Friday, February 7, 2025

आनापानसति सुत्त भाग-२


 

आनापानसति सुत्त जारी भाग-२,

आनापानसति-विधि !


                 118. आनापानसति-सुत्त

                       - उपरि-पण्णासक-

                         (मज्झिमनिकाय)


                       -आनापानसति-विधि-

🌳

" भिक्खुओं ! 

किस प्रकार भावना=बहुलीकरण करने पर, आनापानसति महाफलप्रद=महानृशंस्य होती है?—

🔹

भिक्खुओं ! 

भिक्खु अरण्य, वृक्ष-मूल या शून्यागार में बैठता है, आसन मार, काया को सीधा रख, सति (=स्मृति) को सन्मुख, उपस्थित कर, 

वह स्मृतिपूर्वक श्वास लेता है, 

                             स्मृतिपूर्वक श्वास छोड़ता है। 

🔹

दीर्घ श्वास लेते समय—‘दीर्घ श्वास ले रहा हूँ’—जानता है। 

दीर्घ श्वास छोडते समय—‘दीर्घ श्वास छोड़ रहा हूँ’—जानता है। -१

🔹

ह्रस्व-श्वास लेते समय—‘ह्रस्व श्वास ले रहा हूँ’—जानता है। 

ह्रस्व-श्वास छोडते समय—‘ह्रस्व श्वास छोड़ रहा हूँ’—जानता है। -२

🔹

सारी काया (की स्थिति) को अनुभव करते श्वास लूँगा—सीखता है। 

सारी काया (की स्थिति) को अनुभव करते श्वास छोडूँगा—सीखता (=अभ्यास करता) है। -३

🔹

कायिक संस्कारों (=हर्कतों, क्रियाओं) को रोक कर श्वास लूँगा—अभ्यास करता है। 

कायिक संस्कारों (=हर्कतों, क्रियाओं) को रोक कर श्वास छोडूँगा—अभ्यास करता है। -४


🔹

प्रीति-अनुभव करते आश्वास (=श्वास लेना) लूँगा—अभ्यास करता है।  

प्रीति-अनुभव करते प्रश्वास (=श्वास छोडना) छोडूँगा—अभ्यास करता है। -५

🔹

सुख-अनुभव करते आश्वास (=श्वास लेना) लूँगा—अभ्यास करता है।

सुख-अनुभव करते प्रश्वास (=श्वास छोडना) छोडूँगा—अभ्यास करता है। -६

🔹

चित्त-संस्कारों (=चित्त की क्रियाओं) को अनुभव करते आश्वास लूँगा’— अभ्यास करता है। 

चित्त-संस्कारों (=चित्त की क्रियाओं) प्रश्वास छोडूँगा— अभ्यास करता है। -७

🔹

चित्त-संस्कार को रोक कर आश्वास लूँगा— अभ्यास करता है। 

चित्त-संस्कार को रोक कर प्रश्वास छोडूँगा— अभ्यास करता है। -८


🔹

चित्त को अनुभव करते आश्वास लूँगा— अभ्यास करता है। 

चित्त को अनुभव करते प्रश्वास छोडूँगा— अभ्यास करता है। -९

🔹

चित्त् को प्रमुदित करते आश्वास लूँगा— अभ्यास करता है। 

चित्त् को प्रमुदित करते प्रश्वास छोडूँगा— अभ्यास करता है। -१०

🔹

चित्त को समाहित करते आश्वास लूँगा— अभ्यास करता है। 

चित्त को समाहित करते प्रश्वास छोडूँगा— अभ्यास करता है। -११

🔹

चित्त को विमुक्त करते आश्वास लूँगा— अभ्यास करता है। 

चित्त को विमुक्त करते प्रश्वास छोडूँगा— अभ्यास करता है। -१२


🔹

(सभी वस्तुओं/धर्मों के) अनित्य (होने) का ख्याल करते आश्वास लूँगा— अभ्यास करता है। 

(सभी वस्तुओं/धर्मों के) अनित्य (होने) का ख्याल करते प्रश्वास छोडूँगा— अभ्यास करता है। -१३

🔹

(सभी वस्तुओं/धर्मों के) विराग का ख्याल करते आश्वास लूँगा— अभ्यास करता है। 

(सभी वस्तुओं/धर्मों के) विराग का ख्याल करते प्रश्वास छोडूँगा— अभ्यास करता है। -१४

🔹

(सभी वस्तुओं/धर्मों के) निरोध का ख्याल करते आश्वास लूँगा— अभ्यास करता है। 

(सभी वस्तुओं/धर्मों के) निरोध का ख्याल करते प्रश्वास छोडूँगा— अभ्यास करता है। -१५

🔹

(सभी वस्तुओं/धर्मों के) प्रतिनिस्सर्ग (=त्याग) का ख्याल करते आश्वास लूँगा— अभ्यास करता है। 

(सभी वस्तुओं/धर्मों के) प्रतिनिस्सर्ग (=त्याग) का ख्याल करते प्रश्वास छोडूँगा— अभ्यास करता है। -१६

🛞

भिक्खुओं ! 

