🍁38-महातण्हासंखय-सुत्त🍁
🍁मज्झिम निकाय (1.4.8) 🍁
👂ऐसा मैंने सुना-
🚶एक समय भगवान सावत्थि में अनाथपिण्डिक के आराम जेतवन में विहार करते थे।
👀उस समय साति केवट्टपुत्त भिक्खु को ऐसी बुरी दृष्टि (=धारणा) उत्पन्न हुई थी-
“मैं भगवान के उपदेश किए धर्म को इस प्रकार जानता हूं, कि वही विज्ञान संसरण (जन्म-मरण में जाना) करता है, संधावन (=धावन) करता है, अन्य नहीं।” ।
💔बहुत से भिक्खुओं ने सुना कि-साति केवट्टपुत्त (= केवर्त-पुत्र) भिक्खु को ऐसी बुरी दृष्टि उत्पन्न हुई है-संधावन करता है। तब वह भिक्खु जहां साति केवट्टपुत्त भिक्खु था, वहां गए। जाकर साति केवट्टपुत्त भिक्खु से यह बोले--👄
“सचमुच, आवुस साति! तुम्हें इस प्रकार की बुरी धारण उत्पन्न हुई है?-संधावन करता है!”
🙏हां आवुस!संधावन करता है।”
☝तब वह भिक्खु उस बुरी धारणा से हटाने के लिए साति केवट्टत्त भिक्खु को समझाते बुझाते समनुभाषण करने लगे --
☝"आवुस साति! मत ऐसा कहो, मत भगवान पर झूठ लगाओ। भगवान पर झूठ लगाना ठीक नहीं है। भगवान ऐसा नहीं कहते। आवुस साति! भगवान ने अनेक प्रकार से विज्ञान को प्रतीत्य समुत्पन्न (कार्य-कारण से उत्पन्न) कहा है। प्रत्यय (=हेतु)के बिना विज्ञान (=चेतना) का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता।”
💥इस प्रकार उन भिक्खुओं द्वारा समझाए बुझाए जाने पर भी साति केवट्टपुत्त भिक्खु, उसी बुरी धारणा को दृढ़ता से पकड़े कहता था-
‘मैं भगवान के उपदिष्ट धर्म को इस प्रकार जानता हूं।'
जंब वह भिक्खु साति केवट्टपुत्त भिक्खु को उस बुरी धारणा को न हटा सके, तब जहां भगवान थे, वहां गए; जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए...उन भिक्खुओं ने भगवान से यह कहा--
🙏भन्ते! केवट्टपुत्त साति भिक्खु को ऐसी बुरी धारणा (=पापदृष्टि) उत्पन्न हुई है-'मैं भगवान के उपदिष्ट धर्म को इस प्रकार जानता हूं-“मैं भगवान के उपदेश किए धर्म को इस प्रकार जानता हूं, कि वही विज्ञान संसरण (जन्म-मरण में जाना) करता है, संधावन (=धावन) करता है, अन्य नहीं।”
--हमने भन्ते! ""साति की इस बुरी धारणा को सुना। तब हम भन्ते!“साति भिक्खु के पास जाकर यह बोले-सचमुच आवुस साति! तुम्हें इस प्रकार की बुरी धारण उत्पन्न हुई है?-संधावन करता है!”
"हां आवुस!'
जब हम भन्ते! साति भिक्खु की इस बुरी धारणा को न हटा सके, तब हमने आकर इस बात को भगवान से कहा।”
☝तब भगवान ने एक भिक्खु को संबोधित किया- “आओ भिक्खु! तुम मेरी ओर से केवपुत्त साति भिक्खु को बोलना-‘आवुस साति! शास्ता (=उपदेशक, बुद्ध) तुम्हें बुला रहे हैं, ।”
"अच्छा, भन्ते!” (कह) वह भिक्खु“साति भिक्खु के पास जाकर यह बोला-आवुस! शास्ता तुम्हें बुला रहे हैं।
"अच्छा, आवुस !”–कह केवट्टपुत्त साति भिक्खु जहां भगवान थे वहां जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे... साति भिक्खु को भगवान ने यह कहा--
☝सचमुच, साति! तुझे इस प्रकार की बुरी धारणा उत्पन्न हुई है-
“मैं भगवान के उपदेश किए धर्म को इस प्रकार जानता हूं, कि वही विज्ञान संसरण (जन्म-मरण में जाना) करता है, संधावन (=धावन) करता है, अन्य नहीं।”
🙏“हां, भन्ते! मैं भगवान के उपदिष्ट धर्म को इस प्रकार जानता हूं; कि वही विज्ञान संसरण, संधावन करता है, दूसरा नहीं ।”
☝"साति! वह विज्ञान क्या है?”
🙏"यह जो भन्ते! वक्ता, अनुभव-कर्ता है, जो कि तहां-तहां (जन्म लेकर) अच्छे, बुरे कर्मों के विपाक को अनुभव करता है।”
☝"मोघपुरुष' ! तुमने किस को मुझे ऐसा उपदेश करते सुना? मैंने तो मोघपुरुष! अनेक प्रकार से विज्ञान को प्रतीत्य-समुत्पन्न कहा है; प्रत्यय के बिना विज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता (–कहा है)।
मोघपुरुष! तू अपनी ठीक से न समझी बात का हमारे पर लांछन लगाता है; अपना नुकसान कर रहा है, और बहुत पाप कमा रहा है; मोघपुरुष! यह तेरे लिए दीर्घकाल तक अहितकर, दुखकर होगा।”
☝तब भगवान ने भिक्खुओं को संबोधित किया--
“तो क्या मानते हो, भिक्खुओ! क्या इस... साति भिक्खु ने इस धर्म-विनय (=धर्म) में थोड़ा भी अवगाहन कर पाया (=उस्मीकत) है?”
🙏“क्या कर पायेगा, भन्ते? नहीं भन्ते!” ।
🌴ऐसा कहने पर केवट्टपुत्त साति भिक्खु गुमसुम हो, मूक हो, कंधा गिराकर, नीचे मुंह करके चिन्ता में पड़, प्रतिभाहीन हो बैठा रहा। तब भगवान ने साति भिक्खु को गुमसुम हो प्रतिभाहीन हो बैठे देख (उसे) यह कहा--
☝"मोघपुरुष! जानेगा तू इस अपनी बुरी धारणा को। अब मैं भिक्खुओं को पूछता हूं।”
तब भगवान ने भिक्खुओं को संबोधित किया--
☝“भिक्खुओ! तुमने मुझे ऐसा धर्म उपदेश करते देखा है, जैसा कि साति भिक्खु अपनी ठीक से न समझी बात का, हमारे पर लांछन लगाता है; अपना नुकसान कर रहा है; और बहुत पाप कमा रहा है?”
