Thursday, July 20, 2023

लोक-भ्रांति - " सत्यनारायण गोयन्का"

लोक-भ्रांति  - " सत्यनारायण गोयन्का"
आर्यभट्ट और पाइथागोरस ने अपने-अपने वैज्ञानिक शोध द्वारा जानकर जब यह घोषित किया कि पृथ्वी चपटी नहीं बल्कि गोल है, तब अनेक लोगों ने उन पर मूर्खता के लांछन लगाये होंगे, यह कहते हुए कि आंखों के सामने पृथ्वी दूर-दूर तक चपटी ही स्पष्ट दिखती है। इसे गोल कैसे मान लें!

इसी प्रकार जब गेलीलियो ने यह कहा कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है और इसी के कारण हमें यह भ्रम होता है कि सूरज और चंद्रमा पूर्व में उगते हैं और पश्चिम में अस्त होते हैं। तब इस सच्चाई को भी सुन कर उस समय के कई लोगों ने उसकी हँसी उड़ाई होगी कि हम सूरज और चांद को प्रत्यक्ष पूर्व में उगते और पश्चिम में डूबते देखते हैं। ये दोनों ही पृथ्वी की परिक्रमा करते रहते हैं तब हम यह कैसे मान लें कि सूरज नहीं घूमते बल्कि पृथ्वी घूमती है। परंतु कुछ समय पश्चात अन्य वैज्ञानिकों ने भी अनुसंधान द्वारा इन सच्चाइयों को जाना  स्वीकार किया। इस कारण समय बीतते-बीतते अनेक लोगों द्वारा भी इसे स्वीकार किया जाने लगा।

फिर भी उस समय के और आज के भी कुछ लोगों के मन में यह भ्रांति है ही कि सूरज और चांद किसी सर्वशक्तिमान की आज्ञा के आधार पर उदय-अस्त होते हैं। मुझे स्मरण है कि छोटी उम्र में मैं भी ईश्वरभक्ति का एक गीत गाया करता था जिसमें यह पद था -- ‘सूरज व चांद घूमते किसके आधार हैं?" यानी उन दिनों मैं भी यही समझता था कि परमपिता परमात्मा की कृपा के आधार पर ही ये घूमते हैं।

अनेक वैज्ञानिकों की शोध के द्वारा यह सत्य पुष्ट होता गया कि सूरज और चांद नहीं घूमते बल्कि पृथ्वी ही अपनी धुरी पर घूमती रहती है। तब अधिकांश लोगों के मन से यह भ्रांति दूर होने पर भी कुछ तो ऐसे थे ही और आज भी हैं ही जो इस वैज्ञानिक शोध की सच्चाई को नहीं स्वीकारते और सर्वशक्तिमान परमपिता परमात्मा की इच्छा के आधार को ही स्वीकारते रहते हैं।

इसी प्रकार न्यूटन ने यह वैज्ञानिक शोध की कि प्रकृति में ऐसी गुरुत्वाकर्षण शक्ति है जो एक-दूसरे ग्रह को अपनी ओर खींचती है। इसे भी तब अनेक लोगों ने स्वीकार नहीं किया। लेकिन समय बीतते-बीतते यह वैज्ञानिक सच्चाई भी लोगों की समझ में आने लगी और तब स्वीकार की गई। । ठीक इसी प्रकार अध्यात्म जगत के सर्वोच्च वैज्ञानिक तपस्वी सिद्धार्थ गौतम ने जब प्रकृति की यह सच्चाई ढूंढ निकाली कि वह स्वयं ही अपने पुरुषार्थ से मुक्त हुए, किसी अन्य के द्वारा उन्हें मुक्ति नहीं मिली। उन्होंने अपने द्वारा मुक्ति की खोज की तो उसका विवरण इन शब्दों में प्रकट किया – 

''अनेकजातिसंसारं संधाविस्सं अनिब्बिसं' यानी मैं अनेक जन्म-जन्मांतरों तक इस सच्चाई की खोज करता हुआ संसार-चक्र में बिना रुके दौड़ लगाता ही रहा । खोज यही थी कि मृत्यु के बाद पुनः जन्म देकर जो हमारे लिए नई देह का नया घर बनाता है, वह कौन है? उस घर बनाने वाले की गवेषणा में ही बार-बार दुःखमय जन्म लेता गया, इसीलिए कहा—

