सातवीं संगीति भारत में!
-श्री राजेश चन्द्रा-
एक छोटी-सी घटना महान संगीति का कारण बनी।
भगवान का धम्म हेतुवादी है, अहेतुक कुछ नहीं है। संगीति का भी हेतु बना, एक छोटी-सी घटना। घटना भी नकारात्मक है लेकिन परिणाम सकारात्मक है।
भगवान के महापरिनिर्वाण का समाचार दुःख की एक महालहर की तरह चारो तरफ फैला था। जो कोई भी यह समाचार सुनता अपार दुःख से भर जाता, लेकिन सुभद्र नाम का एक व्यक्ति यह समाचार सुनते ही मारे खुशी के झूमने-सा लगा और बड़े प्रफुल्लित स्वर में कहने लगा- अच्छा हुआ कि बुड्ढा मर कर गया, हर समय 'यह करो-यह न करो' किया करता था, अब हमारा अनुशासन करने वाला कोई न रहा, अब हम स्वतंत्र हैं, अब जो मन में आए वह करो...
यह स्वर महाकाश्यप के कान में पड़े। यह घटना ई.पू.563 की है जब कुशीनगर में भगवान महापरिनिर्वाण को उपलब्ध हुए।
सुभद्र के शब्द सुनकर महाकाश्यप का मन हाहाकार कर उठा- अरे, अभी भगवान का महापरिनिर्वाण हुए एक सप्ताह भी नहीं हुआ और ऐसी लोकप्रतिक्रिया! कुछ काल के बाद तो लोग भूल ही जाएंगे कि भगवान इस धरती पर थे भी, भगवान का धम्म क्षीण हो जाएगा। धम्म के चिरस्थायित्व के लिए कुछ करना होगा...
बस इस संकल्प से प्रेरित हो कर महाकाश्यप ने संगीति का आह्वान किया ताकि भगवान के वचनों को संरक्षित किया जा सके क्योंकि परिनिर्वाण के समय भगवान के ही वचन थे- धम्म ही धम्म का उत्तराधिकारी होगा...
सुभद्र को पता भी नहीं होगा कि उसके अपवचनों ने भगवान के सद्वचनों को संरक्षित करने का हेतु बना दिया है। सकारात्मक व्यक्ति नकारात्मक से भी सकारात्मकता को जन्म दे लेता है।
प्रथम संगीति
महाकाश्यप के आह्वान पर भगवान के परिनिर्वाण के तीन माह उपरांत पहली संगीति का आयोजन राजगृह(राजगीर) की सप्तपर्णी गुफ़ा में हुआ जिसमें पांच सौ अरहत एकत्रित हुए। संगीति में पहला ही प्रश्न खड़ा हो गया कि भगवान के वचनों को संरक्षित करने की शुरुआत कहाँ से की जाए क्योंकि उस संगीति में सम्मिलित हर व्यक्ति भगवान को व्यक्तिगत रूप से जानता था, हर किसी के पास भगवान से जुड़ा अपना प्रसंग, अपना संस्मरण था। हर व्यक्ति अपना अनुभव बताने को तत्पर था। तब महाकाश्यप को भगवान के वचनों ने ही मार्ग सुझाया- विनयानामबुद्धसासनस्सआयु- विनय ही बुद्ध शासन की आयु है अर्थात जब तक विनय रहेगा तब तक बुद्ध शासन रहेगा।
तय हुआ कि सर्वप्रथम विनय का संगायन होगा। इस प्रकार सर्वप्रथम विनयपिटक का संगायन हुआ। अरहत उपालि ने विनय का संगायन एवं सत्यापन किया। फिर सुत्त पिटक का संगायन व सत्यापन अरहत आनन्द के द्वारा हुआ।
प्रथम संगीति में अभिधम्म का प्रथक अस्तित्व नहीं आया था। अभिधम्म सुत्त में ही अन्तर्निहित था।
यह संगीति सात माह चली। सम्राट अजातशत्रु ने इस संगीति का पोषण किया।
