Monday, August 17, 2015

****आर्य अष्टांगिक मार्ग सुत्त ****

****आर्य अष्टांगिक मार्ग सुत्त ****

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एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के बनाये आराम जेतवन में विहार करते थे l
वहाँ भगवान ने भिक्षुओ को आमंत्रित किया ,
भिक्षुओ ! आर्ये अष्टांगिक मार्ग का विभाग कर उपदेश करुँगा l उसे सुनो...
भदन्त ! कह कर उन भिक्षुओ ने भगवान का उत्तर दिया।
भगवान बोले, भिक्षुओ आर्ये अष्टांगिक मार्ग क्या हैं ? यही जो सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प , सम्यक वचन , सम्यक कर्मान्त , सम्यक आजीव , सम्यक व्ययाम , सम्यक स्मृति , सम्यक समाधी।
भिक्षुओ सम्यक दृष्टि क्या हैं ?
भिक्षुओ ! दुःख का ज्ञान, दुःख के समुदय का ज्ञान, दुःख के निरोध का ज्ञान, दुःख के निरोध गामी मार्ग का ज्ञान,यही सम्यक दृष्टि कही जाती हैं।
भिक्षुओ सम्यक संकल्प क्या हैं ?
भिक्षुओ ! जो त्याग का संकल्प तथा वैर और हिंसा से विरत रहने का संकल्प हैं यही सम्यक संकल्प कहा जाता हैं।
भिक्षुओ सम्यक वचन क्या हैं ?
भिक्षुओ ! जो झूठ, चुगली, कटु-भाषण और गप्प हाँकने से विरत रहना है यही सम्यक वचन कहा जाता हैं।
भिक्षुओ सम्यक कर्मान्त क्या हैं ?
भिक्षुओ ! जो जीव हिंसा ,चोरी और अब्रह्म्चर्ये से विरत रहने का संकल्प हैं यही सम्यक कर्मान्त कहा जाता हैं।
भिक्षुओ सम्यक आजीव क्या हैं ?
भिक्षुओ ! आर्ये श्रावक मिथ्या आजीव को छोड़ सम्यक आजीव से अपनी जीवका चलाता है यही सम्यक आजीव कहा जाता हैं।
भिक्षुओ सम्यक व्ययाम क्या हैं ?
भिक्षुओ ! भिक्षु अनुत्पन्न पापमय अकुशल धर्मो के अनुत्पाद के लिए (जिसमे वे उत्पन न हो सके) इच्छा करता हैं, प्रयास करता हैं, उत्साह करता हैं, मन लगता हैं।
उत्पन पापमय अकुशल धर्मो के प्रहाण के लिए इच्छा करता हैं, प्रयास करता हैं, उत्साह करता हैं, मन लगता हैं।
अनुत्पन्न कुशल धर्मो के उत्पाद के लिए (जिसमे वे उत्पन हो सके) इच्छा करता हैं, प्रयास करता हैं, उत्साह करता हैं, मन लगता हैं।
उत्पन कुशल धर्मो की स्थिति, वृद्धि व् पूर्ण करने के लिए इच्छा करता हैं, प्रयास करता हैं, उत्साह करता हैं, मन लगता हैं। इसी को कहते हैं सम्यक व्ययाम।
भिक्षुओ सम्यक स्मृति क्या हैं ?
भिक्षुओ ! भिक्षु काया में कायानुपश्यी होकर विहार करता हैं, क्लेशो को तपाते हुये, संप्रज्ञ, स्मृतिमान हो संसार में लोभ और दौर्मनस्ये को दबा कर।
भिक्षु वेदना में वेदनानुपश्यी होकर विहार करता हैं, क्लेशो को तपाते हुये, संप्रज्ञ, स्मृतिमान हो संसार में लोभ और दौर्मनस्ये को दबा कर।
भिक्षु चित में चितनुपश्यी होकर विहार करता हैं, क्लेशो को तपाते हुये, संप्रज्ञ, स्मृतिमान हो संसार में लोभ और दौर्मनस्ये को दबा कर।
भिक्षु धर्मो में धर्मोनुपश्यी होकर विहार करता हैं, क्लेशो को तपाते हुये, संप्रज्ञ, स्मृतिमान हो संसार में लोभ और दौर्मनस्ये को दबा कर।
भिक्षुओ सम्यक समाधी क्या हैं ?
भिक्षुओ ! भिक्षु काम और अकुशल धर्मो से हट, वितर्क और विचार वाले, विवेक से उत्पन प्रीतिसुख वाले प्रथम ध्यान को प्राप्त हो विहार करता हैं।
भिक्षु वितर्क और विचार के शांत हो जाने से, अध्यात्म प्रसाद वाले, चित की एकाग्रता वाले, वितर्क और विचार से रहित, समाधी से उत्पन प्रीति सुख वाले दुितीये ध्यान को प्राप्त हो विहार करता हैं।
भिक्षु प्रीति से विरक्त हो उपेक्षा पूर्वक विहार करता हैं, स्मृतिमान और संप्रज्ञ हो शरीर से सुख का अनुभव करता हैं। जिसे पंडित लोग कहते है स्मृतिमान हो उपेक्षा पूर्वक सुख से विहार करना , इसे तृतीय ध्यान कहते है।
भिक्षु सुख और दुःख के प्रहाण हो जाने से, पहले ही सौमनस्ये और दौर्मनस्ये के अस्त हो जाने से सुख और दुःख से रहित, उपेक्षा और स्मृति की परिशुद्धि वाले चतुर्थ ध्यान को प्राप्त कर विहार करता है , भिक्षुओ इसी को कहते है सम्यक समाधी।

