"सत्कर्मो से सद्गति"
किसी गांव के एक मुखिया ने भगवान बुद्ध से पूछा कि लोग सुगति प्राप्त करने के लिए बहुत से कर्मकांड करते हैं, अनेक प्रकार की वेश-भूषा, माला-गंध-विलेपन धारण करते हैं, अनेक प्रकार से अग्निपरिचय व अन्य कर्मकांड करके समझते हैं कि हमने सब कुछ कर लिया। कुछ ऐसे भी हैं जो निम्न कोटि की तांत्रिक साधना करके किसी प्रेत-प्राणी से बात करते हैं और उसके द्वारा लोगों को स्वर्ग ले जाने का दावा करते हैं। भगवान आप तो सर्वज्ञ हैं। आप भी कुछ ऐसा करें जिससे कि संसार के समस्त प्राणी मरणोपरांत सुगतिमय लोक में ही जा सकें।
भगवान ने उससे ही प्रश्न पूछ कर समझाने का प्रयत्न किया। तुम क्या समझते हो कि कोई व्यक्ति जीव-हिंसक हो, चोरी करता हो, विभिचारी हो, असत्यभाषी हो, चुगलखोर हो, कर्कशभाषी (रूखा) हो, गप्पी हो, लोभी हो, नीचवृत्ति का हो, मिथ्यादृष्टियुक्त हो, तो क्या वह सुगतिमय लोक में जाने लायक है? अथवा उसके मर जाने पर बहुत से लोग वहां एकत्र होकर प्रार्थना करें, हाथ जोड़कर वंदना करें कि आप सुगतिगामी हों, सुगतिमय लोक में उत्पन्न हों तो क्या ऐसा करने पर वह सुगतिमय लोक में उत्पन्न हो सकता है? नहीं, मरणोंपरांत किया जाने वाला कोई भी कर्मकांड किसी को मुक्ति नहीं दे सकता। यह असंभव है।
एक उदाहरण से समझो। किसी बड़े जलाशय में कोई बड़ी पत्थर की शिला छोड़ दे और वह अपने भार से पानी में डूब जाय। तो क्या समझते हो कि किसी विशाल जनसमूह के प्रार्थना करने, मनौती मनाने और पूजा-पाठ या कोई अन्य कर्मकांड करने से क्या वह भारी शिला पानी पर तैरने लगेगी ?
ऐसे ही कोई व्यक्ति घी-तैल से भरे हुए घड़े को पानी में लाकर फोड़ दे और उसका घी, तैल पानी पर तैरने लगे और किसी दूसरे घड़े में कंकड़-पत्थर भर कर उसे भी फोड़े और वे अपने भार से पानी में डूब जायें। तब कोई प्रार्थना करके, पूजा-पाठ करके, कर्मकांड करके कहे कि ऐ घी तुम नीचे चले जाओ, नीचे चले जाओ! ऐ कंकर-पत्थर तुम ऊपर आ जाओ, ऊपर आ जाओ! यदि ऐसा होता हो तो करके देखो।
हे ग्रामणी! इसी प्रकार कोई व्यक्ति यदि प्राणीहिंसा से, चोरी से, व्यभिचार, असत्यभाषण आदि दुष्कर्मों से विरत रहता है और सत्यधर्म का जीवन जीता है तो मरणोपरांत वह ऊपर ही जायगा। उसकी ऊध्र्वगति ही होगी। किसी का श्राप उसे नरक के कष्टमय जीवन में नहीं भेज सकता। उसका सत्कर्म ही उसे ऊपर ले जायगा। उसे ऊपर की ओर जाने से कोई नहीं रोक सकता। यह प्रकृति का अटूट नियम है।
ऐसे ही किसी अन्य प्रसंग पर भगवान से पूछा गया कि भगवान क्या आप सब पर समान रूप से करुणाभाव रखते हैं, दयाभाव रखते हैं? यदि हां, तो किसी को बहुत लाभ होता है, किसी को मध्यम लाभ होता है और कोई-कोई धर्मलाभ से वंचित ही रह जाता है, ऐसा क्यों? आपकी मंगलमय करुणा का प्रभाव सब पर एक जैसा क्यों नहीं होता?
