Wednesday, October 7, 2015

वसलसुत्तं–कौन है जातिच्‍युत ( Vasala Sutta: Discourse on Outcasts )

 
vasalsutta
                                   वसल सुत्त ( हिन्दी ) - कौन है जातिच्‍युत             
ऐसा मैने सुना । एक समय भगवान्‌ श्रावस्ती मे अनाथपिण्डक के जेतवाराम में विहार करते थे । तब भगवान्‌ पूर्वान्ह समय पात्र और चीवर पहनकर श्रावस्ती में भिक्षाटन के लिये प्रविष्ट हुये । उस समय अग्निकभारद्धाज ब्राह्म्न्ण के घर मे अग्नि प्रज्विल्लित हो रही थी , जिसमे आहुति की सामाग्री डाली गई थी । अग्निकभारद्धाज ब्राहम्ण ने भगवान्‌ को दूर से ही आते देखा । देखकर भगवान्‌ से यह कहा – “ वही मुण्डक ! वही श्रमणक ! वही वृषलक ! ठहरो । ” ऐसा कहने पर भगवान्‌ ने अग्निकभारद्धाज से ऐसा कहा – “ ब्राहम्ण क्या तुम वृषल ( नीच ) या वृषल बनाने वाली बातों को जानते हो । ? ”
‘ हे गौतम मै वृषल या वृषल बानाने वाली बातों को नही मानता हूँ । अच्छा हो कि हे गौतम ! आप मुझे वैसा धर्मोपदेश दें ताकि मै  वृषल या वृषल बानाने वाली बातों को मान और जान सकूँ । ’
तो ब्राहम्ण भली भाँति सुनो और मन में, धारण करॊ ।
बहुत अच्छा , कहकर अग्निकभारद्धाज ने भगवान को उत्तर दिया । तब भगवान्‌ ने यह कहा -
१. जो नर क्रोधी , बँधे पैर वाला , बहुत ईर्ष्यालु , मिथ्यादृष्टि वाला और  मा्यावी है , उसे वृषक जानें ।
२. जो योनिज या अण्डज किसी भी प्राणी की हिंसा करता है , जिसे प्राणियों के प्रति दया नही है , उसे वृषल जानें ।
३. जो ग्रामों और कस्बों को नष्ट करता और घेरता है , जो अत्याचारी के रुप मे प्रसिद्ध है , उसे वृषल जानें ।
४. जो ग्राम या अरण्य मे जो दूसरॊ की अपनी सम्पति है , उसे चोरी से ले जाता है , उसे  वृषल जानें ।
५. जो ऋण लेकर माँगने पर “ तेरा ऋण नही है ” कहकर भागता है , उसे वृषल जानें ।
६. जो किसी चीज की इच्छा से मार्ग में, चलते हुये व्यक्ति  को मारकर कुछ ले लेता है , उसे वृषल जानें ।
७. जो नर अपने या दूसरे के धन के लिये झूठी गवाही देता है , उसे वृषल जानें ।
८. जो जबरद्स्ती या प्रेम से भाई – बन्धुओं  या मित्रों की स्त्रियों के साथ दिखाई देता है ,उसे वृषल जानें ।
९. जो समर्थ होते हुये भी अपने माता पिता , बूढे –पुरनियाँ का भरण पोषण नही करता है , उसे वृषल जानें ।
१०. जो माता –पिता , भाई , बहिन या सासु को मारता या कडे वचन से क्रोध करता है , उसे वृषल जानें ।.
