Saturday, May 29, 2010

बिलाल्पादक की कथा

किसी नगर में बिलाल्पादक नामक एक धनिक रहता था. वह बहुत स्वार्थी था और सदाचार के कार्यों से कोसों दूर रहता था. उसका एक पड़ोसी निर्धन परन्तु परोपकारी था. एक बार पड़ोसी ने भगवान् बुद्ध और उनके शिष्यों को अपने घर भोजन के लिए आमंत्रित किया. पड़ोसी ने यह भी विचार किया कि इस महान अवसर पर अधिकाधिक लोगों को भोजन के लिए बुलाना चाहिए. ऐसे संकल्प के साथ पड़ोसी ने बड़े भोज की तैयारी करने के लिए नगर के सभी व्यक्तियों से दान की अपेक्षा की एवं उन्हें भोज के लिए आमंत्रित किया. पड़ोसी ने बिलाल्पादक को भी न्यौता दिया.

भोज के एक-दो दिन पहले पड़ोसी ने चहुँओर घूमकर दान एकत्र किया. जिसकी जैसी सामर्थ्य थी उसने उतना दान दिया. जब बिलाल्पादक ने पड़ोसी को घर-घर जाकर दान की याचना करते देखा तो मन-ही-मन सोचा – “इस आदमी से खुद का पेट पालते तो बनता नहीं है फिर भी इसने इतने बड़े भिक्षु संघ और नागरिकों को भोजन के लिए आमंत्रित कर लिया! अब इसे घर-घर जाकर भिक्षा मांगनी पद रही है. यह मेरे घर भी याचना करने आता होगा.”

जब पड़ोसी बिलाल्पादक के द्वार पर दान मांगने के लिए आया तो बिलाल्पादक ने उसे थोड़ा सा नमक, शहद, और घी दे दिया. पड़ोसी ने प्रसन्नतापूर्वक बिलाल्पादक से दान ग्रहण किया परन्तु उसे अन्य व्यक्तियों के दान में नहीं मिलाया बल्कि अलग से रख दिया. बिलाल्पादक को यह देखकर बहुत अचरज हुआ कि उसका दान सभी के दान से अलग क्यों रख दिया गया. उसे यह लगा कि पड़ोसी ने सभी लोगों के सामने उसे लज्जित करने के लिए ऐसा किया ताकि सभी यह देखें कि इतने धनी व्यक्ति ने कितना तुच्छ दान दिया है.

बिलाल्पादक ने अपने नौकर को पड़ोसी के घर जाकर इस बात का पता लगाने के लिए कहा. नौकर ने लौटकर बिलाल्पादक को बताया कि पड़ोसी ने बिलाल्पादक की दान सामग्री को थोड़ा-थोड़ा सा लेकर चावल, सब्जी, और खीर आदि में मिला दिया. यह जानकार भी बिलाल्पादक के मन से जिज्ञासा नहीं गयी और उसे अभी भी पड़ोसी की नीयत पर संदेह था. भोज के दिन वह प्रातः अपने वस्त्रों के भीतर एक कटार छुपाकर ले गया ताकि पड़ोसी द्वारा लज्जित किये जाने पर वह उसे मार डाले.

वहां जानेपर उसने पड़ोसी को भगवान् बुद्ध से यह कहते हुए सुना – “भगवन, इस भोज के निमित्त जो भी द्रव्य संगृहीत किया गया है वह मैंने नगर के सभी निवासियों से दान में प्राप्त किया है. कम हो या अधिक, सभी ने पूर्ण श्रद्धा और उदारता से दान दिया अतः सभी के दान का मूल्य सामान है.”

पड़ोसी के यह शब्द सुनकर बिलाल्पादक को अपने विचारों की तुच्छता का बोध हुआ और उसने अपनी गलतियों के लिए सभी के समक्ष पड़ोसी से क्षमा माँगी.

बिलाल्पादक के पश्चाताप के शब्दों को सुनकर बुद्ध ने वहां उपस्थित समस्त व्यक्तियों से कहा – “तुम्हारे द्वारा किया गया शुभ कर्म भले ही कितना ही छोटा हो पर उसे तुच्छ मत जानो. छोटे-छोटे शुभ कर्म एकत्र होकर भविष्य में विशाल रूप धारण कर लेते हैं”.

“जब कभी तुम कोई शुभ कर्म करो तब यह मत सोचो कि ‘इतने छोटे कर्म से मुझे कुछ प्राप्त नहीं होगा’. जिस प्रकार बारिश का पानी बूँद-बूँद गिरकर पात्र को पूरा भर देता है उसी प्रकार सज्जन व्यक्तियों के छोटे-छोटे शुभकर्म भी धीरे-धीरे संचित होकर विशाल संग्रह का रूप ले लेते हैं”. – धम्मपद १२२

“जिस प्रकार धनी व्यक्ति निर्जन पथ से और लम्बा जीने की कामना करने वाले विष से दूर रहते हैं उसी प्रकार सभी को पाप एवं अशुभ से दूर रहना चाहिए”. – धम्मपद १२३

(A Buddhist story of Bilalpadaka – Merits of giving – ‘Dana’ – in Hindi)

साभार : Hindizen – निशांत का हिंदीज़ेन ब्लॉग

2 comments:

  1. बहुत सुंदर विचार, कहानी बहुत अच्छी लगी, काश हम सब भी अंहकार छोड कर ऎसे ही बने

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  2. mujhe lagta hai ki baudh dharm me bhiksha mangne ko badhawa dena is dharm ko kamjor banaye hue hai
    hamen kuch aisa karna padegaa jisee bhante atmnirbhar hon aur unhe bheek nahin mangni pade

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