Thursday, September 10, 2015

जीवन की तीन गाथाये ‘ भास्कर साल्वे 'कमलवीर' ’

 

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"जीवन की तीन गाथायें " श्री भास्कर  साल्वे कमलवीर' जी के द्वारा रचित उनके मूल मराठी लिखी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद है जो लेखक की व्यक्तिगत ध्यान साधना का फ़ल प्रतीत होती है ।
लेखक के अनुसार दु:ख मुक्ति अर्थात निब्बाण जीवन का अंतिम उद्देशय है लेकिन यह कैसे प्राप्त करे जब कि मन इतना चंचल और गतिशील है । आशा है कि भगवान्‌ बुद्ध के सुझाये ध्यान साधना विषय मे रुचि रखने वाले साधकों के लिये यह एक बहूमूल्य पुस्तक सिद्ध होगी ।
"जीवन की तीन गाथायें " पुस्तक के कुछ अंश “ :
सम्यक साधना 
1. जीवन का उद्देश्य : आनंद या दुक्ख मुक्ति
अधिकतर लोगों की  यह समझ होती है कि अपना जीवन  केवल आनंद और सुख की प्राप्ति तथा उनका उपभोग लेनेके लिए होता है. उपरी तौरसे देखा जाये तो ऐसा आभास होता है की यह समझ सही है। क्योंकि मनुष्य को जीवन के आनंद और सुख तो चाहिए ही, वरना जीवन दुःख का बोझ बन जायेगा. लेकिन यह समझ सही होनेके बावजूद भी उचित नहीं है, सम्यक नहीं है। यदि हम स्वयं से यह प्रश्न पूछे कि "मुझे आनंद और सुख किसलिए चाहिए?" तो इसका उत्तर यही  मिलेगा कि "मुझे आनंद और सुख  इसलिए चाहिए क्योंकि मैं दुःख नहीं चाहता." इसका अर्थ यह हुआ कि मनुष्य जीवन में जो दौड़-धुप चलती है वह आनंद और सुख लिए नहीं बल्कि दुख-मुक्ति के लिए चलती है।
           मनुष्य के जीवन में यदि दुक्ख ही नहीं होगा तो उसे आनंद और सुख की आवश्यकता ही  क्या? इसलिए       दुक्ख जीवन का सत्य है। सारे दौड़-धुप के पीछे वही प्रेरणा है. लेकिन जिस के लिए सारी दौड़-धुप चलती है          वह दुक्खमुक्ति केवल आनन्द और सुख के साधन इकट्ठा करने से या उनका केवल उपभोग कर लेने से नहीं मिलती , भले ही हम उनमे जीवन पर्यंत रमे रहें. इस से  दुःख को जरा सा भुलाया जा सकता है, बस! जीवन यह वास्तविकता उस मनुष्य की समझ में आये बिना नहीं रहती,  अपने जीवन के प्रति जागरूक रहता है. जितनी  जल्दी यह समझ में आयेगा उतनी जल्दी वह दुक्ख मुक्ति के लिए प्रयत्न शुरू करेगा. यही तथागत बुद्ध के चार सत्यो की शिक्षा का आधार  है। 
'दुःख है' यह सत्य अनुभव से देखना ( अर्थात सति , स्मृती ) और स्वीकार करना यह पहला प्रमुख (आर्य) सत्य बुद्ध शिक्षा का आरंभ बिंदु है। यह सत्य समझने और स्वीकारने के बाद अगले सत्यो का अनुभव लेनेके लिए  प्रयास किया जा सकता है। दुःख समुदय, दुःख निरोध और दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपदा ये बाकि के तीन सत्य है। उनका भावार्थ है - " दुःख का उदय विशिश्ट कारण  अर्थात तूष्णा के साथ होता है" ,"उस कारण  का निवारण होने से दुःख का निवारण होता है" और "दुःख निवारण  करने का उपाय है, मार्ग  है।"  इससे यह सिद्ध होता है कि दुःख का अस्तित्व स्वीकार किये  बिना दुःखमुक्ति मिलना  असंभव है। जिस प्रकार गंभीर बीमारी से ग्रस्त मनुष्य यह स्वीकार नहीं करेगा कि 'मुझे बीमारी है'  तब तक वह बीमारी का इलाज करने के लिए तैयार नहीं होगा, वरना  'मुझे कुछ नहीं हुआ' या 'मुझे इलाज से  डर  लगता है'  ऐसा  कहने से जिस तरह  उसकी बीमारी का इलाज नहीं होगा उसी तरह "दुःख है " इस सत्य को स्वीकार किये बिना दुःख मुक्ति संभव नहीं हो सकती.
