Friday, March 26, 2010

धम्मपद - बुद्धवग्गो

Commentary With Dhammapada's Buddha Vagga from chintan on Vimeo.

आदर्शवादी पथ से होते हुये बुद्ध हमे उसे जागृत अवस्था मे ले जाते हैं जहाँ मन  सांसारिक तत्वों से ऊपर उठ कर अलौकिक लौ से प्रकाशित होता है । धम्मपद का यही सार है ..बुद्धवग्गा मे यही कहा गया है कि हमारे जीवन की रुप रेखा हमारा मन करता हैअर्थात जैसे विचार वैसा कर्म …जैसा कर्म वैसा योग । जीवन को सुखद बनाने  प्रति बुद्धवग्गा की यह नीतियाँ  मन मे  आशा और आस्था का बोध कराती हैं ।

१७९.

यस्स जितं नावजीयति, जितं यस्स [जितमस्स (सी॰ स्या॰ पी॰), जितं मस्स (क॰)] नो याति कोचि लोके।

तं बुद्धमनन्तगोचरं, अपदं केन पदेन नेस्सथ॥

वह विजेता है , उस पर कभी विजय प्राप्त नही की जा सकती ..उसके प्रभाव क्षेत्र मे कोई दखल नही दे सकता । उसके पास पहुँचने का मर्ग है …बुद्ध ..जो जागृत स्वरुप है ।

१८०.

यस्स जालिनी विसत्तिका, तण्हा नत्थि कुहिञ्‍चि नेतवे।

तं बुद्धमनन्तगोचरं, अपदं केन पदेन नेस्सथ॥

बस बुद्ध के समीप होने के लिये इच्छाओं के जाल तथा माया मोह के भंवर से निकलना होगा ।

१८१.

ये झानपसुता धीरा, नेक्खम्मूपसमे रता।

देवापि तेसं पिहयन्ति, सम्बुद्धानं सतीमतं॥

ईशवर भी जागृतों से प्रतिस्पर्था कर उन पर कृपा करते हैं ..जगृत होकर ध्यानवस्था मे ही पूर्ण स्वतंत्रता और शांति की प्राप्ति संभव है ।

१८२.

किच्छो मनुस्सपटिलाभो, किच्छं मच्‍चान जीवितं।

किच्छं सद्धम्मस्सवनं, किच्छो बुद्धानमुप्पादो॥

मनुष्य योनि मे जन्म लेना कठिन है .. फ़िर मनुष्य बन कर रहना उससे  भी कठिन ..धर्म को समझना और भी कढिन …तथा निर्वाण की प्राप्ति सर्वाधिक कठिन ।

१८३.

सब्बपापस्स अकरणं, कुसलस्स उपसम्पदा [कुसलस्सूपसम्पदा (स्या॰)]।

सचित्तपरियोदपनं [सचित्तपरियोदापनं (?)], एतं बुद्धान सासनं॥

सब बुराइयों से दूर रहो ..अच्छाइयाँ पैदा करने की कोशिश करते रहो …मन मस्तिष्क की शुद्ध्ता रखॊ ।

१८४.

खन्ती परमं तपो तितिक्खा, निब्बानं [निब्बाणं (क॰ सी॰ पी॰)] परमं वदन्ति बुद्धा।

न हि पब्बजितो परूपघाती, न [अयं नकारो सी॰ स्या॰ पी॰ पात्थकेसु न दिस्सति] समणो होति परं विहेठयन्तो॥

धैर्य रखकर सहनशक्ति के साथ जीवन के मूल उद्देशय यानि निर्वाण प्राप्ति की कोशिश करते रहो …किसी के कष्ट का करण न बनो और न हीऒ किसी को कष्ट दो ।

१८५.

अनूपवादो अनूपघातो [अनुपवादो अनुपघातो (स्या॰ क॰)], पातिमोक्खे च संवरो।

मत्तञ्‍ञुता च भत्तस्मिं, पन्तञ्‍च सयनासनं।

अधिचित्ते च आयोगो, एतं बुद्धान सासनं॥

धम्मसंहिता पर आचरण करते हुये किसी के दोषों को न देखॊ ..दूसरों को तकलीफ़ न दो .. काने और सोने मे संयमित रहो और द्यान लगाने की पूरी चेष्टा करो ।

१८६.