भगवान ने उसे एक किसान का उदाहरण देकर समझाया कि उसके पास तीन प्रकार की जमीन है- १) बहुत उपजाऊ, २) मध्यम उपजाऊ, ३) बिल्कुल ऊसर-बंजर। ऐसे में वह सबसे पहले उपजाऊ जमीन में बीज डालता है, उसके बाद मध्यम में और सबसे अंत में ऊसर-बंजर जमीन में। बीज वही होता है और उतनी ही मेहनत व लगन से डाला जाता है। लेकिन फसल एक सी नहीं होती। इसी प्रकार मेरे पास भी तीन प्रकार के लोग धर्म सीखने आते हैं। एक तो बहुत गंभीर साधक-साधिकाएं, जो उपजाऊ जमीन के समान हैं। उनमें जो बीज पड़ेगा, तुरंत फलदायक होगा। क्योंकि वे पूरी श्रद्धा और लगन के साथ काम में लग जाते हैं। दूसरे सामान्य गृहस्थ उपासक-उपासिकाएं, जो अपने दैनिक सांसारिक कार्यों में लगे रहते हुए भी धर्म सीखते हैं। वे मध्यम खेत के समान हैं। उनमें श्रद्धा और लगन तो है परंतु जीवन-जगत की अनेक बाधाएं भी हैं। फिर भी वे धर्ममार्ग पर चल कर अपना मंगल साधते ही हैं। तीसरे कुछ ऐसे लोग जो ऊसर-बंजर जमीन जैसे हैं। उपदेश तो उन्हें भी मैं वैसे ही देता हूं, परंतु अपने कर्मकांडों और अन्य जंजालों में उलझे होने के कारण वे धर्म को ठीक से ग्रहण नहीं कर पाते। वे जितना सीख ले, समझ लें और जितना अभ्यास कर लें, उन्हें केवल उतना ही लाभ होता है। कोई-कोई केवल सुन कर चला जाता है, जरा भी अभ्यास नहीं करता तो वह धर्म से सर्वथा वंचित रह जाता है। परंतु मेरी करुणा उन सब के प्रति सदैव उतनी ही रहती है।
भगवान ने एक और उदाहरण देकर समझाया कि किसी के पास तीन घड़े हों। एक बिल्कुल छिद्ररहित, दूसरा सूक्ष्म छिद्रों वाला और तीसरा बड़े छिद्र वाला। वह सबसे पहले बिना छिद्र वाले घड़े में पानी भरता है, जो दिन भर उसके काम आता है। फिर दूसरे में भरता है कि भले दिन भर न चले, पर कुछ समय तक तो उससे जल मिलता ही है। तीसरा घड़ा वह इसलिए भरता है कि जितना भी पानी एकत्र हो जाय वह नहाने अथवा कपड़ा-बर्तन धोने के काम आ जाय।
बहुत गंभीर साधक-साधिकाएं पहले घड़े के समान हैं। दूसरे घड़े के समान वे सामान्य उपासक-उपासिकाएं हैं जो कठिनाई होते हुए भी धर्म को धारण करते हैं। अन्यान्य कर्मकांडों में उलझे हुए लोग वैसे ही हैं जैसे तीसरे घड़े में भरा हुआ पानी। वे जितना ग्रहण कर लें, अभ्यास कर लें, उन्हें बस उतना ही लाभ होगा। यद्यपि मेरी दया और करुणा तो सब के प्रति समान ही रहती है।
भगवान द्वारा उपदेशित इन उदाहरणों से सबक लेकर साधको! आओ, हम भी धर्ममार्ग पर उपजाऊ क्षेत्र बन कर, श्रद्धा और लगन के साथ पांचों शीलों का कड़ाई से पालन करते हुए, सम्यक समाधि को पुष्ट करें और अनित्यबोधिनी प्रज्ञा का गहराई से अभ्यास करते हुए अपने सदाचरण के बल पर अपनी सुगति निश्चित करें। इसी में हमारा मंगल है, कल्याण है!
