।। स्थितप्रज्ञाता ।।
जीवन को हम किस दृष्टिकोण से देखते है यह "प्रज्ञा" पर निर्भर होता है।
क्या होती है "प्रज्ञा"? किसको कहते है "स्थितप्रज्ञ " होना?
अपने भीतर की क्षण-प्रतिक्षण की सच्चाई "अनित्य-बोध" हर अवस्था में जानते हुए "ज्ञान" में स्थित रहना ही "स्थितप्रज्ञता" कहलाती है।
गीता श्लोक : " उत्क्रमन्तं स्थितंवापि भुंजङ्ग वा गुणान्विता, गुणान्विता, विमूढा नानु पश्यंती, पश्यंती ज्ञानचक्षुस।
(गीता में यह जो, पश्यन्ती, पश्यति, विपश्यति, विचक्षति आदि शब्द है वह विपश्यना से देखने के बारें में है, केवल बौद्धिक पाठ-पठन से ज्ञान नही होता)
केवल पाठ करने से, चिंतन-मनन करने से कोई स्थितप्रज्ञ नही होता। मन-मानस के और शारीर के परस्पर संपर्क से होनेवाले प्रपंच को"द्रष्टाभाव " से "साक्षीभाव" से देखने को, उसके गुणोंको जानने से व्यक्ति "प्रज्ञावान" होता है। ज्ञानचक्षु से यह देखने से, विपश्यना ठीक से होती है। और यह अनुभूति हर अवस्था में कायम रहे, इसे " स्थितप्रज्ञ" कहते है।
इसके लिए काम करना होता है। मेहनत करने से, पुरुषार्थ करने से होता है। जो प्रज्ञा में स्थित है वह स्थितप्रज्ञ है।
अपने भीतर की " सच्चाई" को एक वैज्ञानिक की तरह अनुभूति के स्तर पर निरंतर जानते रहना ही
"स्थितप्रज्ञता" है।
जो भीतर सच्चाई है वही बाहर सच्चाई है। भीतर का जो प्रपंच है वह ज्यादा महत्वपूर्ण है। शरीर के सारे हिस्से में प्रतिक्रियाविहीन, द्रष्टाभाव से निरीक्षण करते हुये, "राग-द्वेष" की प्रतिक्रिया न करते हुए स्थितप्रज्ञ रहने का काम होगा तो कल्याण ही कल्याण है।
मन के विकारों से नितांत मुक्त होना ही सही मुक्ति है।
मन-मानस की जड़ों तक जाकर के उसकी शुद्धि करना ही उत्तम मंगल है।जड़ों से स्वाभाव को पलटते रहे। अपने भीतर सच्चाई के अनेक पट होते है। वह पट, अवगुंठन एक एक करके समाप्त होते है।विकारों से मुक्ति पाने के लिए परिश्रम, पुरुषार्थ करना होता है। कोई देवी-देवता आशीर्वाद देके, कृपा करके हमें मुक्त नही कर सकते। स्वयं प्रयास करने से होता है।
अज्ञान के, अविज्ञा के अंधकार से ,भीतर की प्रज्ञा जगाते हुए, प्रकाश की और जाना ही सही दीपावली पर्व मनाना कहलाता है। बाकी बातें प्रतीकात्मक ही है।
कहे कबीर, हरी ऐसा रे, जब जैसा तब तैसा रे....
घुंगट के पट खोल रे, तुझे पिया मिलेंगे....
इस क्षण की जो भी सच्चाई है, जैसी भी सच्चाई है, हम अनुभव करते रहते है उसे उसी प्रकारसे जानते रहना है, ऐसे करते करते तो हमें अवश्य अंतिम सच्चाई के दर्शन से, अंतिम सत्य प्राप्त होता है। जीसे की संत कबीर "हरी" के नाम से पुकारते है।
अपने पुरुषार्थ से असीम पराक्रम से सिद्धार्थ-गौतम जब बोधि प्राप्त होकर "सम्यक-सम्बुद्ध" बने तो
बुद्ध के पहले उदान वाक्य थे,
" पुब्बे अनंसुत्तेसु धम्मेसु, चक्खूं उत्पादि, ज्ञानं उत्पादि, पञ्ञ उत्पादि, विज्ञा उत्पादि,आलोको उत्पादि".....
अर्थात, (मेरे इस पुरुषार्थ से) पहले कभी सुना नहीं, देखा नही ऐसा धर्म (धम्म)( "सत्य"), उतप्न हुआ। ज्ञानचक्षु खुल गये, ज्ञान की उत्पत्ति हुई, प्रज्ञा प्राप्त हुई, विज्ञा प्राप्त हुई, आलोक उत्प्नन हुआ माने भीतर ज्ञान का प्रकाश उत्प्नन हुआ।
अपने उपास्य देवी-देवताओं के गुणों का अनुसरण करना ही सही धर्म है। दान-धर्म का अनुसरण करना ही लक्ष्मी देवी की सही पूजा है। (धन का संग्रह करना नही)। हमें जो भी मिलता है, उसका एक हिस्सा समविभाग करके दान देना चाहिए। जिस समाज से आता है उसे वापस करना चाहिए। यही सही लक्ष्मीपूजन कहलाता है।
विद्याभ्यास के साथ साथ पूण्य पारमिता अर्जित करना आवश्यक है। बोधि के अंग विकसित हो इसलिए पारमिता की पूर्ति होना आवश्यक होता है। यही (आर्य अष्टांगिक मार्ग) सद्धर्म है।
(प्राचीन भारत की अर्थव्यवस्था दान-धर्म की परंपरा से समृद्ध होती थी न की Tax कर प्रणाली से। इससे समाज में गरीबी नही रहती। समाज सशक्त रहता है।
दान-धर्म बलवान हो।)
भवतु सब्ब मङ्गलं !
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