Thursday, August 23, 2012

धर्म तभी सद्धर्म हो सकता है , जब यह शिक्षा दे कि करुणा से भी अधिक मैत्री की आवशयकता है ….

बुद्ध ने ‘ करुणा ’  को ही धर्म की ‘इति’ नही कहा । ‘करुणा’ का अर्थ दुखी मनुष्यों के प्रति दया किया  जाना है । बुद्ध ने और आगे बढ  कर ‘ मैत्री’  की शिक्षा दी । ‘मैत्री’ का अर्थ है प्राणि मात्र के प्रति दया । जिस समय  भगवान बुद्ध श्रावस्ती मे विराजमान थे , उस समय अपने एक प्रवचन मे यह बात उन्होने अच्छी  तरह से स्पष्ट कर दी ।

मैत्री के बाए  मे बोलते हुये बुद्ध ने भिक्षुऒं से कहा -

“मान लो एक आदमी  पृथ्वी खोदने के लिये आता है , तो क्या पृथ्वी उसका विरोध करती है ?”

भिक्षुओं ने उत्तर दिया –  “ भगवान ! नही !”

“मान लो एक आदमी लाख और दूसरे रंग लेकर आकाश मे चित्र बनाना  चाहता है तो क्या वह बना सकेगा ?”

“नही”

“क्यों ? “  भिक्षु बोले – “क्योंकि आकाश का  रंग काला नही है ।”

“इसी प्रकार तुम्हारे मन मे कुछ कालिख नहीं  होनी चाहिये , जो कि तुम्हारे  राग द्धेष का परिणाम है ।”

“मान लो एक आदमी जलती हुई मशाल लेकर गंगा नदी मे आग लगाने आता है तो क्या वह  आग लगा सकेगा ?”

“ भगवान ! नही | ”

“क्यों ? “   भिक्षु बोले – “क्योंकि गंगा जल मे जलने का गुण नही है ।”

अपना प्रवचन सामाप्त करते हुये तथागत ने कहा – “भिक्षुओं ! जैसे पृथ्वी  आघात अनुभव नही करती और विरोध नही करती , जिस प्रकार हवा मे किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नही होती , जिस प्रकार गंगा नदी का जल अग्नि से अप्रभवित रहकर बहता रहता है ; उसी प्रकार भिक्षुओं ! यदि तुम्हारा कोई अपमान भी कर दे , यदि तुम्हारे साथ कोई अन्याय भी करे तो भी तुम अपने विरोधियों के प्रति मैत्री भाव को अपनाये रखो ।”

“  भिक्षुओं ! मैत्री की धारा को हमेशा प्रवाहित रहना चाहिये । तुम्हारा मन पृथवी की तरह  दृढ  , वायु की तरह स्वच्छ हो और गंगा नदी की तरह गम्भीर हो । यदि तुम मैत्री का अभ्यास रखोगे तो कोई भी तुम्हारे साथ कैसा भी अप्रतिकर व्यवहार करे , तुमाहारा चित्त विचिलित नही  होगा और तुमहारे विरोधी  लोग थक जायेगें ।”

“तुम्हारी मैत्री विशव की तरह  व्यापक होनी चाहिये और तुम्हारी भावनायें असीम होनी चाहिये जिनमें द्धेष का लेश भर भी जगह न हो ।”

“ मेरे धर्म के अनुसार करुणा ही पर्याप्त नही है , आदमी मे मैत्री होनी चाहिये ।”

“भिक्षुओं ! कोई भी पुण्य कर्म मैत्री भावना के सोलहवें हिस्से के भी बराबर नही है । मैत्री जो कि चित्त की विमुक्ति है , उन सबकॊ अपने अन्तर्गत ले लेती है – वह प्रकाशमान होती है , वह प्रदीप्त होती है वह प्रज्जवलित होती है ।”

“इसी प्रकार हे भिक्षुओं ! जैसे सभी तारों का प्रकाश मिलकर भी अकेले चद्रमा को सोलवहें हिस्से के बराबर नही , चन्द्रमा  का प्रकाश प्रकाशमान होता है , प्रदीप्त होता है , प्रज्जव्लित होता है । इसी प्रकार भिक्षुओं ! कोई भी पुण्य कर्म मैत्री भावना के सोलवहें हिसे के भी बराबर नही है ।  मैत्री जो कि चित्त की विमुक्ति है , उन सबकॊ अपने अन्तर्गत ले लेती है – वह प्रकाशमान होती है , वह प्रदीप्त होती है वह प्रज्जवलित होती है ।”

“और भिक्षुओं ! जैसे वर्षा ऋतु की समाप्ति पर स्वच्छ , अन्ध्र आकाश मे उगने वाला सूर्य , तमाम अन्धकार को विकीर्ण कर देता है ,  वह प्रकाशमान होता है , प्रदीप्त होता है , प्रज्जव्लित होता है ; और जैसे रात्रि की समाप्ति पर भोर का तारा  प्रज्जवलित होता है ; ठीक उसी प्रकार कॊई भी पुण्य कर्म मैत्री भावना के सोलवहें हिस्से के बराबर नही हो सकता । मैत्री जो कि चित्त की विमुक्ति है , उन सबकॊ अपने अन्तर्गत ले लेती है – वह प्रकाशमान होती है , वह प्रदीप्त होती है वह प्रज्जवलित होती है ।”

साभार स्त्रोत : भगवान बुद्ध और उनका धर्म – लेखक : बोधिसत्व डां भीमराव रामजी अम्बेडकर

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