।।ओकास।।
-राजेश चन्द्रा-
यह विनय का पारम्परिक अंग है कि यदि ऐसे अवसर पर कोई पूज्य भिक्खु या भिक्खुगण अथवा कोई बौद्ध आचार्य उपस्थित हैं तो उपासकगण सर्वप्रथम हाथ जोड़कर, भिक्खु अथवा आचार्य के सामने हो कर कहते हैं:
'ओकास!'
पारम्परिक रूप से पूरी गाथा कुछ इस तरह होती है:
ओकास! अहं भन्ते,
तिसरनेन सह पंचसीलं धम्मं याचामि।
अनुग्गहं कत्वा सीलं देथ मे भन्ते।।
दुतियम्पि ओकास! अहं भन्ते,
तिसरनेन सह पंचसीलं धम्मं याचामि।
अनुग्गहं कत्वा सीलं देथ मे भन्ते।।
ततियम्पि ओकास! अहं भन्ते,
तिसरनेन सह पंचसीलं धम्मं याचामि।
अनुग्गहं कत्वा सीलं देथ मे भन्ते।।
इन गाथाओं में पहला शब्द है 'ओकास!', इसके बाद की पंक्ति में याचना है:
त्रिशरण और पंचशील सहित धम्म की याचना करता हूँ, अनुगृह कीजिए, भन्ते जी, शील प्रदान कीजिये।
दूसरी बार भी 'ओकास!',
फिर वही याचना और अनुगृह प्रार्थना।
और तीसरी बार भी 'ओकास!',
फिर उपरोक्तानुसार वही याचना और अनुगृह प्रार्थना।
यह याचना-प्रार्थना अनिवार्य रूप से सिर्फ भन्ते के लिए ही नहीं है बल्कि यदि कोई आचार्य हैं तब 'भन्ते' के स्थान पर 'आचरियो' शब्द का प्रयोग करेंगे, भिक्खुनी है तो 'अय्या' सम्बोधन प्रयोग करेंगे । यदि कोई भी नहीं है तब भगवान की प्रतिमा के सम्मुख यही याचना की जाती है। भारत के पारम्परिक बौद्ध समाजों में ये परम्पराएं जीवित हैं जैसे असम, अरुणाचल, मणिपुर, बंगाल, लद्दाख इत्यादि के बौद्ध समाजों में।अस्तु।
याचना की प्रक्रिया में सबसे प्यारा शब्द है- ओकास।
यह पालि भाषा का शब्द है जिसका सहज-सा अर्थ है- अवकाश।
पालि शब्दकोश में इसके और भी समानार्थी अर्थ दिये हैं- अनुज्ञा, अनुमति, स्थान, इजाज़त इत्यादि लेकिन मौलिक रूप से यह 'अवकाश' शब्द का पालि संस्करण है।
धम्म के जानकार से अवकाश मांगना अर्थात उससे समय मांगना। यदि इसे अंग्रेजी में कहें तो यह लगभग ऐसा होगा- Venerable Bhanteji, please give me time- पूज्य भन्ते जी, कृपया मुझे समय दीजिए।
समय ले कर बात करना, मुलाकात करना, इस परिपाटी की शुरूआत भगवान बुद्ध के द्वारा की गयी जो कि बौद्धों के समस्त धार्मिक विधानों का एक विनय है, अनिवार्य अंग है।
जैसे राह चलते किसी व्यक्ति से हमें कोई पता पूछना हो तो हम बड़ी विनम्रतापूर्वक पूछते हैं। सर्वप्रथम तो हम उस व्यक्ति का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं- भाई साहब या बहन जी, सर या मैडम कह कर उन्हें उन्हें अपनी ओर मुखातिब करते हैं...
यह जो अपनी ओर मुखातिब करना है, विनम्रतापूर्वक ध्यानाकर्षित करना है यही अवकाश मांगना है, यही ओकास है...
ओकास अथवा अवकाश का ठीक-ठीक अर्थ मात्र समय मांगना भी नहीं है क्योंकि 'समय' शब्द भी पहले से ही पालि भाषा में मौजूद है। यदि आशय मात्र समय मांगना भर होता तो 'समय! अहं भन्ते' ऐसा उद्बोधन होता न कि 'ओकास! अहं भन्ते'।
ओकास अथवा अवकाश की याचना का अर्थ मात्र समय मांगना भर भी नहीं है बल्कि सम्पूर्ण चेतना में अवकाश मांगना है, अपनी जिज्ञासा समाधान, अपनी स्वीकृति के लिए अवकाश मांगना है, अंग्रेजी में कहें तो स्पेस मांगना है। स्पेस में टाइम अन्तर्निहित है।
कोई व्यक्ति अपने विचारों में मग्न है, जाने क्या चिन्तनधारा चल रही है, हम उसे टोकते हैं, रोकते हैं- भाई साहब, कृपया मुझे...
