There’s nothing wrong with the way the body grows old and
gets sick. It just follows its nature. So it’s not the body that
causes us suffering, but our own wrong thinking. When we see the right wrongly, there’s bound to be confusion.
It’s like the water of a river. It naturally flows downhill. It
never flows uphill. That’s its nature. If we were to go and stand on the bank of a river, and seeing the water flowing swiftly down its course, foolishly want it to flow back uphill, we would suffer. We would suffer because of our wrong view, our thinking “against the stream.” If we had right view, we would see that the water must flow downhill. Until we realize and accept this fact, we will always be agitated and never find peace of mind. The river that must flow downhill is like our body. It passes through youth, old age and finally dies. Don’t let us go wishing it were otherwise. It’s not something we have the power to remedy. Don’t go against the stream!
~A Tree in a Forest - A Collection of Ajahn Chah's Similes ~
Friday, November 30, 2012
River Flow–“old age and suffering“”
Wednesday, November 28, 2012
बुद्धघोष
बुद्धघोष, पालि साहित्य के एक महान् बौद्धाचार्य। बुद्धघोसुपत्ति सद्धम्मसंगह, गंधवंश और शासन वंश में बुद्धघोष का जीवनचरित्र विस्तार से मिलता है, किंतु ये रचनाएँ 14वीं से 19वीं शती तक की हैं। इनसे पूर्व का एकमात्र महावंश के चूलवंश नामक उत्तर भाग का 37वाँ परिच्छेद ऐसा है जिसकी 215 से 246 गाथाओं में बुद्धघोष का जीवनवृत्त पाया जाता है।
यद्यपि इसकी रचना धर्मकीर्ति नामक भिक्षु द्वारा १३वीं शती में की गई है, तथापि वह किसी अविच्छिन्न श्रुतिपरंपरा के आधार पर लिखा गया प्रतीत होता है। इसके अनुसार बुद्धघोष का जन्म बिहार प्रदेश के अंतर्गत गया में बोधिवृक्ष के समीप ही कहीं हुआ था। बालक प्रतिभाशाली था, और उसने अल्पावस्था में ही वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया, योग का भी अभ्यास किया फिर वह अपनी ज्ञानवृद्धि के लिए देश में परिभ्रमण व विद्वानों से वादविवाद करने लगा। एक बार वह रात्रिविश्राम के लिए किसी बौद्धविहार में पहुँच गया। वहाँ रेवत नामक स्थविर से बाद में पराजित होकर उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली। तत्पश्चात् उन्होंने त्रिपिटक का अध्ययन किया। उनकी असाधारण प्रतिभा एवं बौद्धधर्म में श्रद्धा से प्रभावित होकर बौद्ध संघ ने उन्हें बुद्धघोष की पदवी प्रदान की। उसी विहार में रहकर उन्होंने "ज्ञानोदय" नामक ग्रंथ भी रचा। यह ग्रंथ अभी तक मिला नहीं है। तत्पश्चात् उन्होंने अभिधम्मपिटक के प्रथम नाग धम्मसंगणि पर अठ्ठसालिनी नामक टीका लिखी। उन्होंने त्रिपिटक की अट्टकथा लिखना भी आरंभ किया। उनके गुरु रैवत ने उन्हें बतलाया कि भारत में केवल लंका से मूल पालि त्रिपिटक ही आ सकता है, उनकी महास्थविर महेंद्र