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मिन्डोलिग स्तूप , देहरादून जाने का मौका मुझे दो बार मिला । सन् २००८ में सपरिवार और उसके उपरांत २०१० मे अकेले ही अपने पुत्र आयुष के साथ । स्तूप या चैत्य मुझे सम्मोहित करते रहते हैं । इसका शायद एक कारण इन स्तूपों से मिलने वाली सकरात्मक उर्जा है । कहते हैं कि इन स्तूपों का प्रयोग पवित्र बौद्ध अवशेषों को रखने के लिए किया जाता रहा है। माना जाता है कभी यह बौद्ध प्रार्थना स्थल होते थे। महापरिनर्वाण सूत्र में भगवान् बुद्ध अपने शिष्य आनन्द से कहते हैं- "मेरी मृत्यु के उपारांत मेरे अवशेषों पर उसी प्रकार का स्तूप बनाया जाये जिस प्रकार चक्रवर्ती राजाओं के अवशेषों पर बनते हैं- (दीघनिकाय- १४/५/११)। ” स्तूप समाधि, अवशेषों अथवा चिता पर स्मृति स्वरूप निर्मित किया गया अर्द्धाकार टीला होता है जिसे चैत्य भी कहा जाता है ।
अगर आप देहरादून जा रहे हों तो क्लेमेंट टाउन जाना न भूलें । प्राकृतिक परिवेश के मध्य स्थित देहरादून पर्यटकों को कई तरह से आकर्षित करता है । अन्य कई आकर्षणॊं के अलावा देहरादून के तिब्बती समुदाय ने सन् १९६५ मे एक तिब्बती मठ की प्रतिकृति के रूप में बुद्ध मंदिर का निर्माण किया था । कहते हैं कि यह स्तूप एशिया का सबसे बडा स्तूप है । इसकी ऊँचाई १८५ फ़ुट और चौडाई १०० वर्ग फ़ुट है । यह स्तूप बौद्ध कला और स्थापत्य कला का एक शानदार उदाहरण है.
स्तूप के मुख पर मैत्र बुद्ध या शक्यमुनि भगवान बुद्ध को खूबसूरती के साथ चित्रित किया गया है । देखें नीचे चित्र में
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लगभग २ एकड वर्ग मे फ़ैले परिसर में प्रवेश करने पर हमें वीणा धारण किये हुये एक मूर्ति का दर्शन होता है । एक बार तो हिंदू धर्म में आराध्य माँ सरस्वती को देखकर विस्मय मे पड जाता हूँ लेकिन स्थानीय लामा से मालूम पडता है कि यह तिब्बती कल्चर मे पूज्य माँ मञ्जुश्री का रुप है जो माँ सरस्वती के अनुरुप ज्ञान और सहचरी की देवी मानी जाती हैं । कहते हैं कि त्रिपिटक को कंठस्थ कराने के लिये भिक्खू जन अपने सह भिक्खूओं को माँ मञ्जुश्री के माध्यम का प्रयोग करते थे ।
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अब हम स्तूप के अन्दर प्रवेश कर रहे हैं । इस इमारत में कुल पांच मंजिलें है ; स्तूप का भूतल तिब्बती गुरु पद्मसंभव को समर्पित है , भूतल की दीवारॊ पर अति सुन्दर भित्तीय चित्र निर्मित हैं जो गुरु पद्मसंभव की जीवन कहानी को दर्शाती है.
इस इमारत का प्रथम तल शाक्यमुनि भगवान् बुद्ध को समर्पित है , यहाँ भी दीवारों पर सुन्दर भित्तीय चित्रों और जातक कथाओं के माध्यम से बुद्ध की जीवनी को चित्रित किया गया
है ।
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मंजिल का दूसरा तल शाइन कक्ष के रुप मे जाना जाता है । यह तल मिन्ड्रोलिंग मे महान शासकों को समर्पित है ।
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मिन्डोंलिग मन्दिर के परिसर का आकर्षण बुद्ध की विशाल मूर्ति है ।यह मूर्ति लगभग 103 फुट ऊची है और लगभग 10 साल पहले इसका निर्माण किया गया था ।यह तिब्बती समुदाय के आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा को समर्पित है । यहाँ कई मोनेस्ट्री भी हैं जहाँ लगभग पाँच सौ लामा अध्ययन करते हैं ।
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मन्दिर परिसर का एक और आकर्षण प्रार्थना चक्र या prayer wheel है । इसका निर्माण स्तूप के निकट किया गया है । कहते हैं कि यह प्रार्थना का पहिया सभी प्राणियों , भिक्खूओं और धर्मालंबियों के लिये सकरात्मक उर्जा का संचय करता है ।
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तिब्बती समुदाय के लिये स्वतंत्र तिब्बत एक स्वप्न की तरह ही है । देहारदून के इस मिन्डोलिग स्तूप परिसर में यह पीडा दीवारों पर अंकित देखी जा सकती है , देखें ऊपर चित्र में ।
उपर की दो मंजिले को देख न पाने का खेद मुझे दोनों बार रहा , शायद दोनों बार वह अवकाश का दिन था , संभव है मौका फ़िर कभी लगे :)
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