- कल्याणमित्र, सत्यनारायण गोयन्का
किसी गांव के एक मुखिया ने भगवान बुद्ध से पूछा कि लोग सुगति प्राप्त करने के लिए बहुत से कर्मकांड करते हैं, अनेक प्रकार की वेश-भूषा, माला-गंध-विलेपन धारण करते हैं, अनेक प्रकार से अग्निपरिचय व अन्य कर्मकांड करके समझते हैं कि हमने सब कुछ कर लिया। कुछ ऐसे भी हैं जो निम्न कोटि की तांत्रिक साधना करके किसी प्रेत-प्राणी से बात करते हैं और उसके द्वारा लोगों को स्वर्ग ले जाने का दावा करते हैं। भगवान आप तो सर्वज्ञ हैं। आप भी कुछ ऐसा करें जिससे कि संसार के समस्त प्राणी मरणोपरांत सुगतिमय लोक में ही जा सकें।
भगवान ने उससे ही प्रश्न पूछ कर समझाने का प्रयत्न किया। तुम क्या समझते हो कि कोई व्यक्ति जीव-हिंसक हो, चोरी करता हो, विभिचारी हो, असत्यभाषी हो, चुगलखोर हो, कर्कशभाषी (रूखा) हो, गप्पी हो, लोभी हो, नीचवृत्ति का हो, मिथ्यादृष्टियुक्त हो, तो क्या वह सुगतिमय लोक में जाने लायक है? अथवा उसके मर जाने पर बहुत से लोग वहां एकत्र होकर प्रार्थना करें, हाथ जोड़कर वंदना करें कि आप सुगतिगामी हों, सुगतिमय लोक में उत्पन्न हों तो क्या ऐसा करने पर वह सुगतिमय लोक में उत्पन्न हो सकता है? नहीं, मरणोंपरांत किया जाने वाला कोई भी कर्मकांड किसी को मुक्ति नहीं दे सकता। यह असंभव है।
एक उदाहरण से समझो। किसी बड़े जलाशय में कोई बड़ी पत्थर की शिला छोड़ दे और वह अपने भार से पानी में डूब जाय। तो क्या समझते हो कि किसी विशाल जनसमूह के प्रार्थना करने, मनौती मनाने और पूजा-पाठ या कोई अन्य कर्मकांड करने से क्या वह भारी शिला पानी पर तैरने लगेगी ?
ऐसे ही कोई व्यक्ति घी-तैल से भरे हुए घड़े को पानी में लाकर फोड़ दे और उसका घी, तैल पानी पर तैरने लगे और किसी दूसरे घड़े में कंकड़-पत्थर भर कर उसे भी फोड़े और वे अपने भार से पानी में डूब जायें। तब कोई प्रार्थना करके, पूजा-पाठ करके, कर्मकांड करके कहे कि ऐ घी तुम नीचे चले जाओ, नीचे चले जाओ! ऐ कंकर-पत्थर तुम ऊपर आ जाओ, ऊपर आ जाओ! यदि ऐसा होता हो तो करके देखो।
हे ग्रामणी! इसी प्रकार कोई व्यक्ति यदि प्राणीहिंसा से, चोरी से, व्यभिचार, असत्यभाषण आदि दुष्कर्मों से विरत रहता है और सत्यधर्म का जीवन जीता है तो मरणोपरांत वह ऊपर ही जायगा। उसकी ऊध्र्वगति ही होगी। किसी का श्राप उसे नरक के कष्टमय जीवन में नहीं भेज सकता। उसका सत्कर्म ही उसे ऊपर ले जायगा। उसे ऊपर की ओर जाने से कोई नहीं रोक सकता। यह प्रकृति का अटूट नियम है।
ऐसे ही किसी अन्य प्रसंग पर भगवान से पूछा गया कि भगवान क्या आप सब पर समान रूप से करुणाभाव रखते हैं, दयाभाव रखते हैं? यदि हां, तो किसी को बहुत लाभ होता है, किसी को मध्यम लाभ होता है और कोई-कोई धर्मलाभ से वंचित ही रह जाता है, ऐसा क्यों? आपकी मंगलमय करुणा का प्रभाव सब पर एक जैसा क्यों नहीं होता?
