( बलरामपुर में द्रौपदी मन्दिर मे भगवान बुद्ध की मूर्ति – हिन्दू मन्दिरों मे भगवान बुद्ध की मूर्ति पाये जाने का एक दुर्लभ चित्र )
यह अजीब सा विरोधाभास है कि एक तरफ़ तो हिन्दू धर्म मे भगवान बुद्ध को विष्णु का नंवा अवतार माना जाता हैं और दूसरी तरफ़ हिन्दू मन्दिरों में बुद्ध की मूर्ति को ढूँढ पाना एक दुर्लभ कार्य है । पिछ्ले साल हरिद्वार और देहारदून से लौटते समय मेरे मन मे यही विचार उमडते रहे । उन दिनों हरिद्वार मे कोई बौद्ध सम्मेलन चल रहा था । लौटते समय मेरी मुलाकात ट्रेन में जिन महिला से हुयी , वह भी उसी सम्मेलन का हिस्सा थी । बनारस की रहने वाली श्रीमती मालती तिवारी सारनाथ में केन्द्रीय तिब्बती अध्यन्न विशवविधालय ( Central University of Tibetan Studies (CUTS) , Sarnath ) में अध्यापन कार्य करती हैं । बुद्ध धम्म मे उनकी गहन रुचि थी और बातों –२ मे ज्ञात हुआ कि उनका शोध कार्य डां अम्बेड्कर और बौद्ध धर्म पर केन्द्रित था । लेकिन मेरे इस प्रशन पर वह चुप रही ।
गत वर्ष ही दीपावली के अगले दिन श्रावस्ती जाने का अचानक प्रोग्राम बन गया । श्रावस्ती से लौटते समय बलरामपुर में द्रौपदी मन्दिर मे भगवान बुद्ध की मूर्ति को देखकर मै अचरज मे पड गया । ऊपर का यह चित्र उसी मन्दिर से ही है ।
अवतार वाद की यह फ़िलोसफ़ी मेरे मन मे कभी भी मूर्त रुप न ले पाई । अगर ईमानदारी से भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार माना गया होता तो हर मंदिर में आज उनकी मूर्ति होती ।
लेकिन ऐसा क्यूं है कि भगवान बुद्ध को हिन्दू धर्म में पूर्ण रुप से स्वीकार नही किया गया । हिन्दू पुराणॊं मे इसे इस तरीके से पेश किया गया है जिसे ज़्यादातर बौद्ध अस्वीकार्य और बेहद अप्रिय मानते हैं। कुछ पुराणों में ऐसा कहा गया है कि भगवान विष्णु ने बुद्ध अवतार इसलिये लिया था जिससे कि वो "झूठे उपदेश" फैलाकर "असुरों" को सच्चे वैदिक धर्म से दूर कर सकें, जिससे देवता उनपर जीत हासिल कर सकें। इसका मतलब है कि बुद्ध तो "देवता" हैं, लेकिन उनके उपदेश झूठे और ढोंग हैं। ये बौद्धों के विश्वास से एकदम उल्टा है: बौद्ध गौतम बुद्ध को कोई अवतार या देवता नहीं मानते, लेकिन उनके उपदेशों को सत्य मानते हैं। कुछ हिन्दू लेखकों (जैसे जयदेव) ने बाद में यह भी कहा है कि बुद्ध विष्णु के अवतार तो हैं, लेकिन विष्णु ने ये अवतार झूठ का प्रचार करने के लिये नहीं बल्कि अन्धाधुन्ध कर्मकाण्ड और वैदिक पशुबलि रोकने के लिये किया था।
बुद्ध और कल्कि अवतार (अग्नि पुराण 16 वा अध्याय )
Vishnu as Buddha making gesture of dharmacakrapravartana flanked by two disciples ( साभार : विकीपीडिया )