दूसरी संगीति
पहली संगीति के सौ साल के बाद दूसरी संगीति का आयोजन हुआ, ई. पू.463 में, वैशाली में, सम्राट कालाशोक के शासनकाल में, बालुकाराम विहार में। इसकी अध्यक्षता अरहत सब्बकामी ने की जिनकी आयु उस समय 120 साल थी और उपाध्यक्ष आचार्य रेवत थे। अरहत सब्बकामी ने पहली संगीति में भी सम्मिलित थे। अरहत आचार्य रेवत भी इस संगीति के वरिष्ठ प्रतिनिधि थे। यह संगीति एक तरह से सिर्फ विनय संगीति थी क्योंकि वैशाली के वज्जिपुत्तक संघ द्वारा विनय की मनमानी व्याख्या करके धन-सम्पत्ति इकट्ठा की जाने लगी थी, उपासकों की श्रद्धा का शोषण किया जाने लगा था। तब काकण्डपुत्त यश के प्रयत्नों से वरिष्ठ धम्मज्ञ अरहतों की परिषद आमंत्रित की गयी और विनय को पुनर्स्थापित किया गया। इस संगीति में सात सौ भिक्खु सम्मिलित हुए इसलिए इसे सप्तशतिका संगीति भी कहते हैं।
संंगीति में होता क्या है? भगवान के वचनों की एक-एक पंक्ति को पूरी परिषद के द्वारा संगायन किया जाता है। काल की लम्बी अवधि में यदि अर्थ, व्यंजन, उच्चारण में कोई दोष आ गया है तो उसे संशोधित किया जाता है। संशोधन को वरिष्ठ अरहत के द्वारा सत्यापित किया जाता है, संघ का अनुमोदन प्राप्त किया जाता है।
पहली संगीति में हिस्सा लेने वाले सारे के सारे भिक्खु अरहत थे। दूसरी संगीति के वरिष्ठ भिक्खु भी अरहत थे। यह भी एक मानक है कि संगीति संगायन हमेशा किसी अरहत की अध्यक्षता में होता है। अरहत की अध्यक्षता में भगवान बुद्ध के वचनों का महीनों तक संगायन एक महान आध्यात्मिक घटना भी है। पुण्य पारमिता से परिपक्व श्रद्धालु उपासक-उपासिकाओं को धम्म सेवा, भोजन दान, चीवर दान, औषधि दान, अष्टपरिष्कार दान का पुण्य अवसर मिलता है। इस घटना की आध्यात्मिक आभा सैकड़ों वर्षों तक परिवेश में व्याप्त रहती है। भगवान के वचन हैं- जहाँ श्रमण रमण करते हैं वही भूमि रमणीय है।
तीसरी संगीति
संगीति के इतिहास में तीसरी संगीति स्वर्णिम घटना है।
ई. पू.326 में पाटलिपुत्र में आयोजित इस संगीति का पोषण महान सम्राट अशोक के द्वारा किया गया। इसकी अध्यक्षता सम्राट अशोक के गुरू अरहत मोगलिपुत्त तिस्स के द्वारा की गयी। यह संगीति नौ माह तक चली। इसमें एक हजार भिक्खुओं ने प्रतिभाग किया। भगवान के महापरिनिर्वाण को लगभग सवा दो सौ साल बीत चुके थे। बुद्ध धम्म के नाम पर अनेक मिथ्या मतों का उदय हो गया था। यश-कीर्ति-धन के लोभ में अनेक दुःशील लोग संघ में प्रविष्ट हो गये थे, वे संघ को अन्दर से दूषित कर रहे थे।
संगीति अध्यक्ष मोगलिपुत्त तिस्स ने मिथ्या मतों का खण्डन करते हुए 'कथावत्थु' नामक ग्रन्थ का संकलन किया और इसी संगीति में अभिधम्म पिटक स्वतंत्र अस्तित्व में आया।
