आज बुद्ध पूर्णिमा है। इस अवसर पर यह जानना जरूरी है कि धर्म, अध्यात्म, रहस्यवाद सहित नैतिकता की मूल प्रेरणा भारत में श्रमणों और भौतिकवादियों ने ही दी है, बाकी प्रचलित भाववादी या परलोकवादि परम्पराओं ने उनका सब कुछ चुराकर अपना ढांचा बनाया है और इस चोरी के कारण ही वे चुराई गयी मशीन की टेक्नोलॉजी की ठीक व्याख्या नहीं कर पाते और विरोधाभासी बाते कहते है। इस टेक्नोलॉजी को जन्म देने वाले श्रमण लोग भौतिकवादी थे जो आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म को नकारते हुए अनत्ता और शून्य की बात करते थे।
कई लोगों को यह बात अजीब लगेगी। लेकिन एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। बुद्ध श्रमण परम्परा के सर्वोच्च शिखर हैं इसलिए वे श्रमण दर्शन में जिस अनत्ता की प्रस्तावना करते हैं उस पर गौर कीजिये। नैतिकता, सहयोग, प्रेम और सदाचार सहित मोक्ष या निर्वाण भी तभी सम्भव है जब हम स्वयंभू और सनातन आत्मा, यानि स्व या व्यक्तित्व की निरन्तरता को नकारें और अनत्ता के अर्थ की क्षणिक और परस्पर निर्भरता को स्वीकारें।
अन्य परम्पराएँ जिन्होंने अपना सब कुछ श्रमणों से चुराया है वे बहुत सी बातों को समझा नहीं पातीं इसीलिये उन्हें हर बात में हर मोड़ पर परमात्मा, श्रद्धा और आस्था के भयानक डोज का इस्तेमाल करना होता है। जो भी धर्म आत्मा को मानेगा उसे आस्था की जरूरत अनिवार्य रूप से पड़ेगी।
अब आत्मा की सनातनता और अमरता सिखाने वाली परम्परा को देखिये। ये परम्परा आत्मा की अमरता के साथ साथ अनन्त और सनातन मोक्ष भी सिखाती है। अब मजे की बात ये है कि अगर आत्मा सनातन और अमर है तो वैसा ही अनन्त और सनातन मोक्ष संभव ही कैसे है? दो अनन्त एकसाथ कहाँ रह सकते हैं?
मोक्ष का उनके अनुसार कुल जमा अर्थ है आत्मा का परमात्मा में विलीन हो जाना। इसका मतलब हुआ कि आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप ने न बची और नष्ट हो गयी। तब वह अजर अमर कैसे रही? इसे यूँ भी समझें कि आत्मा मोक्ष के बाद आत्मा रूप में शेष रहती है या पूर्णतः नाम रूप सहित विलीन हो जाती है? इसका उत्तर देते हुए पोंगा पण्डित कहते हैं कि वह परमात्मा से एकाकार हो जाती है परमात्मा ही शेष रहता है। इसका भी अर्थ यही हुआ कि आत्मा खत्म हो गयी। तब पुनः वही सवाल कि वह अजर अमर कैसे हुई? कुछ लोग कहते हैं कि बूँद रूप आत्मा सर्वव्यापी सागर रूप परमात्मा में खो गयी। यहां भी फिर से वही समस्या है। सर्वव्यापी सागर का अर्थ ये है कि जो सबमे सब दूर व्याप्त है तब बूँद को अलग होकर अपनी स्वायत्तता की घोषणा करने का स्पेस ही कहाँ है? तब आत्मा की पृथकता की संभावना सहित परमात्मा से बिछड़ने और बाद में योग और मोक्ष की सम्भावना ही कहाँ है? बूँद अगर सागर में खो भी जाती है तो सागर रूप में बचती है या बून्द रूप में? अगर वह सागर रूप हो गयी तो अजर अमर न रही। अगर वह बूँद रूप में बच रही तो मोक्ष न हुआ। ये अंतहीन जलेबी है जो घूमती ही जाती है। इसका कोई इलाज नहीं। इसी कारण अस्पष्टता, दिशाहीनता और पाखण्ड पैदा होता है। इसीलिये भारतीय गुरु हजार मुंह से हजार तरह की बातें करते हैं इसीलिये भारतीय भगवान के चार छह आठ या दस बीस मुंह होते हैं। इसीलिये भारत में तर्क और विज्ञान पैदा ही नहीं होता। यहां सिर्फ बाबा और धर्म पैदा होते हैं।
इसे गहराई से देखें तो पता चलता है कि कुल मिलाकर अनत्ता के सिद्धांत को चुराकर जिन लोगों ने आत्मा ब्रह्म और माया का सिद्धांत रचा है वे अपनी चोरी के कर्म में ही बुरी तरह फंस गए इसीलिये गोल गोल घूमते रहते हैं। आत्मा की पृथक सत्ता की भी बात करते हैं, ब्रह्म या/और परमात्मा की भी बात करते हैं फिर आत्मा परमात्मा एक ही हैं यह भी कहते जाते हैं, कभी यह भी कहते हैं कि परमात्मा ही सब कुछ है, मोक्ष अभी और यहीं संभव है, आत्मा निरन्तर शुध्द बुद्ध है वह कभी मैली नहीं होती, फिर ये भी कहते हैं कि योग या ज्ञान साधना से आत्मा शुध्द होती है तब मोक्ष होता है इत्यादि इत्यादि। ये हजार मुंह का भगवान या गुरु है जो हजार तरह की बातें एक साथ कर रहा है। यही भारत की सनातन कोढ़ है। इसी को आधुनिक भगवान - भगवान रजनीश ने कैंसर में बदलकर लाइलाज बना डाला है।