इस प्रकार भावित=बहुलीकृत आनापानसति महाफलप्रद=महानृशंस होती है। "


                                         - सुत्त जारी 


                                         - श्रंखला जारी 


🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹


आनापानसति-सुत्त



उपोसथ-दिवस, 

पवारणा-दिवस, 

कठिन-चीवर-दान-दिवस व 

वस्सावास-समाप्ति-दिवस पर भगवान् बुद्ध द्वारा प्रतिपादित सबसे महत्वपूर्ण सुत्त - आनापानसति-सुत्त

(बोधिसत्व सिद्धार्थ गौतम इसी आनापान-सति-भावना के द्वारा अरहत्व व बुद्धत्व को प्राप्त हुए थे)। 


                 118. आनापानसति-सुत्त

                       - उपरि-पण्णासक-

                         (मज्झिमनिकाय)

      {कौमुदी (=चाँदनी; कार्तिक-पूर्णिमा) चातुर्मासी}


🙏

ऐसा मैंने सुना —

एक समय भगवान् ,

आयुष्मान् सारिपुत्र, 

आयुष्मान् महामौद्गल्यायन, 

आयुष्मान् महाकाश्यप, 

आयुष्मान् महाकात्यायन, 

आयुष्मान् महाकोट्ठित (=कोष्ठिल), 

आयुष्मान् महाकप्पिन, 

आयुष्मान् महाचुन्द, 

आयुष्मान् अनुरूद्ध, 

आयुष्मान् रेवत, 

आयुष्मान् आनन्द, और दूसरे अभिज्ञात (=प्रसिद्ध) अभिज्ञात स्थविर श्रावको के साथ श्रावस्ती, मृगारमाता के प्रासाद, पूर्वाराम में विहार करते थे।

🌀

उस समय स्थविर (=वृद्ध) भिक्खु नये भिक्खुओं को उपदेश=अनुशासन करत थे। 

🌀

कोई कोई स्थविर भिक्खु दस भिक्खुओं को भी उपदेश=अनुशासन करते थे; 

🌀

कोई कोई स्थविर भिक्खु बीस भिक्खुओं को भी उपदेश=अनुशासन करते थे; 

🌀

कोई कोई स्थविर भिक्खु तीस भिक्खुओं को भी उपदेश=अनुशासन करते थे; 

🌀

कोई कोई स्थविर भिक्खु चालीस भिक्खुओं को भी उपदेश=अनुशासन करते थे; 

🎯

स्थविर भिक्खुओं द्वारा उपदेशित=अनुशासित हो, वह नये भिक्खु अच्छी तरह (=उदारं) पूर्व के बाद पीछे आने वाले (विषय) को समझते थे।

🎯

उस समय, उपोसथ को पंचदशी प्रवारणा की पूर्णिमा (कार्तिक-पूर्णिमा) की रात को, 

भगवान् भिक्खु संघ से घिरे खुली जगह में बैठे थे। 

तब भगवान् ने चुपचाप (बैठे) भिक्खु संघ को देखकर, भिक्खुओं को संबोधित किया—

🌳

“भिक्खुओं ! 

मैने इस प्रतिपद् (=मार्ग) के लिये उद्योग किया है, 

इस प्रतिपद के लिये मैं उद्योग-युक्त-चित्त वाला रहा हूँ। 

इसलिये भिक्खुओं ! 

संतुष्ट (=सोमत्त) हो, 

अप्राप्त की प्राप्ति=अनधिगत के अधिगत, 

न-साक्षात्कार किये के साक्षात्कार के लिये और भी उद्योग (=वीर्यारम्भ) करो। 

🌳

भिक्खुओं ! 

यहीं श्रावस्ती में मैं कौमुदी (=चाँदनी; कार्तिक-पूर्णिमा) चातुर्मासी को बिताऊँगा।”

🌀

जनपदवासी (=देहात के) भिक्खुओं ने सुना, कि ,-

भगवान् कौमुदी चातुर्मासी (=कार्तिक-पूर्णिमा) को श्रावस्ती में बितावेंगे। 

तब जनपदवासी भिक्खु भगवान् के दर्शन के लिये श्रावस्ती में आने लगे। 

🌀

वह स्थविर भिक्खु और भी सन्तुष्ट हो नये भिक्खुओं को उपदेश=अनुशासन करते। 

कोई कोई स्थविर भिक्खु दस भिक्खुओं को भी उपदेश=अनुशासन करते थे; 

कोई कोई स्थविर भिक्खु बीस भिक्खुओं को भी उपदेश=अनुशासन करते थे; 

कोई कोई स्थविर भिक्खु तीस भिक्खुओं को भी उपदेश=अनुशासन करते थे; 

कोई कोई स्थविर भिक्खु चालीस भिक्खुओं को भी उपदेश=अनुशासन करते थे; 

🎯

स्थविर भिक्खुओं द्वारा उपदेशित=अनुशासित हो, वह नये भिक्खु अच्छी तरह (=उदारं) पूर्व के बाद पीछे आने वाले (विषय) को समझते थे।

उस समय उपोसथ को पंचदशी पूर्णा चातुर्मासी कौमुदी पूर्णिमा की रात को भगवान् भिक्खु-संघ से घिरे खुली जगह में बैठे थे। 

तब भगवान् ने चुपचाप (बैठे) भिक्खु-संघ को देख कर, भिक्खुओं को संबोधित किया —

         

                        - भिक्खु-संघ -

                         (२४ गुणधर्म)

🌳

“भिक्खुओं ! 

यह परिषद् प्रलाप (=शोर-गुल) रहित है (=निष्प्रलाप्य है, 

भिक्खुओं ! 

यह परिषद् सार में प्रतिष्ठित है, शुद्ध है यह परिषद्; 

उस प्रकार का, भिक्खुओं ! यह भिक्खु-संघ है। 

उस प्रकार की, भिक्खुओं ! यह परिषद् है। (१)

🌀

भिक्खुओं ! 

ऐस भगवतो सावक-संघो (इस प्रकार की यह परिषद् )

🔸आहुनेय्यो, (=सत्कार के योग्य)

🔸पाहुनेय्यो,  (=अतिथित्य के योग्य)

🔸दक्खिणेय्यो, (=दान-देने के योग्य) 

🔸अण्जलि-करणियो, (=हाथ जोडने योग्य)

🔸अनुत्तरं पुण्णक्खेत्तं लोकस्सा'ति (=लोक में पुण्य के (बोने) का अनुपम क्षेत्र (खेत) है। 

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, (यह) उस प्रकार की परिषद् है। (२)

🌀

भिक्खुओं ! 