"गहकारं गवेसन्तो दुक्खा जाति पुनप्पुनं''। इस बार-बार जन्म लेने और उसके लिए नया-नया देहरूपी घर बनाने वाला आखिर वह ईश्वर है कौन? खोज करते-करते यह जान लिया कि कोई ईश्वर नहीं है। हम स्वयं ही हैं जो बार-बार नये जन्म लेकर देहरूपी नया गृह बनाते रहते हैं। इस खोज द्वारा यह सच्चाई स्पष्ट हुई कि जब तक मानस में अनेक जन्मों के कर्म-संस्कार संगृहीत हैं और हम तृष्णा द्वारा नये-नये संस्कार बनाते रहते हैं तब तक उनके कारण हमारा पुनर्जन्म होता रहता है। अतः यह स्पष्ट हुआ कि स्वयं हम ही बार-बार अपने लिए नया-नया जन्म और उसके लिए नया-नया घर बनाते रहते हैं। अन्य कोई घर बनाने वाला नहीं है। यह केवल एक मिथ्या, काल्पनिक मान्यता ही है। 

अपने अनुसंधान द्वारा इस अनजानी सच्चाई को लोगों के सामने रखते हुए उन्होंने यह स्पष्ट किया कि व्यक्ति स्वयं ही अपना मालिक है, उसके परे और कौन मालिक होगा भला! "अत्ता हि अत्तनो नाथो, को हि नाथो परोसिया' । अनुसंधान की गयी इस सच्चाई को सुन कर लोगों को बहुत अटपटा लगा होगा।

जब अध्यात्म के इस सर्वोच्च वैज्ञानिक ने अपनी शोध द्वारा यह भी घोषित किया कि 'अत्ता हि अत्तनो नाथी, अत्ता हि अत्तनो गति" - तब तो समाज में भूकंप उठ खड़ा हुआ होगा। हमें सद्गति अथवा अधोगति प्रदान करने वाले तो ऊपर आकाश में बैठे हुए ईश्वर के प्रतिनिधि धर्मराज अथवा यमराज हैं। यह कैसी मान्यता है जो उनके अस्तित्व को ही नहीं स्वीकारती और कहती है कि अपनी सद्गति या दुर्गति अथवा इन दोनों के परे जन्म-मरण की गतियों से सर्वथा मुक्ति का पुरुषार्थ स्वयं हमें ही करना होता है। अन्य किसी सर्वशक्तिमान की कृपा से यह नहीं होता। उस समय भी अनेक लोगों की यह मान्यता थी कि उस परमपिता परमात्मा का पूजन-अर्चन करके अथवा उसका नाम-स्मरण करके उसे प्रसन्न कर लेंगे तब वह हमें भव-सागर से तार देगा। कुछ लोग तब भी और अब भी, इस मान्यता को मान कर ही चलते हैं कि – 

“पुनरपि जन्मम्, पुनरपि मरणम्, पुनरपि जननीजठरे शयनम्'' इस दुस्तर भव-संसार को पार । करने के लिए किसी परमात्मा की याचना करते हैं। इस जनमान्यता को भी परमोच्च वैज्ञानिक सम्यक सम्बुद्ध द्वारा निरर्थक बताये जाने पर लोगों को बहुत चोट लगी होगी । लेकिन सम्बुद्ध के इस कथन का आधार कोई कल्पना नहीं थी, बल्कि स्वानुभूति द्वारा शोध किये गये और जाने गये निसर्ग के नियमों की सच्चाई का ही उद्घाटन था, न कि इस प्रकार की घोषणा करके वे किसी नये संप्रदाय की स्थापना करना चाहते थे।

महान वैज्ञानिक तपस्वी सिद्धार्थ गौतम ने अपने अनुसंधान का वर्णन करते हुए कहा कि "पुब्बे अननुस्सुतेसु" -- मैंने वह सच्चाई ढूंढ निकाली जिसे पहले कभी सुनी ही नहीं थी। उसने अपने खोजे हुए मुक्ति के मार्ग पर स्वयं चल कर अपने सारे संचित कर्म-संस्कारों को भग्न कर लिया और नये संस्कार बनाने वाली तृष्णा का नितांत क्षय कर लिया। अब पुनर्जन्म कहां? न कोई पुराना कर्म-संस्कार बचा जो पुनर्जन्म दे सके और न ही कोई तृष्णा रही जो पुनर्जन्म के लिए नया संस्कार बनाये। दोनों को ही स्वयं नष्ट करके यह जान लिया कि अब मेरा पुनर्जन्म नहीं हो सकता और यह भी जान लिया कि पहले जो अनेक बार पुनर्जन्म होते रहे, वे भी मेरे ही अपने कर्म-संस्कारों के कारण हुए। व्यक्ति स्वयं अपनी नासमझी से तृष्णा के कारण नये-नये कर्म-संस्कार बनाता रहता है और इसलिए बार-बार जन्म लेता रहता है। अपने पूर्व संचित कर्म-संस्कारों को नष्ट कर दें और नये न बनने दें यानी ''खीणं पुराणं, नवं नत्थि सम्भवं" - तब पुनर्जन्म कैसे हो? इस अवस्था को प्राप्त कर लेने पर ही गौतम सम्यक सम्बुद्ध ने कहा- "अयं अन्तिमा जाति" -- यह मेरा अंतिम जन्म है। "नत्थि दानि पुनड्भवति"- अब पुनः जन्म नहीं होगा।

