Thursday, April 5, 2012

मिलिन्द -प्रशन





सम्राट मीनान्डर और नागसेन का यह प्रसिद्ध संवाद सागलपुर ( वर्तमान स्यालकोट ) मे हुआ था जो उस समय सम्राट मीनान्डर की राजधानी थी । इस ग्रंथ मे राजा मिनान्डर ने भिक्खु नागसेन से अनेक ऐसे प्रशन पूछॆ है जो सीधे मनुष्य के मनोविज्ञान से संबध रखते हैं'मिलिन्द प्रशन ’ में भिक्षु नागसेन ने बुद्ध धम्म के एक गूढ तत्व ‘अनात्म ’ को समझाने का प्रयत्त्न किया है । ‘ मिलिन्द प्रशन ’ के दूसरे परिच्छॆद के ‘लक्षण प्रशन’ अध्याय का यह संवाद अंश वास्तव मे जटिल विषय को सहजता से प्रस्तुत करता है ।

गत सप्ताह सारनाथ भ्रमण के दौरान मूलगन्ध कुटी  मन्दिर के स्टाल से  “ मिलिन्दपंह” नामक ग्रंथ की यह पुस्तक विक्रय की जो सम्यक प्रकाशन केन्द्र से प्रकाशित की गई थी । हकीकत मे इस पुस्तक को पढने की ललक मुझे अपने मित्र श्री राजेश चन्द्रा जी द्वारा उपहार में दी गई श्री धम्मानन्द जी की पुस्तक के आरम्भिक संपादिकीय पन्नों से हुई जिसमें मिलिन्द प्रशन के कुछ पन्नों का समावेश किया गया था ।
बौद्ध साहित्य में ‘ मिलिन्दपंह ’ नामक ग्रंथ का अपना महत्वपूर्ण स्थान है । हाँलाकि इस ग्रंथ की गिनती त्रिपिट्क के ग्रंथों में नही आती , लेकिन त्रिपिटिक के बाद लिखे जाने वाले अनुत्रिपिटक ग्रंथॊं मे इसका स्थान सबसे ऊपर  है । ’ मिलिन्द प्रशन’ का महत्व बौद्ध जगत मे ठीक उसी प्रकार से है जैसे हिन्दू धर्म में श्री भगवद गीता का । जिस प्रकार श्री भगवद गीता मे भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन की शंकाओं को दूर करने के लिये उप्देशात्मक उत्त्र दिये गये हैं वैसे ही ‘मिलिन्द प्रशन’  मे सम्राट मिलिन्द के द्वारा उठाई गई शंकाओं का समाधान भिक्खु नागसेन द्वारा किया गया है ।
भारत मे आर्यों के आकर बसने के बाद विदेशियों के आक्रमण होते रहे । इसमे पहला आक्रमण लगभग आठ सो ईसा पूर्व असीरिया की सम्राज्ञी सेमिरामिस का था । दूसरा ईरान के प्रसुद्ध विजेता कुरु का था । इसके उपरांत ईसा से ३२० वर्ष पूर्व यूनान के जगत प्रसिद्ध विजेता सिकंदर ने भारत पर आक्रमण किया लेकिन उसकी सेना को मगध राज्य की विशाल सेना के भय से बीच मे ही लौट के जाना पडा । सिकंदर के कुछ साथी पशिचम एशिया में बस गये और इस प्रकार भारत मे यूनानियों का आकर बस जाना जारी रहा । उत्तर भारत में शासन करने वाले ग्रीक राजाओं मे मिनाणडर के  साम्राज्य का  विस्तार का संकेत कशमीर तक मिलता है । मथुरा में खुदाई मे मिले महत्वपूर्ण बाईस सिक्कों से  यह कहा जा सकता है कि उसका राज्य मथुरा तक फ़ैला हुआ था । प्रसिद्ध इतिहासकार प्लूटॊ के अनुसार उतर भारत मे शासन करने वाले ग्रीक राजाऒ मे मिनान्डर अत्यन्त न्यायी , विद्धान और लोकप्रिय राजा था । मिनाणर के भारत में आने के दो प्रमुख कारण थे , पहला अपने राज्य का विस्तार करना और दूसरा कि यहाँ के संतों , श्रमणॊं और दार्शिनिकों  से वाद विवाद एंव शास्त्रार्थ करके अपनी ज्ञान पिपासा और दार्शिनिक शंकाओं को दूर करना था ।
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सम्राट मीनान्डर और नागसेन का यह प्रसिद्ध संवाद सागलपुर ( वर्तमान स्यालकोट ) मे हुआ था जो उस समय सम्राट मीनान्डर की राजधानी थी । इस ग्रंथ मे राजा मिनान्डर ने भिक्खु नागसेन से अनेक ऐसे प्रशन पूछॆ है जो सीधे मनुष्य के मनोविज्ञान से संबध रखते हैं । इस ग्रंथ का दूसरा और तीसरा वर्ग मनोविज्ञान से भरा हुआ है जिनमें सात विवेक और ज्ञान विषयक प्रशन एंव उत्तर के अतिरिक्त शील, श्रद्धा , वीर्य, स्मृति, समाधि एंव ज्ञान की पहचान पर चर्चा है । तृतीय वर्ग के अंतर्गत अविधा , संस्कार, अनात्मा आदि का वैज्ञानिक विशलेषण किया गया है । इस उपभाग में ही स्पर्श , वेदना , संज्ञा, चेतना , विज्ञान , वितर्क और विचार की पहचान विशुद्ध मनोवैज्ञानिक विषय है जिसकी विस्तृत जानकारी इस ग्रंथ से मिलती है ।
मिलिन्द प्रशन के उपभाग लक्षण प्रशन के अंतर्गत ’ पुदगल प्रशन मीमांसा ’ मेरी समझ से सबसे अधिक लोकप्रिय और बुद्ध धम्म के सबसे अधिक गूढ तत्व अनात्म को समझने मे सहायक है ।