लेकिन दुःख  अप्रिय और सहन न होनेवाला अनुभव है. इस कारण मनुष्य उसको स्वीकार करना नहीं चाहता, इतना ही नह़ी  उसके  बारे मे सोचना नहीं चाहता। इसलिए वह दुःख को टालता रहता है और प्रिय लगनेवाली आनंददायक सुख की कल्पनाओ मे और काल्पनिक विषयो मे रमाँ रहता है। वह उनके लोभ में फंस जाता है और यही दुःख मुक्ति के मार्ग में मुख्य बाधा बनती है। अपने सारे  आनंद और सुख के साधन तथा तत्संबंधित विचार अप्रिय लगने वाले दुःख से दूर रहने के लिए ही होते है। लेकिन दूर रहने से समस्या का हल नही निकलता। आगे कभी ना  कभी, किसी ना किसी रूप में उसका सामना अटल रहता है, हमारी इच्छा हो या न हो।
मन के स्तर पर घटने वाली ये सभी मोहमय ( अज्ञानमय) घटनाएँ  नैसर्गिक कार्यकारणभाव के अनुसार घटती है, इन्हें हम जान बुझकर निर्माण नहीं करते। मुख्यतः अपने मन की और कुल जीवन की अबोध अर्थात अज्ञान अवस्था में वे घटती है। इसीलिये दुःख मुक्ति अर्थात निब्बाण  का ध्येय साध्य करने के लिए पहले हमें अपने मन का शोध करना अत्यंत आवश्यक है।
2.मन का शोध
हमने यह देखा कि  मन के  स्तर  पर घटने वाली  नैसर्गिक घटनाएँ देखने के लिए और मुख्यत: दुःख मुक्ति      का ध्येय  साध्य करने के लिए हमें अपने मन का शोध करना आवश्यक है।यह कठिन काम उचित (सम्यक) पद्धति से और प्रयत्नों (साधना) से आसान हो सकता है. लेकिन मन की नैसर्गिक घटनाएँ नैसर्गिक पद्धति से देखना, उनका अनुभव करना संभव है, कृत्रिम पद्धति से नहीं. यह बात शुरू से ही ध्यान में रखना आवश्यक है.
पहले हम अपने मन का साधारण स्वरूप देखने का प्रयत्न करेंगे. यहाँ हम मन का सैद्धांतिक दृष्टी से नहीं बल्कि उसका प्रत्यक्ष अनुभव हो इस दृष्टी से और उसे दुःख मुक्ति की ओर, निब्बान की ओर कैसे मोड़ा जाये इस दृष्टी से उसका स्वरूप देखने की कोशिश करेंगे. मन के बारे में अहिक विचार न करते हुए हम यह कह सकते है कि हमें मन का एहसास दो बातो के कारण होता है, वह है सुख और दुःख. "वाह, मुझे बहुत अच्छा लगा!", "मुझे बहुत आनंद हुआ!", "मुझे वह कुछ ठीक नहीं लगा!"," मेरा तो दिल ही बैठ गया !", ये हमारे सुख-दुःख की संवेदना ओं के कुछ उद्गार है. इससे यह स्पष्ट होता है कि सुख-दुःख की संवेदना (पालि- वेदना) ओं का 'एहसास होना' यह  मन का एक लक्षण है. हम विचार करते है और अपनी भावनायें व्यक्त कर सकते है. अर्थात विचार करना यह भी मन का एक लक्षण है.
इस  तरह हमें मन का साधारण स्वरूप समझ में आ सकता है. लेकिन उसके स्पष्ट स्वरूप का एहसास हमें नहीं होता. क्यों? क्योंकि हमारा मन अत्यंत जटिल, गतिमान और गतिशील मानसिक घटनाओं से युक्त रहता है. इसलिए हमें इन घटनाओं का अर्थात मन का स्पष्ट बोध नहीं होता. पहले यह बोध होना अत्यंत आवश्यक है.
धम्मपद के 'चित्तवग्गो' की कुछ गाथाएं मन के कुछ लक्षण बताती है. इन लक्षणों के आधार से हमें अपने मन का अनुभव करने में सहायता मिलती है. क्योंकि हम अनुभव कर सकेंगे ऐसे शब्दों में वह बताई गयी है. गाथाओं में जो कहा है उनका भावार्थ ऐसा है... 