🙏"नहीं भन्ते! भगवान ने तो भन्ते! हमें अनेक प्रकार से विज्ञान को प्रतीत्यसमुत्पन्न कहा है, प्रत्यय के बिना विज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं होता है (–कहा है)।"
☝"साधु, भिक्खुओ! तुम इस प्रकार मेरे उपदेशित धर्म को ठीक से जानते हो-‘अनेक प्रकार से से विज्ञान को प्रतीत्यसमुत्पन्न कहा है, प्रत्यय के बिना विज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता' तो भी यह साति भिक्खु अपनी ठीक से न समझी यह उसके लिए दीर्घकाल तक अहितकर दुखकर होगा।"
☝"भिक्खुओ! जिस-जिस प्रत्यय (=निमित्त) से विज्ञान उत्पन्न होता है, वही-वही उसकी संज्ञा (=नाम) होती है।
🌴 चक्षु (=आंख) के निमित्त से रूप में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है; चक्षुर्विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है।
🌴 श्रोत्र के निमित्त से शब्द में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है; श्रोत्र-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है।
🌴घ्राण (नाक) के निमित्त से गंध में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, घ्राण-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है।
🌴 जिह्वा के निमित्त से रस में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, रस-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है।
🌴काया के निमित्त से स्पष्टव्य (=छुए जाने ले विषय) में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, काय-विज्ञान ही उसका नाम होता है।
🌴मन के निमित्त से धर्म (=उपरोक्त पांच बाहरी इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान) में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, मनो-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है।
जैसे कि, भिक्खुओ! जिस निमित्त (=प्रत्यय) को लेकर (जो) आग जलती है, वही वही उसकी संज्ञा होती है।
🍃काष्ठ के निमित्त से (जो) आग जलती है, काष्ठ-अग्नि ही उसकी संज्ञा होती है।
🍃 (लकड़ी की) चुन्नी के निमित्त से जो आग जलती है, चुन्नी की आग ही उसकी संज्ञा होती है।
🍃तृण के निमित्त से (जो) आग जलती है, तृण-अग्नि ही उसकी संज्ञा होती है।
🍃 कंडे (=गोमय)के निमित्त से (जो) आग जलती है, कंडे की आग ही उसकी संज्ञा होती है।
🍃 भूसी (=तष) के निमित्त से (जो) आग जलती है, भूसी की आग ही उसकी संज्ञा होती है।
🍃 कूड़े (=संकार) के निमित्त से (जो) आग जलती है, कूड़े की आग ही उसकी संज्ञा होती है।
🌷ऐसे ही भिक्खुओ! जिस-जिस निमित्त से विज्ञान उत्पन्न होता है, वही-वही उसकी संज्ञा होती है।
🌴 चक्षु (=आंख) के निमित्त से रूप में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है; चक्षुर्विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है।
🌴 श्रोत्र के निमित्त से शब्द में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है; श्रोत्र-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है।
🌴घ्राण (नाक) के निमित्त से गंध में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, घ्राण-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है।
🌴 जिह्वा के निमित्त से रस में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, रस-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है।
🌴काया के निमित्त से स्पष्टव्य (=छुए जाने ले विषय) में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, काय-विज्ञान ही उसका नाम होता है।
🌴मन के निमित्त से धर्म (=उपरोक्त पांच बाहरी इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान) में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, मनो-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है।
☝भिक्खुओ! इस (पांच स्कंधों)को उत्पन्न देखते हो?”
🙏हां, भन्ते!” ।
☝ “भिक्खुओ! अपने आहार से (उन्हें) उत्पन्न हुआ देखते हो?”
🙏“हां, भन्ते!” ।
☝भिक्खुओ! जो उत्पन्न होनेवाला है, अपने आहार के निरोध से वह निरुद्ध (=नष्ट) होनेवाला होता है-इसे देखते हो?” ।
🙏“हां, भन्ते!”
☝भिक्खुओ! यह (पांच स्कंध) उत्पन्न हुआ है, या नहीं?—यह दुविधा करते सन्देह (=विचिकित्सा) उत्पन्न होती है न?”
🙏“हां, भन्ते!” ।
☝भिक्खुओ! अपने आहार से उत्पन्न हुआ है, या नहीं- यह दुविधा करते सन्देह (=विचिकित्सा) उत्पन्न होती है न?"
🙏 “हां, भन्ते!”
☝“भिक्खुओ! ‘जो उत्पन्न होनेवाला है, (वह) अपने आहार (=स्थिति के आहार) के निरोध से निरुद्ध होनेवाला होता है, या नहीं' -यह दुविधा करते सन्देह उत्पन्न होता है न?”
🙏“हां, भन्ते!”
☝भिक्खुओ! ‘ये (=पांच स्कंध) उत्पन्न हैं' -यह अच्छी प्रकार प्रज्ञा से देखने पर सन्देह नष्ट हो जाता है न!”
🙏“हां, भन्ते!” ।
☝भिक्खुओ! इसे अपने आहार से उत्पन्न होनेवाला है जो उत्पन्न होने वाला है, (वह) अपने आहार के निरोध से निरुद्ध होने वाला होता है’ -यह ठीक से अच्छी प्रकार प्रज्ञा से देखने पर सन्देह नष्ट हो जाता है न?”
🙏“हां, भन्ते!” ।
☝" भिक्खुओ! ‘ये (पंच स्कंध) उत्पन्न हैं? –इस (विषय में) तुम सन्देह-रहित हो न?”
🙏“हां, भन्ते!”
☝ भिक्खुओ! ‘वे अपने आहार से उत्पन्न है' -इस (विषय) में भी तुम सन्देह-रहित हो न?”
🙏 “हां, भन्ते!”
☝भिक्खुओ! ‘वे अपने आहार से उत्पन्न है अपने आहार के निरोध से निरुद्ध होनेवाला होता है-इस (विषय) में भी तुम सन्देह-रहित हो न?”
🙏“हां, भन्ते!”
☝भिक्खुओ! ‘यह उत्पन्न है-इसे ठीक से अच्छी प्रकार जानना सुदृष्ट (=अच्छा दर्शन) है न?”
🙏हां, भन्ते!”