पुदगल प्रशन मीमांसा


 
राजा मिलिन्द भिक्षु नागसेन से मिलने गये , उनको नमस्कार और अभिवादन किया और एक ओर बैठ गये । नागसेन ने भी जिज्ञासु एंव विद्धान राजा का अभिनन्दन किया ।
तब राजा मिलिन्द ने प्रशन किया – भन्ते , आप किस नाम से जाने जाते हैं , आपका शुभ नाम क्या है ?
महाराज मैं ‘नागसेन’ नाम से जाना जाता हूँ और मेरे सहब्रह्मचारी मुझे इसी नाम से पुकारते  हैं । यद्दपि माँ-बाप नागसेन , सूरसेन , वीरसेन या सिंहसेन ऐसा कुछ भी नाम दे देते हैं , किन्तु यह व्यवहार के लिये संज्ञायें भर हैं , क्योंकि व्यवहार में ऐसा कोई पुरुष ( आत्मा ) नही है ।
भिक्षु नागसेन के इस असामान्य उत्तर से चकित सम्राट मिलिन्द ने उपस्थित समुदाय को सम्बोधित करते हुये कहा – मेरे पाँच सौ यवन और अस्सी हजार भिक्षुओं , आप लोग सुनें , भन्ते नागसेन का कहना है कि ‘ यथार्थ मे कोई आत्मा नही है ’ उनके इस कथन को क्या समझना चाहिये ?
फ़िर भन्ते को सम्बोधित करते हुये कहा – यदि कोई आत्मा नही है तो कौन आपको चीवर , भिक्षापात्र , शयनासन , और ग्लानप्रत्यय ( औषधि) देता है ? कौन उसका भोग  करता है ? कौन शील की रक्षा करता है ? कौन ध्यान साधाना का अभ्यास करता है ? कौन आर्यमार्ग के फ़ल निर्वाण का साक्षात्कार करता है ? कौन प्राणातिपात ( प्राणि हिंसा ) करता है ? कौन अदत्तादान ( चॊरी ) करता  है ? कौन मिथ्या भोगों मे अनुरक्त  होता है ? कौन मिथ्या भाषण करता है ? कौन मद्ध पीता है ? कौन अन्तराय कारक कर्मों को करता है ? यदि ऐसी कोई बात है तो न पाप है और न पुण्य , न पाप और पुण्य कर्मों के कोई फ़ल होते हैं । भन्ते , नागसेन ! यदि कोई आपकी ह्त्या कर दे तो किसी की हत्या नही हुई । भन्ते , तब तो आपका कोई आचार्य भी नही हुआ , कोई उपाध्याय भी नही और आपकी उपसम्पदा भी नही हुई ।
आप कहते हैं कि आपके सह ब्रहमचारी आपको नागसेन नाम से पुकारते हैं , तो यह ‘नागसेन’ है क्या , क्या ये केश ‘नागसेन’ हैं ?
‘नहीं महाराज !’
‘ये रोयें नागसेन हैं ?’
‘नहीं महाराज!’
‘ये नक, दाँत , चमडा, मांस, स्नायु, हडडी , मज्जा , वृक्क, ह्रदय , क्लोमक, तिल्ली, फ़ुफ़्फ़ुस, आंत, पसती, पेट, मल, पित्त, पीब, रक्त, पसीना, मेद, आँसू, लार, नेटा, लसिका, दिमाग नागसेन हैं ?’
‘नहीं महाराज!’
‘तब क्या आपका रुप नागसेन है ?’
‘नहीं महाराज!’
‘तो क्या ये सब मिल कर पंच स्कन्ध नागसेन हैं?’
‘नहीं महाराज!’
‘तो इन रुपादि से भिन्न कोई नागसेन है ?’
‘नहीं महाराज!’
‘भन्ते , मैं आपसे प्रशन पूछ्ते-२ थक गया हूँ, किन्तु नागसेन क्या है इसका पता नहीं लगा । तब क्या नागसेन केवल शब्द मात्र है ?  आखिर नागसेन है कौन ? भन्ते आप झूठ बोलते हैं कि नागसेन कोई नही है ।’