संगीति के समापन पर सम्राट अशोक के द्वारा अरहत भिक्खुओं के नेतृत्व में नौ परिषदें पूरी दुनिया में बुद्धवाणी के प्रचार के लिए रवाना की गयीं तथा श्रीलंका को स्वयं अपने पुत्र-पुत्री अरहत महेन्द्र और थेरि संघमित्रा को भेजा। इस संगीति के बाद बुद्ध धम्म सम्पूर्ण दक्षिण पूर्व एशिया में फैल गया। एक तरह से विश्व पर भारत की यह धम्म विजय थी।
चौथी संगीति
इतिहास में चौथी संगीति के रूप में दो संगीतियां दर्ज़ हैं। एक ई. पू. 29 में सम्राट वट्टगामिनी के काल में श्रीलंका में और दूसरी सम्राट कनिष्क के काल में ईस्वी 80 में कश्मीर के कुण्डलवन में। यद्यपि कि श्रीलंका की संगीति की अधिक मान्यता है क्योंकि इसमें थेरवादी भिक्खुओं ने हिस्सा लिया था। थेरवादी परम्परा श्रीलंका की संगीति को ही चौथी संगीति मानती है। श्रीलंका की इस संगीति में पांच सौ थेरो ने प्रतिभाग किया था तथा इसकी अध्यक्षता महाथेर रक्खित ने की थी।
ईस्वी 80 में भारत में सम्राट कनिष्क के काल में कश्मीर के कुण्डलवन आयोजित संगीति की अध्यक्षता आचार्य वसुमित्र ने की थी तथा उपाध्यक्ष आचार्य अश्वघोष थे जिन्हें बुद्ध का प्रथम जीवनीकार माना जाता है- बुद्धचरित। एक तरह से संगीति की परम्परा को जीवित रखने का भारत में यह अंतिम प्रयास था।
तीसरी संगीति तक बुद्ध वचन श्रुत परम्परा से संरक्षित रहे। श्रुत परम्परा अर्थात मौखिक परम्परा। सुत्तधर वरिष्ठ भिक्खु अपने शिष्यों को सुत्तों का सस्वर पाठ कराते हैं। समस्त संघ उसकी समवेत स्वर में पुनरावृत्ति करता है। पूर्णिमा-अमावस्या-कृष्णपक्ष अष्टमी- शुक्लपक्ष अष्टमी महीने के इन चार दिनों में विशेष परिषदों में भिक्खु संघ सुत्त संगायन का विशेष अनुष्ठान करता था जिसे पातिमोक्ख परिषद भी कहा जाता था। बौद्ध देशों में यह परम्परा आज भी जीवित है।
इस श्रुत परम्परा के द्वारा बौद्ध आचार्यों ने सिर्फ शब्दों को ही संरक्षित और हस्तान्तरित नहीं किया बल्कि वह मौलिक ध्वनि, स्वर, उच्चारण का उतार-चढ़ाव-ठहराव भी संरक्षित व हस्तान्तरित किया जिस स्वर में पहली संगीति में पांच सौ अरहतों ने भगवान की वाणी का संगायन किया था। यह संगायन वातावरण में आध्यात्मिक तरंगों को जन्म देता है जिससे नकारात्मक तरंगें एवं ऊर्जा निष्प्रभावी होती है । इन तरंगों के बड़े चमत्कारिक विवरण भी इतिहास में दर्ज हैं जिन का उल्लेख करने से विषयान्तर हो जाएगा। अस्तु।
तीसरी संगीति तक बुद्ध वचन श्रुत परम्परा से संरक्षित थे और वही ध्वनि-स्वर-उच्चारण-स्वर का आरोह-अवरोह परम्परागत रूप से सदियों से आज तक कायम है, भारत में नहीं दिखता लेकिन बौद्ध देशों में इसे आज तक संजोया गया है।
सम्राट अशोक ने बुद्ध वाणी का सारी दुनिया में प्रसार कर बड़ा दूरदर्शी कदम उठाया कि यदि कभी भारत में यह परम्परा बाधित भी हो तो शेष दुनिया में बुद्ध वाणी बची रहे। और सच में कालान्तर में ऐसा ही हुआ भी। भारत से यह परम्परा लुप्त जैसी हो गयी लेकिन बौद्ध देशों में बुद्ध वचन अपने मौलिक रूप में आज भी यथावत जीवन्त हैं।