द्वारा संकलित अट्टकथाएँ सिंहली भाषा में लंका द्वीप में विद्यमान हैं। अतएव तुम्हें वहीं जाकर उनको सुनना चाहिए और फिर उनका मागधी भाषा में अनुवाद करना चाहिए। तदनुसार बुद्धघोष लंका गए। उस समय वहाँ महानाम राजा का राज्य था। वहाँ पहुँचकर उन्होंने अनुराधपुर के महाविहार में संघपाल नामक स्थविर से सिंहली अट्टकथाओं और स्थविरवाद की परंपरा का श्रवण किया। बुद्धघोष को निश्चय हो गया कि धर्म के अधिनायक बुद्ध का वही अभिप्राय है। उन्होंने वहाँ के भिक्षुसंघ से अट्टकथाओं का मागधी रूपांतर करने का अपना अभिप्राय प्रकट किया। इसपर संघ ने उनकी योग्यता की परीक्षा करने के लिए "अंतो जटा, बाहि जटा" आदि दो प्राचीन गाथाएँ देकर उनकी व्याख्या करने को कहा। बुद्धघोष ने उनकी व्याख्या रूप विसुद्धिमग्ग की रचना की, जिसे देख संघ अति प्रसन्न हुआ और उसने उन्हें भावी बुद्ध मैत्रेय का अवतार माना। तत्पश्चात् उन्होंने अनुराधपुर के ही ग्रंथकार विहार में बैठकर सिंहली अट्टकथाओं का मागधी रूपांतर पूरा किया, और तत्पश्चात् भारत लौट आए।
इस जीवनवृत्त में जो यह उल्लेख पाया जाता है कि बुद्धघोष राजा महानाम के शासनकाल में लंका पहुँचे थे, उससे उनके काल का निर्णय हो जाता है, क्योंकि महानाम का शासनकाल ई. की चौथी शती का प्रारंभिक भाग सुनिश्चित है। अतएव यही समय बुद्धघोष की रचनाओं का माना गया है। विसुद्धिमग्ग में अंत में उल्लेख है कि मोरंड खेटक निवासी बुद्धघोष ने बिसुद्धमग्ग की रचना की। उसी प्रकार मज्झिमनिकाय की अट्टकथा में उसके मयूर सुत्त पट्टण में रहते हुए बुद्धमित्र नामक स्थविर की प्रार्थना से लिखे जाने का उल्लेख मिलता है। अंगुत्तरनिकाय की अट्टकथाओं में उल्लेख है कि उन्होंने उसे स्थविर ज्योतिपालकी प्रार्थना से कांचीपुर आदि स्थानों में रहते हुए लिखा। इन उल्लेखों से ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी अट्टकथाएँ लंका में नहीं,बल्कि भारत में, संभवत: दक्षिण प्रदेश में, लिखी गई थीं। कंबोडिया में एक बुद्धघोष विहार नामक अति प्राचीन संस्थान है, तथा वहाँ के लागों का विश्वास है कि वहीं पर उनका निर्वाण हुआ था और उसी स्मृति में वह बिहार बना।
बुद्धघोष द्वारा रचित माने जानेवाले ग्रंथ निम्न प्रकार हैं :
1. बिसुद्धिमग्ग में संयुक्त निकाय की "अंतो जटा" आदि दो गाथाओं की व्याख्या दार्शनिक रूप से की गई है। इस ग्रंथ की बौद्ध संप्रदाय में बड़ी प्रतिष्ठा है।
2. सामंत पासादिका - विनयपिटक की अट्टकथा,
3. कंखावितरणी - विनयपिटक के एक खंड पातिमोक्ख की अट्टकथा,
4. सुमंगलविलासिनी - दीघनिकाय की अट्टकथा,
5. पपंचसूदनी - मज्झिमनिकाय की अट्टकथा,
6. सारत्थपकासिनी - संयुत्तनिकाय अट्ठकथा,
7. मनोरथजोतिका - अंगुत्तरनिकाय की अट्ठकथा,
8. परमत्थजोतिका - खुद्दकनिकाय के खुद्दकपाठ एवं सुत्तनिपात की अट्टकथा,
9. धम्मपद-अट्टकथा,
10. जातक-अट्ठवण्णना,
11. अट्ठशालिनी-अभिधम्मपिटक के धम्मसंगणि की अट्ठकथा,
12. संमोहविनोदनी-विभंग की अट्टकथा,
13. पंचप्पकरण अट्ठकथा - अभिधम्मपिटक के कथावत्थु, पुग्गल पण्णति, धातुकथा, यमक और पट्ठाण इन पाँच खंडों पर की टीका है।
