Wednesday, November 28, 2012

बुद्धघोष

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बुद्धघोष, पालि साहित्य के एक महान् बौद्धाचार्य। बुद्धघोसुपत्ति सद्धम्मसंगह, गंधवंश और शासन वंश में बुद्धघोष का जीवनचरित्र विस्तार से मिलता है, किंतु ये रचनाएँ 14वीं से 19वीं शती तक की हैं। इनसे पूर्व का एकमात्र महावंश के चूलवंश नामक उत्तर भाग का 37वाँ परिच्छेद ऐसा है जिसकी 215 से 246 गाथाओं में बुद्धघोष का जीवनवृत्त पाया जाता है।

यद्यपि इसकी रचना धर्मकीर्ति नामक भिक्षु द्वारा १३वीं शती में की गई है, तथापि वह किसी अविच्छिन्न श्रुतिपरंपरा के आधार पर लिखा गया प्रतीत होता है। इसके अनुसार बुद्धघोष का जन्म बिहार प्रदेश के अंतर्गत गया में बोधिवृक्ष के समीप ही कहीं हुआ था। बालक प्रतिभाशाली था, और उसने अल्पावस्था में ही वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया, योग का भी अभ्यास किया फिर वह अपनी ज्ञानवृद्धि के लिए देश में परिभ्रमण व विद्वानों से वादविवाद करने लगा। एक बार वह रात्रिविश्राम के लिए किसी बौद्धविहार में पहुँच गया। वहाँ रेवत नामक स्थविर से बाद में पराजित होकर उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली। तत्पश्चात् उन्होंने त्रिपिटक का अध्ययन किया। उनकी असाधारण प्रतिभा एवं बौद्धधर्म में श्रद्धा से प्रभावित होकर बौद्ध संघ ने उन्हें बुद्धघोष की पदवी प्रदान की। उसी विहार में रहकर उन्होंने "ज्ञानोदय" नामक ग्रंथ भी रचा। यह ग्रंथ अभी तक मिला नहीं है। तत्पश्चात् उन्होंने अभिधम्मपिटक के प्रथम नाग धम्मसंगणि पर अठ्ठसालिनी नामक टीका लिखी। उन्होंने त्रिपिटक की अट्टकथा लिखना भी आरंभ किया। उनके गुरु रैवत ने उन्हें बतलाया कि भारत में केवल लंका से मूल पालि त्रिपिटक ही आ सकता है, उनकी महास्थविर महेंद्र द्वारा संकलित अट्टकथाएँ सिंहली भाषा में लंका द्वीप में विद्यमान हैं। अतएव तुम्हें वहीं जाकर उनको सुनना चाहिए और फिर उनका मागधी भाषा में अनुवाद करना चाहिए। तदनुसार बुद्धघोष लंका गए। उस समय वहाँ महानाम राजा का राज्य था। वहाँ पहुँचकर उन्होंने अनुराधपुर के महाविहार में संघपाल नामक स्थविर से सिंहली अट्टकथाओं और स्थविरवाद की परंपरा का श्रवण किया। बुद्धघोष को निश्चय हो गया कि धर्म के अधिनायक बुद्ध का वही अभिप्राय है। उन्होंने वहाँ के भिक्षुसंघ से अट्टकथाओं का मागधी रूपांतर करने का अपना अभिप्राय प्रकट किया। इसपर संघ ने उनकी योग्यता की परीक्षा करने के लिए "अंतो जटा, बाहि जटा" आदि दो प्राचीन गाथाएँ देकर उनकी व्याख्या करने को कहा। बुद्धघोष ने उनकी व्याख्या रूप विसुद्धिमग्ग की रचना की, जिसे देख संघ अति प्रसन्न हुआ और उसने उन्हें भावी बुद्ध मैत्रेय का अवतार माना। तत्पश्चात् उन्होंने अनुराधपुर के ही ग्रंथकार विहार में बैठकर सिंहली अट्टकथाओं का मागधी रूपांतर पूरा किया, और तत्पश्चात् भारत लौट आए।

इस जीवनवृत्त में जो यह उल्लेख पाया जाता है कि बुद्धघोष राजा महानाम के शासनकाल में लंका पहुँचे थे, उससे उनके काल का निर्णय हो जाता है, क्योंकि महानाम का शासनकाल ई. की चौथी शती का प्रारंभिक भाग सुनिश्चित है। अतएव यही समय बुद्धघोष की रचनाओं का माना गया है। विसुद्धिमग्ग में अंत में उल्लेख है कि मोरंड खेटक निवासी बुद्धघोष ने बिसुद्धमग्ग की रचना की। उसी प्रकार मज्झिमनिकाय की अट्टकथा में उसके मयूर सुत्त पट्टण में रहते हुए बुद्धमित्र नामक स्थविर की प्रार्थना से लिखे जाने का उल्लेख मिलता है। अंगुत्तरनिकाय की अट्टकथाओं में उल्लेख है कि उन्होंने उसे स्थविर ज्योतिपालकी प्रार्थना से कांचीपुर आदि स्थानों में रहते हुए लिखा। इन उल्लेखों से ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी अट्टकथाएँ लंका में नहीं,बल्कि भारत में, संभवत: दक्षिण प्रदेश में, लिखी गई थीं। कंबोडिया में एक बुद्धघोष विहार नामक अति प्राचीन संस्थान है, तथा वहाँ के लागों का विश्वास है कि वहीं पर उनका निर्वाण हुआ था और उसी स्मृति में वह बिहार बना।

बुद्धघोष द्वारा रचित माने जानेवाले ग्रंथ निम्न प्रकार हैं :

1. बिसुद्धिमग्ग में संयुक्त निकाय की "अंतो जटा" आदि दो गाथाओं की व्याख्या दार्शनिक रूप से की गई है। इस ग्रंथ की बौद्ध संप्रदाय में बड़ी प्रतिष्ठा है।

2. सामंत पासादिका - विनयपिटक की अट्टकथा,

3. कंखावितरणी - विनयपिटक के एक खंड पातिमोक्ख की अट्टकथा,

4. सुमंगलविलासिनी - दीघनिकाय की अट्टकथा,

5. पपंचसूदनी - मज्झिमनिकाय की अट्टकथा,

6. सारत्थपकासिनी - संयुत्तनिकाय अट्ठकथा,

7. मनोरथजोतिका - अंगुत्तरनिकाय की अट्ठकथा,

8. परमत्थजोतिका - खुद्दकनिकाय के खुद्दकपाठ एवं सुत्तनिपात की अट्टकथा,

9. धम्मपद-अट्टकथा,

10. जातक-अट्ठवण्णना,

11. अट्ठशालिनी-अभिधम्मपिटक के धम्मसंगणि की अट्ठकथा,

12. संमोहविनोदनी-विभंग की अट्टकथा,

13. पंचप्पकरण अट्ठकथा - अभिधम्मपिटक के कथावत्थु, पुग्गल पण्णति, धातुकथा, यमक और पट्ठाण इन पाँच खंडों पर की टीका है।

इस प्रकार बुद्धघोष ने पालि में सर्वप्रथम अट्ठकथाओं की रचना की है। पालि त्रिपिटक के जिस अंशों पर उन्होंने अट्ठकथाएँ नहीं लिखी थी, उनपर बुद्धदत्त और धर्मपाल ने तथा आनंद आदि अन्य भिक्षुओं ने अट्ठकथाएँ लिखकर पालि त्रिपिटक के विस्तृत व्याख्यान का कार्य पूरा किया।

सभार : विकीपीडिया

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