यह सामान्य सी बात है, जब आप किसी दूसरे की टेक्नोलॉजी को चुराकर अपनी मशीन में फिट करते हैं तब कम्पेटिबिलिटी की समस्या खड़ी होती है। जैसे दूसरे का खून आपके शरीर में डालने पर एलर्जिक प्रतिरोध पैदा कर देता है। निर्वाण और शून्य सहित अनत्ता और दुःख निरोध असल में बुद्ध की टेक्नोलॉजी उनका खून है। उसे पाखण्डी धर्मों ने चुराकर अपनी मशीन में लगा तो लिया लेकिन उसका ठीक इस्तेमाल और उसकी कार्यपद्धति की ठीक व्याख्या नहीं कर पाते। इसीलिये सिद्धांतों की गोल गोल जलेबियाँ बनाते रहते हैं।
एक और बात देखिये, ये ही चोर ये भी कहते हैं कि आत्मा को न पानी गीला कर सकता न आग जला सकती न पवन सुखा सकती। फिर अगली पंक्ति में यह भी कहते हैं कि स्वधर्म में मरने से स्वर्ग का परम् भोग मिलता है। अब समस्या ये है कि जब पानी अग्नि और पवन भी आत्मा को नहीं छू पाते तब आपकी आत्मा स्वर्ग की अप्सराओ को और सुस्वादु भोजन को स्पर्श करके कैसे भोगेगी? क्या यह वर्चुअल वर्ल्ड का काल्पनिक भोग होगा? अगर वर्चुअल वर्ल्ड का भोग है तो वो तो आँख बन्द करके कल्पना में अभी और यहीं हो जायेगा, तब योग साधना इत्यादी की जरूरत ही क्या? और अगर स्वर्ग में अप्सरा के लालच से यहां ब्रह्मचर्य और सदाचार पालन किया तो उसका मूल्य ही क्या हुआ? सीधे कहें तो मतलब हुआ कि स्वर्ग में ज्यादा सेक्स करने के लिए जमीन पर कम सेक्स को त्याग दिया, अब यह भी कोई त्याग हुआ? जिस काम को जमीन पर पाप बनाया है वही स्वर्ग में सबसे बड़ा पुरस्कार कैसे बन सकता है?
ये गजब की जलेबियाँ हैं जिन्हें हजारों साल से कोई सीधा नहीं कर पाया।
अब बुद्ध की अनत्ता पर आते हैं और इन प्रश्नों का उत्तर देखते हैं।
बुद्ध के अनुसार सब कुछ आभासी है क्षणिक हैं और कहीं कोई सनातन निरन्तरता नहीं है। सब कुछ गठजोड़ से बना है। कोई आत्यंतिक सत्ता नहीं है। आपका शरीर दूसरों के शरीर के अवशेषों के गठजोड़ से बना है। माता पिता के शरीर के गठजोड़ से और भोजन के भण्डार से बना है। भोजन भी किसी अन्य पेड़ या जानवर का शरीर का गठजोड़ ही है जो पुनः किन्ही अन्य गठ्जोड़ पर निर्भर है। इस तरह यह शरीर हजारों अन्य शरीरों का विस्तार मात्र है जिसकी कोई आत्यंतिक निजता या स्वतन्त्र सनातन व्यक्तित्व नहीं है। वह सिर्फ एक गठजोड़ है, एक असेम्बल्ड रचना है जिसे अपने होने का झूठा आभास होता है। जवानी में जवान होने का आभास, बुढ़ापे में बूढ़े होने का आभास, न तो जवानी सनातन न बुढ़ापा सनातन।
इसी तरह आपका मन है जिसे आप स्व या व्यक्तित्व कहते हैं। वह भी समाज, परिवार, शिक्षा, परम्परा से आपको मिला है। उन सबके दिए हुए संस्कार और प्रवृत्तियों ने उस चीज को निर्मित किया है जिसे आप अपना होना कहते हैं। यह भी एक असेम्बल्ड रचना है जो लाखों अन्य चीजों पर निर्भर है, उसमे अपनी कोई विशिष्ट पहचान नहीं है। न ही उसकी कोई एक प्रवृत्ति है। अच्छा मिल गया तो सुख, न मिला तो दुःख। न दुःख सनातन न सुख सनातन। सब टेम्परेरी मूड्स हैं। आये और गए। ऐसे ही आपके रुझान, पसन्द और शुभ अशुभ भी उधार और टेम्परेरी हैं। कहीं कोई निरन्तरता और सनातनता नहीं है। अगर आप मुस्लिम घर में जन्मते तो मांसाहार या ब्रह्मचर्य के प्रति आपके विचार किसी जैन की तरह नहीं होते। आपके विचार सहित आपका विश्लेशण भी आपका नहीं बल्की लाखों अन्य घटनाओं परम्पराओं इत्यादि का परिणाम है।
तब "आप" या "आपका स्व" या यह तथाकथित आत्मा क्या चीज है?