☝भिक्खुओ! ‘(यह) अपने आहार से उत्पन्न है-:।अपने आहार से निरोध से निरुद्ध होनेवाला होता है-यह ठीक से अच्छी प्रकार जानना सुदृष्ट है न?”
🙏हां, भन्ते!”
☝“भिक्खुओ! क्या तुम इस ऐसे परिशुद्ध, उज्ज्वल, दृष्ट (=दर्शन, ज्ञान) में भी आसक्त होओगे, रमोगे, ‘(मेरा) धन है'–समझोगे, ममता करोगे?
भिक्खुओ!
(मेरे) उपदेशे धर्म को कुल्ल (=नदी पार करने के बेड़े) के समान,
(यह) पार होने के लिए है, पकड़कर रखने के लिए नहीं है-(समझोगे)?”
🙏"(पकड़ कर रखने के लिए) नहीं है भन्ते!”
☝“भिक्खुओ! तुम इस ऐसे परिशुद्ध, उज्ज्वल, दृष्ट में भी आसक्त न होना, न रमना, ‘(मेरा) धन है'-न समझना ममता न करना। बल्कि भिक्खुओ! मेरे उपदेशे धर्म को कुल्ल (=बेड़े) के समान समझना, (यह) पार होने के लिए है, पकड़कर रखने के लिए नहीं है।” ।
🙏“हां, भन्ते!”
☝भिक्खुओ! उत्पन्न प्राणियों की स्थिति के लिए, आगे उत्पन्न होनेवाले (सत्त्वों) की सहायता (=अनुग्रह)के लिए ये चार आहार हैं। कौन से चार?-
🌷(पहला) स्थूल या सूक्ष्म कवलीकार (=कवल, कवल करके खाने योग्य) आहार;
🌷दूसरा स्पर्श (आहार);
🌷तीसरा मनःसंचेतना (=मन से विषय का ख्याल करके तृप्तिलाभ करना),
🌷 चौथा विज्ञान (=चेतना) ।
☝भिक्खुओ! इन चार आहारों का क्या निदान (=हेतु) है=क्या समुदय है? (ये) किससे जन्मे हैं=किस से संभूत हैं?—
☝भिक्खुओ! इन चारों आहारों का निदान है तृष्णा। समुदय है, तृष्णा। ये जन्मे हैं तृष्णा से= संभूत हैं तृष्णा से ।।
☝भिक्खुओ! इस तृष्णा का क्या निदान है?=क्या समुदय है? (ये) किससे जन्मे हैं=किस से संभूत हैं?—
☝भिक्खुओ! इन चारों आहारों का निदान है वेदना। समुदय है, वेदना। ये जन्मे हैं वेदना से= संभूत हैं वेदना से ।
☝भिक्खुओ! इस वेदना का क्या निदान है?=क्या समुदय है? (ये) किससे जन्मे हैं=किस से संभूत हैं?—
☝भिक्खुओ! इन चारों आहारों का निदान है स्पर्श। समुदय है, स्पर्श। ये जन्मे हैं स्पर्श से= संभूत हैं स्पर्श से ।
☝भिक्खुओ! इस स्पर्श का क्या निदान है?=क्या समुदय है? (ये) किससे जन्मे हैं=किस से संभूत हैं?—
☝भिक्खुओ! इन चारों आहारों का निदान है षड्-आयतन। समुदय है, षड्-आयतन। ये जन्मे हैं षड्-आयतन से= संभूत हैं षड्-आयतन से ।
☝भिक्खुओ! इस षड्-आयतन का क्या निदान है?=क्या समुदय है? (ये) किससे जन्मे हैं=किस से संभूत हैं?—
☝भिक्खुओ! इन चारों आहारों का निदान है नामरूप । समुदय है, नामरूप। ये जन्मे हैं नामरूप से= संभूत हैं नामरूप से ।
☝भिक्खुओ! इस नामरूप का क्या निदान है?=क्या समुदय है? (ये) किससे जन्मे हैं=किस से संभूत हैं?—
☝भिक्खुओ! इन चारों आहारों का निदान है विज्ञान । समुदय है, विज्ञान। ये जन्मे हैं विज्ञान से= संभूत हैं विज्ञान से ।
☝भिक्खुओ! इस विज्ञान का क्या निदान है?=क्या समुदय है? (ये) किससे जन्मे हैं=किस से संभूत हैं?—
☝भिक्खुओ! इन चारों आहारों का निदान है संस्कार । समुदय है, संस्कार। ये जन्मे हैं संस्कार से= संभूत हैं संस्कार से ।
☝भिक्खुओ! इस संस्कार का क्या निदान है?=क्या समुदय है? (ये) किससे जन्मे हैं=किस से संभूत हैं?—
☝भिक्खुओ! इन चारों आहारों का निदान है अविद्या । समुदय है, अविद्या। ये जन्मे हैं अविद्या से= संभूत हैं अविद्या से ।
🌷इस प्रकार भिक्खुओ!
अ-विद्या के कारण संस्कार होता है,
संस्कार के कारण विज्ञान,
विज्ञान के कारण नाम-रूप,
नाम-रूप के कारण षड्-आयतन,
षड्-आयतन के कारण स्पर्श,
स्पर्श के कारण वेदना,
वेदना के कारण तृष्णा,
तृष्णा के कारण उपादान (=ग्रहण या ग्रहण करने ही इच्छा),
उपादान के कारण भव (=संसार),
भव के कारण जन्म,
जन्म के कारण जरा-मरण, शोक, रोना-कांदना, दुख=दौर्मनस्य, हैरानी-परेशानी होती है।
🌷इस प्रकार इस सम्पूर्ण दुख-स्कंध(=दुखसमुदाय)की उत्पत्ति होती है।
☝“भिक्खुओ! जाति (=जन्म)के कारण जरा-मरण होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! जाति के कारण जरा-मरण होता है या नहीं-इसमें तुम्हें क्या जान पड़ता है? "
🙏जाति के कारण जरा-मरण होता है। भन्ते! हमको यही जान पड़ता है, कि जाति के कारण जरा-मरण होता है।
☝भिक्खुओ! भव के कारण जाति (=जन्म) होती है-यह जो कहा। भिक्खुओ! भव के कारण जाति होती है या नहीं-इसमें क्या जान पड़ता है?”
🙏भव के कारण, भन्ते! जाति होती है।”
☝भिक्खुओ! उपादान के कारण भव होती है-यह जो कहा। भिक्खुओ! उपादान के कारण भव होती है या नहीं-इसमें क्या जान पड़ता है?”