अग्निदेव कहते हैं :- अब में बुद्ध अवतार का वर्णन करूंगा ,जो पड़ने और सुनाने वाले के मनोरथ को सिद्ध करने वाला है । पूर्वकाल मे देवता और असुरो मे घोर संग्राम हुआ । उसमे देत्यों ने देवताओ को परास्त कर दिया । तब देवता त्राहि-त्राहि पुकारते हुये भगवान की शरण मे गए । भगवान माया-मोह रूप मे आकार राजा शुद्धोधन के पुत्र हुये । उन्होने देत्यों को मोहित किया और उनसे वेदिक धर्म का परित्याग करा दिया । वे बुद्ध के अनुयाई देत्य " बोद्ध " कहलाए । फिर उन्होने दूसरे लोगों से वेद-धर्म का परित्याग करा दिया ।इसके बाद माया-मोह ही ' आर्हत ' रूप से प्रगत हुआ । उसने दूसरों को भी ' आर्हत ' बनाया । इस प्रकार उनके अनुयायी वेद-धर्म से वंचित होकर पाखंडी बन गए । उन्होने नर्क मे ले जाने वाले कर्म करना आरंभ कर दिया । वे सब-के-सब कलियुग के अंत मे वर्ण संकर होंगे और नीच पुरुषों से दान लेंगे । इतना ही नही , वे लोग डाकू और दुराचारी भी होंगे । वाजसनेय ( वृहदारण्यक ) -मात्र ही वेद कहलाएगा । वेद की दस पाँच शाखे ही प्रमाणभूत मानी जाएंगी । धर्म का चोला पहने हुये सब लोग अधर्म मे ही रुची रखने वाले होंगे । राजारूपधारी मलेच्छ ( मुसालेबीमान और इसाया ) मनुष्यो का ही भक्षण करेंगे ।
तदन्तर भगवान कल्कि प्रगट होंगे । वे श्री विष्णुयशा के पुत्र रूप मे अवतीर्ण हों याज्ञवलक्य को अपना पुरोहित बनाएँगे । उन्हे अस्त्र-शस्त्र विदध्या का पूर्ण ज्ञान होगा । वे हाथ मे अस्त्र लेकर मलेच्च्योन का संहार ( मुसालेबीमान और इसाया ) कर देंगे । तथा चरो वर्णो और समस्त आश्रमो मे शास्त्रीय मर्यादा साथपित करेंगे । समस्त प्रजा को धर्म के उत्तम मार्ग मे लगाएंगे । इसके बाद श्री हरी कल्कि तूप का परित्याग करके अपने धाम चले जाएंगे । फिर तो पूर्ववत सतयुग का साम्राज्य होगा । साधुश्रेष्ठ ! सभी वर्ण और आश्रम के लोग अपने-अपने धर्म मे दृद्तापूर्वक लग जाएंगे । इस प्रकार सम्पूर्ण कल्पो और मन्वंतरों मे श्री हरी के अवतार होते हैं । उनमे स ए कुछ हो चुके हैं और कुछ आगे होने वाले हैं । उन सबकी कोई नियत संख्या नही है ।
जो मनुष्य श्री विष्णु के अंशावतार तथा पूर्ण अवतार सहित दस अवतारों के चरित्र का पाठ अथवा श्रवण करता है , वह सम्पूर्ण कामनाओ को प्राप्त कर लेता है । तथा निर्मल हृदय होकर परिवार सहित स्वर्ग को जाता है । इस प्रकार अवतार लेकर श्री हरी धर्म की व्यवस्था का निराकरण करते हैं । वे ही जगे की श्रष्टी आदी के कारण हैं । ।। ८
इस प्रकार आदी आग्नेय महापुराण मे ' बुद्ध तथा कल्कि -इन दो अवतारो का वर्णन नामक सोलहवा अध्याय समाप्त हुआ ।। १६ । ।
लेकिन फ़िर सच क्या है ? क्या यह ब्राहम्ण्वादी मानसिकता का बौद्ध दर्शन को सोखने की एक चाल थी ? संभवत: यह ही सच है !! मगर कैसे ? श्री आलोक कुमार पाण्डेय की पुस्तक , “ प्राचीन भारत ” जो मैने अभी हाल ही मे फ़िल्पकार्ड से मँगाई थी , इस विषय पर काफ़ी प्रकाश डालती है । आलोक जी जो सन २००२ बैच के IAS हैं , उन्होने निष्पक्ष रुप से इसकी विवेचना की है । आप लिखते हैं ,
