Saturday, January 28, 2012

सच्चा साधु

साधु

भगवान् बुद्ध ने अपने शिष्यों को दीक्षा देने के उपरांत उन्हें धर्मचक्र-प्रवर्तन के लिए अन्य नगरों और गावों में जाने की आज्ञा दी।बुद्ध ने सभी शिष्यों से पूछा – “तुम सभी जहाँ कहीं भी जाओगे वहांतुम्हें अच्छे और बुरे – दोनों प्रकार के लोग मिलेंगे। अच्छे लोगतुम्हारी बातों को सुनेंगे और तुम्हारी सहायता करेंगे। बुरे लोग तुम्हारीनिंदा करेंगे और गालियाँ देंगे। तुम्हें इससे कैसा लगेगा?”

हर शिष्य ने अपनी समझ से बुद्ध के प्रश्न का उत्तर दिया। एक गुणी शिष्य ने बुद्ध से कहा – “मैं किसी को बुरा नहीं समझता। यदि कोई मेरी निंदा करेगा या मुझे गालियाँ देगा तो मैं समझूंगा कि वह भला व्यक्ति है क्योंकि उसने मुझे सिर्फ़ गालियाँ ही दीं, मुझपर धूल तो नहीं फेंकी।”

बुद्ध ने कहा – “और यदि कोई तुमपर धूल फेंक दे तो?”

“मैं उन्हें भला ही कहूँगा क्योंकि उसने सिर्फ़ धूल ही तो फेंकी, मुझे थप्पड़ तो नहीं मारा।”

“और यदि कोई थप्पड़ मार दे तो क्या करोगे?”

“मैं उन्हें बुरा नहीं कहूँगा क्योंकि उन्होंने मुझे थप्पड़ ही तो मारा, डंडा तो नहीं मारा।”

“यदि कोई डंडा मार दे तो?”

“मैं उसे धन्यवाद दूँगा क्योंकि उसने मुझे केवल डंडे से ही मारा, हथियार से नहीं मारा।”

“लेकिन मार्ग में तुम्हें डाकू भी मिल सकते हैं जो तुमपर घातक हथियार से प्रहार कर सकते हैं।”

“तो क्या? मैं तो उन्हें दयालु ही समझूंगा, क्योंकि वे केवल मारते ही हैं, मार नहीं डालते।”

“और यदि वे तुम्हें मार ही डालें?”

शिष्य बोला – “इस जीवन और संसार में केवल दुःख ही है। जितना अधिक जीवित रहूँगा उतना अधिक दुःख देखना पड़ेगा। जीवन से मुक्ति के लिए आत्महत्या करना तो महापाप है। यदि कोई जीवन से ऐसे ही छुटकारा दिला दे तो उसका भी उपकार मानूंगा।”

शिष्य के यह वचन सुनकर बुद्ध को अपार संतोष हुआ। वे बोले – तुम धन्य हो। केवल तुम ही सच्चे साधु हो। सच्चा साधु किसी भी दशा में दूसरे को बुरा नहीं समझता। जो दूसरों में बुराई नहीं देखता वही सच्चा परिव्राजक होने के योग्य है। तुम सदैव धर्म के मार्ग पर चलोगे।”

साभार : हिंदीजेन

Thursday, January 26, 2012

खोज

world-religion

कहते हैं कि एक हजार वर्ष पूर्व लेबनान के ढाल पर दो दार्शनिक आ मिले . एक ने दूसरे से पूछा , “ कहाँ जा रहे हो तुम ?”

दूसरे ने उत्तर दिया , “ मै तो यौवन के निर्झर की तलाश मे जा रहा हूँ . मेरे ध्यान इन्हीं किसी पहाडियों के मध्य उसका सोता प्रस्फ़ुटिक होता है . पर तुम ? तुम क्या खोज रहे हो ? "

पहले आदमी ने उत्तर दिया , “ मैं तो मॄत्यु के रहस्य की तलाश कर रहा हूँ . "

तब दोनों दार्शिनिकों ने एक दूसरे के प्रति धारणा बना ली कि दूसरा उनकी महान विधा से अपरिचित है . वे आपस में लडने झगडने लगे और एक दूसरे कॆ अन्धविशवास की आलोचना करने लगे .

