--------|| चेतनाकरणीयसुत ||-----------------
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भिक्षुओ, जो शील-सम्पन्न हैं, सदाचारी है उसे यह इच्छा करने के आवश्यकता नहीं होती कि मुझे पश्चाताप न हो l भिक्षुओ यह स्वाभाविक धर्म है कि जो शील-सम्पन्न है, जो सदाचारी है उसे पश्चाताप न हो l
भिक्षुओ जिसे पश्चाताप नहीं होता, उसे यह इच्छा करने के आवश्यकता नहीं होती कि मुझे प्रमुद्ता हो l भिक्षुओ यह स्वाभाविक धर्म है कि जिसे पश्चाताप न हो उसे प्रमुद्ता हो l
भिक्षुओ, जिसे प्रमुद्ता हो उसे यह इच्छा करने के आवश्यकता नहीं होती कि मुझे प्रीति उत्पन्न हो l भिक्षुओ यह स्वाभाविक धर्म है कि जिसे प्रमुद्ता हो उसे प्रीति उत्पन्न हो l
भिक्षुओ, जिसे प्रीति उत्पन्न हो उसे यह इच्छा करने के आवश्यकता नहीं होती कि मुझे प्रश्रब्धि उत्पन्न हो l भिक्षुओ यह स्वाभाविक धर्म है कि जिसे प्रीति प्राप्त हो उसे प्रश्रब्धि उत्पन्न हो l
भिक्षुओ, जिसे प्रश्रब्धि प्राप्त हो उसे यह इच्छा करने के आवश्यकता नहीं होती कि मुझे सुख प्राप्त हो l भिक्षुओ यह स्वाभाविक धर्म है कि जिसे प्रश्रब्धि प्राप्त हो उसे सुख उत्पन्न हो l
भिक्षुओ, जिसे सुख प्राप्त हो उसे यह इच्छा करने के आवश्यकता नहीं होती कि मुझे समाधी प्राप्त हो l भिक्षुओ यह स्वाभाविक धर्म है कि जिसे सुख प्राप्त हो उसे समाधी प्राप्त हो l
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