🙏उपादान के कारण, भन्ते! भव होती है।”
☝भिक्खुओ! तृष्णा के कारण उपादान होती है-यह जो कहा। भिक्खुओ! तृष्णा के कारण उपादान होती है या नहीं-इसमें क्या जान पड़ता है?”
🙏तृष्णा के कारण, भन्ते! उपादान होती है।”
☝भिक्खुओ! वेदना के कारण तृष्णा होती है-यह जो कहा। भिक्खुओ! वेदना के कारण तृष्णा होती है या नहीं-इसमें क्या जान पड़ता है?”
🙏वेदना के कारण, भन्ते! तृष्णा होती है।”
☝भिक्खुओ! स्पर्श के कारण वेदना होती है-यह जो कहा। भिक्खुओ! स्पर्श के कारण वेदना होती है या नहीं-इसमें क्या जान पड़ता है?”
🙏स्पर्श के कारण, भन्ते! वेदना होती है।”
☝भिक्खुओ! षड्-आयतन के कारण स्पर्श होती है-यह जो कहा। भिक्खुओ! षड्-आयतन के कारण स्पर्श होती है या नहीं-इसमें क्या जान पड़ता है?”
🙏षड्-आयतन के कारण, भन्ते! स्पर्श होती है।”
☝भिक्खुओ! नामरूप के कारण षड्-आयतन होती है-यह जो कहा। भिक्खुओ! नामरूप के कारण षड्-आयतन होती है या नहीं-इसमें क्या जान पड़ता है?”
🙏नामरूप के कारण, भन्ते! षड्-आयतन होती है।”
☝भिक्खुओ! विज्ञान के कारण नामरूप होती है-यह जो कहा। भिक्खुओ! विज्ञान के कारण नामरूप होती है या नहीं-इसमें क्या जान पड़ता है?”
🙏विज्ञान के कारण, भन्ते! नामरूप होती है।”
☝भिक्खुओ! संस्कार के कारण विज्ञान होती है-यह जो कहा। भिक्खुओ! संस्कार के कारण विज्ञान होती है या नहीं-इसमें क्या जान पड़ता है?”
🙏संस्कार के कारण, भन्ते! विज्ञान होती है।”
☝भिक्खुओ! अविद्या के कारण संस्कार होती है-यह जो कहा। भिक्खुओ! अविद्या के कारण संस्कार होती है या नहीं-इसमें क्या जान पड़ता है?”
🙏अविद्या के कारण, भन्ते! संस्कार होती है।”
☝🌷साधु, भिक्खुओ! तुम भी भिक्खुओ! इस प्रकार कहो, मैं भी ऐसे ही कहता हूं-‘इसके होनपर यह होता है, इसके उत्पन्न होने से यह उत्पन्न होता है। जो कि यह अविद्या के कारण संस्कार संस्कार के कारण विज्ञान विज्ञान के कारण नाम-रूप, नाम-रूप के कारण षड-आयतन,षड-आयतन के कारण स्पर्श, स्पर्श के कारण वेदना, वेदना के कारण तृष्णा, तृष्णा के कारण उपादान, उपादान के कारण भव, भव के कारण जाति, जाति के कारण जरा-मरण, जरा-मरण के कारण शोक, रोना=कांदना, दुख=दौर्मनस्य, हैरानी-परेशानी होती है। इस प्रकार इस सम्पूर्ण दुख-स्कन्ध (=दुख-पुंज) की उत्पत्ति होती है।
☝“अविद्या के पूर्णतया निरुद्ध होने से, (अविद्या के) नष्ट होने से संस्कार का नाश (=निरोध) होता है,
संस्कार के निरोध से विज्ञान का निरोध होता है, विज्ञान के निरोध से नाम-रूप का निरोध होता है,
नाम-रूप के निरोध से षड्-आयतन का निरोध होता है,
षड्-आयतन के निरोध से स्पर्श का निरोध होता है,
स्पर्श के निरोध से वेदना का निरोध होता है, वेदना के निरोध से तृष्णा का निरोध होता है, तृष्णा के निरोध से उपादान का निरोध होता है, उपादान के निरोध से भव का निरोध होता है, भव के निरोध से जाति का निरोध होता है, जाति के निरोध से जरा-मरण, शोक रोने-कांदने, दुख-दौर्मस्य हैरानी-परेशानी का निरोध होता है। इस प्रकार इस केवल दुख-स्कन्ध का निरोध होता है।"
☝भिक्खुओ! “जाति के निरोध से जरा-मरण का निरोध होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! जाति के निरोध से जरा-मरण का निरोध होता है या नहीं होता-यहां तुम्हें कैसा जान पड़ता है?”
🙏‘जाति के निरोध से जरा-मरण का निरोध होता है' भन्ते! (यहा) भन्ते! हमें होता है-जाति के निरोध से जरा-मरण का निरोध होता है।”
☝भिक्खुओ! “भव के निरोध से जाति का निरोध होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! भव के निरोध से जाति का निरोध होता है या नहीं होता-यहां तुम्हें कैसा जान पड़ता है?”
🙏‘भव के निरोध से जाति का निरोध होता है' भन्ते! (यहा) भन्ते! हमें होता है-भव के निरोध से जाति का निरोध होता है।”
☝भिक्खुओ! “उपादान के निरोध से भव का निरोध होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! उपादान के निरोध से भव का निरोध होता है या नहीं होता-यहां तुम्हें कैसा जान पड़ता है?”
🙏‘उपादान के निरोध से भव का निरोध होता है' भन्ते! (यहा) भन्ते! हमें होता है- उपादान के निरोध से भव का निरोध होता है।”
☝भिक्खुओ! “तृष्णा के निरोध से भव का निरोध होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! तृष्णा के निरोध से भव का निरोध होता है या नहीं होता-यहां तुम्हें कैसा जान पड़ता है?”
🙏‘तृष्णा के निरोध से भव का निरोध होता है' भन्ते! (यहा) भन्ते! हमें होता है- तृष्णा के निरोध से भव का निरोध होता है।”
☝भिक्खुओ! “वेदना के निरोध से तृष्णा का निरोध होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! वेदना के निरोध से तृष्णा का निरोध होता है या नहीं होता-यहां तुम्हें कैसा जान पड़ता है?”
