लेश , काषाय भग्न कर लिये , इस अर्थ में भगवान्‌ ।
‘भजि विभजि पविभजि धम्म्रतन्तिभगवा’ : भजि यानी जिसने धर्म रत्न का भजन किया , यानी सेवन , इस माने भगवान्‌ ।
ऐसे न जाने कितने उदाहरण हैं जिसमॆ भगवान शब्द का अर्थ संस्कृत के शाब्दिक अर्थ  से बिल्कुल  अलग दिखता है ।
पालि में एक सुत्त है :
इतिपि सो भगवा , अरहं , सम्मासम्बुद्धो,
विज्जाचरणसम्पन्नो सुगुतो लोकविदू ,
अनुत्तरो पुरिस सम्म सारथी सत्था देवमनुस्सानं , बुद्धो भगवति ॥
ऐसे जो अहर्त है , सम्यक्‌ सम्बुद्ध हैं , संपूर्ण जागृत हैं , लोभ , द्धेष और मोह से मुक्त ऐसे भगवन्‌ हैं , सर्वज्ञ हैं , ज्ञान और आचरण में परिपूर्ण हैं , सुगति प्राप्त हैं , वर्तमान और भूत भविष्य को जानने वाले हैं , यथावादी तथाकारी , जैसा कहते हैं वैसा करते हैं , ऐसे आचरण वाले हैं , आदमी कोलोभ , द्धेष और मोह से छुडाने वाले अप्रतिम सारथी हैं , देवता और मनुष्यों के सास्ता हैं , गुरु हैं , उपदेशक हैं , ऐसे मनुष्यों मे अनुपम श्रेष्ठतम्‌ भगवान्‌ बुद्ध हैं ।
संदर्भित ग्रंथ एंव वेबसाइट
१. गौतम बुद्ध और उनके उपदेश रचयिता आनन्द श्रीकृष्ण
२. बुद्ध का चक्रवर्ती साम्राज्य लेखक श्री राजेश चन्द्रा
३. भगवान बुद्ध और उनका धर्म लेखक डां भीमराव अम्बेड्कर
४ वीकीपीडिया