Thursday, November 8, 2012

जीवन की अद्‍भुततायें – यही तो जीवन है

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गत सप्ताह  कुछ अधिक  ही सूकून से बीता । क्लीनिक की चिकिचिक और मरीजों के शोर से हटकर  कौसानी की पहाडियाँ और  घाँटियाँ , ऊँचे-२ देवदार के वृक्ष , विशाल हिमालय पर्वत की ऊँची अट्ट्टलिकाओं   के पीछे से उदय होता सूर्य मानों मंत्र्मुग्ध सा कर देता है ।  मै अविरल प्रकृति की गहराईयों में डूब सा जाता हूँ । सुबह का छ:  बजने को है , होटल का स्टाफ़ हमें  ५ बजे से ही उठा देता है । “ जल्दी उठिये , हिमालय दर्शन जो करना है । " अपने कमरे मे से बाहर आता हूँ , होटल की छ्त से प्रकृति का अभूतपूर्व नजारा दिखता है ।  आँखो को बन्द करते हुये  साँसों को नियत्रित करता हूँ और फ़िर आंखों को खोलते हुये   प्रकृति के इस मोहक रुप को …. देखकर क्या यह नही लगता कि हम अपनी जिन्दगी मे व्यर्थ की दौड भाग किये जा रहे  हैं । प्रकृति हमेशा शांत रहती है , यह हमारी भावनायें  हैं जो अनजाने मे ही सही व्यर्थ की तकलीफ़े पहुँचाती  रहती है ।

लेकिन ऐसा नही है कि यह शांति  सिर्फ़ हमॆ बाहर जाने पर ही मिल सकती  है । यहाँ  घर पर भी प्रात:काल  का समय मुझे बहुत सूकून देने वाला लगता है । इस वर्ष जबकि मैने सुबह की सैर का स्थान बदल दिया है लेकिन गत वर्ष पुलिस प्रांगण मे सुबह –२ दौड लगाने के बाद जब शरीर शिथिल सा हो जाता था तो उस मिनी स्टॆडियम के प्रांगण के एक कोने मे जहाँ  अशोक के कई पेड लगे हुये हैं , वहाँ बैठ कर आँखों को बन्द कर के साँसों को नियत्रित करते हुये मै उन सब को साक्षी भाव  से देख सकता हूं जो मुझे अति आनन्दित करती है । यह समय पेड पर वास करने वाली असंख्य चिडियों का है जिनकी दिनचर्या सुबह –२  शुरु हो जाती है । उन का चहचहाना , हवा के चलने से  पत्तों की सरसराहट का स्वर सब अपना सा ही तो लगता है , क्या वह मिलने वाले अन्य आनन्दों से कमतर  है । बिल्कुल नही । सच तो यह है कि जीवन को वर्तमान के क्षण मे ही खोजा जा सकता है किन्तु हमारा चित्त शायद ही कभी वर्तमान क्षण को जी रहा होता है । वर्तमान के क्षण मे या तो हम अतीत को खंगालने लगते हैं अथवा अनागत भविष्य विषयक कामनायें किया करते हैं ।

बुद्ध के जीवन से एक प्रंसग है । बुद्ध का नित्य नियम था कि वह तडके उठ जाते और बैठकर ध्यान साधना करते । एक दिन वह ऋषिपतन के मृगदाय ध्यान में साधना मे व्यस्त थे तभी वहाँ  से एक २७-२८ वर्ष का युवक चट्ठान के पास से   गुजरा । उसे बुद्ध की उपस्थिति का कुछ भी ज्ञान नही था और बडबडा रहा था – “सब अरुचिपूर्ण , घृणास्पद” ।

बुद्ध बोल उठे , “कुछ भी अरुचिपूर्ण और  घृणास्पद नही होता ।”

बुद्ध ने उससे पूछा  “क्या अरुचिपूर्ण , घृणास्पद  है ?”

युवक ने अपना परिचय देते हुये कहा कि मेरा नाम यश है और मै वाराणसी के एक सबसे धनी और सम्मानित श्रेष्ठि का पुत्र हूँ । मेरे माता पिता ने मेरी सब मरजी पूरी की है और सभी मौज मस्ती के साधन जुटाये हैं । लेकिन मै अब इन आमोद प्रमोद  के जीवन से ऊब गया हूँ  और इन सबसे मुझे कोई संतुष्टि नही मिलती है ।

बुद्ध ने उसे समझाया कि “ यश , यह जीवन तो आधि व्याधियों से भरा है किन्तु इस जीवन  में  बहुत अद्‍भुतताएं  भी हैं । काम भॊग और इन्द्रियजन्य विषक वासना मे लिप्त होने से शरीर और चित्त दोनों ही अस्वस्थ हो जाते हैं । यदि कामनाओं  को त्यागकर तुम सादगी और पूर्णता के साथ जीवन व्यतीत करो तो तुम जीवन की अद्‍भुतताओं  का अनुभव कर सकते हो । यश , तुम अपने ओर दृष्टि  फ़ैलाओ । सामने प्रभाती  सुहासे से खडे वृक्ष तुम देख रहे हो ? क्या वे सुंदर नही हैं ? चंद्रमा , तारकगण , सरितायें , पर्वत , सूर्य का प्रकाश , चिडियों का गान , झरने के गिरने की मधुर ध्वनि  - यह सब सृष्टि  का ऐसा प्रसार है जो हमे अनंत आनंद  प्रदान कर सकता है ।

इन सबसे हमे जो आनंद प्राप्त होता है उससे हमारा चित्त और शरिर दोनों पुष्ट होते हैं । अपनी आँखे बन्द करॊ और गहरी साँस  लेकर  शवास को बाहर निकालो । यह शवसन क्रिया कुछ देर करॊ । अब आँखे खोलो । अब क्या दिखाई पडता है ? वृक्ष , कुहासा , आकाश और सूर्य की किरणॆं । तुम्हारे अपने ही नेत्र अद्‍भुतत हैं । तुम इन समस्त अद्‍भुतताओं  के सान्धिय मे नही रहे इसलिये अपने चित्त और शरीर  से घणा करने लगे हो । कुछ लोग तो अपने चित्त और शरीर से इतनी घृणा  करते है कि आत्महत्या तक करना चाहते है । उन्हे जीबन मे कष्ट  ही कष्ट दिखता है । किन्तु सष्टि की सम्यक प्रकृति कष्टदायी  नही है । कष्ट  तो हमारी जीबन पद्द्ति और जीबन विषयक भ्रांत धारणाओं का परिणाम होते  हैं । ”

बुद्ध के शब्दों से यश को ऐसा लगा जैसा उसके तपते ह्रदय पर शीतल ओस की  बूद आ गिरी हो । प्रसन्नता से अभिभूत  होकर वह बुद्ध के चरणो पर गिर पडा ।

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