श्रीलंका की चौथी संगीति में त्रिपिटक के मौखिक संगायन के साथ एक अनूठा काम और हुआ कि त्रिपिटक को भोजपत्रों पर लिपिबद्ध किया गया ताकि बुद्ध वाणी हमेशा के लिए अपने विशुद्ध रूप में संरक्षित रह सके। धम्म के शुद्ध स्वरूप को संरक्षित रखने के लिए जितनी सजगता बौद्धों ने बरती शायद ही दुनिया के किसी अन्य सम्प्रदाय ने ऐसा किया होगा। लगभग सभी सम्प्रदायों के धर्मग्रंथों में क्षेपकों के आरोप हैं लेकिन त्रिपिटक इन आरोपों से लगभग मुक्त हैं। त्रिपिटक को शुद्ध व त्रुटिरहित रखने में बौद्धों ने बड़ा तप किया। यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि दुनिया की किसी भी धार्मिक परम्परा के पास इतना विशाल शास्त्रीय धर्म साहित्य, क्लासिकल रिलीजियस लिटरेचर, नहीं है जो बौद्धों के पास है। सम्पूर्ण त्रिपिटक इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के समस्त खण्डों से भी अधिक विशाल है।
सम्राट वट्टगामिनी के काल में ई. पू. 29 में श्रीलंका में आयोजित चौथी संगीति में पांच सौ विद्वान थेरों ने प्रतिभाग किया जिसकी अध्यक्षता महाथेर रक्खित ने की। संगायन के उपरान्त सम्पूर्ण त्रिपिटक को लिपिबद्ध करके बुद्ध वचनों को हमेशा के लिए शुद्ध स्वरूप प्रदान किया गया।
पांचवी संगीति
सम्राट अशोक की दूरदर्शिता काम आयी। बारहवीं शताब्दी के बाद से भारत से बुद्ध धम्म लुप्त-सा होने लगा लेकिन शेष बौद्ध देशों में यह अपनी सम्पूर्ण प्रभा के साथ दमकता-चमकता रहा।
सम्पूर्ण बौद्ध इतिहास का अवलोकन करें तो पाते हैं कि बुद्ध का धम्म नष्ट कभी नहीं हुआ। यदि आलंकारिक रूप से कहें तो बुद्ध धम्म सूर्य है। जब वह एक स्थान पर अस्त होता दिखता है तब ठीक उसी समय धरती के किसी दूसरे भूभाग में उसका उदय हो रहा होता है। जब भारत से बुद्ध सूर्य अस्त होता दिख रहा था ठीक उसी समय श्रीलंका, नेपाल, बर्मा, कम्बोडिया, लाओस आदि देशों में यह अपनी पूरी प्रभा के साथ चमक रहा था। इन देशों में भारत के प्रति आभार और आदर का भाव है। बौद्ध देशों के श्रद्धालुजन भारत की ओर पैर करके सोते नहीं हैं, सुबह उठ कर भारत की ओर मुख करके हाथ जोड़कर वन्दना करते हैं।
संगीति की परम्परा भारत से लुप्त-सी हो गयी लेकिन अपने गुरू देश के प्रति आभार भावना से भरे बौद्ध देशों ने इस परम्परा को पूरी शुद्धता के साथ यथावत जीवित रखा।
