***~~~~~*** कोकालिये सुत्त ***~~~~~***
[ सारिपुत्र तथा मोग्ग्लान के प्रति चित दूषित करने के कारण कोकालिये भिक्षु दुर्गति को प्राप्त होता हैं| इसलिए सन्तो की निन्दा करना महापाप होता हैं | निन्दनीय की प्रशंसा करना और प्रशंसनीय की निन्दा करना दोनों एक प्रकार के दोष है | ]
ऐसा मैंने सुना :-
एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिंडक के बनाये जेतवनराम में विहार करते थे | तब कोकालिये भिक्षु भगवान के पास गया, जाकर भगवान का अभिवादन कर एक ओर बैठ गया | एक और बैठे हुए कोकालिये भिक्षु ने भगवान से यह कहा “भन्ते ! सारिपुत्र और मोग्ग्लान पापेच्हुक हैं, पापी इच्छाओं के वशीभूत है |” ऐसा कहने पर भगवान कोकालिये भिक्षु से यह बोले “कोकालिये ! ऐसा न कहो, कोकालिये ! ऐसा न कहो | कोकालिये ! सारिपुत्र और मोग्ग्लान प्रियेशील हैं |”
दूसरी बार भी कोकालिये भिक्षु ने भगवान से यह कहा “भन्ते ! यद्दपि मैं भगवान में श्रद्धा रखता हूँ और प्रसन्न हूँ ; फिर भी सारिपुत्र और मोग्ग्लान पापेच्हुक हैं, पापी इच्छाओं के वशीभूत है |” दूसरी बार भी भगवान कोकालिये भिक्षु से यह बोले “कोकालिये ! ऐसा न कहो, कोकालिये ! ऐसा न कहो | कोकालिये ! सारिपुत्र और मोग्ग्लान के प्रति श्रद्धा रखो, सारिपुत्र और मोग्ग्लान प्रियेशील हैं |”
तीसरी बार भी कोकालिये भिक्षु ने भगवान से यह कहा “भन्ते ! यद्दपि मैं भगवान में श्रद्धा रखता हूँ और प्रसन्न हूँ ; फिर भी सारिपुत्र और मोग्ग्लान पापेच्हुक हैं, पापी इच्छाओं के वशीभूत है |” तीसरी बार भी भगवान कोकालिये भिक्षु से यह बोले “कोकालिये ! ऐसा न कहो, कोकालिये ! ऐसा न कहो | कोकालिये ! सारिपुत्र और मोग्ग्लान के प्रति श्रद्धा रखो, सारिपुत्र और मोग्ग्लान प्रियेशील हैं |”
तब कोकालिये भिक्षु आसन से उठकर भगवान को अभिवादन कर प्रदक्षिणा कर चला गया | वहा से चले जाने के कुछ ही समय बाद कोकालिये भिक्षु का सारा शरीर सरसों जैसी फुंसियो से भर गया, सरसों जैसी फुंसियो से मूंग जैसी हुई, मूंग से चने जितनी हुई, चने से बेर के बिये जितनी हुई, बेर के बिये से बेर फल जितनी हुई, बेर के फल से आंवले जितनी हुई, आंवले से छोटे बेल जितनी हुई, और फिर बड़े बेल जितनी हो कर फूट गई और पीब तथा लहू बहने लगे | तब कोकालिये भिक्षु उसी रोग से चल बसा | सारिपुत्र और मोग्ग्लान के प्रति चित दूषित कर कोकालिये भिक्षु पदुम नरक में उत्पन्न हुआ |
तब सहम्म्पति ब्रह्मा उस रात्रि के बीतने पर अपनी कान्ति से सारे जेतवन को आलोकित कर भगवान के पास गया, पास जा भगवान को अभिवादन कर एक ओर खड़ा हो गया, एक ओर खड़े हो सहम्म्पति ब्रह्मा ने भगवान से यह कहा “भन्ते ! कोकालिये भिक्षु का देहान्त हो गया हैं; सारिपुत्र और मोग्ग्लान के प्रति चित दूषित कर कोकालिये भिक्षु पदुम नरक में उत्पन्न हुआ हैं |” सहम्म्पति ब्रह्मा ने यह कहा | यह कह कर सहम्म्पति ब्रह्मा भगवान को अभिवादन कर प्रदक्षिणा कर वही अन्तध्यार्न हो गया |
उस रात्रि के बीतने पर भगवान ने भिक्षुओ को सम्बोधित किया “ भिक्षुओ ! ब्रह्मा सहम्म्पति ......ने .....यह कहकर मुझे अभिवादन कर, प्रदक्षिणा कर वही अन्तध्यार्न हो गया |”
ऐसा कहने पर एक भिक्षु ने भगवान से पूछा “ भन्ते ! पदुम नरक की आयु कितनी लम्बी है ?”