अस्तु प्रशन कर-२ थके राजा मिलिन्द से भिक्षु नागसेन ने पूर्ववत सौम्य स्वर मे कहा – महाराज , आप सुकुमार युवक हैं , इस तपती दोपहर में गर्म बालू तथा कंकडॊं से भरी भूमि पर पैदल चल कर आने से आप के पैर दुखते होगें , शरीर थक गया होगा , मन असहज होगा और शरीर में पीडा हो रही होगी । क्या आप पैदल चल कर यहाँ आये हैं या किसी सवारी पर ?
‘भन्ते मैं पैदल नही बल्कि रथ पर आया हूँ ।’
‘महाराज ! यदि आप रथ पर आये हैं तो मुझे बतायें कि आपका रथ कहाँ है?’
‘राजा मिलिन्द ने रथ की ओर अंगुली निर्देश किया तब भन्ते नागसेन ने पूछा – राजन ! क्या ईषा( दण्ड ) रथ है ?’
‘नहीं भन्ते!’
‘क्या अक्ष रथ है ?’
‘नहीं भन्ते!’
‘क्या चक्के रथ हैं ?’
‘नहीं भन्ते!’
‘राजन ! क्या रथ का पंजर रथ है ?’
‘नहीं भन्ते!’
‘क्या रथ की रस्सियाँ रथ हैं ?’
‘नहीं भन्ते!’
‘क्या लगाम रथ है ?’
‘नहीं भन्ते!’
‘क्या चाबुक रथ है ?’
‘नहीं भन्ते!’
‘राजन ! क्या ईषादि सभी एक साथ रथ है ?’
‘नहीं भन्ते!’
‘क्या ईषादि से परे कही रथ है ?’
‘नहीं भन्ते!’
‘महाराज ! मै आपसे पूछते-२ थक गया हूँ किन्तु यह पता नही लगा कि रथ कहाँ है । क्या रथ केवल शब्द मात्र है ? अन्तत: यह रथ है क्या ? महाराज आप झूठ बोलते हैं कि रथ नही है । महाराज , सारे जम्बुद्दीप मॆं आप सबसे बडॆ राजा हैं , भला किसके डर से आप झूठ बोलते हैं ?’
‘पांच सौ यवनों और मेरे अस्सी हजार भिक्षुओं ! आप लोग सुनें , राजा मिलिन्द ने कहा , ‘मैं रथ पर यहाँ आया ‘ किन्तु मेरे पूछने पर कि रथ कहाँ है , वे मुझे नहीं बता पाये । क्या उनकी बातें मानी जा सकती हैं ?
इस पर उन पाँच सौ यवनों ने आयुष्मान नागसेन को साधुवाद दे कर राजा मिलिन्द से कहा – महाराज , यदि हो सके तो आप इसका उत्तर दें ।
तब राजा मिलिन्द ने कहा – भन्ते ! मैं झूठ नही बोल रहा हूँ । ईषादि रथ के अवयवों के आधार पर केवल व्यवहार के लिये ‘रथ’ ऐसा नाम कहा गया है ।
‘महाराज बहुत ठीक , आपने जान लिया कि रथ क्या है । इसी प्रकार मेरे केश इत्यादि के आधार पर केवल व्यवहार के लिये “नागसेन” ऐसा एक नाम कहा जाता है लेकिन परमार्थ मे नागसेन नामक कोई आत्मा नही है । भिक्षुणी वज्रा ने भगवान बुद्ध के सामने कहा था – जैसे अवययों के आधार पर “ रथ” संज्ञा होती है उसी प्रकार स्कन्धों के होने से “सत्व” समझा जाता है ।
‘भन्ते !! आशचर्य है , अदभुत है । इस जटिल प्रशन को आपने बडी खूबी से सुलझा लिया , विस्मयहर्षित राजा मिलिन्द ने कहा , यदि इस समय भगवान बुद्ध भी यहाँ होते तो वे भी आपको साधुव्बाद देते । भन्ते नागसेन ! आप को साधुवाद !!

साभार : श्री शान्ति स्वरुप बौद्ध ,सम्यक प्रकाशन केन्द्र ,श्री राजेश चन्द्रा , और श्री टी.वाई.ली.

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