🙏‘वेदना के निरोध से तृष्णा का निरोध होता है' भन्ते! (यहा) भन्ते! हमें होता है- वेदना के निरोध से तृष्णा का निरोध होता है।”
☝भिक्खुओ! “स्पर्श के निरोध से वेदना का निरोध होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! स्पर्श के निरोध से वेदना का निरोध होता है या नहीं होता-यहां तुम्हें कैसा जान पड़ता है?”
🙏‘स्पर्श के निरोध से वेदना का निरोध होता है' भन्ते! (यहा) भन्ते! हमें होता है- स्पर्श के निरोध से वेदना का निरोध होता है।”
☝भिक्खुओ! “षड्-आयतन के निरोध से स्पर्श का निरोध होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! षड्-आयतन के निरोध से स्पर्श का निरोध होता है या नहीं होता-यहां तुम्हें कैसा जान पड़ता है?”
🙏‘षड्-आयतन के निरोध से स्पर्श का निरोध होता है भन्ते! (यहा) भन्ते! हमें होता है- षड्-आयतन के निरोध से स्पर्श का निरोध होता है।”
☝भिक्खुओ! “ नामरूप के निरोध से षड्-आयतन का निरोध होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! नामरूप के निरोध से षड्-आयतन का निरोध होता है या नहीं होता-यहां तुम्हें कैसा जान पड़ता है?”
🙏‘नामरूप के निरोध से षड्-आयतन का निरोध होता है भन्ते! (यहा) भन्ते! हमें होता है- नामरूप के निरोध से षड्-आयतन का निरोध होता है।”
☝भिक्खुओ! “ विज्ञान के निरोध से नामरूप का निरोध होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! विज्ञान के निरोध से नामरूप का निरोध होता है या नहीं होता-यहां तुम्हें कैसा जान पड़ता है?”
🙏‘विज्ञान के निरोध से नामरूप का निरोध होता है भन्ते! (यहा) भन्ते! हमें होता है- विज्ञान के निरोध से नामरूप का निरोध होता है।”
☝भिक्खुओ! “ संस्कार के निरोध से विज्ञान का निरोध होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! संस्कार के निरोध से विज्ञान का निरोध होता है या नहीं होता-यहां तुम्हें कैसा जान पड़ता है?”
🙏‘संस्कार के निरोध से विज्ञान का निरोध होता है भन्ते! (यहा) भन्ते! हमें होता है- संस्कार के निरोध से विज्ञान का निरोध होता है।”
☝भिक्खुओ! “अविद्या के निरोध से संस्कार का निरोध होता है-यह जो कहा। भिक्खुओ! अविद्या के निरोध से संस्कार का निरोध होता है या नहीं होता-यहां तुम्हें कैसा जान पड़ता है?”
🙏‘अविद्या के निरोध से संस्कार का निरोध होता है भन्ते! (यहा) भन्ते! हमें होता है- अविद्या के निरोध से संस्कार का निरोध होता है।”
☝🌷साधु, भिक्खुओ! तुम भी भिक्खुओ! इस प्रकार कहो, मैं भी ऐसे कहता हूं-
इसके न होने पर यह नहीं होता,
इसके निरोध होने पर इसका निरोध होता है,
जो कि यह विद्या के निरोध से संस्कार का निरोध होता है;
संस्कार के निरोध से विज्ञान का निरोध होता है; विज्ञान के निरोध से नामरूप का निरोध होता है;
नामरूप के निरोध से षड्-आयतन का निरोध होता है;
षड्-आयतन के निरोध से स्पर्श का निरोध होता है;
स्पर्श के निरोध से वेदना का निरोध होता है; वेदना के निरोध से तृष्णा का निरोध होता है; तृष्णा के निरोध से उपादान का निरोध होता है;उपादान के निरोध से भव का निरोध होता है; भव के निरोध से जाति का निरोध होता है; जाति के निरोध से वेदना का जरा-मरण, शोक, रोने-कांदने, दुख=दौर्मनस्य' हैरानी-परेशानी का निरोध होता है।
☝भिक्खुओ! इस प्रकार (पूर्वोक्त क्रम से) जानते-देखते हुए क्या तुम पूर्व के छोर (=पूर्व-अंत=पुराने समय जन्म) की ओर दौड़ोगे-“अहो! क्या हम अतीत-काल में थे, या हम अतीत-काल में नहीं थे?
अतीत-काल में हम क्या थे?
अतीत काल में हम कैसे थे?
अतीत-काल में क्या होकर हम क्या हुए थे?”
🙏 नहीं, भन्ते!” ।
☝भिक्खुओ! इस प्रकार जानते देखते हुए, क्या तुम बाद के छोर (=अपर-अंत=आगे आनेवाले समय) की ओर दौड़ोगे-“अहो! क्या हम भविष्य काल में होंगे, या हम भविष्य काल में नहीं होंगे? भविष्य काल में हम क्या होंगे? हम कैसे होंगे? भविष्य काल में क्या होकर हम क्या होंगे?”
🙏नहीं, भन्ते!” ।
☝“भिक्खुओ! इस प्रकार जानते देखते हुए, क्या तुम इस वर्तमान काल में अपने भीतर इस प्रकार कहने-सुननेवाले (=कथंकथी) होंगे-“अहो! क्या मैं हूं, “या मैं नहीं हूं? मैं क्या हूं? मैं कैसा हूं? यह सत्त्व (=प्राणी) कहां से आया? वह कहां जाने वाला होगा?”
🙏“नहीं, भन्ते!”
☝भिक्खुओ! इस प्रकार देखते जानते क्या तुम ऐसा कहोगे-‘शास्ता (=उपदेष्टा) हमारे गुरु हैं, शास्ता के गौरव ( के ख्याल) से हम ऐसा कहते हैं–?”
🙏नहीं, भन्ते!”
☝“भिक्खुओ! इस प्रकार देखते जानते ऐसा कहोगे- ‘श्रमण (=संन्यासी) ने हमें ऐसा कहा, श्रमण के वचन से हम ऐसा कहते हैं ?',
🙏नहीं, भन्ते!”
☝भिक्खुओ! इस प्रकार देखते-जानते क्या तुम दूसरे शास्ता के अनुगामी होगे?”
🙏 नहीं, भन्ते!”
☝“क्या तुम नाना श्रमण ब्राह्मणों के (जो वे) व्रत, कौतुक, मंगल (संबंधी क्रियाएं) हैं, उन्हें सार के तौर पर ग्रहण करोगे?”
🙏नहीं, भन्ते!”