११. जो भलाई की बात पूछने पर बुराई का रास्ता दिखाता है ,  उसे वृषल जानें ।
१२. जो पाप कर्म कर के “ लोग मुझे न जानें “ – ऐसा चाहता है , जो  छिपे कर्म करने वाला है , उसे वृषल जानें ।
१३. जो दूसरे के घर जाकर स्वादिष्ट भोजन करता है और उसके आने पर स्वागत सत्कार नही करता , उसे वृषल जानें ।
१४. जो ब्राहम्ण , श्रमण , या भिखारी को झूठ बोलकर धोखा देता है , उसे वृषल जानें ।
१५. जो भोजन के समय आये श्रमण या ब्राहम्ण से क्रोध से बोलता है और उसे कुछ नही देता है , उसे वृषल जानें ।
१६. जो मोह से मोहित होकर किसी चीज को चाहता और झूठ बोलता है , उसे वृषल जानें ।
१७. जो अपनी बडाई करता है और दूसरे की निन्दा करता है , और अपने उस अभिमान से गिर गया हो , उसे वृषल जानें ।
१८. जो क्रोधी , कंजूस और बुरी इच्छा वाला , कृपण , शठ , निर्लज्ज और असंकोची है , उसे वृषल जानें ।
१९. जो बुद्ध और उनके प्रवजित अथवा गृहस्थ शिष्यों को गाली देता है , उसे वृषल जानें ।
२०. जो अर्हत न होते हुये भी अपने को अर्हत बताता है , वह ब्रह्म सहित सारे लोक मे चोर है और वह अधम वृषल है । मैने इतने वृषलों को तुमको बतलाया है ।
२१. कोई जाति  से वृषल नही होता और न जाति से ब्राहम्ण होता है । कर्म से कोई वृषल होता है और कर्म से ब्राहम्ण भी होता है ।
२२. इस उदाहरण से भी जानॊ कि चण्डाल पुत्र सोपाक जो मातंग नाम से प्रसिद्ध था ।
२३. उस मांतग ने जिस महान यश को प्राप्त किया , वह दूसरों के लिये बहुत ही दुर्लभ था । उसकी सेवा मे बहुत ही छ्त्रिय और ब्राहम्ण आया करते थे ।
२४. वह कामराग को त्याग कर दिव्य रथ मे सवार होकर , शुद्ध महापथ से ब्र्ह्मलोक चला गया । उसके ब्रह्म लोक मे उत्पन्न होने मे कोई जाति उसको रोक न पायी ।
२५. जो वेद पाठियों के घर में वेद मंत्रो के जानकार ब्राहम्ण हैं , वे भी नित्य पाप कर्मॊ में संलग्न दिखाई देते हैं ।
२६. इस जन्म मे ही उनकी निन्दा होती है और परलोक मे दुर्गति को प्राप्त होते हैं । उन्हें दुर्गति और निन्दा से जाति बचा नही पाती ।
२७. जाति से कोई न वृषल ( नीच ) होता है और न जाति से कोई ब्राह्म्ण होता है । कर्म से ही कोई वृषल होता है और कर्म से ही ब्राहम्ण होता है ।
ऐसा कहने पर अग्निकभारद्धाज ब्राह्म्न्ण ने भगवान्‌ से ऐसा कहा – “ आशचर्य है , हे गौतम , जैसे कि हे गौतम ! उल्टे हुये बर्तन को सीधा कर दे , ढँके हुये को उधाड दे , रास्ता भूले को रास्ता दिखा दे अथवा अन्धकार में तेल के प्रदीप को धारण करे , जिससे कि आँख वाले लोग चीजॊ को देख सके , ऐसे ही आप गौतम द्वारा अनेक प्रकार से धर्म को प्रकाशित किया है । यह मै आप गौतम की शरण मे जाता हूँ , धर्म और भिक्षुसंघ की भी । मुझे आप गौतम आज से ही जीवन पर्यन्त शरणागत उपासक धारण करें ।
                                                   वसल सुत्त ( पालि )             
एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे। अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सावत्थिं पिण्डाय पाविसि। तेन खो पन समयेन अग्गिकभारद्वाजस्स ब्राह्मणस्स निवेसने अग्गि पज्‍जलितो होति आहुति पग्गहिता। अथ खो भगवा सावत्थियं सपदानं पिण्डाय चरमानो येन अग्गिकभारद्वाजस्स ब्राह्मणस्स निवेसनं तेनुपसङ्कमि।
अद्दसा खो अग्गिकभारद्वाजो ब्राह्मणो भगवन्तं दूरतोव आगच्छन्तं। दिस्वान भगवन्तं एतदवोच – ‘‘तत्रेव [अत्रेव (स्या॰ क॰)], मुण्डक; तत्रेव, समणक; तत्रेव, वसलक तिट्ठाही’’ति।
एवं वुत्ते, भगवा अग्गिकभारद्वाजं ब्राह्मणं एतदवोच – ‘‘जानासि पन त्वं, ब्राह्मण, वसलं वा वसलकरणे वा धम्मे’’ति? ‘‘न ख्वाहं, भो गोतम, जानामि वसलं वा वसलकरणे वा धम्मे; साधु मे भवं गोतमो तथा धम्मं देसेतु, यथाहं जानेय्यं वसलं वा वसलकरणे वा धम्मे’’ति। ‘‘तेन हि, ब्राह्मण, सुणाहि, साधुकं मनसि करोहि; भासिस्सामी’’ति। ‘‘एवं, भो’’ति खो अग्गिकभारद्वाजो ब्राह्मणो भगवतो पच्‍चस्सोसि। भगवा एतदवोच –
१.. ‘‘कोधनो उपनाही च, पापमक्खी च यो नरो।
विपन्‍नदिट्ठि मायावी, तं जञ्‍ञा वसलो इति॥
२. ‘‘एकजं वा द्विजं [दिजं (पी॰)] वापि, योध पाणं विहिंसति।
यस्स पाणे दया नत्थि, तं जञ्‍ञा वसलो इति॥
३.‘‘यो हन्ति परिरुन्धति [उपरुन्धेति (स्या॰), उपरुन्धति (क॰)], गामानि निगमानि च।