19वीं शताब्दी तक भारत सहित लगभग पूरा एशिया ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन हो चुका था। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के कारण भी एशिया के देशों की सांस्कृतिक धाराओं में अवरोध उत्पन्न हुए। ऐसे समय में बर्मा ने अपना आध्यात्मिक दायित्व निभाया और पांचवी संगीति आयोजित करने का संकल्प लिया। इस संकल्प की पूर्ति में संरक्षण का पुण्य लाभ बर्मा के सम्राट मिं डों मिं को मिला। भगवान की वाणी को अक्षुण्ण रखने में जिन शासकों ने संरक्षण प्रदान किया वे इतिहास में अमर हो गये।
सन् 1871 में ब्रम्हदेश अर्थात बर्मा में सम्राट मिं डों मिं के काल में पांचवी संगीति का आयोजन हुआ, मांडले शहर में। इस संगीति में दो हजार चार सौ भिक्खुओं ने प्रतिभाग किया जिसकी अध्यक्षता क्रम से पूज्य महाथेर जागराभिवंस, पूज्य महाथेर नरिंदभिधज तथा पूज्य महाथेर सुमंगल सामी द्वारा की गयी। संगीति के विवरणों को सदियों से बाकायदा लिपिबद्ध करके संरक्षित किया गया है ताकि प्रमाण व प्रेरणा अगली पीढ़ियों को सौंपा जा सके।
पांचवी संगीति में सम्राट मिं डों मिं ने सबसे बड़ा पुण्यार्जन यह किया कि उन्होंने समस्त बुद्ध सुत्तों को, सम्पूर्ण त्रिपिटक को, संगमरमर की पट्टिकाओं पर उकेरवा दिया और पूज्य संघ के द्वारा संगायन करते हुए उन पावन शिलाओं का लोकार्पण किया गया। वह स्थान आज एक पावन तीर्थ है। शिला पट्टिकाओं पर अंकित हो जाने से बुद्ध वचनों को परिशुद्ध अवस्था में संरक्षित रखने का महान कार्य हुआ। आज त्रिपिटक का सर्वाधिक प्रमाणिक संस्करण श्रीलंका एवं बर्मा का ही माना जाता है।
छठी संगीति
एक बात रेखांकित किये जाने लायक है कि संगीति जब भी होती है तो अध्यक्षता किसी मान्य अरहत के द्वारा ही होती है। पुण्यशाली है वह काल जब संगीति होती है और पुण्यवान हैं वो लोग जो इस महान घटना के साक्षी व सहभागी बनते हैं, अरहत के दर्शन करते हैं। श्रोतापन्न, सकृतगामी, अनागामी, अरहत अवस्था प्राप्त एवं मार्गगामियों की सेवा करने व उन्हें दान का पावन अवसर मिलता है। संगीति आयोजन एक आध्यात्मिक घटना है।
इतिहास में छठी संगीति के आयोजन का श्रेय भी ब्रम्हदेश अर्थात बर्मा को जाता है। छठी संगीति कई मायनों में अनूठी है।
पूर्व की पांच संगीतियां राजकीय संरक्षण में हुईं अर्थात उनका पोषण राजाओं द्वारा किया गया। छठी संगीति पहली बार एक लोकतांत्रिक सरकार के संरक्षण में हुई जिसके प्रधानमंत्री ऊ नू थे।
सन् 1954 में शुरू हुई संगीति दो साल के उपरान्त सन् 1956 में मई माह में बुद्ध पूर्णिमा के दिन सम्पन्न हुई। उस समय तक भी बर्मा ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन ही था इस कारण पहली बार पश्चिमी देशों के लोग भी इस महान घटना के साक्षी बने। इसमें बर्मा के अतिरिक्त श्रीलंका, थाईलैंड, कंपूचिया, भारत के भिक्खुगण मिलाकर दो हजार पांच सौ मान्य भिक्खु सम्मिलित हुए जिसकी अध्यक्षता श्रद्धेय अभिधज महारट्ठगुरू भदन्त रेवत ने की। इस संगीति में सम्पूर्ण त्रिपिटक, इसकी अट्ठकथाओं, टीकाओं आदि को मान्य आचार्यों द्वारा पुनः जांचा-परखा गया।