“ भिक्षु ! पदुम नरक की आयु बड़ी लम्बी है | वह इतने वर्ष है, इतने सहस्त्र वर्ष है, इतने लाख वर्ष है करके गिनना आसन नहीं है |”
“ भन्ते ! क्या कोई उपमा दे सकते हैं ?”
“ हाँ भिक्षु ! उपमा दी जा सकती है | भिक्षु ! मान लो कि बीस खारी (उस समय का एक माप ) तिल अटनेवाली कौशल की जो गाड़ी है, एक पुरष एक हज़ार वर्ष के बीतने पर उसमे से एक तिल निकाल दे, इस क्रम से कालान्तर में बीस खारी तिल भरी वह गाड़ी खाली हो जाएगी, समाप्त हो जाएगी ; लेकिन अब्बुद नरक के एक जीवन काल की आयु नहीं | भिक्षु ! अब्बुद नरक के बीस जीवनों की आयु के बराबर हैं निरब्बुद नरक का एक जीवनकाल | भिक्षु ! निरब्बुद नरक के बीस जीवनों की आयु के बराबर हैं अबब नरक का एक जीवनकाल | भिक्षु ! अबब नरक के बीस जीवनों की आयु के बराबर हैं अहह नरक का एक जीवनकाल | भिक्षु ! अहह नरक के बीस जीवनों की आयु के बराबर हैं अटट नरक का एक जीवनकाल | भिक्षु ! अटट नरक के बीस जीवनों की आयु के बराबर हैं कुमुद नरक का एक जीवनकाल | भिक्षु ! कुमुद नरक के बीस जीवनों की आयु के बराबर हैं सोगन्धिक नरक का एक जीवनकाल | भिक्षु ! सौगन्धिक नरक के बीस जीवनों की आयु के बराबर हैं उप्पल का एक जीवनकाल | भिक्षु ! उप्पल नरक के बीस जीवनों की आयु के बराबर हैं पुण्डरीक नरक का एक जीवनकाल | भिक्षु ! पुण्डरीक नरक के बीस जीवनों की आयु के बराबर हैं पदुम नरक का एक जीवनकाल | भिक्षु ! सारिपुत्र और मोग्ग्लान के विषय में चित दूषित कर कोकालिये भिक्षु पदुम नरक में उत्पन्न हुआ है |” ऐसा कह भगवान ने आगे यह कहा :-
“(इस संसार में ) जन्मनेवाले पुरुष के मुख में कुठारी उत्पन्न होती है | कटु भाषणभाषी मुर्ख उससे अपने को नाश कर देता है ||1||
जो निन्दनीय की प्रशंसा करता है और प्रशंसनीय की निन्दा करता है वह मुख से पाप करता है, और उस पाप के कारण सुख को प्राप्त नहीं होता ||2||
जुए में अपने को और अपने सर्वस्व को जो खोना हैं, वह थोड़ी हानि हैं | इसकी अपेक्षा सन्तो के प्रति जो मन को दूषित करना हैं, वह बहुत बड़ी हानि हैं ||3||
आर्ये (सन्त) पुरुष की निन्दा करने वाला अपने मन और वचन को पाप में लगा कर उस नरक में उत्पन्न होता है जहाँ की आयु एक लाख निरब्बुद और इकतालीस अब्बुद है ||4||
“ असत्येवादी नरक को जाता है, और जो कोई काम कर के कहता हैं की मैंने ऐसा नहीं किया वह भी , हीन कर्म करनेवाले वे दोनों मनुष्य परलोक में समान होते है ” ||5||
“ जो दोष रहित, निर्मल, शुद्ध पुरुष को दोष लगाता है, उसका पाप उलटी हवा में फैकी सूक्ष्म धूल की तरह उसी मुर्ख पर पड़ता है ||6||
“ जो श्रद्धा रहित है, दुसरो को दान देना सह नहीं सकता, जो किसी की बात नहीं सुनता, कंजूस है, चुगलखोरी में लगा है और लोभ में पड़ा है, वह वचन से दुसरो को निन्दा करता है ||7||
“ दुर्वच, झूठे, अनार्य, मनहूस, पापी, बुरे कर्मवाले, दोषी, अधम और नीच (तुम) बहुत मत बोलो, तुम नरकगामी हो ||8||