☝क्या भिक्खुओ! जो तुम्हारा अपना जाना है, अपना देखा है, अपना अनुभव किया है; उसी को तुम कहते हो?”
🙏हां, भन्ते!” ।
☝🌷“साधु भिक्खुओ! मैंने भिक्खुओ! तुम्हें समयान्तर में नहीं तत्काल, यहीं दिखाई देनेवाले, विज्ञों द्वारा अपने आप में जानने योग्य इस धर्म के पास उपनीत किया (=पहुंचाया) है।
☝ भिक्खुओ! ‘यह धर्म समयान्तर में नहीं तत्काल फलदायक है, (इसका परिणाम) यहीं दिखाई देनेवाला है, (यह) विज्ञ-जनो द्वारा अपने आप में जानने योग्य है' -यह जो कहा है, वह इसी (उक्त कारण) से ही कहा है।
☝भिक्खुओ! तीन के एकत्रित होने से गर्भ धारण होता है-माता और पिता एकत्र होते हैं, किंतु माता ऋतुमती नहीं होती और गंधर्व' उपस्थित नहीं होता; तो गर्भधारण नहीं होता। माता-पिता एकत्र होते हैं, माता ऋतुमती होती है; किंतु गन्धर्व उपस्थित नहीं होता, तो भी गर्भधारण नहीं होता। जब माता-पिता एकत्र होते हैं, माता ऋतुमती होती है, और गंधर्व उपस्थित होता है; इस प्रकार तीनों के एकत्रित होने से गर्भधारण होता है। तब उस गुरु-भार-वाले गर्भ को बड़े संयम के साथ माता कोख में नौ या दस मास धारण करती है। फिर उस गुरु भार वाले गर्भ को बड़े संयम के साथ माता नौ या दस मास के बाद जनती है। तब उस जात (=सन्तान) को भिक्खुओ! माता अपने ही लोहित से पोसती है। भिक्खुओ! आर्यों के मत में यह लोहित (=खून) ही है, जो कि यह माता का दूध है।
🌷तब भिक्खुओ! वह कुमार बड़ा होने पर, इन्द्रियों के परिपक्व होने पर जो वह बच्चों के खिलौने हैं, जैसे कि-वंकक (=वंका), घटिक (=घड़िया), माक्खचिक (=मुंह का लटू), चिंगुलक (=चिंगुलिया), पात्र-आढक (=तराजू का खिलौना), रथक (=खिलौने की गाड़ी), धनुक (=धनुही)-उनसे खेलता है।
🌷तब भिक्खुओ! वह कुमार (और) बड़ा होने पर, इन्द्रियों के परिपक्व होने पर, संयुक्त संलिप्त हो, पांच (प्रकार के) काम-गुणों (विषय-भोगों)-चक्षु से विज्ञेय इष्ट (=अभिलषित) कान्त (=कमनीय), मनोज्ञ, प्रिय, कामनायुक्त, रंजनीय रूपों, श्रोत्र से विज्ञेय शब्दों, घ्राण से विज्ञेय गन्धों; जिह्वा से विज्ञेय रसों; काया से विज्ञेय स्पर्शो–को सेवन करता है। वह *चक्षु (=आंख) से प्रिय रूपों को देखकर राग-युक्त होता है* , अ-प्रिय रूपों को देखकर द्वेष-युक्त होता है। कायिक स्मृति (=होश)को न कायम रख छोटे चित्त से विहरता है। (वह) उस चित्त की विमुक्ति और प्रज्ञा की विमुक्ति (=मुक्ति)का ठीक से ज्ञान नहीं करता; जिससे कि उसकी सारी बुराइयां=अकुशल-धर्म निरुद्ध हो जाएं। वह इस प्रकार अनुरोध (=राग), विरोध में पड़ा सुखमय दुखमय न-सुख-न-दुखमय-जिस । किसी वेदना को वेदन (=अनुभव) करता है उसका वह अभिनन्दन करता है, अभिवादन करता है, अवगाहन करता है। इस प्रकार अभिनन्दन करते, अभिवादन करते, अवगाहन करते रहते उसे नन्दी (=तृष्णा) उत्पन्न होती है, वेदनाओं के विषय में जो यह नन्दी है, (यही) उसका उपादान है, उसके उपादान के कारण भव होता है, भव के कारण जाति, जाति के कारण जरा-मरण, शोक, रोना-कांदना, दुख=दौर्मनस्य, हैरानी-परेशानी होती है। इस प्रकार इस सम्पूर्ण दुख-स्कंध की उत्पत्ति=समुदय, होता है। वह श्रोत्र से प्रिय शब्दों को सुनकर... घ्राण से प्रिय गंधों को सूंघकर... जिह्वा से प्रिय रसों को चखकर... काया से प्रिय स्प्रष्टयों को छूकर... मन में प्रिय धर्मों को जानकर... । इस प्रकार इस सम्पूर्ण दुख-स्कंध की उत्पत्ति होती है।
🌷भिक्खुओ! यहां लोक में तथागत, अर्हत्, सम्यक्-सम्बुद्ध, विद्या-आचरण-युक्त, सुगत, लोक-विद्, पुरुषों के अनुपम-चाबुक-सवार, देवताओं-और-मनुष्यों के उपदेष्टा भगवान बुद्ध उत्पन्न होते हैं। वे ब्रह्मलोक, मारलोक, देवलोक सहित इस लोक को, देव-मनुष्य-सहित श्रमण-ब्राह्मण-युक्त (सभी) प्रजा को स्वयं समझ कर=साक्षात्कारकर (धर्म को) बतलाते हैं। वे आदि में कल्याण (-कारी), मध्य में कल्याण (-कारी), अंत में कल्याण (-कारी) धर्म को अर्थ-सहित=व्यञ्जन-सहित उपदेशते हैं। वे केवल (=मिश्रण-रहित) परिपूर्ण परिशुद्ध ब्रह्मचर्य को प्रकाशित करते हैं। उस धर्म को गृहपति या गृहपति का पुत्र, या और किसी छोटे कुल में उत्पन्न (पुरुष) सुनता है। वह उस धर्म को सुनकर तथागत के विषय में श्रद्धा लाभ करता है। वह उस श्रद्धा-लाभ से संयुक्त हो सोचता है-यह-वास जंजाल है, मैल का मार्ग है। प्रव्रज्या (=संन्यास) खुला मैदान है। इस नितान्त सर्वथा-परिशुद्ध, खरादे शंख जैसे (=उज्ज्वल) ब्रह्मचर्य का पालन घर में रहते सुकर नहीं है। क्यों न मैं सिर-दाढ़ी मुंड़ाकर, काषाय वस्त्र पहन, घर से बेघर हो प्रव्रजित हो जाऊं?' सो वह दूसरे समय अपनी अल्प भोग-राशि को या महा-भोग-राशि को, अल्प-ज्ञाति-मंडल को या महा-ज्ञाति-मंडल को छोड़ सिर-दाढ़ी मुंड़ा, काषाय वस्त्र पहन घर से बेघर हो प्रव्रजित (=संन्यासी) होता है।