कदाचित बुद्ध धम्म दुनिया की अकेली धार्मिक परम्परा है जो स्वयं को आधुनिकता के साथ अद्यतन, अपडेट, करती है, इसी कारण यह कभी कालवाहि अर्थात आउटडेट नहीं होती। संगीति में मात्र बुद्ध वचनों की शुद्धता भर ही जांची-परखी नहीं जाती बल्कि बुद्ध धम्म के नाम पर नवसृजित साहित्य की भी विवेचना होती है। बुद्ध वचनों से उनका मिलान किया जाता है, जहाँ साम्य होता उस पर मुहर लगाते हैं, उसका अनुमोदन करते हैं और जहाँ विसंगति होती है उसे निरस्त करते हैं। यह सारा साहित्य अभिधम्म का अंग बनता है। विनय और सुत्त यथावत रहते हैं।
छठी संगीति में, जो कि दो साल तक चली, बर्मा की मूल लिपि म्रंम लिपि में सम्पूर्ण त्रिपिटक को मुद्रित कराया गया। यह संगीति बर्मा की धरोहर हो गयी।
छठी संगीति इस मायने में भी अनूठी थी कि इसके उद्घाटन और समापन दोनों सत्रों में भारत के संविधान शिल्पी डा. बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर सम्मिलित हुए। यहीं पर पूज्य संघ द्वारा बाबा साहेब को दूसरी बार 'बोधिसत्व' कह कर सम्बोधित किया गया। इसके पूर्व श्रीलंका में 'विश्व बौद्ध भ्रातृत्व सम्मेलन' में भी पूज्य संघ द्वारा बाबा साहेब को 'लिविंग बोधिसत्व' कह कर सम्बोधित किया गया था। तीसरी बार 2 दिसम्बर'1956 को अशोका मिशन बुद्ध विहार, दिल्ली में परम पावन दलाई लामा के द्वारा बाबा साहेब को 'बोधिसत्व' सम्बोधित किया गया था। छठी संगीति में बोधिसत्व बाबा साहेब की उपस्थिति ने बुद्ध के देश भारत का सशक्त प्रतिनिधित्व किया।
बोधिसत्व बाबा साहेब ने बर्मा में प्रचलित एक लोकश्रुति सुनी कि भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के 2500 वर्षों के उपरान्त एक उपासक के द्वारा भारत से धम्म का पुनरोदय होगा। इस लोकश्रुति से प्रेरित व उत्साहित हो कर 12 दिसम्बर'1954 को वर्ल्ड इंस्टीट्यूट ऑफ बुद्धिस्ट कल्चर के डायरेक्टर डा. आर एल सोनी के कार्यालय में आल्हादित कण्ठ से उन्होंने घोषणा की- भगवान बुद्ध की 2500वीं जयंती सन् 1956 में पड़ रही है। मैंने धम्म दीक्षा का पक्का निश्चय किया है!
दो वर्षों के बाद वही संकल्प 14 अक्टूबर'1956 को नागपुर की महान धम्म दीक्षा के द्वारा फलीभूत हुआ।
नागपुर की महान धम्म दीक्षा के उपरान्त पुनः नवम्बर'1956 को श्रीलंका में बोधिसत्व बाबा साहेब ने घोषणा की- यदि दस साल और जीवित रह गया तो भारत को बुद्धमय बना दूँगा! लेकिन समय की विडंबना कि धम्म दीक्षा के दो माह भी बीतने नहीं पाए और बाबा साहेब 6 दिसम्बर'1956 को शान्त हो गये। जिस संकल्प के लिये वे दस साल का समय चाहते थे उसके लिये जिन्दगी ने उन्हें 2 महीने का भी समय नहीं दिया।