जैसी परिषद् को थोडा देने पर बहुत (फल) हाता है; 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, 

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, (यह) उस प्रकार की परिषद् है। (३)

 🌀

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार की परिषद् है; 

जैसी परिषद् को बहुत (दान) देने पर बहुत (फल) होता है।

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, (यह) उस प्रकार की परिषद् है। (४)

🌀

भिक्खुओं ! 

जिस प्रकार (की परिषद्) का लोगो को दर्शन भी दुर्लभ है। 

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, (यह) उस प्रकार की परिषद् है। (५)

🌀

भिक्खुओं ! 

जिस प्रकार (की परिषद्) को योजनों दूर होने पर (पाथेय की) पोटली बाँधकर भी जाना योग्य है। 

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, (यह) उस प्रकार की परिषद् है। (६)


              -चत्तारि-अरिय-पूरिस-पुग्गला-संघ-

🌀

भिक्खुओं ! 

इस भिक्खु-संघ में -

🔸आसव-खय (आ‌श्रव-क्षय) किये, 

🔸 संसार-चक्र (भव-चक्र) को तोड़ चुके (=भव-संस्करण मुक्त), 

🔸कृतकृत्य, 

🔸भारमुक्त, 

🔸सद्-अर्थ (=निर्वाण) को प्राप्त, 

🔸संयोजन (=भव-बंधन) मुक्त, 

🔸सम्यग-ज्ञान द्वारा मुक्त (=अर्हत् भिक्खु) है। 

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, (यह) उस प्रकार की परिषद् है। (७)

🌀

भिक्खुओं ! 

इस भिक्खु-संघ में ऐसे भिक्खु है, जो -

🔸पाँच अवर-भागीय-संयोजनों के क्षय से, 

🔸औपपातिक (=देव) हो वहाँ (शुद्धावास-लोक में) निर्वाण प्राप्त करने वाले, 

🔸उस लोक में यहाँ न आने वाले (=अनागामी) है।

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, (यह) उस प्रकार की परिषद् है। (८)

🌀

भिक्खुओं ! 

इस भिक्खु-संघ में ऐसे भिक्खु हैं, जो -

🔸तीन संयोजनो के क्षय से व राग-द्वेष-मोह के निर्बल (=तनु) हो जाने से सकृदागामी (=सकदागामी) हैं, 

🔸(वह) एक ही बार (और) इस लोक में आकर दुख का अन्त करेंगे। 

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, (यह) उस प्रकार की परिषद् है। (९)

🌀

भिक्खुओं ! 

इस भिक्खु-संघ में इस प्रकार के भी भिक्खु हैं, जो -

🔸तीन संयोजनों के क्षय से स्रोतआपन्न (=सोत-आपन्न), 

🔸(निर्वाण-मार्ग से) न पतित होने वाले, 

🔸नियत (=निश्चित), सम्बोधिपरायण (=परमज्ञान को प्राप्त करने वाले) है। 

🔸(वह) सात ही बार (और) इस लोक में आकर दुख का अन्त करेंगे।  

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, (यह) उस प्रकार की परिषद् है। (१०)


             -37 बोधि-पक्खिय-भावित-संघ-

                (4+4+4+5+5+7+8=37)

🌳

भिक्खुओं ! 

इस भिक्खु-संघ में इस प्रकार के भी भिक्खु हैं, जो - 

🔸चारों स्मृति-प्रस्थान की भावना में तत्पर हो विहरते है।

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, (यह) उस प्रकार की परिषद् है। (११)

🌀

भिक्खुओं ! 

इस भिक्खु-संघ में इस प्रकार के भी भिक्खु हैं, जो - 

🔸चार सम्यक्-प्रधानों की भावना में तत्पर हो विहरते है।

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, (यह) उस प्रकार की परिषद् है। (१२)

🌀

भिक्खुओं ! 

इस भिक्खु-संघ में इस प्रकार के भी भिक्खु हैं, जो -  

🔸चार ऋद्धिपादों भावना में तत्पर हो विहरते है।

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, (यह) उस प्रकार की परिषद् है। (१३)

 🌀

भिक्खुओं ! 

इस भिक्खु-संघ में इस प्रकार के भी भिक्खु हैं, जो -  

🔸पाँच इन्द्रियों भावना में तत्पर हो विहरते है।

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, (यह) उस प्रकार की परिषद् है। (१४)

🌀

भिक्खुओं ! 

इस भिक्खु-संघ में इस प्रकार के भी भिक्खु हैं, जो - 

🔸पाँच बलों भावना में तत्पर हो विहरते है।

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, (यह) उस प्रकार की परिषद् है। (१५)

🌀

भिक्खुओं ! 

इस भिक्खु-संघ में इस प्रकार के भी भिक्खु हैं, जो -  

🔸सात बोध्यंगों कि भावना में तत्पर हो विहरते है।

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, (यह) उस प्रकार की परिषद् है। (१६)

🌀

भिक्खुओं ! 

इस भिक्खु-संघ में इस प्रकार के भी भिक्खु हैं, जो -

🔸आर्य-अष्टांगिक मार्ग भावना में तत्पर हो विहरते है।

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, (यह) उस प्रकार की परिषद् है। (१७)


                        -ब्रह्मविहारी-संघ-

🌀

भिक्खुओं ! 

इस भिक्खु-संघ में इस प्रकार के भी भिक्खु हैं, जो - 

🔸मैत्री-भावना में तत्पर हो विहरते है।

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, (यह) उस प्रकार की परिषद् है। (१८)

🌀

भिक्खुओं ! 

इस भिक्खु-संघ में इस प्रकार के भी भिक्खु हैं, जो -  

🔸करूणा-भावना में तत्पर हो विहरते है।

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, (यह) उस प्रकार की परिषद् है। (१९)

🌀

भिक्खुओं ! 