तभी उधर से एक अजनबी निकला, जो गाँव मे महामूर्ख समझा जाता था . वह उनके बीच की गर्मा गर्म बहस और तर्कों को सुनता रहा .

उसके बाद वह उनके निकट आ कर बोला , “ भलेमानुसो , ऐसा लगता है तुम दोनों एक ही सिद्दान्त के मानने वाले हो और तुम दोनो एक ही बात कह भी रह हो . अन्तर तो सिर्फ़ शब्दों का है . तुममे से एक यौवन के निर्झर की तलाश कर रहा है और दूसरा मृत्यु के रहस्य की खोज , पर हैं तो दोनों एक ही , और वह दोनों एकरुप होकर तुम दोनो मे बसते हैं . "

वह अपरिचित दोनों से विदाई लेता हुआ चल दिया और जाते-२ खूब हँसा .

दोनों दार्शनिकों ने चुपचाप कुछ क्षणॊं के लिये एक दूसरे को देखा और तब वए दोनों भी हँस पडॆ और उनमें से एक ने कहा , “ अच्छा तो हम दोनों मिलकर खोज करें  न ?"

खलील जिब्रान की यह लघु कथा मुझे कई अर्थॊं मे महत्वपूर्ण लगती है . इस संसार मे इतने सारे धर्म , उनके अनुनायी होते हुये भी कहीं समरसता  नजर नही आती . हर धर्म दूसरे धर्म को तो या तो नीची दृष्टि से देखता है या अपने ही धर्म को सर्वोच्च करने मे लगा रहता है . इतिहास गवाह है कि विभिन्न धर्मों मे यह लुका छिपी का खेल अनेक बार खूनी जंग मे तब्दील हो चुका है . जब सब के अंतिम मार्ग एक ही हैं तो यह खूनी जंग क्यूं ?

ईशवर है या नही …यह एक कपोल कल्पित प्रशन है , वह किस रुप मे है , इसमे भी भिन्न-२  राय हो सकती है , लेकिन एक बात सच है कि दु:ख और पीडायें हर इंसान मे सामान्य रुप से हैं .

एक बार गौतम बुद्ध कौशम्बी मे सिमसा जगंल मे  विहार कर रहे थे । एक दिन उन्होने जंगल मे पेडॊं के कुछ पत्तों  को अपने हाथ मे लेकर भिक्षुओं से पूछा , “ क्या लगता है भिक्षुओं , मैने  हाथ मे जो पत्ते लिये हैं वह  या जंगल मे पेडॊं पर लगे पत्ते संख्या मे अधिक हैं । “

भिक्षुओं ने कहा , “ जाहिर हैं जो पत्ते जंगल मे पेडॊं पर लगे हैं वही संख्या मे आपके हाथ मे रखे पत्तों से अधिक हैं “

इसी तरह  भिक्षुओं ऐसी अनगिनत  चीजे हैं जिन्का प्रत्यक्ष ज्ञान के साथ संबध हैं लेकिन उनको मै तुम लोगों को  नही सिखाता क्योंकि उनका संबध लक्ष्य के साथ नही जुडा है , न ही वह चितंन का नेतूत्व करती हैं , न ही विराग को दूर करती है, न आत्मजागरुकता उत्पन्न करती है और  न ही मन को शांत करती है ।

इसलिये भिक्षुओं तुम्हारा कर्तव्य तुम्हारे चिंतन मे है ..उस दु:ख की उत्पत्ति …दु:ख की समाप्ति और उस अभ्यास मे है जो इस जीवन मे तनाव या दु:ख को दूर कर सकती है । और यह अभ्यास इस जीवन के लक्ष्य से जुडा है , निराशा और विराग को  दूर करता हैं और मन को शांत करता है । संयुत्त निकाय 56.31