बोधिसत्व का संकल्प साधारण संकल्प नहीं होता। स्थूल काया छूट जाए लेकिन धम्मकाया सक्रिय रहती है। यह महज़ संयोग भर नहीं कहा जा सकता कि बोधिसत्व बाबा साहेब के परिनिर्वाण के ठीक पचास साल के बाद एक अनूठी घटना हुई। वर्ष 2006 में अमेरिका की महोपासिका श्रीमती वांगमो डिक्सी एवं महोपासक श्री रिचर्ड डिक्सी की पहल पर लाओस, थाईलैंड, कम्बोडिया, भारत, म्यांमार, बंगलादेश, वियतनाम, श्रीलंका, नेपाल आदि बौद्ध देशों ने मिल कर एक परिषद का गठन किया- अन्तरराष्ट्रीय त्रिपिटक संगायन परिषद- इन्टरनेशनल ट्रिपिटक चैन्टिंग काउंसिल-जिसके द्वारा बोधगया में ठीक बोधिवृक्ष की छाँव में प्रत्येक वर्ष 2 दिसम्बर से 12 दिसम्बर तक त्रिपिटक का संगायन की शुरूआत हुई । दो वर्ष के उपरान्त 10 मई'2008 में ठीक बुद्ध पूर्णिमा के दिन बर्मा के वरिष्ठ भिक्खु पूज्य यू. न्यनिन्द की अध्यक्षता में इस परिषद ने एक पंजीकृत स्वरूप धारण किया जिसका लक्ष्य बना- बुद्ध की भूमि में धम्म नाद गुंजित करना। वर्ष प्रतिवर्ष इस त्रिपिटक संगायन का निरन्तर विस्तार होता जा रहा है तथा प्रतिभागी देशों की संख्या साल-दर-साल बढ़ती जा रही है। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि त्रिपिटक संगायन में सभी निकाय एक मंच पर इकट्ठा होते जा रहे हैं- थेरवाद, महायान, वज्रयान इत्यादि सभी यान। पहले यह आयोजन दस दिन के लिए सिर्फ बोधगया में होता था लेकिन अब भारत के अन्य स्थलों पर भी इसका विस्तार होता जा रहा है यथा सारनाथ, श्रावस्ती, संकिसा, दिल्ली, कुशीनगर, राजगीर इत्यादि। पूरा भारत इस अभियान से जुड़ता जा रहा है। समन्वय सेवा संस्थान के सतत प्रयत्नों से वर्ष 2018 से लखनऊ भी इसी श्रंखला में सम्मिलित हो गया है। शेष शहरों को सम्मिलित करते हुए बोधगया का दस दिवसीय आयोजन यथावत रहता है तथा निरन्तर विशाल होता जा रहा है। यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि त्रिपिटक संगायन का यह प्रतीकात्मक आयोजन सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि समानान्तर रूप से पश्चिमी देशों में भी हो रहा है, विशेषकर अमेरिका के कई शहरों में।
आख़िर संगीति होती क्यों है? त्रिपिटक संगायन का आयोजन क्यों होना आवश्यक है? क्योंकि भगवान बुद्ध का ही आदेश है (दीघनिकाय पासादिक सुत्त):
"... ये वो मया धम्मा अभिञ्ञा देसिता, तत्थ सब्बेहेव समागम्म अत्थं ब्यञ्जनेन ब्यञ्जनं संगायितब्बं न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रम्हचरियं अद्धनियं अस्सी चिरट्ठितिकं...
-जिस धम्म को स्वयं अभिज्ञात करके मैंने तुम्हारे लिए उपदेशित किया है, सब एकत्रित हो कर उसे, अर्थ और व्यंजन सहित, संगायन करो, विवाद न करो, जिससे यह धम्माचरण चिरस्थायी हो..."