इस भिक्खु-संघ में इस प्रकार के भी भिक्खु हैं, जो -  

🔸मुदिता-भावना में तत्पर हो विहरते है।

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, (यह) उस प्रकार की परिषद् है। (२०)

🌀

भिक्खुओं ! 

इस भिक्खु-संघ में इस प्रकार के भी भिक्खु हैं, जो -  

🔸उपेक्षा-भावना में तत्पर हो विहरते है।

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, (यह) उस प्रकार की परिषद् है। (२१)


               -असुभ-अनिच्च-भावित-संघ-

🌀

भिक्खुओं ! 

इस भिक्खु-संघ में इस प्रकार के भी भिक्खु हैं, जो -  

🔸अशुभ-भावना में तत्पर हो विहरते है।

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, (यह) उस प्रकार की परिषद् है। (२२)

🌀

भिक्खुओं ! 

इस भिक्खु-संघ में इस प्रकार के भी भिक्खु हैं, जो -  

🔸अनित्य-संज्ञा में तत्पर हो विहरते है।

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, (यह) उस प्रकार की परिषद् है। (२३)


                -आनापानसति-भावित-संघ-

🌀

भिक्खुओं ! 

इस भिक्खु-संघ में इस प्रकार के भी भिक्खु हैं, जो -  

🔸अनापान-सति भावना  में तत्पर हो विहरते है।

भिक्खुओं ! 

(यह) उस प्रकार का भिक्खु-संघ है, (यह) उस प्रकार की परिषद् है।' (२४)


                 -आनापानसति-महाफलप्रद-

🌳

“भिक्खुओं ! 

(कैसी) अनापानसति की भावना करने पर, (अनापानसति अभ्यास को) बढाने पर महाफलप्रद=महानृशंस्य होती है।

 (१)

भिक्खुओं ! 

भिक्खु, अनापानसति की भावना=बहुलीकरण करने पर -

🔸चार स्मृति-प्रस्थानों (चत्तारो-सति-पट्ठान) को परिपूर्ण करता है। 

(२)

फिर भिक्खुओं‌! 

भिक्खु, चार स्मृति-प्रस्थान (चत्तारो-सति-पट्ठान) के बहुलीकृत होने पर -

🔸सात बोध्यंगों (सत्त-बोज्झंग) को परिपूर्ण करता है।

(३)

और फिर भिक्खुओं‌! 

भिक्खु, सात बोध्यंगों (सत्त-बोज्झंग) को परिपूर्ण करने पर - 

🔸विज्जा (विद्या) और विमुक्ति (विमुक्ति) को परिपूर्ण करता है।"

                                         - सुत्त जारी 


टिप्पणी - 

1. अनापानसति से चत्तारो-सति-पट्ठान,

2. चत्तारो-सति-पट्ठान से सत्त-बोज्झंग,

3. सत्त-बोज्झंग से विज्जा-विमुत्ति।


                                         - श्रंखला जारी 


🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹


Sunday, September 1, 2024

धम्म क्या है ?



आचार्य दीपंकर श्रीज्ञान तिब्बत में प्रवास कर रहे थे। वे सिद्ध अतीशा के नाम से अधिक सुविख्यात है। विक्रमशिला विश्वविद्यालय के वे महास्थविर थे। तिब्बत के सम्राट ल्ह लामा येशे होद द्वारा सन् 1042 में उन्हें श्रद्धापूर्वक तिब्बत आमंत्रित किया गया था।

आचार्य दीपंकर  श्रीज्ञान एक विहार में प्रवास कर रहे थे। उन्होंने देखा, एक भिक्षु प्रतिदिन आता है और स्तूप की परिक्रमा करता है। एक दिन उन्होंने उसको बुलाया और कहा-स्तूप की परिक्रमा करना ठीक है लेकिन अच्छा होता कि तुम धम्म करते।
भिक्षु ने सोचा कि शायद महास्थविर मुझे सूत्रपाठ के लिए प्रेरित कर रहे हैं। अगले दिन से भिक्षु स्तूप के सामने आसन बिछा कर बैठता और धम्म सूत्रों का पाठ करता।
सिद्ध अतीशा ने उसे एक दिन फिर बुलाया और कहा-सूत्रों का पाठ करना मंगलमय है लेकिन अच्छा होता कि तुम धम्म का अभ्यास करते।
भिक्षु ने फिर मनन किया कि शायद भारत से आए यह आचार्य प्रवर मुझे ध्यान करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। अगले दिन से स्तूप के सामने आसन बिछा कर वह ध्यान भावना करने लगा।
ध्यान कर जब वह जाने लगा तो दीपंकर श्रीज्ञान ने उसे फिर बुलाया, कहा-ध्यान करना श्रेष्ठ है लेकिन धम्म का पालन करना सर्वश्रेष्ठ है।
भिक्षु का ज्ञान जवाब दे गया। उसने सिद्ध अतीशा के सामने सिर झुका कर समर्पण कर दिया और विनयपूर्वक पूछा हे महास्थविर। आप ही बताएँ कि धम्म करना क्या है? स्तूप की परिक्रमा करना, सूत्र पाठ करना, ध्यान करना धम्म का पालन नहीं है तो धम्म का पालन क्या है?
आचार्य दीपंकर श्रीज्ञान ने कहा-मन के विकारों का परित्याग करना धम्म का अभ्यास है, आसक्तियों और तृष्णाओं से मन को मुक्त करने का यत्न करना धम्म का पालन है...।
भिक्षु को समझ में आया कि धम्म करना अर्थात मन को विकार मुक्त करने का यत्न करना है।