लगभग छ्ठी ई.पू. में गंगा घाटी में रहने वालों के धार्मिक जीवन मे अनेकों परिवर्तन देखने को मिले । तत्कालीन परम्परावादी ब्राहम्ण धार्मिक व्यवस्था के विरोध मे लोग उठ खडे हुये तथा आन्दोलन का स्वरुप इतना तीव्र हो उठा कि ईशवर की सत्ता तक को अस्वीकार करने वाले सम्प्रदाय एवं मत अस्तित्व में आये । तत्कालीन ग्रंथों में लगभग ६२ मुख्य और अनेक छोटे –२ धार्मिक सम्प्रदायों का परिचय मिलता है जो इस बात का परिचायक है कि धर्म की जडता के विषय मे कितना असंतोष था । ……. प्रशन उठता है कि वह कौन से कारण थे जिनके चलते इस प्रकार का धार्मिक आन्दोलन उठ खडा हुआ । इन्हें निम्म रुप से समझा जा सकता है :
१. आर्थिक २. धार्मिक ३. सामाजिक ४. राजनैतिक
सम्भवत: नास्तिक सम्प्रदाओं के उदय के पीछे सबसे महत्वपूर्ण कारण आर्थिक ही थे । यह शती लोहे के उपकरणों के कृषि मे प्रयोग होने की शती थी । हाँलाकि इसके पूर्व लोहे का ज्ञान हो चुका था किन्तु ज्यादतर वे शास्त्रास्त्रॊं में प्रयुक्त होते थे । ……लौह उपकरणो के ज्ञान से विस्तूत मैदानों की प्राप्ति हुई । इस विस्तूत मैदान पर अब गहन कृषि प्रारम्भ हुई जिससे एक वर्ग को खाध सामग्री की चिन्ता से मुक्ति मिली और वे व्यापार , वाणिज्य और शिल्प कलाओं मे लग गये । …खेती के लिये पशुओं की आवशयकता पडी । विशेष रुप से उन पशुओं की जो कृषि के काम आते थे जबकि ब्राहम्ण धर्म की कर्मकाण्डीय यज्ञ परम्परा मे बलि दी जाती थी । इससे एक धार्मिक द्धंदं खडा हुआ । कृषक वर्ग और शिल्प या वाणिज्य से जुडे हुये लोगों ने ब्राहम्णीय परम्परा का विरोध किया ।
राम शरण शर्मा के अनुसार , “ वैदिक प्रथानुसार पशु अंधाधुंध माए जा रहे थे , यह खेती की प्रगति मे बाधक हुआ । यदि नई कृषि मूलक अर्थव्यवस्था को बचाना था तो पशुधन को संचित करना आवाशयक था । ” इस समय जितने भी नास्तिक संप्रदाओं ने पनपना प्रारम्भ किया सबने ब्राहम्णीय व्यवस्था का विरोध किया । इन सबमें बौद्ध और जैन धर्मों का स्वर सर्वाधिक तीव्र था । इन संप्रदाओं ने पशुओं को सुखदा और अन्नदा कहा और उनके वध का विरोध किया ।
यह समय व्यापार , वाणिज्य एवं नगरीय क्रांति का समय था । ६००-३२३ ई.पू. में लगभग ६२ नगरों का अस्तित्व था । व्यापार वाणीज्य से प्राप्त धन को एकत्र कर के वैशय वर्ग ने अपने निवास नगरों मे बनाये ।….. व्यापारियों ने निरंतर ब्राहम्णीय व्यवस्था का विरोध किया । एक अन्य कारण वैशव वर्ग का इन सम्प्रदाओं की ओर आकर्षित होना था क्योंकि व्यापार से इस वर्ग ने अकूत धन प्राप्त कर लिया था जब्कि हर तरफ़ महत्ता ब्राहम्णॊ की थी वह इस समृद्ध वर्ग को स्वीकार नही हुआ । अनाथपिण्डक , घोषित जैसे विभिन्न श्रेषठियों ने इसी कारण बौद्ध/जैन सम्प्रदाओं को मुक्त हस्त दान दिया । ऋण का कार्य ब्राहम्णीय परम्पराओं मे दूषित कार्य कहा गया था जबकि यह वैशवों तथा व्यपारियों का मुख्य कार्य था ।