“ पापकारी (तुम) सन्तो की निन्दा करके अपने अहित का कर्म करते हो | अनेक बुराइया करके बहुत समय के लिए गड्ढे में गिरोगे ||9||
“ किसी का कर्म नष्ट नहीं होता | कर्ता उसे प्राप्त करता ही है | पापकारी मुर्ख अपने को परलोक में दुःख में पड़ा पाता है ||10||
“ वह लोहे के काँटों और तीक्ष्ण धारवाली लोहे की बर्छियो से सताये जाने वाले नरक में गिरता है | वहाँ तपे लोहे के गोले के समान उसके अनुरूप भोजन है ||11||
“ नरकपाल उनसे मीठी बाते नहीं करते | वे प्रसन्न मुख से रक्षार्थ उनके पास नहीं आते | वे बिछे हुऐ अंगार पर सोते है, भभकती हुई आग में प्रवेश करते है ||12||
“ नरकपाल जाल से बंद करके लोहे के हथोड़ो से उनको कूटते है | वे घोर अन्धकार में पड़ते है जो विस्तृत पृथ्वी की तरह फैला है ||13||
“ तब वे आग के समान लोहे की कड़ाही में गिरते है, और आग के समान उसमे चिरकाल तक उपर-नीचे आते-जाते पचते रहते है ||14||
“ तब पीब और लहू से से लथपथ हो पापकारी किस प्रकार पचता है | जहाँ-जहाँ लेटता है, वहाँ-वहाँ उनसे लथपथ हो मलिन हो जाता है ||15||
“ पापकारी कीड़ो से भरे पानी में किस प्रकार पचता है | वह कही तीर को नहीं पा सकता, क्योकि चारो और कड़ाह है ||16||
“ घायल शरीर हो वे तीक्ष्ण असिपत्र वन में प्रवेश करते है | नरकपाल उनकी जीभ को काँटों से पकड़ कर उनका वध करते है ||17||
“ तब वे छुरे की धार के समान तीक्ष्ण धारावाली दुस्तरं वैतरणी नदी में गिरते है | मुर्ख पापकारी पाप कर उसी में गिरते है ||18||
“ वहाँ काले और चितकबरे बड़े कौवे उनको खा जाते है | कुत्ते, सियार, गिद्ध, चील्ह और कौवे चाव के साथ उन्हें नोचते है ||19||
“ पापकारी मनुष्य नरक में जिस जीवन का अनुभव करता है, वह दुःखमय है | इसलिए मनुष्य को चाहिए कि अपने शेष जीवन में अच्छे कर्म करे और प्रमाद न करे ||20||
“ पदुम निरय में जो उत्पन्न होते है उनकी आयु पण्डितो की गिनती के अनुसार तिल के भार (एक एक कर) गिने जाने की तरह लम्बी है, जो पांच नहुत कोटि और बारह सौ कोटि के बराबर है ||21||
“ यहाँ जितने भी नरक दुःख बताये गये है उसे इन सबको चिरकाल तक भोगना पड़ता है | इसलिए पवित्र, प्रियेशील साधुओ के प्रति अपना मन और वचन सयंत रखे ” ||22||
कोकालिये सुत्त समाप्त , सुतनिपात
साभार :
यह सुत्त बुद्ध के कितने शतकों बाद लिखा होगा इसका अनुसंधान करना चाहिये, सर. बुद्ध का व्यक्तित्व इतना प्रभावहीन था कि वे कोकालीय को बचा न सके, यह दर्शाने के उद्देश्य से इस सुत्त की कृत्रिम रचना की होगी. वैसे, कर्म सिद्धांत को सीधे ढंग से भी रखा जा सकता है. साधूही क्या किसी के भी प्रति रखी हुई दुर्भावना उस अकुशल धर्म धारण करनेवाले लिये घातक ही साबित होगी. वैसे आपने इसी पेज पर अन्गुत्तर निकाय के कालाम सुत्त का उल्लेख किया ही है, उसी आधारपर यह कोकालीय सुत्त परखा जा सकता है.
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