महाराष्ट्र टूरिज्म डेवलपमेंट कारपोरेशन के एमडी जगदीश पाटिल ने कहा कि हमने नालासोपारा के स्तूप का चयन इसलिए किया क्योंकि ऐसा माना जाता है कि सम्राट अशोक के पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए श्रीलंका यहीं से गए थे. पाटिल का मानना है कि इस पहल से राज्य में बौद्ध आध्यात्मिक पर्यटन के प्रसार में काफी मदद मिलेगी.
यह सफ़र दादर के चैत्यभूमि, गोराई के पगोडा, आदि अन्य बौद्ध स्थल पर भी जारी रहेगी और इसका समापन नागपुर के दीक्षाभूमि में होगा.
नालासोपारा का अपना ऐतिहासिक महत्व भी है. यह प्राचीन भारत का एक महत्वपूर्ण बंदरगाह था जहां से मेसोपोटामिया, अरब, ग्रीस, रोम, अफ्रीका आदि अन्य देशों के साथ व्यापार होता था. शहर की समृद्ध ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और परम्परागत विरासत २६०० साल पुरानी है जब प्राचीन पश्चिम भारत के सुनापरंता (नालासोपारा का पुराना नाम) शहर के एक धनी व्यापारी पूर्णा मैत्रयानिपुत्र ने भ्रमण के दौरान उत्तर प्रदेश के शहर श्रावस्ती में बौद्ध धर्म को अपनाया. पूर्णा ने भगवान बुद्ध का उपदेश सुना और अपना सारा धन त्याग कर एक बौद्ध भिक्षु बन गया.
बाद में जब उसने गौतम बुद्ध के उपदेशों का प्रचार करने का निश्चय किया तो सोपारा वापस आकर अपने शिष्यों की मदद से उसने बुद्ध विहार का निर्माण किया जिसमें आठ दरवाजे थे जो चन्दन की लकड़ी के बने थे. ऐसा कहते हैं कि पूर्णा ने बुद्ध विहार के उदघाटन के लिए भगवान बुद्ध को बुलाया था और भगवान बुद्ध ने अपने पांच सौ शिष्यों के साथ यहां आकर एक सप्ताह तक निवास किया था. भगवान बुद्ध की यादों को हमेशा बनाए रखने के लिए पूर्णा ने उनसे उनका भिक्षा पात्र मांग लिया. 9 अप्रैल 1882 को पंडित भगवानलाल इन्द्रजीत ने उस भिक्षा पात्र की खोज की.
बाद में जब सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया तो उसने नालासोपारा में एक स्तूप का निर्माण किया. ऐसा माना जाता है कि सम्राट अशोक ने अपने बेटे महेंद्र और बेटी संघमित्रा को श्रीलंका में बौद्ध धर्म के सिद्धांतों के प्रचार के लिए यहीं से भेजा. अशोक ने 14 शिलालेखों का निर्माण भी करवाया था जिनमें से 8 शिलालेखों की खोज भी पंडित भगवानलाल इन्द्रजीत ने भातेला लेक के नज़दीक की थी. मुंबई के ऐसिअटिक सोसाइटी के एनए गोरे ने 1956 में भुईगाँव में नौवें शिलालेख की खोज की. उसी साल ठाणे कलेक्टर की मदद से गोरे ने स्तूप की खोज भी की थी.
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