…. इन सबके अतिरिक्त नास्तिक सम्प्रदाओं का उदय चूँकि ब्राहम्णीय परम्परा के विरुद्ध हुआ था इसी कारण उनकी सहानुभूति हर उस वर्ग के प्रति थी जो आर्थिक रुप से कमजोर था और इसी कारण इन समस्त वर्गॊ ने तन , मन और धन से इन सम्प्रदाओं के वर्धन हेतु कार्य किया । इन सम्प्रदाओं का ऐसा दृष्टिकोण बुद्ध के उस कथन से मिलता है जिसमे उहोने कहा कि , “ कृषकों को बीज , श्रमिकों को उचित पारिश्रमिक और व्यवसासियों को धन देना चाहिये । “
धार्मिक कारणॊं के चलते हुये भी जैन/ बौद्ध सम्प्रदाऒ के उदय को बल मिला । ब्राहम्णीय व्यवस्था , देवों की कृपा को मानवों के शुभ के लिये आवशयक मानती थी । देवों को प्रसन्न करने के लिये विभिन्न उपाय किये जा रहे थे जो अब कर्मकाण्डॊं में बदल गये थे और जटिल से जटिलतर होते जा रहे थे । वैदिक ऋचाओं का स्थान मंत्रों ने ले लिया था तथा मंत्रों के माध्यम से देवों को वश मे करने की बात कही जा रही थी जो मंत्रों का ज्ञान नही रखते थे , वे अब जादू टोने तथा तंत्र मंत्रों का सहारा लेने लगे थे । समाज का निम्म वर्ग इनके चक्कर मे फ़ँस कर भट्काव की स्थिति मे था । यह एक असंतोष का कारण बना ।पशु बलि और यज्ञीय कर्म कांडं वे दूसरे तत्व थे जो सामान्य जनता को कष्ट ही देते थे । अनेक श्रोत यज्ञ कई –२ वर्षॊं तक चलते थे जिसमें यज्ञ कराने वाले को अनेकों दास – सासियाँ उपहार स्वरुप प्रदान की जाती थी । जहाँ पहले ६ ऋषियों द्वारा यज्ञ कराया जाता था , उत्तर वैदिक काल मे आगे चलकर इनकी सँख्या १६ हो गयी थी | दूसरी ओर नास्तिक सम्प्रदाऒ ने सदैव इसका विरोध किया । बुद्ध ने कहा , “ ब्राहम्ण , लकडी नही अपितु आन्तरिक ज्योति जला । “
सामाजिक कारणॊं का भी नास्तिक सम्प्रदाओं के उदय मे महती योगदान था । तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में चार वर्णॊं की स्थापना पूर्णरुपेण हो चुकी थी तथा ब्राहम्ण एंव छत्रिय , दो सामाजिक उच्च वर्णॊ में सम्मलित थे जबकि वैशय एवं शूद्र को महत्व प्राप्त नही था । इस प्रकार समाज दो वर्गों मे विभाजित हो चुका था :
१. गैर उत्पादक वर्ग : ब्राहम्ण , छत्रिय
२. उत्पादक वर्ग : वैशय , शूद्र
समाज के उत्पादक वर्ग होते हुये भी उचित सम्मान न हो पाने के कारण वैशय एंव शूद्र वर्गों मे असंतोष व्याप्त था । इतना ही नही समाज का वर वर्ग जो उत्पादन मे कही शामित ही नही था सर्वाधित उपभोग करता था तथा इसे इसके पशचात अनेकों विशेषधिकार मिले हुये थे । तत्कालीन साहित्य से ज्ञात होता है कि गौतम , आपस्तंब आदि ऋषियों ने ऐसी व्यवस्था बनाई थी कि ब्राहम्ण वर्ग को सर्वाधिक घोर अपराध करने पर भी सबसे कम द्ण्ड मिलता था । वैशव वर्ग व्यपार – वाणिजय के फ़लस्वरुप अत्याधिक संपदा एकत्रित कर चुका था किन्तु उसे भी उचित आदर प्राप्त नही होता था । “ महाजनी , ऋण आदि जैसे कार्यों को ब्राहम्णीय व्यवस्था मे अपमान की दृष्टि से देखा जाता था “ राम शरण शर्मा
