Saturday, February 9, 2013

धम्मपद ( बुद्ध वचनावली ) – डां महीपाल सिंह ‘महीप ’

कुछ माह पूर्व मेरे परम मित्र डां प्रवीण गोस्वामी द्वारा बोद्ध गया से भेजा गया एक पार्सल प्राप्त हुआ । उस पार्सल में कुछ आडियो-वीडियो कैसेट , कुछ पुस्तकें और बोधि वृक्ष के कुछ सूखाये गये पत्ते थे । एक पुस्तक जिस पर मेरा ध्यान कुछ दिन पूर्व गया वह डां महीप पाल सिंह की बेहद अमूल्य कृति ‘ धम्मपद ’ थी । डां महीप सिंह जी ने  धम्मपद की गाथाओं को  सरल दोहों मे बाँधने का प्रयास किया है  । डां महीप सिंह् जी  की कृति को अमूल्य  ही कहूँगा क्योंकि इतना  सहज पाठान्तर  मैने बहुत  कम देखा । लेकिन आशचर्य मुझे इसलिये हुआ क्योंकि हिन्दी साहित्य मे इस कृति का नाम कही भी मुझे ढूँढे न मिल पाया ।
वैसे धम्मपद का हिन्दी अनुवाद का प्रयास काफ़ी विद्धानों ने किया है , कमेन्ट्री के रुप   मे ओशो की पुस्तक ‘ एस धम्मो सनानतनो ’ निर्वाद रुप से प्रथम स्थान रखती है ।   इसलिए यह कहना कि  हिन्दी जगत ‘ धम्मपद’ के सम्यक वचनों से अनभिज्ञ है, यह गलत होगा  , परन्तु जन साधारण की समझ से परे अवशय है । यही कारण है कि धम्मपद के अनुपम छ्न्द संत कबीर और तुलसी के दोहो की भाँति हिन्दी भाषी जन समाज में लोक प्रचलित न हो पाये । ’‘ धम्मपद’ के शलोकों का सरल हिन्दी के पधों मे अभाव भी इसका एक कारण है । अनुवादक ने इसी कमी को पूरा करने का प्रयास किया है । सम्यक प्रकाशन से प्रकाशित यह पुस्तक वास्तव मे अमुल्य है । एक बानगी  देखें :
१.
मनोपुब्बङ्गमा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया।
मनसा चे पदुट्ठेन, भासति वा करोति वा।
ततो नं दुक्खमन्वेति, चक्‍कंव वहतो पदं॥
मन अगुआ है प्रवृति का , और वही आधार ।
मन ही से होता सदा , प्रवृति का संचार ॥
दूषित मन-वच-कर्म के , दुक्ख चलै अनुसार ।
चलता वाहन-चक्र ज्यों , बैलनु पाँ पिछार ॥
२.
मनोपुब्बङ्गमा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया।
मनसा चे पसन्‍नेन, भासति वा करोति वा।
ततो नं सुखमन्वेति, छायाव अनपायिनी [अनुपायिनी (क॰)]॥
अगुआ मन हर प्रवृति का , और वही आधार ।
मन्ही से होता सदा , प्रवृति का संचार ॥
शुद्ध कर्म मन वचन के , सुख चलता अनुसार ।
छाया जैसे मनुज की , साथ हरै हर वार ॥
१२१.
मावमञ्‍ञेथ [माप्पमञ्‍ञेथ (सी॰ स्या॰ पी॰)] पापस्स, न मन्तं [न मं तं (सी॰ पी॰), न मत्तं (स्या॰)] आगमिस्सति।
उदबिन्दुनिपातेन, उदकुम्भोपि पूरति।
बालो पूरति [पूरति बालो (सी॰ क॰), आपूरति बालो (स्या॰)] पापस्स, थोकं थोकम्पि [थोक थोकम्पि (सी॰ पी॰)] आचिनं॥
 ‘ पाप न आये मम निकट ’ अपने मन यूं धार ।
पाप कर्म कूँ जानि कें , करै नही सत्कार ॥
टपकति पानी बूँद ज्यों , घडा भरे केहि काल ।
नैक-नैक त्यों पाप अपि , संचित करले बाल ॥
१२९.
सब्बे तसन्ति दण्डस्स, सब्बे भायन्ति मच्‍चुनो।
अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये॥
दुखी होंइ सब दण्ड सूँ , होंइ मौत सब भीत।
त्रासै नहिं, नहिं वध करै , समुझि आत्मवत मीत ॥
१४६.
को नु हासो [किन्‍नु हासो (क॰)] किमानन्दो, निच्‍चं पज्‍जलिते सति।
अन्धकारेन ओनद्धा, पदीपं न गवेसथ॥
जलै जहाँ जब नित्य तौ, कहँ आनन्द हुलास ?
तम में तुम खोजत न किमि , दीप जु देत प्रकाश ॥
८३.
सब्बपापस्स अकरणं, कुसलस्स उपसम्पदा [कुसलस्सूपसम्पदा (स्या॰)]।
सचित्तपरियोदपनं [सचित्तपरियोदापनं (?)], एतं बुद्धान सासनं॥
कुशल पुन्य संचय करै ,करै पाप नहिं लेश ।
शुद्ध करै निज चित्त कूँ , यही बुद्ध उपदेश ॥
१८५.
अनूपवादो अनूपघातो [अनुपवादो अनुपघातो (स्या॰ क॰)], पातिमोक्खे च संवरो।
मत्तञ्‍ञुता च भत्तस्मिं, पन्तञ्‍च सयनासनं।
अधिचित्ते च आयोगो, एतं बुद्धान सासनं॥
संयम रखै प्रातिमोक्ष में , न निन्दा करै न घात ।
सन्तुलित भोजन करै , बास मध्य एकान्त ॥
चित्त लगायै योग में , डिगै न कबहू लेश ।
एहि विधि के सब होत हैं , बुद्धनु के उपदेश ॥

2 comments:

  1. इस महान कार्य क लिए बहुत बहुत आभारी हुँ ।

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