८ विभंग सुत्त ४३ १ ८ ,आर्ये अष्टांगिक मार्ग ( संयुक्त निकाय )

साभार :


Pingala Wanjari
Pingala Wanjari

Sunday, August 16, 2015

" गणकमोग्गल्लानसुत्तं "

6-june
हम सभी साधकों का कल्याण करने हेतु
करुणानिधान भगवान बुद्ध ने, गणकमोग्गल्लान
ब्राह्मण को केवल माध्यम बनाकर यह हितोपदेश
किया है। इसे ऐसे पढ़ो की जीवन में उतर जाय।
अपितु यह निश्चित समझ लो कि यह हमारे पूर्वजों
की वसीयत ही है। यही तो हमारा परम धन है।
मंगल कामना के साथ इसे अपना बना लो।
ऐसा मैंने सुना है कि एक समय भगवान् बुद्ध
श्रावस्ती स्थित पूर्वाराम के मृगारमातृप्रासाद में
साधना हेतु विराजमान थे।
तब एक गणितज्ञ गणकमौद्गल्यायन ब्राह्मण,
जहां भगवान विराजमान थे वहां गया।
जाकर भगवान से कुशलमंगल पूछ कर,
वंदन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे
गणक मौद्गल्यायन ब्राह्मण ने भगवान से यों
निवेदन किया,
भो गौतम हम गणित शास्त्र पढ़ाते समय अपने विद्यार्थियों को क्रमशः पाठ पढ़ाते हैं।
मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि ……
" क्या, भो गौतम ! आपके इस धर्मविनय में भी
इसी तरह क्रमशः शिक्षा प्रदान की जाती हैं? "
भगवान बुद्ध ने कहा, ' हाँ, ब्राह्मण ! हमारे इस
धर्मविनय में भी ऐसी ही क्रमिक शिक्षा दी जाती हैं।
एक उदाहरण से समझाते हुए कहते हैं ……
ब्राह्मण ! जैसे चतुर अश्वारोही अच्छी नस्ल का
अश्व पाकर प्रारंभ में उसे मुँह में लगाम पकड़ने की
क्रिया सिखाता है, फिर आगे की क्रियाएं सिखाता है।
हे ब्राह्मण ! बिल्कुल इसी तरह तथागत किसी
साधक को अनुशासन के लिए योग्य पाकर, पहले
उसे यह शिक्षा देते हैं …
आओ, भिक्षु ! तुम पहले शीलवान् बनो,
' प्रातिमोक्ष संवर ' अर्थात भिक्षु नियमों का पालन
करते हुए स्वयं में संयम के बीज बोना
सिख लो।
आचारगोचर संपन्न बनना सिखों।
इंद्रियों को संयम में रखना सिखों।
और हे भिक्षु ! अपने में अत्यल्प, छोटे से छोटा भी
दोष देखकर उससे भय मानों। यों मेरे बतलाये
शिक्षापदों का पालन करते हुए साधना में निरंतर
लगे रहों।
यह पहली कक्षा समझों ➖
ब्राह्मण ! जब वह भिक्षु शीलवान् होकर
शिक्षापदों का पालन करने में सतत जागरूक
रहने लगता है, तब उसे आगे की शिक्षा देना प्रारंभ
करते हैं। वह इस प्रकार है ……
" आओ भिक्षु ! अब तुम सभी इंद्रियों में संयम रखना
सिखों ; चक्षु से किसी रूप को देखकर भी उसमें
राग या द्वेष उत्पन्न नहीं करना ।
दोनों ही साधना में भिक्षु के लिए घातक है ।
इसका कारण बताते हैं ।