🌷"वह इस प्रकार प्रव्रजित हो, भिक्खुओं की शिक्षा, समान-जीविका को प्राप्त हो, प्राणातिपात छोड़, प्राणिहिंसा से विरत होता है। दंड-त्यागी, शस्त्र त्यागी, लज्जालु, दयालु, सर्व प्राणियों, सारे प्राणि-भूतों का हित और अनुकम्पक हो विहरता है। अ-दिन्नादान (=चोरी) छोड़, दिन्नदायी (=दिए का लेनेवाला), दिए का चाहने वाला, पवित्र चित्त हो विहरता है। अ-ब्रह्मचर्य को छोड़ ब्रह्मचारी हो, ग्राम्य-धर्म मैथुन से विरत हो, आर-चारी (=दूर रहनेवाला) होता है। मृषावाद को छोड़, मृषावाद से विरत हो, सत्यवादी सत्य-संघ, लोक का अ-विसंवादक=विश्वास-पात्र होता है। पिशुन-वचन (=चुगली) छोड़, पिशुन-क्चन से विरत होता है-इन्हें फोड़ने के लिए यहां से सुनकर वहां कहनेवाला नहीं होता; या उन्हें फोड़ने के लिए वहां से सुनकर यहां कहनेवाला नहीं होता। (वह तो) फूटों को मिलानेवाला, मिले हुओं को न फोड़नेवाला, एकता में प्रसन्न, एकता में रत, एकता में आनन्दित हो, एकता करने वाली वाणी का बोलने वाला होता है। कटुवचन छोड़ कटु-वचन से विरत होता है। जो वह वाणी कर्ण-सुखा, प्रेमणीया, हृदयंगमा, सभ्य, बहुजन-कान्ता=बहुजन-मनाप है, वैसी वाणी का बोलनेवाला होता है। प्रलाप को छोड़ प्रलाप से विरत होता है। समय देखकर बोलनेवाला, यथार्थवादी=अर्थ-वादी, धर्म-वादी, विनय-वादी हो, तात्पर्य-युक्त, फल-युक्त, सार्थक, सारयुक्त वाणी का बोलनेवाला होता है।
🌷“वह बीज समुदाय, भूत-समुदाय के विनाश से विरत होता है। एकाहारी, रात को उपरत, विकाल (=मध्याह्नोत्तर)-भोजन से विरत होता है। माला, गंध विलेपन के धारण, मंडन, विभूषण से विरत होता है। उच्च-शयन और महाशयन से विरत होता है। सोना-चांदी लेने से विरत होता है। कच्चा अनाज लेने से विरत होता है। कच्चा मांस लेने से विरत होता है। स्त्री-कुमारी, दासी-दास, “भेड़-बकरी, मुर्गी-सूअर, हाथी-गाय, घोड़ा, खेत-घर लेने से विरत होता है। दूत बनकर जाने से विरत होता है। क्रय-विक्रय करने से विरत होता है। तराजू की ठगी, कांसे की ठगी, मान (=मन, सेर आदि तौल) की ठगी से विरत होता है। घूस, वंचना, जालसाजी, कुटिया-योग। छेदन, वध, बंधन, छापा मारने, ग्राम आदि के विनाश करने, डाका डालने से विरत होता है।
🌷वह शरीर के वस्त्र, और पेट के खाने से सन्तुष्ट रहता है। वह जहां-जहां जाता है (अपना सामान) लिए ही जाता है, जैसे कि पक्षी जहां कहीं उड़ता है, अपने पक्ष-भार के साथ ही उड़ता है। इसी प्रकार भिक्खु शरीर के वस्त्र, और पेट के खाने से सन्तुष्ट रहता है। वह इस प्रकार आर्य (=निर्दोष) शील-स्कंध (=सदाचार-समूहोसे युक्त हो; अपने भीतर निर्मल सुख को अनुभव करता है।
🌷“वह आंख से रूप को देखकर, निमित्त (=आकृति आदि) और अनुव्यंजन (=चिह) का ग्रहण करनेवाला नहीं होता। चूंकि चक्षु इन्द्रिय को अ-रक्षित रख विहरने वाले को, राग, द्वेष, बुराइयां=अ-कुशल धर्म उत्पन्न होते हैं; इसलिये वह उसे सुरक्षित रखता है; चक्षु-इन्द्रिय की रक्षा करता है-चक्षु-इन्द्रिय में संवर ग्रहण करता है। वह श्रोत्र से शब्द सुनकर निमित्त और अनुव्यंजन का ग्रहण करनेवाला नहीं होता...। घ्राण से गंध ग्रहणकर...। जिह्वा से रस ग्रहणकर...। काया से स्पर्श ग्रहणकर ...। मन से धर्म ग्रहणकर...। इस प्रकार वह आर्य इन्द्रिय-संवर से युक्त हो, अपने भीतर निर्मल सुख को अनुभव करता है।
🌷 “वह आने-जाने में, जानकर करनेवाला (=संप्रजन्य-युक्त) होता है। अवलोकन-विलोकन में संग्रजन्य-युक्त होता है। समेटने में, फैलाने में, ...संघाटी-पात्र-चीवर के धारण करने में, ...खानपान भोजन आस्वादन में... । मल-मूत्र विसर्जन में, जाते-खड़े होते, बैठते, सोते-जागते, बोलते, चुप रहते। इस प्रकार वह आर्य स्मृति-संप्रजन्य से युक्त हो, अपने में निर्मल सुख को अनुभव करता है।
🌷वह इस आर्य-शील-स्कंध से युक्त, इस आर्य इन्द्रिय-संवर से युक्त, इस आर्य स्मृति-संप्रजन्य से युक्त हो, एकान्त में-अरण्ड, वृक्ष-छाया, पर्वत, कन्दरा, गिरि-गुहा, श्मशान, वन-प्रान्त, खुले मैदान, या पुआल के गंज में-वास करता है। वह भोजन के बाद आसन मारकर, काया को सीधा रख, स्मृति को सम्मुख ठहरा कर बैठता है। वह लोक में -
🌷(1) अभिध्या (=लोभ) को छोड़, अभिध्या रहित चित्तवाला हो विहरता है; चित्त को अभिध्या से शुद्ध करता है।
🌷(2) व्यापद (=द्रोह)-दोष को छोड़कर, व्यापाद-रहित चित्त-वाला हो, सारे प्राणियों का हितानुकम्पी हो विहरता है; व्यापाद के दोष से चित्त को शुद्ध करता है।
🌷(3) स्त्यान-मृद्ध (=शारीरिक-मानसिक आलस्य) को छोड़ स्त्यान-मृद्ध-रहित हो, आलोक-संज्ञावाला (=रोशन-ख्याल) हो, स्मृति और संप्रजन्य (=होश) से युक्त हो विहरता है...।
🌷(4)औद्धत्य-कौकृत्य (=उद्धतपने और हिचकिचाहट) को छोड़, अनुद्धत भीतर से शान्त हो विहरता है। ...