निग्गाहको [निग्घातको (?)] समञ्‍ञातो, तं जञ्‍ञा वसलो इति॥
४.‘‘गामे वा यदि वा रञ्‍ञे, यं परेसं ममायितं।
थेय्या अदिन्‍नमादेति [अदिन्‍नं आदियति (सी॰ पी॰)], तं जञ्‍ञा वसलो इति॥
५.‘‘यो हवे इणमादाय, चुज्‍जमानो [भुञ्‍जमानो (?)] पलायति।
न हि ते इणमत्थीति, तं जञ्‍ञा वसलो इति॥
६.‘‘यो वे किञ्‍चिक्खकम्यता, पन्थस्मिं वजन्तं जनं।
हन्त्वा किञ्‍चिक्खमादेति, तं जञ्‍ञा वसलो इति॥
७.‘‘अत्तहेतु परहेतु, धनहेतु च [धनहेतु व (क॰)] यो नरो।
सक्खिपुट्ठो मुसा ब्रूति, तं जञ्‍ञा वसलो इति॥
८.‘‘यो ञातीनं सखीनं वा, दारेसु पटिदिस्सति।
साहसा [सहसा (सी॰ स्या॰)] सम्पियेन वा, तं जञ्‍ञा वसलो इति॥
९.‘‘यो मातरं पितरं वा, जिण्णकं गतयोब्बनं।
पहु सन्तो न भरति, तं जञ्‍ञा वसलो इति॥
१०.‘‘यो मातरं पितरं वा, भातरं भगिनिं ससुं।
हन्ति रोसेति वाचाय, तं जञ्‍ञा वसलो इति॥
११.‘‘यो अत्थं पुच्छितो सन्तो, अनत्थमनुसासति।
पटिच्छन्‍नेन मन्तेति, तं जञ्‍ञा वसलो इति॥
१२.‘‘यो कत्वा पापकं कम्मं, मा मं जञ्‍ञाति इच्छति [विभ॰ ८९४ पस्सितब्बं]।
यो पटिच्छन्‍नकम्मन्तो, तं जञ्‍ञा वसलो इति॥
१३.‘‘यो वे परकुलं गन्त्वा, भुत्वान [सुत्वा च (स्या॰ क॰)] सुचिभोजनं।
आगतं नप्पटिपूजेति, तं जञ्‍ञा वसलो इति॥
१४.‘‘यो ब्राह्मणं समणं वा, अञ्‍ञं वापि वनिब्बकं।
मुसावादेन वञ्‍चेति, तं जञ्‍ञा वसलो इति॥
१५.‘‘यो ब्राह्मणं समणं वा, भत्तकाले उपट्ठिते।
रोसेति वाचा न च देति, तं जञ्‍ञा वसलो इति॥
१६.‘‘असतं योध पब्रूति, मोहेन पलिगुण्ठितो।
किञ्‍चिक्खं निजिगीसानो [निजिगिंसानो (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)], तं जञ्‍ञा वसलो इति॥
१७.‘‘यो चत्तानं समुक्‍कंसे, परे च मवजानाति [मवजानति (सी॰ स्या॰ पी॰)]।
निहीनो सेन मानेन, तं जञ्‍ञा वसलो इति॥
१८.‘‘रोसको कदरियो च, पापिच्छो मच्छरी सठो।
अहिरिको अनोत्तप्पी, तं जञ्‍ञा वसलो इति॥
१९.‘‘यो बुद्धं परिभासति, अथ वा तस्स सावकं।
परिब्बाजं [परिब्बजं (क॰), परिब्बाजकं (स्या॰ कं॰)] गहट्ठं वा, तं जञ्‍ञा वसलो इति॥
२०.‘‘यो वे अनरहं [अनरहा (सी॰ पी॰)] सन्तो, अरहं पटिजानाति [पटिजानति (सी॰ स्या॰ पी॰)]।
चोरो सब्रह्मके लोके, एसो खो वसलाधमो॥
२१.‘‘एते खो वसला वुत्ता, मया येते पकासिता।
जच्‍चा वसलो होति, न जच्‍चा होति ब्राह्मणो।
कम्मुना [कम्मना (सी॰ पी॰)] वसलो होति, कम्मुना होति ब्राह्मणो॥
२२.‘‘तदमिनापि जानाथ, यथामेदं [यथापेदं (क॰)] निदस्सनं।
चण्डालपुत्तो सोपाको [सपाको (?)], मातङ्गो इति विस्सुतो॥
२३.‘‘सो यसं परमं पत्तो [सो यसप्परमप्पत्तो (स्या॰ क॰)], मातङ्गो यं सुदुल्‍लभं।
आगच्छुं तस्सुपट्ठानं, खत्तिया ब्राह्मणा बहू॥
२४.‘‘देवयानं अभिरुय्ह, विरजं सो महापथं।
कामरागं विराजेत्वा, ब्रह्मलोकूपगो अहु।
न नं जाति निवारेसि, ब्रह्मलोकूपपत्तिया॥
२५.‘‘अज्झायककुले जाता, ब्राह्मणा मन्तबन्धवा।
ते च पापेसु कम्मेसु, अभिण्हमुपदिस्सरे॥
२६.‘‘दिट्ठेव धम्मे गारय्हा, सम्पराये च दुग्गति।
न ने जाति निवारेति, दुग्गत्या [दुग्गच्‍चा (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)] गरहाय वा॥
२७.‘‘न जच्‍चा वसलो होति, न जच्‍चा होति ब्राह्मणो।
कम्मुना वसलो होति, कम्मुना होति ब्राह्मणो’’ति॥
एवं वुत्ते, अग्गिकभारद्वाजो ब्राह्मणो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिक्‍कन्तं, भो गोतम…पे॰… उपासकं मं भवं गोतमो धारेतु अज्‍जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत’’न्ति।
वसलसुत्तं सत्तमं निट्ठितं।
         Vasala Sutta: Discourse on Outcasts
Thus have I heard:
On one occasion the Blessed One was living near Savatthi at Jetavana at Anathapindika's monastery. Then in the forenoon the Blessed One having dressed himself, took bowl and (double) robe, and entered the city of Savatthi for alms. Now at that time a fire was burning, and an offering was being prepared in the house of the brahman Aggikabharadvaja. Then the Blessed One, while on his alms round, came to the brahman's residence. The brahman seeing the Blessed One some way off, said this: "Stay there, you shaveling, stay there you wretched monk, stay there you outcast." When he spoke thus the Blessed One said to the brahman: "Do you know, brahman, who an outcast is and what the conditions are that make an outcast?" "No, indeed, Venerable Gotama, I do not know who an outcast is nor the conditions that make an outcast. It is good if Venerable Gotama were to explain the Dhamma to me so that I may know who an outcast is and what the conditions are that make an outcast."