Saturday, April 6, 2024

पराभव सुत्त - इन्सान के पतन के कारणॊं के लिये भगवान्‌ बुद्ध के 12 अनमोल प्रवचन

 पराभव सुत्त - इन्सान के पतन के कारणॊं के लिये भगवान्‌ बुद्ध के 12 अनमोल प्रवचन



1. धम्म की कामना करनेवाले की उन्नति होती हैं, तो धम्म से द्वेष करने वाले का पराभव होता है ।
2. जिसे अच्छे लोग अप्रिय लगते हो एवं बुरे लोग प्रिय लगते हो, अशांति वाले धर्म ही जिसे प्रिय हो उसका पराभव होता है ।
3. जो निद्रालु हो, वाचाल हो, निरुद्योगी हो, आलसी हो, क्रोधी हो उसका पराभव होता है ।
4. विपुल सामग्री होने पर भी जो अपने बूढ़े माता पिता का भरण पोषण नहीं करता उसका पराभव होता है ।
5. जो (शील, समाधी, प्रज्ञा में प्रतिष्ठित) श्रेष्ठ पुरुष, श्रमण या अन्य आरण्यक वासी को झूठ बोलकर ठगता है उसका पराभव होता है ।
6. जिसके पास बहुत सारा धन -धान्य होने के होने बावजूद भी केवल वही अकेला उसका उपभोग करता है तो उसका पराभव होता है ।
7. जिसे अपनी जाती का, धन का, गोत्र का अभिमान हैं और इसी भाव में रहकर वह अपने भाई बन्धुओं को तिरस्कृत करता है – यह उसकी अवनति का मुख्य कारण है ।
8.जो व्यक्ति स्त्रियों के पीछे भागता रहता है , शराबी तथा जुआरी है , कमाये हुये धन को फ़िजूल मे खर्च कर देता है –उसकी अवनति का कारण निशचित है ।
9. जो व्यक्ति अपनी पत्नी से असन्तुष्ट रह्ता है तथा वेशयाओं और पराई स्त्रियों के साथ दिखाई देता है – यह उसकी अवनति का मुख्य कारण है ।
10. यौवन समाप्त होने पर जब व्यक्ति नवयुवती को लाता है तो उसकी ईर्ष्या के कारण वह नही सो सकता – यह उसकी अवनति का मुख्य कारण है ।
11. किसी उडाऊ एवं खर्चीली स्त्री या पुरुष को जो धन का रखवाला बना देता है, उसका पराभव होता है ।
12. उत्तम कुल मे उत्पन्न तथा अति मह्त्वाकांक्षी , अल्प सम्पति साधन वाला पुरुष जब राज्य की कामना करता है तो उसका पराभव होता है ।

Thursday, March 28, 2024

जेन स्टोरी : टूटा हुआ कप

 जेन स्टोरी



चीन के एक बौद्ध भिक्षु को उनके एक शिष्य ने बहुत ही सुन्दर क्रिस्टल कप उपहार दिया , वह उस शिष्य का बहुत आभारी था। वह उस क्रिस्टल कप से हमेशा चाय पीता रहता है , वह इस क्रिस्टल कप को हर आने - जाने को दिखता है और उन्हें अपने छात्र के बारे में बताया करता ,
हर सुबह, वह बौद्ध भिक्षु कुछ सेकंड के लिए कप अपने हाथ में लेकर खुद से कहता " यह कप पहले ही टूट गया है "
एक दिन , एक मिलने वाले ने उस कप को शेल्फ पर रखा , वह ज़मीन पर गिर कर टूट गया , मिलने वाला सदमे में आ गया ,लेकिन बौद्ध भिक्षु शांत रहे और उन्होंने कहा " इस गंदगी को देखो " और झाड़ू उठा कर साफ़ करने लगे और कहा कुछ भी लम्बे समय तक नहीं रहता , सब कुछ बदलता है , सब कुछ टूटता है ।

Monday, March 25, 2024

।।होली बनाम फाल्गुन पूर्णिमा।।

।।होली बनाम फाल्गुन पूर्णिमा।।
-राजेश चन्द्रा

भगवान बुद्ध के समय में भी आज की होली जैसा एक उत्सव होता था जिसमें सप्ताह भर तक लोग एक दूसरे पर धूल, कीचड़, गोबर, रंग फेकते और मलते थे तथा ऊंचे स्वर में अपशब्दों का प्रयोग करते थे।

प्रसंग खुद्दक निकाय के धम्मपद अट्टकथा के अप्पमाद वग्गो में है। 

भगवान कोशल राज्य की राजधानी श्रावस्ती के जेतवन में वर्षावास कर रहे थे। इस उत्सव के कारण श्रद्धालु उपासक-उपासिकाओं ने भगवान से निवेदन किया कि आप जेतवन के बाहर न निकलिए, हम लोग आप सहित संघ के लिए भोजन जेतवन में ही पहुंचा देगें।श्रद्धालु उपासक-उपासिकाओं ने क्रम से आपस में धम्म सेवा लगा कर एक सप्ताह तक बुद्ध प्रमुख संघ को जेतवन के विहार में भोजनदान किया।एक सप्ताह के उपरांत भगवान संघ के साथ पिण्डपात के लिए जेतवन विहार के बाहर निकले तथा उपासकों-उपासिकाओं ने बुद्ध प्रमुख संघ को महादान कर पुण्यलाभ किया। 

इस अवसर पर श्रद्धालुओं ने अपनी व्यथा व्यक्त की:"भगवान, यह सात दिन हमारे लिए बड़े कष्ट में बीते।मूर्खों द्वारा प्रयुक्त असभ्य-अपशब्द सुन-सुन कर हमारे कान फटे जाते थे। उन्हें किसी की लज्जा या संकोच ही नहीं था।इसीलिए आप श्रीमान से हमलोगों ने नगर में न निकलने का अनुरोध किया था।" 

भगवान ने श्रद्धालुओं का अनुमोदन करते हुए कहा:

"मूर्खों के कर्म ऐसे ही होते हैं। मेधावीजन अप्रमाद की रक्षा करते हैं।"