"मन संवेदनशील, चंचल, अस्थिर है. उसकी रक्षा करना, उसका निवारण करना, उसका निग्रह करना बड़ा कठिन होता है. वह इच्छानुसार जिधर चाहे उधर भागता है. उसे देखना, अनुभव करना कठिन होता है. वह चतुर, दूर भटकनेवाला और अकेले विचरण करने वाला होता है. वह (स्वयम) अशरीरी है परन्तु शरीररूपी गुफा में छुपा होता है. वह कभी मलिन तो कभी मलरहित रहता है, कभी भयग्रस्त तो कभी भय मुक्त रहता है." (चित्त वग्गो - गाथा क्र. ३३से ३९). अभिधम्म में चित्त, चैतसिक, रूप (form) और निब्बान इन चार विभागों में मन की ५२ अवस्था ओं का वर्णन है. महायानी अभिधम्म में उनकी संख्या ५१ है.
मन के सभी व्यापार, अच्छे-बुरे विचार, भावनाएं आदि अनेक मानसिक क्रियाओं से  अपना मन बना है और मानसिक क्रियाओं को 'मनोधम्म' या मनोधर्म कहा है. मन इन मनोधम्मो से बनता है. इसलिए उसे मनोधम्मो से ही जाना जा सकता है. जिस तरह शरीर के अवयवो से शरीर बनता है, ये अवयव याने यह शरीर है, उसी तरह ये मनोधम्म याने अपना यह मन है. इन धम्मो का अनुभव करना ही मन को जानना है.
धम्मपद की पहली दो गाथाएं सुखदुख का निर्माण करने वाले मन का स्वरूप स्पष्ट कराती है. वह इस तरह....
मनोपुब्बंगमा धम्मा मनोसेटठा मनोमया
मनसा चे पदुटठेन भासती वा करोति वा
ततो नं दुक्खमन्वेती चक्कं 'व् वहतो पदं ll
मनोपुब्बंगमा धम्मा मनोसेटठा मनोमया
मनसा चे पसन्नेन भासती वा करोति वा
ततो नं सुख मन्वेती  छाया व् अनपायिनी ll
इन गाथाओं का आशय इस प्रकार है. सभी मनोधम्मो में मन अगुआ होता है, मन ही मुख्य है.मन मनोधम्मो में व्याप्त रहता है. हमारी वाणी और व्यवहार इन में मन एक प्रेरक शक्ति है. जैसा मन वैसी वाणी और व्यवहार होता है.
जिस तरह गाड़ी खींचने वाले के पैरों पीछे गाड़ी का पहिया अत है, उसी तरह दूषित मन से प्रेरित वाणी और व्यवहार परिणामत: दुखदायक होता है. उसी प्रकार अपनी छाया जैसे हमारे साथ रहती है वैसे ही सत्प्रवृत्त मन से प्रेरित वाणी और व्यवहार परिणामत: सुखदायक रहता है.
इस तरह मन ही अपने अस्तित्व का, जीवन का केन्द्रस्थान  है. इसलिए अपने मन का बोध यानि अपने जीवन का बोध है, अपने अस्तित्व का बोध है.
लेकिन अस्तित्व का केन्द्रस्थान बना यह मन निश्चित में कहां होता है?
इसके पहले जो उल्लेख आया है, उस गाथा के अनुसार 'दूर भटकने वाला, अकेले रहनेवाला, अशरीरी मन शरीररूपी गुफामे बसा हुआ है'. मन शरीररूपी गुफा में छुपा होने के कारण मन का शोध और बोध शरीर के आधार से ही होना संभव है. हमें अपने शरीर का स्पष्ट बोध हुए बिना अपने मन का स्पष्ट बोध नहीं हो सकता.
लेकिन हमें अपने शरीर का और शरीर के आधार पर मन का बोध कैसे होगा? 'सम्यक साधना' के  आधार से हम यही देखने का और अनुभव करने का प्रयास करेंगे.  
सम्यक साधना की दृष्टी से हम तीन बातो पर विशेष जोर देने वाले है. 
१. मन शरीर रूपी गुफा में होने के कारण शरीर के आधार से ही मन का स्पष्ट बोध हो सकता है. 
२.मन 'गतिशील' है. (क्योंकि वह चंचल, अस्थिर, चपल और भटकने वाला अर्थात भटकानेवाला है. 
३.मन की नैसर्गिक घटनाएँ नैसर्गिक पद्धति से ही अनुभव करना संभव है.
३. गतिशील मन, गतिशील शरीर