इस प्रकार बुद्धघोष ने पालि में सर्वप्रथम अट्ठकथाओं की रचना की है। पालि त्रिपिटक के जिस अंशों पर उन्होंने अट्ठकथाएँ नहीं लिखी थी, उनपर बुद्धदत्त और धर्मपाल ने तथा आनंद आदि अन्य भिक्षुओं ने अट्ठकथाएँ लिखकर पालि त्रिपिटक के विस्तृत व्याख्यान का कार्य पूरा किया।
सभार : विकीपीडिया
Monday, November 12, 2012
सबसे शक्तिशाली तत्व– “ हमारी इच्छाशक्ति ”
एक बार आनंद ने भगवान् बुद्ध से पूछा – “ जल , वायु, अग्नि इत्यादि तत्वों मे सबसे शक्तिशाली तत्व कौन सा है ? ”
भगवान् बुद्ध ने कहा – “ आनंद ! पत्थर सबसे कठोर और शकितशाली दिखता है , लेकिन लौहे का हथोडा पत्थर के टुकडे-२ कर देता है , इसलिये लोहा पत्थर से अधिक शक्तिशाली है । ”
“लेकिन लोहार आग की भट्टी मे लोहे को गलाकर उसे मनचाही शक्ल मे ढाल देता है , इसलिये लोहा पत्थर से अधिक शक्तिशाली है । ”
“ मगर आग कितनी भी विकराल क्यों न हो , जल उसे शांत कर देता है । इसलिये जल पत्थर, लोहे, और अह्नि से अधिक शक्तिशाली है । लेकिन जल से भरे बादलों को वायु कही से कही उडाकर ले जाती है , इसलिये वायु , जल से भी अधिक बल्शाली है ।”
“ लेकिन हे आनंद ! इच्छाश्क्ति वायु की दिशा को भी मोड सकती है । इसलिये सबसे अधिक शक्तिशाली तत्व है – व्यक्ति की इच्छाशक्ति । इच्छाश्क्ति से अधिक बलशाली तत्व कोई नही है । ”
साभार स्त्रोत : “बुद्ध का चक्रवर्ती साम्राज्य “, लेखक- “ श्री राजेश चन्द्रा ”
Thursday, November 8, 2012
जीवन की अद्भुततायें – यही तो जीवन है
गत सप्ताह कुछ अधिक ही सूकून से बीता । क्लीनिक की चिकिचिक और मरीजों के शोर से हटकर कौसानी की पहाडियाँ और घाँटियाँ , ऊँचे-२ देवदार के वृक्ष , विशाल हिमालय पर्वत की ऊँची अट्ट्टलिकाओं के पीछे से उदय होता सूर्य मानों मंत्र्मुग्ध सा कर देता है । मै अविरल प्रकृति की गहराईयों में डूब सा जाता हूँ । सुबह का छ: बजने को है , होटल का स्टाफ़ हमें ५ बजे से ही उठा देता है । “ जल्दी उठिये , हिमालय दर्शन जो करना है । " अपने कमरे मे से बाहर आता हूँ , होटल की छ्त से प्रकृति का अभूतपूर्व नजारा दिखता है । आँखो को बन्द करते हुये साँसों को नियत्रित करता हूँ और फ़िर आंखों को खोलते हुये प्रकृति के इस मोहक रुप को …. देखकर क्या यह नही लगता कि हम अपनी जिन्दगी मे व्यर्थ की दौड भाग किये जा रहे हैं । प्रकृति हमेशा शांत रहती है , यह हमारी भावनायें हैं जो अनजाने मे ही सही व्यर्थ की तकलीफ़े पहुँचाती रहती है ।
लेकिन ऐसा नही है कि यह शांति सिर्फ़ हमॆ बाहर जाने पर ही मिल सकती है । यहाँ घर पर भी प्रात:काल का समय मुझे बहुत सूकून देने वाला लगता है । इस वर्ष जबकि मैने सुबह की सैर का स्थान बदल दिया है लेकिन गत वर्ष पुलिस प्रांगण मे सुबह –२ दौड लगाने के बाद जब शरीर शिथिल सा हो जाता था तो उस मिनी स्टॆडियम के प्रांगण के एक कोने मे जहाँ अशोक के कई पेड लगे हुये हैं , वहाँ बैठ कर आँखों को बन्द कर के साँसों को नियत्रित करते हुये मै उन सब को साक्षी भाव से देख सकता हूं जो मुझे