शूद्रों की दशा तो अत्यन्त खराब थी । शूद्र वध जैसे अपराध के लिये भी अपराधी को वही दण्ड दिया जाता था जो कौवे , उलूक आदि की हत्या के लिये दिया जाता था । मातंग जातक एवं चित्तसंभूत जातकों मे दी हुई कथायें शूद्रॊं पर होने वाले अत्याचारों का वर्ण करती है । नास्तिक सम्प्रदाय ने इन सबका प्रबल विरोध किया । जहाँ एक ओर वैशवों के ऋण , महाजनी एवं दास सम्बन्धी अधिकारों को मान्यता दी , वही बौद्ध धर्म ने सभी वर्णॊ के लिये अपने दरवाजे खोल दिये । सामाजिक संदर्भ में भी बुद्ध ने जातिवाद का घोर विरोध किया , वस्तुत: तपस्सु एवं भाल्लुक जैसे शूद्रॊ को बुद्ध ने संघ मे प्रथम प्रवेश दिया । विभिन्न धार्मिक पाखंडो एवं यज्ञीय कर्मकांडो का उन्होने विरोध किया तथा सरल और आडम्बररहित मार्ग का प्रतिपादन किया । बुद्ध ने अपने सिद्धांत पालि भाषा मे दिये जो जनसामान्य एवं लोकोन्मुखी स्वरुप को दर्शाता है । बुद्ध ने कर्मकांडो का विरोध करने के पीछे मुख्य तर्क यह दिया कि समाज मे जन्म के अनुसार कोई उच्च या निम्म नही होता है । उच्चता का निर्धारण कर्म से होता है । इसी प्रकार ब्राहम्ण एवं छत्रियों ने भी नास्तिक सम्प्रदाओं जैसे बौद्ध एवं जैन सम्प्रदाओं का सहयोग किया ।
आशर्चजनक तथ्य यह कि बुद्ध जिन उच्च जातियों के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे संघ मे सम्मिलित होने का उनका प्रतिशत सर्वाधिक था यथा -
भिक्षुओं का जातीय आधार ( विनय एवं सुत्त पिटक के आधार पर ) साभार : श्री आलोक पान्डॆ
जाति आवृति प्रतिशत छत्रिय 706 51.5% ब्राहम्ण 400 29.1% वैशव 155 11.02% शूद्र 110 8.3%
राजनैतिक कारणो का नास्तिक सम्प्रदाओं के उदय मे दो प्रकार से सकरात्मक उपयोग रहा ।हाल ही में रिलीज हुई “ OH MY GOD “ जिन्होने देखी हो वह आसानी से समझ सकते हैं कि अवतार कैसे और क्यूं बनाये जाते हैं । फ़िल्म में परेश रावल ( कांजीलाल की भूमिका में ) जब ईशवर के होने या न होने पर प्रशन खडा करता है , धर्म के नाम पर धन्धा कर रहे धंधेवाजों की जब पोल खोलने लगता है तो अंत मे वही दुकान चलाने वाले उसको ही अवतार घोषित कर देते हैं । देखिये एक झलक OH MY GOD से
१. ब्राहम्ण –राजन्य द्धंद
२. गणराज्यों का स्वतंत्र वातावरण
ब्राहम्ण एवं क्षत्रिय राजन्य वर्ग के मध्य उत्तरवैदिक काल से द्धंद आरम्भ हो चुका था । प्रवाहण्जाबालि , अशवपति तथा मिथिला के विदेह जैसे विद्धान ने कई ब्राहम्णॊ को ज्ञान के स्तर पर पिछाडा था । परिस्थितियाँ ऐसी थी कि ब्राहम्ण हर ओर से लेने वाले थे जबकि क्षत्रियों को देना भी पडता था ऐसी स्थिति में द्धंद सामने जब आया तो वास्तविक शक्ति क्षत्रियों को देकर ब्राहम्ण ने आदरसूचक प्रथम स्थान ले लिया । ऐसी स्थिति में नास्तिक संप्रदाओं ने राजन्य वर्ग का पक्ष लिया और इसी कारण इस वर्ग का समर्थन हासिल किया । अजातशत्रु , बिम्बसार , प्रसेनजित और आगे चलकर अशोक आदि का समर्थन बौद्ध एंव जैन धर्मॊ को न मिला होता तो इन धर्मॊ का वास्तविक रुप कुछ और ही होता ।