"मन स्फंदन करने वाला, चंचल, चपल, अस्थिर (गतिशील) है, इसका रक्षण करना, इसका निवारण करना, इसे शांत करना कठिन है."
(फंदनं चपलम चित्तं दूरकख  दुन्निवारयं ...धम्मपद गाथा क्र.-३३)
मूल में ही चंचल, गतिशील स्वभाव का अपना यह मन आज के अति वेगवान जग में अधिक ही गतिमान और चंचल बनता जा रहा जान पड़ता है. आधुनिक मन इतना अस्थिर बनता जा रहा है कि उसमे कभी-कभी विकृति का दर्शन भी होता है. आकाश में उड़ने वाले हवाई जहाज, तेज भागने वाले  वहां, रेलगाड़ियाँ, भागदौड़ करनेवाले लोग, लोगों के अच्छे बुरे स्वभाव, इन सब का मन पर परिणाम होता है. वैसे ही रंग-बिरंगे वस्र, चटपटे खाद्य पदार्थ और मन को आकर्षित करने वाली सैंकड़ो वस्तुएं और उनकी सुसज्जित दुकाने, मनोरंजन के अनेक प्रकार, मधुरता में मिश्रित किया हुआ विक्षिप्त और कर्ण कर्कश संगीत, भडकदार विज्ञापन, सैंकड़ो भली बुरी पुस्तकें, अखबार ऐसे अनेक विषयों में अपनी छः इन्द्रियां यानि आँखें, कान, नाक, जीभ, त्वचा और मन अर्थात अपना सम्पूर्ण अस्तित्व कम-ज्यादा मात्रा में व्यस्त रहता है.
इनके अलावा पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्टार पर घटने वाली विपरीत घटनाएँ, चढ़ाउपरी, तानतनाव  इनसे अपने आपको बचाना दिन-ब-दिन  कठिन होता जा रहा है. इसके कारण साधारण मन की चंचलता दिन-ब-दिन बढाती ही जा रही है. मन को कहीं स्थिर होने के लिए या उसे शांत करने के लिए अवकाश नहीं मिलता.
मन का रक्षण करना आधुनिक मनुष्य के लिए अधिक कठिन हो गया है. उसने अपने मन के संपर्क में क्षणभर भी आने की कोशिश की तो यह वास्तव उसके ध्यान में आये बिना नहीं रहता. मन के संपर्क में आना कठिन होने के कारण ही अशांत और मनोविकृत लोगों की मात्र बढ़ती जा रही है. विकसित समझे जाने वाले कुछ पाश्चात्य राष्ट्रोमे तो बीस प्रतिशत लोग मनोविकृत हैं और उन्हें नियमित रूप से मानसोपचार की जरुरत पड़ती है. कुछ दिन पहले अमेरिक जैसे अतिविकसित राष्ट्र में एक छात्र ने पाठशाला में गोलीबारी की और एक मनुष्य ने कालेज के प्राध्यापक और कर्मचारियों पर जन लेवा हमला किया. बढ़ते हुए  मानसिक विचलन के ऐसे अनेक उदाहरण समाज में दिखाई देते है. रोज के अखबारोमे ऐसी दो-चार सनसनीखेज खबरें तो होती ही है. हम बड़ी रूचि के साथ उन्हें पढ़ते है. लेकिन हमारा मन उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता. वह अधिकाधिक अशांत और गतिमान बनता है.
लेकिन मन कितना भी चंचल क्यों न हो, गतिमान क्यों न हो, उसका स्पष्ट बोध कर लेने का और उसे संयमित करके उसकी विकृत गतिशीलता, चंचलता और अशांति ( दुःख) इनसे मुक्त होने का तंत्र तथागत बुद्ध ने २५५० वर्ष पहले बताया है. यद्यपि उसका मूल तंत्र हम तक पहुंचना असंभव है, फिर भी अनुभव की बुनियाद और मूलतत्व के आधार पर वह तंत्र समझ लेना और use योग्य (सम्यक) पद्धतीसे प्रयोग(साधना) में लाना संभव है. अपने मन ki गति में एकरूप होकर उसका बोध कर लेने के लिए बुद्ध शिक्षा का ''वह" गूढ़ तंत्र  स्वानुभव से प्रगट हो सकता है क्या, इसका हम विचार करेंगे और उसके अनुसार अभ्यास(साधना)  करने का प्रयास करेंगे.
मन शरीर रूपी गुफा में होने के कारण मन का शोध और बोध शरीर के आधार पर ही होना संभव है इस बात को हम पिछले प्रकरण में जान चुके है.