इतना बोलते ही हम उसकी चिन्तनधारा में अवरोध पैदा करते हैं, लेकिन ऐसा हमारा इरादा नहीं होता, अवरोध पैदा करना मकसद नहीं होता, बल्कि अपना लक्ष्य पाना हमारी जरूरत और व्याकुलता होती है क्योंकि हम किसी पते के लिए भटक रहे हैं। इसीलिए हमारे सम्बोधन में विनम्रता होती है और हमारी देह भाषा- बाडी लैंग्वेज- में भी याचना होती है, क्योंकि हम पता भर नहीं पूछ रहे हैं बल्कि उसकी चिन्तनधारा में, उसकी चेतना में भी थोड़ा-सा अवकाश मांग रहे हैं। दरअसल पता पूछने से पहले अप्रत्यक्ष रूप से बिना कहे ही हम एक निवेदन और कर रहे हैं- भाई साहब, आप जिन विचारों या भावनाओं में संलग्न हैं कृपया उसे थोड़ी देर के लिए विराम दे कर मेरी तरफ ध्यान दीजिए। वास्तव में हम ऐसा कहते नहीं हैं लेकिन हमारा अप्रत्यक्ष आशय यह भी होता है। बस में, ट्रेन में सफर करते समय हमें बैठने की जगह चाहिए होती है तब वह भी ओकास है, अवकाश मांगना है, जगह मांगना, बैठने का स्थान मांगना। तब भी हमारी भाषा, देह भाषा विनम्रतापूर्ण होती है।
यह तो एक लौकिक उदाहरण मात्र हैं। जब हम धम्म के मार्ग पर चलने को प्रतिबद्ध होते हैं, धम्म मार्ग का पता जानना चाहते हैं, धम्म के क्षेत्र में मार्गदर्शन चाहते हैं तब तो हमारी विनम्रता व याचना पराकाष्ठा की होनी चाहिए।
मात्र इतना ही नहीं बल्कि आगे की पंक्तियाँ और भी गहरा विनय प्रदर्शन करती हैं- अनुग्गहं कत्वा- मुझ पर अनुगृह कीजिए। मात्र एक बार नहीं, दो बार नहीं बल्कि ऐसी विनम्र याचना तीन बार करने की परिपाटी है। तीन बार इसलिए कि हम शरीर से, वाणी से और मन से 'तिसरनेन सह पंचसीलं धम्मं याचामि' अर्थात त्रिशरण सहित पंचशील और धम्म की याचना करता हूँ या करती हूँ...
आगे हम पुनः कहते हैं- अनुग्गहं कत्वा- अनुगृह कीजिए- सीलं देथ मे भन्ते- भन्ते जी, मुझे शील प्रदान कीजिये।
बुद्ध का धम्म दुनिया का अनूठा धर्म है जो धम्म के मार्ग पर चलने के लिए प्रथम स्थान शील को देता है, इस लिए बौद्ध पूजा पद्धति में कोई मंत्र नहीं मांगता, कोई आरती-भजन नहीं मांगता, कोई पंचामृत-चरणामृत नहीं मांगता, बल्कि पहला कदम है- पंचसीलं धम्मं याचामि- पंचशील व धम्म की याचना करता हूँ...
याचना करने से भी पहले हम अवकाश मांगते हैं, स्पेस चाहते हैं, ओकास...
किसी की जिन्दगी में स्पेस मिले बिना, अवकाश मिले बिना उससे हमारा कोई रिश्ता क़ायम नहीं हो सकता। धम्म के लिए अवकाश मांगना एक आध्यात्मिक रिश्ता क़ायम करता है।
हम जिससे याचना कर रहे हैं, और याचना भी पैसे-कौड़ी, धन-सम्पदा जैसी लौकिक चीज़ों के लिए नहीं है, बल्कि सर्वोत्तम रत्न धम्म की याचना कर रहे हैं, तो प्रदाता की चेतना में हमारे लिए अवकाश भी होना चाहिए, उनके दिल में हमारे लिए जगह भी होनी चाहिए, इसलिए सर्वप्रथम हम 'ओकास' कहते हैं, कि हमें अवकाश दीजिए, अपनी चेतना में, अपने मन में, अपने ह्रदय में जगह दीजिए... एकबार ह्रदय में जगह मिल जाए तो फिर सबकुछ मिल जाता है...
अंजलीबद्ध मेरे हाथ जब भगवान की प्रतिमा के सामने उठते हैं तो विकल स्वर में कह उठता हूँ- ओकास... भगवान, इस अकिंचन को अपने दिल में जगह दे दीजिए... आंखों में आंसू छलक आते हैं, तो जैसे प्रतिमा बोल पड़ती है- अप्पमादेन सम्पादेथ- अप्रमादपूर्वक धम्म का सम्पादन करो...
भगवान! ओकास...
शास्ता! ओकास
बिना आपके और
न कोई आस
रहे विश्वास
आपके चरणों का
मैं हूँ दास
करिये नाश
संसार बन्धनों के
काटिये पाश
जन्मों की प्यास
रूखा है कण्ठ मेरा
मन उदास
सारे प्रयास
आ जाऊँ भगवान
तुम्हारे पास
शास्ता! ओकास...
श्री राजेश चन्द्रा - एक परिचय
आप एक सक्रिय समाज सेवी , धम्म प्रचारक व ध्यान प्रशिक्षक भी हैं ।
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