यह कह कर भगवान ने गाथा का संगायन किया:

"पमादमनुयुंजन्ति बाला दुम्मेधिनो जना।
अप्पमादं च मेधावी, धनं सेट्ठं व रक्खति।।

- मूर्ख-दुर्बुद्धि प्रमाद करते हैं।मेधावी पुरुष श्रेष्ठ धन की तरह अप्रमाद की रक्षा करते हैं।"

इस प्रकार वर्तमान में प्रचलित होली को बौद्ध पर्व सिद्ध करना अन्यथा चेष्टा ही कहा जाएगा लेकिन फाल्गुन पूर्णिमा का भगवान बुद्ध और बौद्धों से बड़ा गहरा सम्बन्ध है। लेकिन वे इस पूर्णिमा को होली के जैसा नहीं मनाते हैं। 

फाल्गुन पूर्णिमा के दिन भगवान कपिलवस्तु पधारे थे। इसी पूर्णिमा के दिन राहुल की दीक्षा हुई थी। इसी पूर्णिमा के दिन मान्यआनन्द, महाप्रजापति गौतमी की दीक्षा हुई थी। इसी पूर्णिमा के दिन पहली बार चीनी भाषा में धम्मपद का अनुवाद हुआ था, सन् 823 में। इस प्रकार फाल्गुन पूर्णिमा के साथ बहुत-सी बौद्ध घटनाएं जुड़ी हैं। इस दिन बौद्ध उपासक-उपासिकाऐं उपोसथ धारण करते हैं।

संक्षेप में, उपोसथ के दिन उपासक-उपासिकाएं भिक्खु-भिक्खुनियों जैसी दिनचर्या जीते हैं। 

• सुबह बुद्ध पूजा, तिरतन वन्दना, ध्यान करते हैं।

• भिक्खु अथवा भिक्खुनी या संघ के दर्शन करते हैं, उन्हें यथासामर्थ्य भोजनदान व अन्य दान करते हैं

• दोपहर के पहले भोजन करते हैं

• सायंकाल भोजन नहीं करते। यदि बीमार, वृद्ध या गर्भवती है तो सायंकाल न चबाने वाला भोजन जैसे फलों का रस, गीली खिचड़ी(यवागू) ले सकते हैं।

• शाम को भी ध्यान, बुद्ध पूजा, धम्म ग्रन्थ का पाठ, परित्त पाठ करते हैं

• रात में ऊँचे आसन पर नहीं सोते

• ब्रम्हचर्य का पालन करते हैं

• ऐसे उपोसथ को भगवान ने महान फल वाला बताया है।

बौद्धगण फाल्गुन पूर्णिमा ऐसे मनाते हैं।

Sunday, March 24, 2024

🌹फागुन पूर्णिमा का महत्त्व🌹

🌹फागुन पूर्णिमा का महत्त्व🌹
🌷
1.सम्यक संबोधी के बाद प्रथम राजग्रह आगमन पर धम्मसेनापति सारिपुत्त उपतिस्स 
व कोलित मोग्गलान का संघ में प्रवेश ।
🌷
2.अपने पिता शुद्धोधन के आग्रह पर 20000 अर्हत मित्रों के साथ तथागत ने प्रथम बार कपिलवस्तु में प्रवेश किया।
🌷
3.तथागत ने आनंद को धम्मदीक्षा दी।
🌷
4.प्रथम बौद्ध संगीति समाप्त हुई।
🌷
5.पहली बार चीनी भाषा में धम्मपद का अनुवाद हुआ, 823 में।

Sunday, March 10, 2024

🌹करणीयमेत्त सुत्त🌹 'मेत्ता सुत्त'

 




🌹करणीयमेत्त सुत्त🌹 

करणीयमेत्त सुत्त, जिसे 'मेत्ता सुत्त' भी कहा जाता है, बौद्ध धर्म के पालि कैनन में एक प्रसिद्ध सुत्त है। इसमें मेत्ता या मैत्री भावना (प्रेमपूर्ण करुणा) के अभ्यास का वर्णन है, जो सभी प्राणियों के प्रति अच्छी इच्छाओं का भाव है। इस सुत्त में उन गुणों और क्रियाओं का वर्णन है जो एक व्यक्ति को अपनाना चाहिए ताकि वह मेत्ता का अभ्यास कर सके और अंततः शांति और सुख प्राप्त कर सके¹। यह सुत्त बौद्ध धर्म के महत्वपूर्ण सिद्धांतों में से एक है और इसका अभ्यास विश्व भर के बौद्ध अनुयायियों द्वारा किया जाता है।
🌹जिसके प्रभाव से यक्ष अपना भीषण भयरूप नहीं दिखा सकते और जिसका  बिना थके दिन-रात अभ्यास करने से सोया हुआ सुख की नींद सोता है, तथा सोया हुआ व्यक्ति कोई दुःस्वप्न (पाप) नहीं देखता है इत्यादि, इस प्रकार के गुणों से युक्त उस परित्राण को कह रहे हैं :----

🌹[जिसे अपना कुशल करना है, स्वार्थ साधना है और परम-पद निर्वाण उपलब्ध करना है, उसे चाहिए कि वह सुयोग्य बने, सरल बने, अति सरल बने, सुभाषी बने, मृदु-स्वभाव वाला बने और निरभिमानी बने॥1॥]🌹

🌹[वह सदा संतुष्ट रहे। थोड़े में अपना पोषण करे। अल्पकृत्य रहे - यानी दीर्घ-सूत्री योजनाओं में न उलझा रहे। सादगी का जीवन अपनाए। शांत इंद्रिय बने। परिपक्व प्रज्ञावान बने। अप्रगल्भ बने, यानी दुस्साहसी न हो और न ही जाति-कुल के मिथ्याभिमान में अनुरक्त हो॥2॥]🌹