शरीर की गुफा में रहने वाला मन गतिशील होने के कारण शरीर भी अनायास गतिशील रहता है. लेकिन शरीर की गति मन की तुलना में बहुत कम होती है. मन की गति अत्यंत तेज होती है. अपनी भावनाएं, विचार और उनका उदय-अस्त अत्यंत तीव्र गति से होता है. इसलिए उनमे संदिग्धता और गुत्थी भी अधिक होती है. विशिष्ट प्रसंग में अपनी गतिशील भावनाएं और विचार बहुत ही उग्र रूप धारण करते हैं. लेकिन इन विचार और भावना ओंको शरीर से मिलाने वाला प्रति उत्तर अर्थात रिस्पोंस उतना उग्र और गतिमान नहीं रहता. उसकी गति तुलना में कम रहती है और उसमे संदिग्धता और गुत्थी भी कम रहती है.जैसे, कोई खाद्य पदार्थ खाने की कृति घटने के पहले पदार्थ खाने के बारे में, उसके स्वाद के बारे में, उसके रूचि अरुचि के बारे में जितने प्रबल, जटिल और गतिमान विचार और भावनाएं मन में आती है उतने प्रबल और गतिमान शारीरिक कृति प्रत्यक्ष खाते समय नहीं रहती. और एक उदाहरण देखेंगे-. यह पुस्तक लिखते समय इसमें जब कोई निष्कर्षात्मक शब्द या वाक्य लिखा जाता है ( जैसे, मन और शरीर की गतिशीलता) तो पूर्व में इसके बारेमे कई दिन या सालों तक मन में विचार चलते रहते है या वह ध्यानाभ्यास का विषय रहता है. लेकिन वह शब्द या वाक्य हाथ से कुछ क्षणों में लिया जाता है.
इनसे मन और शरीर इन दोनों की गतिका अंतर ध्यान में आता है. हमारा बोलना, चलना, उठाना, बैठना, देखना ऐसी कृतियों में हम इसका अनुभव ले सकते है. 
यहाँ जो मुख्य बात ध्यान में लेना आवश्यक है वह यह है कि तीव्र गति के मन का बोध होने के लिए उसकी तुलना में जिसकी गति कम है और जिसमे मन का निवास है उस शरीर का बोध होना पहले आवश्यक है. जिस तरह अधिक गति की गाड़ी में चढ़ने के लिए पहले उससे कम गति की गाड़ी में चढ़ने का अभ्यास होना चाहिए उसी तरह तीव्र गति मन का स्पष्ट बोध होने के लिए उससे संलग्न परन्तु तुलना में जिसकी गति धीमी है उस शरीर का बोध होना पहले आवश्यक है. यहाँ  और एक महत्वपूर्ण मुद्दा ध्यान में रखना आवश्यक है वह यह है कि, चलती गाड़ी में चढ़ने के लिए हमें अपनी स्वयं की गति गाड़ी की गति से मिलानी पड़ती है तभी हम उस गाड़ी में चढ़ सकते है, वर्ण नहीं. ध्यान साधना की दृष्टी से यह बात मन में धारण करना अत्यंत आवश्यक है.
मन की तुलना में शरीर की गति कम होने के बावजूद भी शरीर और शरीर के अंतर्बाह्य हलचलों का और उनकी विभिन्न गतियोंका बोध होना भी उतना असं कम नहीं है. फिर भी आवश्यक और उचित प्रयत्नों से यह साध्य होता है इसमें कोई शक नहीं है.
लेकिन गतिशील शरीर का बोध होने के लिए उससे कम गतिवाला परन्तु शरीर और मन से संलग्न ऐसा कोई दूसरा माध्यम है क्या, जिस के आधार पर हम निसर्गत: शरीर और शरीर के आधार par मन से एकरूप हो सकते है? 
हाँ! मन और शरीर से संलग्न रहने वाला और शरीर से कम गतिवाला ऐसा एक सुलभ साधन हमारे पास उपलब्ध है जिसका हम माध्यम के रूप में उपयोग कर सकते है. वह साधन है हमारी साँस! नासर्गिक पद्धति से और सम्यक स्मृति की सहायता से साँस और उसकी गति का बोध करते हुए साँस की गति से एकरूप हो सकते है और नैसर्गिक साँस से एकरूप होते होते हम निसर्गत: शरीर से और शरीर के आधार पर मन से एकरूप होते जाते है.
तथागत बुद्ध द्वारा खोजे हुए इस अनन्यसाधारण माध्यम का, साँस का उपयोग हमें अस्तित्व के संपर्क में जाने के लिए किस हो सकता है, इसका विचार हम अगले प्रकरण में करेंगे.
४.गतिशील साँस और उसकी गतिशील स्मृति