संभव है कि बुद्ध के द्वारा जानी और प्राप्त हुई इस सच्चाई की घोषणा को लोगों ने नहीं माना होगा। लेकिन सत्य तो सत्य है। सम्यक सम्बुद्ध ने प्रकृति के अटूट नियमों की सच्चाई प्रकाशित की जो कि अंध-मान्यता और अंधश्रद्धा से नितांत दूर थी। उस महान वैज्ञानिक की खोज की गई प्रकृति के नियमों की सच्चाइयों को अन्य लोग भी अपनी अनुभूति द्वारा जान लें, इसीलिए उन्होंने अष्टांगिक आर्य मार्ग पर पटिपत्ति यानी प्रतिपत्ति यानी प्रतिपादन करना सिखाया। इसी पटिपत्ति के अभ्यास के कारण पांच तपस्वी साथियों ने भी अरहंत यानी अरिहंत अवस्था प्राप्त की। अरिहंत उसे कहते हैं जिसने अपने सभी अरियों यानी अपने कर्म-संस्काररूपी दुश्मनों का हनन कर लिया । अरहंत होने पर उनके वे पांचों साथी भी इस अवस्था पर पहुँचे जहां पुनर्जन्म नहीं होता - ''नत्थि दानि पुनभवोति'। ऐसे ही अन्य पचपन लोगों को भी भगवान ने यही मुक्ति का मार्ग । सिखाया, जिस पर चल कर वे सब अनार्य से आर्य हो गये। पृथकजन से अरहंत हो गये, भव-मुक्त हो गये।

इस कल्याणकारी आर्यमार्ग को अनेक लोगों तक पहुँचाने के लिए अब इन साठ लोगों ने अलग-अलग मार्ग से अलग-अलग स्थानों पर पहुँच कर अधिक से अधिक लोगों के हित-सुख के लिए आर्यमार्ग की यही विपश्यना विद्या सिखायी। इससे उन्हें लाभ होना स्वाभाविक था। जब स्वानुभूति द्वारा धर्म का स्वयं लाभ होता है तब साधक के मन में यह करुण-भाव जागता ही है कि इसे अन्य अनेक लोग भी अपना कर लाभान्वित हों। इस कारुणिक भावना को ही -- 'एहिपस्सिको' कहा गया यानी आओ, तुम भी इस मार्ग पर चल कर देखो! इसी आह्वान के कारण अनेकों ने विपश्यना का अभ्यास किया और लाभान्वित हुए। अतः भगवान की शिक्षा उनके जीवनकाल में ही फैलने लगी। जैसे परमात्मा संबंधी भ्रांतियों को दूर किया वैसे ही आत्मा संबंधी भ्रांतियों को भी।

उनके द्वारा प्रशिक्षित विपश्यना के अभ्यास से जो शरीर और चित्त से संबंधित संवेदनाओं की अनुभूति होती है, उनसे साधक जान लेता है कि ये अनित्य हैं, दुःख हैं, अनात्म हैं। अनित्य की सच्चाई तो आसानी से समझ में आ जाती है और कुछ अंशों में दुःख की भी, परंतु अनात्म को लेकर कुछ लोगों के मन में संदेह रहा ही होगा। क्योंकि वे मानते थे कि हमारे भीतर कोई नित्य, शाश्वत, ध्रुव आत्मा तो है ही।