बुद्ध को अवतार साबित करना महज एक दिखावा और ढोंग है , सच तो यह है कि बुद्ध धम्म और हिंदू धर्म में कही दूर दूर तक कोई समानता नही है , हाँ समानता है कि हिन्दू , जैन , सिक्ख और चार्वाक दर्शन की तरह बुद्ध धम्म का दर्शन भी भारत की गौरवशाली पंरपरा से ही उत्पन्न हुआ है . यह विदेशी संस्कृतियों की तरह किसी को जबरन या लालचवश धर्मातरण पर मजबूर नही करता , किसी के ऊपर बिलावजह अत्याचार करने की अनुमति नही देता , हाँ कुछ सोचने को मजबूर अवशय करता है । यह आप पर निर्भर करता है कि अपने द्धीप आप स्वंय बनना चाहते हैं या दूसरे के सहारे अपनी नैया पार करना चाहते हैं ।
अप्प दीपो भव ! ( अपना प्रकाश स्वयं बनो )
Be your own LAMP !
Realize yourself and the World !!
Very Good, Eye opening Article. Can I get copy of that book, Do u have softcopy of this book??
ReplyDeleteI liked this article, Can I publish on SAMAYBUDDHA Blog?
great post . sharing it on google & FB .
ReplyDeleteDear Sir,
ReplyDeleteI belief you don't have complete knowledge about let me tell you the real fact.
Bhagwan Budha, Bhagwan Vishnu/Krishna ke hi avatar hai. Par unhe kisi hindu mandir me kyon sthapit nahi kiya jata hai ye batata hu. Bhagwan Budha jab gyan bant rahe tab hindu dhram ke kuch samuday Kali Devi ko bali de kar prasad swaroop maans(meat) ka sevan kar rahe the, Bhagwan Budha ne jab eska ka karan janane ka prayatn kiya to unhe gyat hua ki Vedas me esa hi varnan hai ki aap Maa Kali ko bali chada kar Bakre, aadi ka maans kha sakte hai.
Par Bhagan budha kehte hai hame kisi anya Jeev ki hatya ka koi hak nahi, balki hame unhe pyar karna chahiye.
Ab me aata hu mudde ki bat par, Sabhi HIndu mandir Vedas ko mante hai aur uska aachran karte hai. Bhagwan Budha ne yah sab dekh kar kaha Vedo ka palan mat kijiye, to unke anuyayi bhi unke bataye marg par chal rahe hai aur koi Vedas ka palan nahi karta. Kyonki Bhagwan Budha aur unke bhakt "Vedas" ko nahi mante esliye kisi hindu mandir me unki murti nahi milti hai.
Warm Regards
Lord Buddha is one who on which whole universe to be trying to continue but some religious like Hindu says that lord Buddha is carnation of Vishnu..but is totally false propaganda because Hinduism is nothing it is zero ..totally depends on blind faith...Hinduism aborb all credit of the great man lord Buddha...
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