"Listen then, brahman, and pay attention, I will speak."
"Yes, Venerable Sir," replied the brahman.
1. "Whosoever is angry, harbors hatred, and is reluctant to speak well of others (discredits the good of others), perverted in views, deceitful — know him as an outcast.
2. "Whosoever in this world kills living beings, once born or twice born, in whom there is no sympathy for living beings — know him as an outcast.
3. "Whosoever destroys and besieges villages and hamlets and becomes notorious as an oppressor — know him as an outcast.
4. "Be it in the village, or in the forest, whosoever steals what belongs to others, what is not given to him — know him as an outcast.
5. "Whosoever having actually incurred a debt runs away when he is pressed to pay, saying, 'I owe no debt to you' — know him as an outcast.
6. "Whosoever coveting anything, kills a person going along the road, and grabs whatever that person has — know him as an outcast.
7. "He who for his own sake or for the sake of others or for the sake of wealth, utters lies when questioned as a witness — know him as an outcast.
8. "Whosoever by force or with consent associates with the wives of relatives or friends — know him as an outcast.
9. "Whosoever being wealthy supports not his mother and father who have grown old — know him as an outcast.
10. "Whosoever strikes and annoys by (harsh) speech, mother, father, brother, sister or mother-in-law or father-in-law — know him as an outcast.
11. "Whosoever when questioned about what is good, says what is detrimental, and talks in an evasive manner- know him as an outcast.
12. "Whosoever having committed an evil deed, wishes that it may not be known to others, and commits evil in secret — know him as an outcast.
13. "Whosoever having gone to another's house, and partaken of choice food, does not honor that host by offering food when he repays the visit — know him as an outcast.
14. "Whosoever deceives by uttering lies, a brahman or an ascetic, or any other mendicant — know him as an outcast.
15. "Whosoever when a brahman or ascetic appears during mealtime angers him by harsh speech, and does not offer him (any alms) — know him as an outcast.
16. "Whosoever in this world, shrouded in ignorance, speaks harsh words (asatam) or falsehood expecting to gain something — know him as an outcast.
17. "Whosoever debased by his pride, exalts himself and belittles other — know him as an outcast.
18. "Whosoever is given to anger, is miserly, has base desires, and is selfish, deceitful, shameless and fearless (in doing evil) — know him as an outcast.
19. "Whosoever reviles the Enlightened One (the Buddha), or a disciple of the Buddha, recluse or a householder — know him as an outcast.
20. "Whosoever not being an arahant, a Consummate One, pretends to be so, is a thief in the whole universe — he is the lowest of outcasts.
21. "Not by birth is one an outcast; not by birth is one a brahman. By deed one becomes an outcast, by deed one becomes a brahman.






























































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