यही समस्या मेरे लिए भी थी। मैं स्वयं कट्टर सनातनी घर में जन्मा और पला और इसका मुझपर गहरा प्रभाव था। बुद्ध की विपश्यना का अभ्यास करने के लिए मेरे मन में जो झिझक थी वह इसीलिए कि इसमें आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाता। परंतु जब पहले ही शिविर में से निकला तो सारे विरोध दूर हो गये। मैंने देखा कि आखिर मैं कर क्या रहा हूं? इस साधना द्वारा अपने अंतर्मन के विकारों को दूर करके उसे निर्मल बनाने का काम ही तो कर रहा हूं। इसमें किसी को क्या विरोध हो सकता है? मुझे भी क्या विरोध हो सकता है? उस समय मेरे मन में यह भाव जागा कि यदि कोई विश्व-नियंता ईश्वर है तो मुझे अपने चित्त को निर्मल करते हुए देख कर वह प्रसन्न ही होगा, इसका विरोध क्यों करेगा? इसी प्रकार यदि कोई आत्मा है तो चित्त को निर्मल कर लेने से उस बेचारी का भला ही होगा, वह नाराज क्यों होगी? और यदि आत्मा और परमात्मा है ही नहीं, तो उनकी मान्यताओं का वृथा बोझ अपने सिर पर क्यों उठाये फिरू?

मेरे अनुभव की यह बिल्कुल प्रारंभिक अवस्था थी। लेकिन जैसे-जैसे और शिविर लेता गया, गहराई में जाकर शरीर और चित्त के संबंधों की गहरी जानकारी अनुभूति द्वारा होती गई, तब बात खूब समझ में आयी कि यह तो कुदरत का कानून है, निसर्ग का नियम है कि जैसा बीज वैसा फल । इस नियम को कोई भी शक्ति बदल नहीं सकती। न कोई देवी, न देवता, न ईश्वर, न ब्रह्म और न कोई गुरु महाराज । बीज नीम का बोया हो तो निसर्ग के नियमों के अनुसार उसमें से नीम ही उत्पन्न होगा। आम का बोया हो तो उसमें से आम ही उत्पन्न होगा। यह सच्चाई खूब समझ में आयी कि ऐसी कोई बाह्य शक्ति है ही नहीं जो नीम के बोये हुए बीज से आम पैदा कर दे अथवा आम के बोये हुए बीज से नीम पैदा कर दे। जैसा बीज वैसा फल। ठीक इसी प्रकार जैसा कर्म-बीज वैसा ही कर्म-फल। इस नियम को कोई बदल नहीं सकता। यदि किसी दुष्कर्म का दुष्फल आया है तो कोई हजार प्रार्थना करे, पूजन-अर्चन करे, कर्मकांड करे तो भी उससे छुटकारा नहीं मिल सकता । विपश्यना की साधना द्वारा यथाकृत नहीं, यथा कल्पित नहीं, यथा आरोपित नहीं बल्कि यथाभूत सत्य को समतापूर्वक देखते-देखते ही कोई दुष्कर्म के बीज का उन्मूलन कर सकता है। इसी प्रकार किसी सत्कर्म का सफल आया है तो इसमें भी कोई बाह्य शक्ति रुकावट पैदा नहीं कर सकती । प्रकृति के नियमों की यह सच्चाई खूब समझ में आने लगी तो विपश्यना की वैज्ञानिकता भी खूब समझ में आने लगी । भिन्न-भिन्न दार्शनिक मान्यताओं के जंजाल से स्वतः छुटकारा हो गया। आत्मा और परमात्मा संबंधी सारे संदेह भी दूर हो गये।

जैसे इन दिनों वैसे ही उन दिनों में भी, विपश्यना करने वाले अनेक साधकों के मन से मिथ्या काल्पनिक मान्यताओं और उनके आधार पर मिथ्या विश्वासों के जंजाल दूर होते गये। अनेक लोग प्रकृति के नियमों की सच्चाई स्वीकार करने लगे। परंतु कुछ अज्ञानी और विरोधी संप्रदायवादियों ने बुद्ध का विरोध तो किया ही। यथा—

परिव्राजक मागण्डिय -- उन दिनों की एक बुद्ध-विरोधी मान्यता का प्रसिद्ध परिव्राजक था मागण्डिय। गौतम बुद्ध जिस आसन पर बैठ कर गये, उसे देख कर उसने भगवान को गालियां देते हुए कहा कि श्रमण गौतम भ्रूणहा है यानी भ्रूणों की हत्या करने वाला है। अंततः धर्म सीख कर वह भी अरहंत हुआ।