कहापणवस्सेन, तित्ति कामेसु विज्‍जति।

अप्पस्सादा दुखा कामा, इति विञ्‍ञाय पण्डितो॥

स्वर्ण भंडार भी तृष्णा नही मिटा सकते …मन की प्यास नही बुझा सकते …वे समझदार है जो जानते हैं कि तूष्णा ..अन्त मे दु:ख का कारण है ।

१८७.

अपि दिब्बेसु कामेसु, रतिं सो नाधिगच्छति।

तण्हक्खयरतो होति, सम्मासम्बुद्धसावको॥

स्वर्ण समान बुअतिक आनन्द से तूप्ति असंभव है …बुद्ध के सच्चे अनुयायी वही हैं जो इच्छाओं को मार कर अनमोल आनंद की प्राप्ति करते हैं ।

१८८.

बहुं वे सरणं यन्ति, पब्बतानि वनानि च।

आरामरुक्खचेत्यानि, मनुस्सा भयतज्‍जिता॥

१८९. नेतं खो सरणं खेमं, नेतं सरणमुत्तमं।

नेतं सरणमागम्म, सब्बदुक्खा पमुच्‍चति॥

भयग्रस्त होकर वनों पहाडॊं मे इपना , धार्मिक स्थलों की शरण लेना व्यर्थ है क्योकि इनमे से कोई भी मन को भय मुक्त नही कर सकता …

१९०.

यो च बुद्धञ्‍च धम्मञ्‍च, सङ्घञ्‍च सरणं गतो।

चत्तारि अरियसच्‍चानि, सम्मप्पञ्‍ञाय पस्सति॥

आयें बुद्ध की शरण मे आयें …धर्मानुसार जीवन जियें और संघ के अनूकूल व्यवहार करें ।

१९१.

दुक्खं दुक्खसमुप्पादं, दुक्खस्स च अतिक्‍कमं।

अरियं चट्ठङ्गिकं मग्गं, दुक्खूपसमगामिनं॥

..आप चार अभिजात सत्यों को ऐसे जानों ..दु:ख, दु:ख का कारण , दु:ख का निवारण और आर्दश अष्टागिंक मार्ग …

१९२.

एतं खो सरणं खेमं, एतं सरणमुत्तमं।

एतं सरणमागम्म, सब्बदुक्खा पमुच्‍चति॥

अष्टांगिक मार्ग द्वारा आप दु:ख – वेदना से मुक्ति पा सकते हैं ..उसकी शरण मे जाना ही उत्तम उपाय है …क्योंकि फ़िर दु:ख वेदना मिट जाते हैं ।

१९३.

दुल्‍लभो पुरिसाजञ्‍ञो, न सो सब्बत्थ जायति।

यत्थ सो जायति धीरो, तं कुलं सुखमेधति॥

बुद्ध के जैसा दूसरा कोई नही है । ऐसे महापुरुष बार-२ जन्म नही लेते । जहाँ ऐसे विवेकी जन्म लेते हैं वह समाज उन्नति करता है ।

१९४.

सुखो बुद्धानमुप्पादो, सुखा सद्धम्मदेसना।

सुखा सङ्घस्स सामग्गी, समग्गानं तपो सुखो॥

बुद्ध का जन्म , धर्म की शिक्षा तथा संघ के अनूकूल आचरण आशीर्वाद के समान है ..

१९५.

पूजारहे पूजयतो, बुद्धे यदि व सावके।

पपञ्‍चसमतिक्‍कन्ते, तिण्णसोकपरिद्दवे॥

इसे तो ईशवर की अनुकंपा समझनी चाहिये ।

१९६.

ते तादिसे पूजयतो, निब्बुते अकुतोभये।

न सक्‍का पुञ्‍ञं सङ्खातुं, इमेत्तमपि केनचि॥

वे श्रेष्ठ हैं जो बुराइयों को त्याग कर , कष्टॊं को पार कर , भय को जीत कर , सम्मानीय को सम्मान देते हैं । बुद्ध एवं उनके अनुनायियों के प्रति आस्था और श्रद्धा रखते हैं ।

No comments:

Post a Comment