अपना यह अस्तित्व सदैव गतिशील रहता है.अपने मन की गति अधिक तीव्र और संदिग्ध होती है. शरीर की गति तुलना में मन की गति से कम रहती है और उसमे संदिग्धता भी कम होती है.इस मनोकायिक अस्तित्व की गति से एकरूप होकर उसका बोध कर लेना यह सम्यक साधना का प्राथमिक हेतु है. 
अस्तित्व का बोध * होने के लिए गतिशील साँस, गतिशील शरीर और गतिशील मन इनका प्रयत्न पूर्वक बोध रखने की जो क्रिया है उसे "सति" (स्मृति) कहा जा सकता है. ध्यान साधना में और व्यवहारिक अस्तित्व में स्मृति अत्यंत महत्वपूर्ण, निर्णायक और सर्वसमावेशक होती है, क्योंकि स्मृति से जागरूकता का व्यापक विकास  होता है. तथागत बुद्ध ने स्मृति की और विशेषकर सम्यक स्मृति की सहायता से ही अस्तित्व का ज्ञान प्राप्त किया और "अप्पमादेन सम्पादेथ"- अर्थात अप्रमादपूर्वक (स्म्रुतिपुर्वक) प्रयास करते रहो- इस अंतिम सन्देश द्वारा मानो हमें भी उसी का अंगीकार करने के लिए कहा है. सम्यक साधना की सहायता से हम वही काम करनेवाले हैं.
गतिशील शरीर से एकरूप होने के लिए पहले साँस की गति से एकरूप होने का अभ्यास करना आवश्यक है. अर्थात गतिशील साँस की गतिशील स्मृति रखना हमें आवश्यक है.
अपना यह चित्तमय शरीर जन्म से मृत्यु तक अखंडता से साँस लेता है और छोड़ता है. साँस का शरीर में आना और बहार जाना इस प्रक्रिया को पली भाषा  में क्रमश: आन और अपान कहते है तथा नैसर्गिक आन और अपान की स्मृति या बोध रखना इस क्रिया को 'आनापानसति' कहते हैं. नैसर्गिक और गतिशील साँस यह आनापानसति का विषय है. लेकिन नैसर्गिक साँस का अनुभव होने के लिए विशिष्ट मानसिकता का या दृष्टी का होना आवश्यक है. पहले हम इसके बारे में विचार करेंगे.
साँस "मैं" नहीं लेता, "मैं" नहीं छोड़ता  (अनात्म आनापान)
जीवन में हमें जब भी दुःख का एहसास होता है तो उस दुःख कारण हम अपने "आत्मभाव" में अर्थात तृष्णा में पाते हैं. यह आत्मभाव यानि अपना "मैं" होता है. अनात्म का बोध न होनेके कारण हम पर इस "मैं" का प्रभाव होता है. इतनाही नहीं उसका हम पर तनाव होता है. हमारे साँस पर भी अपने इस "मैं" का प्रभाव होता है. इसीलिए  हमें लगता है कि 'मैं' साँस ले रहा हूँ, 'मैं' साँस छोड़ रहा हूँ. लेकिन वास्तव ऐसा नहीं है. हमें साँस 'लेनेकी' या 'छोड़ने' की आवश्यकता नहीं.वह नैसर्गिक रूप से आती है और नैसर्गिक रूप से जाती है. "मैं" के कारण हम नैसर्गिक, मुक्त और गतिशील साँस का अनुभव नहीं कर सकते. यह अनुभव लेने के लिए हमारी साँस "मैं" या आत्मभाव से मुक्त होनी चाहिए. यह मुक्त, गतिशील और नैसर्गिक साँस ही आनापानसति  का विषय है.
इस तरह नैसर्गिक रूप से आनेवाले और जानेवाले मुक्त , अनात्म आन और अपान की गतिशील स्मृति रखने का कम हमें करना है.
"जैसा है वैसा" अर्थात नैसर्गिक साँस अनुभव करना "आनापानसति" है. इसमे हम साँस शरीर के अन्दर आते समय 'आन' और शरीर के बाहर जाते  समय 'अपान' की स्मृति रखते है. 
....अधिक सहजता लाने के लिए हम अनात्म आनसति ... और अनात्म अपानसति ...और फिर अनात्म आनापानसति...इस तरह से अभ्यास कर सकते है. लेकिन "आन" होते समय "आन सति" और "अपान" होते समय "अपान सति " करना आवश्यक(सम्यक)  है जिसके कारण हम साँस की नैसर्गिक गति  में एकरूप होने लगते है.
"अनात्म आनापानसति " ध्यान अभ्यास के कारण होनेवाला "अनात्म बोध" अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यही अनात्म बोध आगे सम्पूर्ण दुःख मुक्ति के मार्ग में हमें क्षण प्रतिक्षण लाभदायक  सिद्ध होगा.
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* "बुध" यानि जानना , बुध से बोध, बोधि, बुद्ध ये शब्द बनते है.  "बुद्ध" यानि जाननेवाला, जागरूक, प्रज्ञावान.
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५. शरीर साँस लेता है, शरीर साँस छोड़ता है.....