🌹[वह यत्किंचित भी दुराचरण न करे, जिसके कारण अन्य विज्ञजन उसे बुरा कहें। वह अपने मन में सदैव यही भावना करे- “सारे प्राणी सुखी हों! निर्भय सक्षम हों! आत्म-सुख-लाभी हों!॥3॥"]🌹 

🌹[“वे प्राणी चाहे स्थावर हों या जंगम, दीर्घ देहधारी हों या महान देहधारी, मध्यम देहधारी हों या ह्रस्व देहधारी, सूक्ष्म देहधारी हों या स्थूल देहधारी॥4॥]🌹  

🌹[दृश्य हों या अदृश्य, सुदूरवासी हों या अदूरवासी, जन्में हों या अजन्में, बिना भेद के सभी प्राणी आत्म-सुख-लाभी हों!"॥5॥]🌹 

🌹[“वे परस्पर प्रवंचना न करें, परस्पर अवमान-अपमान न करें, क्रोध या वैमनस्य के वशीभूत होकर एक-दूसरे के दुःख की कामना न करें"॥6॥]🌹 

🌹[जिस प्रकार जीवन की भी बाजी लगाकर मां अपने इकलौते पुत्र की रक्षा करती है, उसी प्रकार वह भी समस्त प्राणियों के प्रति अपने मन में अपरिमित मैत्रीभाव बढ़ाए॥7॥]🌹 

🌹[वह अपने अंतर की अपरिमित मैत्री-भावना ऊपर-नीचे और आड़े-तिरछे समस्त लोकों में व्याप्त कर ले- बिना किसी बाधा के, बिना किसी बैर के, बिना किसी द्रोह के॥8॥]🌹 

🌹[जब तक निद्रा के अधीन नहीं हैं तब तक खड़े, बैठे या लेटे हर अवस्था में इस अपरिमित मैत्री-भावना की जागरूकता को अधिष्ठित रखे, कायम रखे। इसे ही तो भगवान ने ब्रह्म-विहार कहा है॥9॥]🌹 

🌹[इस प्रकार मैत्री ब्रह्म-विहार करने वाला साधक कभी दार्शनिक उलझनों में नहीं पड़ता। वह शील सम्पन्न और सम्यक-दर्शन सम्पन्न हो जाता है। काम-तृष्णा का सम्पूर्ण उच्छेद कर लेता है और पुनः गर्भ-शयन [पुनर्जन्म] के दुःख से नितांत विमुक्ति पा लेता है॥10॥]🌹 

                     

🌹पुस्तक: धम्म-वंदना।
 विपश्यना विशोधन विन्यास॥🌹

                         
                     ✺भवतु सब्ब मंङ्गलं✺
                     ✺भवतु सब्ब मंङ्गलं✺
                     ✺भवतु सब्ब मंङ्गलं✺

Saturday, March 9, 2024

सत्य घटना पर आधारित: मगध के सम्राट अजातशत्रु और महामात्य कुलगुरु राक्षस के बीच हुआ एक प्रेरक संवाद



सत्य घटना पर आधारित: मगध के सम्राट अजातशत्रु और महामात्य कुलगुरु राक्षस के बीच हुआ एक प्रेरक संवाद 

एक बार महामात्य राक्षस एक लंबी यात्रा के बाद जब मगध वापस लौटकर सम्राट से मिलने पहुँचे तो उन्हें जानकारी मिली कि बुद्ध के घोर दुश्मन सम्राट अजातशत्रु अब स्वयं बुद्ध के अनुयायी बन गये हैं। यह सुनकर ब्राह्मण महामात्य राक्षस बहुत परेशान हो गये। वे सीधे सम्राट अजातशत्रु से मिलने राजदरबार जा पहुँचे। वहाँ उनके और सम्राट अजातशत्रु के बीच जो संवाद हुआ उसे जानिए।
महामात्य राक्षस: सम्राट, मैं यह क्या सुन रहा हूँ कि आप अपने क्षत्रिय धर्म को कैसे त्याग कर बुद्ध के अनुयायी बन गये हैं? 

सम्राट अजातशत्रु: आप सही सुन रहे हैं, महामात्य राक्षस।
महामात्य राक्षस: यह तो घोर अनर्थ हो गया महाराज।
सम्राट अजातशत्रु: कैसे, महामात्य राक्षस?

ब्रामहामात्य राक्षस: अच्छा होता यदि में यात्रा पर ना जाता। आप ऐसा घनघोर अनर्थ कैसे कर सकते हैं? क्षत्रिय धर्म ही आपके लिये सर्वोपरि है उसे आप कैसे छोड़ सकते हैं? आपका कर्तव्य है कि मगध की सीमाएँ बढ़ायें और चक्रवर्ती सम्राट बनें।
सम्राट अजातशत्रु: मैं अपना कर्तव्य भली भांति जानता हूँ, कुलगुरु। 

महामात्य राक्षस: लगता है बुद्ध ने आपको भी आपके पिता सम्राट बिंबसार की भाँति भ्रमित कर दिया है। बुद्ध के पास कोई सम्मोहन शक्ति है जिसके उपयोग से उसने आपके पिता को भी इसी तरह भ्रमित कर दिया था।
सम्राट अजातशत्रु: महामात्य, कृपया कर बुद्ध पर झूठे लांछन ना लगाएं।

महामात्य राक्षस: महाराज? मैं सत्य कह रहा हूँ। बुद्ध ने आज तक सिर्फ़ ऐसी बातें कही हैं। जिससे राज्य में अनेकों प्रश्न उठ रहे हैं। परंतु किसी का भी उत्तर नहीं मिला।
सम्राट अजातशत्रु: जैसे की क्या? कुछ उदाहरण देकर बतलाइए। 

