साधकों ! चाहे कोई स्त्री हो, वा पुरुष हो, चाहे कोई गृहस्थ हो, वा प्रव्रजित हो,उसे पांच बातों पर निरन्तर विचार करते रहना चाहिए।
कौन सी पांच बातों ?
1. मैं जरा ( बुढ़ापा )-धर्मी हूँ, जरा से वशीभूत हूँ।
2. मैं रोग धर्मी हूँ, रोग से वशीभूत हूँ।
3. मैं मरण धर्मी हूँ, मरण से वशीभूत हूँ।
4. चाहे स्त्री हो या पुरुष,चाहे गृहस्थ हो या प्रव्रजित हो उसे इस बात पर निरंतर विचार करते रहना चाहिए कि जितनी भी मेरी प्रिय वस्तुयें है,अच्छी लगने वाली वस्तुयें है, उन सबका नाश, विनाश निश्चित है।
5.उसे इस बात पर निरन्तर विचार करते रहना चाहिए कि कर्म मेरा है, कर्म ही उत्तराधिकार है, मैं कर्म से ही उत्पन्न हुआ हूँ। कर्म ही मेरा बन्धु है, कर्म ही शरण स्थान है, इसीलिये जो भी भला -बुरा कर्म करूंगा वह मेरा उत्तराधिकार में आयेगा।
संदर्भ: अंगुत्तर निकाय
भवतू सब्ब् मंगलम् 🙏🏻🙏🏻🪷