'अनात्म आनापानसति' ध्यान का कुछ समय तक शांति से अभ्यास करने के बाद व उसमें  सहजता आने के बाद हमें यथावकाश यह अनुभव आने लगता है कि....
                         यह शरीर साँस ले रहा है....शरीर साँस छोड़ रहा है.... 
                          अपनी यह काया आना और अपान कर रही है. 
यह अनुभव आते समय हमें पेट, छाती और पीठ इनकी धीमी और गहरी हलचल महसूस हो सकती है. क्योंकि 'अनात्म आनापानसति' से साँस मुक्त चलने लगता है और इसलिए  गहरा महसूस हो सकता है. बाद में धीरे धीरे मानो सम्पूर्ण शरीर आनापान  प्रक्रिया में लगा हुआ सा महसूस होता है. इन अनुभवों के साथ-साथ अपना शरीर और मन धीरे धीरे शांत और स्थिर होने लगता है. 
लेकिन यहाँ यह देखना आवश्यक है कि "मै" पेट या छाती से साँस नहीं लेता या छोड़ता बल्कि शरीर नैसर्गिक रूप से साँस लेता है और छोड़ता है. 
अर्थात आनापानसति के अभ्यास में "अनात्म बोध" को न भूलना अत्यंत आवश्यक है.
स्मृति अभ्यास के इस चरण को हम "अनात्म काया आनापानसति " कहेंगे. 
"अनात्म काया आनापानसति "साधना जैसे-जैसे गहरी और सहज बनती जाएगी, वैसे-वैसे  "काया आनापानसति" का अनुभव अपने आप गहरा और सहज बनता जायेगा. आनापानसति से कायाआनापानसति में   होनेवाला स्थित्यंतर यह दर्शाता है कि हमने साँस के माध्यम से काया से संपर्क स्थापित किया है. इसके साथ साथ हमारी साँस शरीर से जुडी हुयी है इसका एहसास भी हमें होता है. यह अत्यंत महत्वपूर्ण चरण है. मन शरीर की गुफा में होने के कारण साँस के माध्यम से काया के संपर्क में आना यानी एक अर्थ से मन के संपर्क में आना है.
कायाआनापानसति की सहायता से शरीर के संपर्क में आने के बाद हमें आगे अपने गतिशील शरीर से एकरूप रहकर क्षण प्रतिक्षण स्मृति का अभ्यास करते करते और शरीर की वर्तमान गतिशील अवस्थाओं का अनुभव लेते हुए आगे मार्गक्रमण करना होता है. अर्थात इन अवस्थाओं के आधार से स्मृति मार्ग क्रमण करती हुयी आगे चलती है. 
आगे गतिशील * काया की स्मृति (कायानुस्मृति) के लिए हमें आनापानसति  और कायाआनापानसति  इन माध्यमोंकी  औपचारिक आवश्यकता नहीं रहती. लेकिन आवश्यक लगे तब आना पान सति या काया आना पान सति इन माध्यमों का अभ्यास करना चाहिए.
 

