मागण्डिया -- ब्राह्मण मागण्डिय की पुत्री मागण्डिया परम सुंदरी थी। ब्राह्मण मागण्डिय ने बुद्ध के सुंदर रूप को देख कर उनसे अपनी पुत्री का विवाह करना चाहा। भगवान ने अस्वीकार कर दिया। सुंदरी मागण्डिया को इससे बहुत चोट लगी। आगे जाकर वह कौशांबी देश के राजा उदयन की रानी बनी और जब भगवान उस नगर में विहार करते हुए गुजरे तब उन पर अपना गुस्सा निकालने के लिए उसने कुछ भाड़े के लोगों को उनके पीछे लगा दिया जो उन्हें भिन्न-भिन्न प्रकार से गालियां देते हुए साथ चलने लगे, जैसे कि तू चोर है, मूर्ख है, गधा है, ऊंट है...।।

अक्कोस भारद्वाज -- जब इसने देखा कि बहुत बड़ी संख्या में लोग भगवान बुद्ध के अनुयायी होते जा रहे हैं तब वह इसे सहन नहीं कर सका। वह अत्यंत क्रोधित हो, गालियां बकते हुए भगवान के पास आया लेकिन भगवान की शांति देख कर उनकी ओर आकर्षित हुआ और उनसे विपश्यना सीख कर क्रोधमुक्त हो गया। 

वेरज ब्राह्मण - इसने भी भगवान पर ये लांछन लगाये कि श्रमण गौतम रूखा है, निर्भोगी है, अक्रियावादी है, उच्छेदवादी है, घृणा करने वाला है, लोकधर्म का नाश करने वाला है, अप्रगल्भ यानी देवलोक में उत्पन्न नहीं होने वाला है, आदि..।

भिक्षुओं को गालियां -- भगवान के सत्कार को सहन नहीं कर सकने के कारण कुछ विरोधी लोग उनके भिक्षुओं को भी गालियां दिया करते थे।
कई विरोधियों ने भगवान पर मिथ्या लांछन लगा कर उन्हें बदनाम करने का निष्फल प्रयत्न किया। यथा –

चिञ्चा माणविका -- एक सुंदरी युवती गर्भवती का भेष बना कर भगवान की धर्मसभा में उन्हें अपशब्द कहने लगी -- "अरे मथमुंडे, अपने होने वाले बच्चे के लिए तेरे पास कुछ नहीं है तो अपने इन धनी अनुयायियों को कह, वे कुछ प्रबंध करेंगे।'' भगवान इस मिथ्या लांछन से रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए। यह देख कर वह स्वयं घबरा उठी। उसके पेट पर बँधी रस्सी ढीली पड़ गई और लकड़ी का टुकड़ा पांव पर आ गिरा। 

सुंदरी परिव्राजिका -- विरोधियों ने एक सुंदरी परिव्राजिका को मार कर उसकी लाश जेतवन विहार के किसी गड्ढे में फिंकवा दी। फिर यह झूठी बात फैलाई कि भिक्षुओं ने उसके साथ दुष्कर्म करके उसका वध कर दिया। परंतु यह मिथ्यारोपण भी सफल नहीं हुआ। सच्चाई सामने आ गयी। इस प्रकार के अवरोधों के रहते हुए भी धीरे-धीरे अधिक से अधिक लोगों को भगवान की शिक्षा स्वीकार होने लगी। क्योंकि वह स्वानुभूत सच्चाई पर आधारित थी, न कि अंधविश्वासों पर और साथ-साथ आशुफलदायिनी भी थी।

शील, समाधि, प्रज्ञा-- ये तीनों सार्वजनीन धर्म हैं, सर्व धर्म हैं, सब के धर्म हैं। किसी को भी सांप्रदायिक बाड़े में नहीं बाँधते । जब यह बात लोगों की समझ में आने लगी तब आर्य अष्टांगिक मार्ग पर चलते हुए विपश्यना के अभ्यास द्वारा अधिक से अधिक लोग सदाचारी बन कर लाभान्वित होने लगे। यही सच्चाई हम आज भी देख रहे हैं कि किस प्रकार सभी संप्रदायों के लोग लाखों की संख्या में बिना झिझक विपश्यना को स्वीकार कर रहे हैं, उनमें से कोई आत्मा या परमात्मा को माने या न माने। परंतु विपश्यना के अभ्यास से उनके मन का बुरा स्वभाव क्षीण होता जाता है और अच्छा स्वभाव सबल होता जाता है। इसी में सबका कल्याण है। शील, समाधि, प्रज्ञा के अभ्यास में कल्याण ही कल्याण समाया हुआ है।

कल्याणमित्र, 
सत्यनारायण गोयन्का

दिसम्बर 2011 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित

No comments:

Post a Comment