Thursday, June 25, 2015

मैत्री भावना

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अक्‍कोच्छि मं अवधि मं, अजिनि [अजिनी (?)] मं अहासि मे।

ये च तं उपनय्हन्ति, वेरं तेसं न सम्मति॥

’मुझे कोसा ’ मुझे मारा’ ’मुझे हराया’ जो मन मे ऐसी गाँठॆं बाँधतें रहते हैं , उनका वैर शांत नही होता है ।

 

अक्‍कोच्छि मं अवधि मं, अजिनि मं अहासि मे।

ये च तं नुपनय्हन्ति, वेरं तेसूपसम्मति॥

’मुझे कोसा ’ मुझे मारा’ ’मुझे हराया’ जो मन मे ऐसी गाँठॆं नहीं बाँधतें हैं , उनका वैर शांत हो जाता है ।

धम्मपद : यमकवग्गो, गाथा ३-४

बाहर के दुश्मनो को जीतना कोई जीत नहीं है।
हिंसा के बल पर एक को जीत लेंगे तो अधिक बलवान दूसरा अपना सिर उठाएगा और हमें डराएगा।
जय पराजय का यह चक्र हमें सदा अशांत ही रखेगा।
हम सदा अपने से अधिक बलवान से भयभीत ही रहेंगे। निर्भयता हमसे कोसो दूर रहेगी।
भगवान् ने कहा है की सच्चा विजयी तो वही है, जो की अपने आप को जीत चूका है।
सचमुच जिसने अपना मन जीत लिया, उसने जग जीत लिया।जो अपने मानसिक व्यसनों का गुलाम है, वह चक्रवर्ती सम्राट होकर भी पराजित ही है।
यदि किसी दूसरे को जीतना ही है तो अपने निश्छल प्यार से जीतो, असीम करुणा से जीतो।
डंडे और बंदूक की जीत, जीत नहीं होती।हर डंडे के मुकाबले में कोई न कोई बड़ा डंडा तैयार हो जाता है।
परंतु जिसे प्यार से जीत लें, मैत्री और करुणा से जीत लें, वह जीत फिर हार में नहीं बदल सकती। कोई उससे बड़ी मैत्री पैदा करके उस विजय को पुष्ट ही करेगा। उसके नष्ट होने की कोई आशंका नहीं।।

साभार :

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 परेश गुजराती

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