Wednesday, September 9, 2015

क्या है ताओ ?

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कुछ है जो अपरिभाषित है 

फ़िर भी सम्पूर्ण और  शाश्वत है 

जो धरती और आकाश से भी पहले से ही है 

शांति और अपार 

स्थिर है शुरुआत से 

और फ़िर भी मौजूद है 

सब चीजो की उत्त्पत्ति का कारण है 

मैं इसका नाम नही जानता 

पर इसे ताओ के नाम से कहता हूँ 

~~ लाओत्सु ~~

Tuesday, September 8, 2015

ताओ–संरक्षण

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बीज में ही वृक्ष छुपा रहता है।
जो पैदा होता है, नष्ट होता है वो फिर पैदा होता है अर्थात् मृत्यु में संरक्षण है।
जो मुड़ा हुआ है, वही सीधा हो सकता है।
जो खाली है, वही भर सकता है।
जो पुराना होता और घिसता है, वही नया हो सकता है।
जितने कम की उम्मीद रखेंगे, उतना ही अधिक मिलेगा।
जितना अधिक पाने की कोशिश करेंगे उतना ही भ्रम में पड़ेंगे।
इसलिए भला आदमी एक ही को अपनाता है और दूजों के लिए उदाहरण बनता है।
वह प्रदर्शन नहीं करता, सामने नहीं आता, इसलिए चौगुना प्रसिद्ध होता है।
~~लाओत्सु~~

अनित्यता

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सब्बे संङ्खारा अनिच्चाति, यदा पञ्ञाय पस्सति।
अथ निब्बिन्दति दुक्खे, एस मग्गो विसुद्धिया।। (धम्मपद २७७)
सारे संस्कार अनित्य हैं यानी जो हो रहा है वह नष्ट होता ही है । इस सच्चाई को जब कोई विपशयना से देख लेता है , तब उसको दुखों से निर्वेद प्राप्त होता है अथात दु:ख भाव से भोक्ताभाव टूट जाता है । यह ही है शुद्ध विमुक्ति का मार्ग !!
धम्मपद २७७