धम्म के चिरस्थायित्व के लिए भगवान के वचनों का संगायन करने का स्वयं भगवान ने ही आदेश किया है।
वर्ष 2018 में भारत में त्रिपिटक संगायन की सारणी निम्नवत है:
(1) 28-30 अक्टूबर'2018 सारनाथ में
(2) 31अक्टूबर' से 3 नवम्बर'2018 नयी दिल्ली में
(3) 4-6 नवम्बर'2018 संकिसा में
(4) 7-8श नवम्बर'2018 लखनऊ में
(5) 9-11 नवम्बर'2018 श्रावस्ती में
(6) 12-14 नवम्बर'2018 लुम्बिनी में
(7) 15-17 नवम्बर'2018 कुशीनगर में
(8) 18-21 नवम्बर'2018 वैशाली में
(9) 2-12 दिसम्बर'2018 बोधगया में
(10) 13 दिसम्बर'2018 जेठियन घाटी धम्म यात्रा
(11) 14-17 दिसम्बर'2018 राजगीर/नालन्दा में
(12) 18-22दिसम्बर'2018 उड़ीसा में
निष्कर्षतः, सातवीं संगीति भारत में आयोजित होने की भूमिका बन रही है। यह संगीति जब भी होगी इस बार बुद्ध वचनों का डिजिटलीकरण होगा। भोजपत्रों पर बुद्ध वचन संरक्षित किये जा चुके हैं, संगमरमर शिलाओं पर उकेरे जा चुके हैं, ताम्रपत्रों पर मुद्रित किया जा चुका है। अब आधुनिकतम आधार कम्प्यूटर बनेगा। इस एक घटना के होते ही न केवल भारत में बल्कि भारत को केन्द्र बना कर सम्पूर्ण विश्व में बुद्ध धम्म फैल जाएगा। भारत का जनमानस जिस विश्व गुरू के गौरव का बार-बार स्मरण करता है वह इस एक घटना के साथ पुनः प्राप्त कर लेगा।
संगीति कोई एक-दो दिन की संगोष्ठी अथवा सेमीनार नहीं होता बल्कि महीनों अथवा वर्षों का आयोजन होता है। इस बार जब भी यह महान घटना होगी तो महीनों तक पूरे विश्व की भारत पर निगाह होगी। विश्व भर में इस घटना का सीधा प्रसारण होगा, देश-विदेश के लोग इस पावन आयोजन में योगदान देने, इसमें प्रतिभाग करने श्रद्धामय मन से लोग भारत की यात्रा करेंगे। हजारों की संख्या में साफ्टवेयर इंजीनियर त्रिपिटक का समानान्तर डिजिटल रूपान्तरण कर रहे होंगे। इस बार पश्चिमी जगत के बौद्ध विद्वान भी बड़ी संख्या में इसमें शामिल होंगे और भारत विश्व की आध्यात्मिक राजधानी बन जाएगा। भारत विश्व का केंद्र बन जाएगा। इस एक आध्यात्मिक घटना का अप्रत्यक्ष राजनैतिक, आर्थिक, बौद्धिक लाभ अपने आप भारत को मिल जाएगा।
प्रश्न है कि इस बार भारत में सम्भावित संगीति के आयोजन में भारत के बौद्धों की क्या भूमिका होगी? सातवीं संगीति के भावी आयोजन में पश्चिमी जगत की सक्रिय भागीदारी होगी ही। इक्कीसवीं सदी के बौद्ध जगत की यह निर्णायक घटना होगी। भारत के नवबौद्धों की विशेष भागीदारी व भूमिका होगी। यदि भारत के नवबौद्ध आगे बढ़ कर इस आयोजन की जिम्मेदारी उठाने को तत्पर होते हैं तो उम्मीद है कि आने वाले अधिकतम दस वर्षों में यह घटना साकार रूप ले सकती है और भारत ही नहीं बल्कि विश्व बुद्धमय हो जाएगा तथा भारत में धम्म चिरस्थायी हो जाएगा जो कि भारत के बौद्धों की इच्छा भी है व प्रयास भी।
क्या आप इस अभियान से जुड़ना चाहते हैं? अपना सम्पर्क नम्बर व ईमेल तत्काल उपलब्ध कराएं। इस वर्ष के अन्तरराष्ट्रीय त्रिपिटक संगायन की विस्तृत जानकारी उपलब्ध करायी जाएगी।
श्री राजेश चन्द्रा - एक परिचय
आप एक सक्रिय समाज सेवी , धम्म प्रचारक व ध्यान प्रशिक्षक भी हैं ।
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