अति आनन्दित करती है । यह समय पेड पर वास करने वाली असंख्य चिडियों का है जिनकी दिनचर्या सुबह –२ शुरु हो जाती है । उन का चहचहाना , हवा के चलने से पत्तों की सरसराहट का स्वर सब अपना सा ही तो लगता है , क्या वह मिलने वाले अन्य आनन्दों से कमतर है । बिल्कुल नही । सच तो यह है कि जीवन को वर्तमान के क्षण मे ही खोजा जा सकता है किन्तु हमारा चित्त शायद ही कभी वर्तमान क्षण को जी रहा होता है । वर्तमान के क्षण मे या तो हम अतीत को खंगालने लगते हैं अथवा अनागत भविष्य विषयक कामनायें किया करते हैं ।
बुद्ध के जीवन से एक प्रंसग है । बुद्ध का नित्य नियम था कि वह तडके उठ जाते और बैठकर ध्यान साधना करते । एक दिन वह ऋषिपतन के मृगदाय ध्यान में साधना मे व्यस्त थे तभी वहाँ से एक २७-२८ वर्ष का युवक चट्ठान के पास से गुजरा । उसे बुद्ध की उपस्थिति का कुछ भी ज्ञान नही था और बडबडा रहा था – “सब अरुचिपूर्ण , घृणास्पद” ।
बुद्ध बोल उठे , “कुछ भी अरुचिपूर्ण और घृणास्पद नही होता ।”
बुद्ध ने उससे पूछा “क्या अरुचिपूर्ण , घृणास्पद है ?”
युवक ने अपना परिचय देते हुये कहा कि मेरा नाम यश है और मै वाराणसी के एक सबसे धनी और सम्मानित श्रेष्ठि का पुत्र हूँ । मेरे माता पिता ने मेरी सब मरजी पूरी की है और सभी मौज मस्ती के साधन जुटाये हैं । लेकिन मै अब इन आमोद प्रमोद के जीवन से ऊब गया हूँ और इन सबसे मुझे कोई संतुष्टि नही मिलती है ।
बुद्ध ने उसे समझाया कि “ यश , यह जीवन तो आधि व्याधियों से भरा है किन्तु इस जीवन में बहुत अद्भुतताएं भी हैं । काम भॊग और इन्द्रियजन्य विषक वासना मे लिप्त होने से शरीर और चित्त दोनों ही अस्वस्थ हो जाते हैं । यदि कामनाओं को त्यागकर तुम सादगी और पूर्णता के साथ जीवन व्यतीत करो तो तुम जीवन की अद्भुतताओं का अनुभव कर सकते हो । यश , तुम अपने ओर दृष्टि फ़ैलाओ । सामने प्रभाती सुहासे से खडे वृक्ष तुम देख रहे हो ? क्या वे सुंदर नही हैं ? चंद्रमा , तारकगण , सरितायें , पर्वत , सूर्य का प्रकाश , चिडियों का गान , झरने के गिरने की मधुर ध्वनि - यह सब सृष्टि का ऐसा प्रसार है जो हमे अनंत आनंद प्रदान कर सकता है ।
इन सबसे हमे जो आनंद प्राप्त होता है उससे हमारा चित्त और शरिर दोनों पुष्ट होते हैं । अपनी आँखे बन्द करॊ और गहरी साँस लेकर शवास को बाहर निकालो । यह शवसन क्रिया कुछ देर करॊ । अब आँखे खोलो । अब क्या दिखाई पडता है ? वृक्ष , कुहासा , आकाश और सूर्य की किरणॆं । तुम्हारे अपने ही नेत्र अद्भुतत हैं । तुम इन समस्त अद्भुतताओं के सान्धिय मे नही रहे इसलिये अपने चित्त और शरीर से घणा करने लगे हो । कुछ लोग तो अपने चित्त और शरीर से इतनी घृणा करते है कि आत्महत्या तक करना चाहते है । उन्हे जीबन मे कष्ट ही कष्ट दिखता है । किन्तु सष्टि की सम्यक प्रकृति कष्टदायी नही है । कष्ट तो हमारी जीबन पद्द्ति और जीबन विषयक भ्रांत धारणाओं का परिणाम होते हैं । ”
बुद्ध के शब्दों से यश को ऐसा लगा जैसा उसके तपते ह्रदय पर शीतल ओस की बूद आ गिरी हो । प्रसन्नता से अभिभूत होकर वह बुद्ध के चरणो पर गिर पडा ।