भगवान ने उसे एक किसान का उदाहरण देकर समझाया कि उसके पास तीन प्रकार की जमीन है- १) बहुत उपजाऊ, २) मध्यम उपजाऊ, ३) बिल्कुल ऊसर-बंजर। ऐसे में वह सबसे पहले उपजाऊ जमीन में बीज डालता है, उसके बाद मध्यम में और सबसे अंत में ऊसर-बंजर जमीन में। बीज वही होता है और उतनी ही मेहनत व लगन से डाला जाता है। लेकिन फसल एक सी नहीं होती। इसी प्रकार मेरे पास भी तीन प्रकार के लोग धर्म सीखने आते हैं। एक तो बहुत गंभीर साधक-साधिकाएं, जो उपजाऊ जमीन के समान हैं। उनमें जो बीज पड़ेगा, तुरंत फलदायक होगा। क्योंकि वे पूरी श्रद्धा और लगन के साथ काम में लग जाते हैं। दूसरे सामान्य गृहस्थ उपासक-उपासिकाएं, जो अपने दैनिक सांसारिक कार्यों में लगे रहते हुए भी धर्म सीखते हैं। वे मध्यम खेत के समान हैं। उनमें श्रद्धा और लगन तो है परंतु जीवन-जगत की अनेक बाधाएं भी हैं। फिर भी वे धर्ममार्ग पर चल कर अपना मंगल साधते ही हैं। तीसरे कुछ ऐसे लोग जो ऊसर-बंजर जमीन जैसे हैं। उपदेश तो उन्हें भी मैं वैसे ही देता हूं, परंतु अपने कर्मकांडों और अन्य जंजालों में उलझे होने के कारण वे धर्म को ठीक से ग्रहण नहीं कर पाते। वे जितना सीख ले, समझ लें और जितना अभ्यास कर लें, उन्हें केवल उतना ही लाभ होता है। कोई-कोई केवल सुन कर चला जाता है, जरा भी अभ्यास नहीं करता तो वह धर्म से सर्वथा वंचित रह जाता है। परंतु मेरी करुणा उन सब के प्रति सदैव उतनी ही रहती है।
भगवान ने एक और उदाहरण देकर समझाया कि किसी के पास तीन घड़े हों। एक बिल्कुल छिद्ररहित, दूसरा सूक्ष्म छिद्रों वाला और तीसरा बड़े छिद्र वाला। वह सबसे पहले बिना छिद्र वाले घड़े में पानी भरता है, जो दिन भर उसके काम आता है। फिर दूसरे में भरता है कि भले दिन भर न चले, पर कुछ समय तक तो उससे जल मिलता ही है। तीसरा घड़ा वह इसलिए भरता है कि जितना भी पानी एकत्र हो जाय वह नहाने अथवा कपड़ा-बर्तन धोने के काम आ जाय।
बहुत गंभीर साधक-साधिकाएं पहले घड़े के समान हैं। दूसरे घड़े के समान वे सामान्य उपासक-उपासिकाएं हैं जो कठिनाई होते हुए भी धर्म को धारण करते हैं। अन्यान्य कर्मकांडों में उलझे हुए लोग वैसे ही हैं जैसे तीसरे घड़े में भरा हुआ पानी। वे जितना ग्रहण कर लें, अभ्यास कर लें, उन्हें बस उतना ही लाभ होगा। यद्यपि मेरी दया और करुणा तो सब के प्रति समान ही रहती है।
भगवान द्वारा उपदेशित इन उदाहरणों से सबक लेकर साधको! आओ, हम भी धर्ममार्ग पर उपजाऊ क्षेत्र बन कर, श्रद्धा और लगन के साथ पांचों शीलों का कड़ाई से पालन करते हुए, सम्यक समाधि को पुष्ट करें और अनित्यबोधिनी प्रज्ञा का गहराई से अभ्यास करते हुए अपने सदाचरण के बल पर अपनी सुगति निश्चित करें। इसी में हमारा मंगल है, कल्याण है!
- कल्याणमित्र, सत्यनारायण गोयन्का
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