बुद्ध इसे कोई नाम नहीं देते। वे इसे खारिज कर देते हैं और एक अनुपस्थिति यानी निर्वात या शून्य के अर्थ में सच्चाई को समझाते हैं। उनके अनुसार व्यक्तित्व की निरन्तरता के अर्थ में कोई आत्मा नहीं होती। जो भी दीखता या अनुभव होता है वह सब कुछ असेंबल्ड है, आत्यंतिक रूप से स्वतन्त्र सत्ता कहीं नही है। असेम्बल्ड शरीर और असेम्बल्ड मन के इस गठजोड़ को हम स्व या आत्म कहते हैं। इसी मे एक झूठे व्यक्तित्व या आत्मा का आभास होता है जो असल में तादात्म्य के कारण होता है। इस तादात्म्यजन्य आभास को अविद्या कहा गया है, इसी को चुराकर शंकर ने माया का सिद्धांत रच डाला लेकिन ये ही शंकर फिर माया और ब्रह्म के आपसी संबन्ध और उसकी विचित्रता को नहीं समझा सके। ब्रह्म शुभ का सर्जक है लेकिन माया ठगिनी है और मजा ये कि माया ब्रह्म की ही शक्ति है। अब ये क्या बात हुई? इसका मतलब हुआ कि एक भले आदमी की शक्ति यानि उसका हाथ उसकी मर्जी के बिना हत्या कर रहा है। क्या यह संभव है?
बुद्ध के अनुसार व्यक्तित्व की इस झूठी प्रतीति से ही दुःख का जन्म होता है और उस प्रतीति से बाहर निकलकर इस असेम्बल्ड सत्ता को खण्ड खण्ड देख लेना ही ज्ञान है। यही निर्वाण है। न तो कोई आत्मा पहले थी न बाद में बचती है। जैसे लकड़ी के टुकड़ों के जोड़ से कुर्सी बनती है, उस कुर्सी को आभास हो सकता है कि उसका कोई व्यक्तित्व या स्व या आत्मा है। लेकिन वह लकड़ी के ढेर से बनी और उसी में बिखर जायेगी। बीच में जो तथाकथित व्यक्तित्व या आत्मभाव जन्मा वह झूठा और टेम्पोरेरि है उसमे कुछ अजर अमर नहीं है। इसी कुर्सी के टुकड़े बाद में अन्य कुर्सी टेबल खिड़की दरवाजों इत्यादि में इस्तेमाल हो जायेंगे तब उस खिड़की इत्यादि को फिर से अपने व्यक्तित्व के होने का झूठा आभास होगा। बस यही निरन्तर चक्र चलता रहेगा। यही इंसान की, उसके झूठे स्व या आत्म का जीवन और उसकी तथाकथित आत्मा सहित पुनर्जन्म की वास्तविकता है।
अब चूँकि कोई सनातन आत्मा या स्व है ही नहीं इसलिए बीच में उग आये इस झूठे स्व से मुक्ति संभव है इसका नाश संभव है। सनातन या अजर अमर का नाश सहित दुःख निरोध कैसे संभव है? सिर्फ टेम्पोररि या आभासी का ही नाश संभव है। इसीलिये निर्वाण या दुःख निरोध संभव है।
यही बुद्ध धर्म का केंद्रीय दान है।
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सभी मित्र इसे ठीक से समझें और दूसरों को समझाएं। उन्हें विरोधाभासों, पाखण्ड और अनिर्णय, असमंजस से बचाएं।
साभार :
श्री संजय जोठे
Saturday, May 21, 2016
बुद्ध पूर्णिमा की प्रासांगिकता–श्री संजय जोठे
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अनत्त और आत्मा-परमात्मा इनका सीधा संबंध दिखाई नही देता, न ही बुद्धने इस अर्थ से 'सभी धम्म अनत्त है'बताया होगा. 'अत्त' याने 'आत्म,स्व'. आत्मा-परमात्मा अलग संवेदना या संज्ञा है और इनका अस्तित्व सिद्ध करना-न करना बुद्ध धम्म का विषय होही नही सकता. क्योंकी निब्बाण या दुक्खमुक्ती, जो धम्म का उद्देश्य है, से इसका कोई संबंध नही पहुंचता. इसपर अलग चर्चा हो सकती है लेकीन अनत्त से हटकर. हां, चोरोने चोरी पर चर्चा करनेके लिये हमे अवश्य बाध्य किया है, जिससे बच के रहना चाहिये. वरना मूल उद्देश्य से दूर चले जायेंगे.
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