महामात्य राक्षस: जैसे कि, ये संसार शाश्वत है या नश्वर। यह सृष्टि सीमित है अथवा अनंत। शरीर आत्मा दो हैं या एक? मृत्यु के पश्चात, हमारा अस्तित्व रहता है या उसका विनाश हो जाता है?
सम्राट अजातशत्रु: मैं इन किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं दूंगा, कुलगुरु महामात्य। ये सब आपकी बुद्धि की उपज है। बुद्ध ने कभी भी अपने उपदेशों में इन बातों को कभी ज़रा भी तूल नहीं देते हैं। 

महामात्य राक्षस: यदि इन शाश्वत प्रश्नों का उत्तर बुद्ध के पास से तो नहीं है तो वो किस विषय पर उपदेश देते हैं? उनके प्रवचनों का हमें क्या लाभ? 
सम्राट अजातशत्रु: बुद्ध कहते हैं कि अपने शरीर और अपनी साँसों को साधो, उससे अपने अंतर्मन को तोड़ती-मरोड़ती विभिन्न भावनाओं को समझो। अपने दुख: और संताप पर विजय पाओ। जीवन की छोटी छोटी अनेक लहरों के थपेड़ों में सजग और ध्यानपूर्ण जियो। बुद्ध, जीवन से मुँह मोड़ने को नहीं कहते, चेतना से जीने को कहते हैं। कुलगुरु, जीवन इन्हीं छोटी छोटी बातों का मूल्य रत्नकोष है। ना की बड़ी सैद्धांतिक बातों का।
महामात्य राक्षस: सम्राट छोटे-छोटे लोग इन्हीं छोटी-छोटी खुशियों के साथ जीते हैं परंतु आप तो मगध सम्राट हैं! आप का स्तर, इस मगध में सबसे सबसे ऊपर है।

सम्राट अजातशत्रु: कुलगुरु, यह ऊपर और नीचे के स्तर का विचार भी मनुष्य बुद्धि की उपज ही है। 
महामात्य राक्षस: लगता है, महाराज आप विनाश की ओर जा रहे हैं। एक क्षत्रिय होकर भी ज्ञानियों जैसी बातें कर रहे हैं। आप क्षत्रिय हैं या ब्राह्मण? 

सम्राट अजातशत्रु: क्षत्रिय और ब्राह्मण का अंतर भी मनुष्य बुद्धि ने ही पैदा किया है। मुझे बुद्ध के चरणों में शांति मिली है।
महामात्य राक्षस: महाराज, यदि आपको शांति चाहिए तो मैं इसके उपाय आपको बता सकता। सम्राट अजातशत्रु: आपसे मुझे आज तक केवल अशांति ही मिली है कुलकुरु। आप क्या मुझे शांति देंगे? आपकी बातों में आकर मैं अपने धर्मपरायण पिता की हत्या का कारण बना। आँखें बंद करता हूँ तो स्वर्गीय महाराज बिंबसार की प्रेम भरी मूरत टकटकी बांधे मुझे निहारती दिखाई देती है। अब न रातों को नींद आती है, ना दिन को चैन मिलता है।

महामात्य राक्षस: क्षमा करें, महाराज। मैं एक ब्राह्मण हूँ इसलिए सत्य कहने से संकोच नहीं करूँगा। आपके विषाद का कारण पिता की हत्या का पछतावा नहीं बल्कि नगरवधू आम्रपाली का बुद्ध की भिक्षुणी बन जाना है। इस बात से आपको बहुत आघात पहुंचा है।
सम्राट अजातशत्रु: इस बात को सुनते ही सम्राट अजातशत्रु आवेश में आकर अपनी तलवार खींच लेते हैं।

महामात्य राक्षस: सम्राट को म्यान से तलवार खींचते हुआ देख, उपहास पूर्वक कटाक्ष करते हुए कहते हैं। लगता है बुश ने आपको यही (अर्थात् आवेश और उसमे किसी ब्राह्मण अथवा अपने कुलगुरु की हत्या) करना सिखाया है। मगध के लोगों को आप से बहुत सारी आशाएं थीं, परंतु आप तो हमारा ही (एक ब्राह्मण कुलगुरु का) दमन का रहे हैं? चलिए यह भी सही। हम भी इसके लिए तैयार है। यह कहकर महामात्य राक्षस दरबार से चले जाते हैं।

तब सम्राट अजातशत्रु का सेनापति जो उस समय राज दरबार में यह सारा वादविवाद देख और सुन रहा था बहुत आश्चर्य भाव से कह उठता है, महाराज, आप में यह परिवर्तन देखकर मुझे बहुत आश्चर्य है और मैं यह देखकर बहुत हैरान हूँ कि अजातशत्रु की उठी हुई तलवार आज पहली बार म्यान से बाहर निकलने के बाद, बिना वार किए वापस म्यान में कैसे चली गयी?
सम्राट अजातशत्रु: यह सुनकर शत्रु। सो। सम्राट अजातशत्रु। बहुत शांत भाव से कहते हैं। की मुझे। कुल गुरु की हत्या करने में। तनिक संकोच ना होता। मगर यदि मैं ऐसा करता। तो वह मेरे गुरु। भगवान बुद्ध का अपमान होता। बड़े ऊंचे स्वर में बोलकर या मेरी बेइज्जती कर कोई मुझे कितना भी उत्तेजित न कर लें। अब मैं, कभी हिंसा के मार्ग पर नहीं जाऊंगा और उसी मार्ग पर चलूँगा जो मेरे गुरू भगवान बुद्ध मुझे दिखाएंगे।

इस सत्य घटना से आपने क्या ग्रहण किया आप जाने और यदि आप बताना चाहें तो कमेंट बॉक्स में लिख दें जिससे कोई और भी प्रेरणा ले सके। आप सभी का मंगल हो।

साभार : Dr Nirmal Gupta, cardiologist, SGPGI