🌷(5) विचिकित्सा (=सन्देह) को छोड़, विचिकित्सा-रहित हो, निस्संकोच भलाइयों में (लग्न) हो विहरता है; विचिकित्सा से चित्त को शुद्ध करता है।
☝वह इन (अभिध्या आदि) पांच नीवरणों को चित्त से हटा, उपक्लेशों (=चित्त-मलों) को जान, उनके दुर्बल करने के लिए, काम (=विषयों) से अलग हो, बुराइयों से अलग हो, विवेक से उत्पन्न एवं वितर्क-विचार-युक्त प्रीति-सुख-वाले *प्रथम ध्यान* को प्राप्त हो विहरता है। और फिर भिक्खुओ! वह वितर्क और विचार के शान्त होने पर, भीतर की प्रसन्नता=चित्त की एकाग्रता को प्राप्तकर, वितर्क-विचार-रहित, समाधि से उत्पन्न प्रीति-सुख वाले *द्वितीय ध्यान* को प्राप्त हो विहरता है। और फिर भिक्खुओ! वह प्रीति और विराग से उपेक्षावाला हो, स्मृति और संप्रजन्य से युक्त हो, काया से सुख अनुभव करता विहरता है। जिस (से युक्त) को कि आर्य लोग उपेक्षक, स्मृतिमान् और सुखविहारी कहते हैं, ऐसे *तृतीय ध्यान* को प्राप्त हो विहरता है। और फिर भिक्खुओ! वह सुख और दुख के विनाश से, सौमनस्य (=चित्त-तुष्टि) और दौर्मनस्य (=चित्त की असंतुष्टि) के पूर्व ही अस्त हो जाने से, दुख-सुख-रहित और उपेक्षक हो, स्मृति की शुद्धता से युक्त *चतुर्थ ध्यान* को प्राप्त हो विहरता है।
🌷“वह चक्षु से रूप को देखकर, प्रिय रूप में राग-युक्त नहीं होता; अ-प्रिय रूप में द्वेष-युक्त नहीं होता; विशाल चित्त के साथ कायिक स्मृति को कायम रखकर विहरता है। (वह) उस चित्त के विमुक्ति (=मुक्ति) और प्रज्ञा की विमुक्ति को ठीक से जानता है; जिसमें कि उसकी सारी बुराइयां=अकुशल-धर्म निरुद्ध हो जाते हैं। वह इस प्रकार अनुरोध विरोध से रहित हो, सुखमय, न-सुख-न-दुख-मय-जिस किसी देवता को अनुभव करता है, ...उसका वह अभिनंदन नहीं करता, अभिवादन नहीं करता, (उसमें) अवगाहन कर नहीं स्थित होता। इस प्रकार अभिनंदन न करते, अभिवादन न करते, अवगाहन न करते, जो वेदना-विषयक नन्दी (=तृष्णा) है, वह उसकी निरुद्ध (=नष्ट) हो जाती है। उस नन्दी के निरोध से उपादान (=रागयुक्त ग्रहण) को निरोध, होता है। उपादान के निरोध से भव का निरोध, भव के निरोध से जाति (जन्म) का निरोध, जाति के निरोध से जरा-मरण, शोक, रोने-कांदने, दुख=दौर्मनस्य, हैरानी-परेशानी का निरोध होता है। इस प्रकार इस सारे दुख-स्कंध (=दुख-पुंज) का निरोध होता है।
🌷श्रोत्र से शब्द सुन कर...।
🌷घ्राण से गंध सूंघ कर...।
🌷 जिह्वा से रस को चख कर...।
🌷काया से स्पष्टव्य (स्पर्श वस्तु) को छू कर...।
🌷 मन से धर्म को जानकर प्रिय धर्मों में राग-युक्त नहीं होता, अ-प्रिय धर्मों में द्वेष-युक्त नहीं होता...।
☝इस प्रकार इस सारे दुख स्कंध का निरोध होता है।
☝🌷भिक्खुओ! मेरे संक्षेप से कहे इस तृष्णा-संक्षय-विमुक्ति (=तृष्णा के विनाश से होने वाली मुक्ति) को धारण करो; केवट्टपुत्त साति भिक्खु को तृष्णा के महाजाल-तृष्णा के महा-संघाट में फंसा (जानो) ।”
🌷भगवा (भगवान) ने वह कहा, सन्तुष्ट हो उन भिक्खुओं ने भगवा के भाषण का अभिनन्दन किया।
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🌿🌿अर्थविशेष-
1, मोघ (बनारसी हिन्दी)=फजूल का आदमी।
2. रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान ये पांच।
खन्ध (स्कंध) हैं।
- वेदना, संज्ञा, संस्कार रूप के संबंध से विज्ञान
ही की तीन अवस्थाएं हैं, इस प्रकार वे उसके
अन्तर्गत हैं।
- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, ये रूप-स्कंध हैं।
- जिसमें न भारीपन है, और जो न जगह घेरता
है, वह विज्ञान-स्कध है।
- रूप और विज्ञान के मेल से ही सारा संसार
बना है।
3. चक्षु आदि पांच इन्द्रियां और छठा मन,
ये छह आयतन है।
4. रूप चार-भूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु) को
कहते हैं,
और
नाम विज्ञान को कहते हैं ।
5. गंदब्भ (गंदर्भ) - उत्पन्न होने वाला चेतना
प्रवाह।
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