क्योंकि चक्षुरिन्द्रिय को असंयत छोड़कर साधना करने
वाले को अभिध्या ( राग - लोलुपता ) ,
दौर्मनस्य ( अप्रसन्न या उदास होना ) ,
आदि अकुशल पापमय कर्मों का विघ्न उत्पन्न होगा ,
या यों कहें कि ---
ये दोष उसकी साधना में बाधा उत्पन्न करेंगे ही ।
इसलिए साधक का यह प्रथम कर्तव्य होता है कि वह
अपने इंद्रियों को संयम में रखें । यही स्थिति अन्य
इंद्रियों की होती हैं … नाक , कान , जिभ , त्वचा ।
हे ब्राह्मण ! जब भिक्षु अपने इंद्रियों में संयम करना
सिख लेता है, तब उसे साधना में आगे बढ़ने के लिए
तथागत आगे की विनय शिक्षा इस प्रकार देते हैं ।
भगवान बुद्ध आगे बताते हैं ➖
" आओ , भिक्षु ! अब तुम भोजन में मात्रा का ,
ज्ञान रखने वाले बनो । इतना ही अन्न ग्रहण करना
चाहिए कि जिससे तुम्हारी काम करने की क्षमता
बनी रहें , ना अति कम ना ज्यादा पेट भरकर
भोजन करें । इतना स्मरण रहे की तुम्हारी
शरीरयात्रा सुचारु रूप से चलती रहें । "
हे ब्राह्मण जब भिक्षु भोजन की मात्रा का
ज्ञान रखने वाला हो जाता हैँ , तब भगवान उसे आगे
की शिक्षा देना प्रारंभ करते हैं ।
आओ , भिक्षु ! तुम जागरण में तत्पर रहना सिखों ।
शरीर को थोड़ा विश्राम मिलें इतना ही सोना चाहिए ।
रात्रि के अंतिम प्रहर में उठकर चंक्रमण के साथ
' चलत - ध्यान ' करते हुए चित्त को विमुक्त करने का
सतत प्रयास करते रहों । "
भगवान आगे बताते हैं ----
हे ब्राह्मण जब भिक्षु , जागरण में तत्पर होकर
साधनासुख जान लेता है , तब तथागत उसे आगे की
शिक्षा देते हैं । " आओ , भिक्षु ! तुम स्मृतिसम्प्रजन्य युक्त होकर , विपस्सना साधना करते हुए इस साढ़े तीन हाथ
की काया में कायानुपश्यी होकर , तटस्थ रहते हुए ,
काया में उत्पन्न होने वाली संवेदनाओं को साक्षी भावसे देखो , ना उसे अच्छी मानकर उसमें राग जगाना , ना ही दुःखावेदना को बुरी मानकर उसे दूर धकेलनेकी कोशिश करना ।
इस प्रकार संपूर्ण लोक में अर्थात शरीर में संवेदनाओं
को साक्षी भावसे देखना , शरीर में उपर-नीचे ,
आड़े-तिरछे , सभी अङ्गों-प्रत्यङ्गो का मन के सहयोग
से निरिक्षण करना ।
भिक्षु जब यह अच्छी तरह से सिख लेता है कि
वह ' काया - वाणी और मन ' से संपूर्ण मौन साध्य
कर लेता है , तब वह साधना में अग्रसर होता है ।
और फिर हे ब्राह्मण जब भिक्षु सतत जागृत
स्मृति सम्प्रजन्य युक्त हो जाता है तब वह उठत-बैठते ,
चलते , हर समय इर्यापथस्मृति वाला होता है ।
वह अपने चिवर के प्रति सजग रहता है ।
हाथ-पैर पसारने की क्रिया में , खाते पिते समय
हर वक्त वह बहुत ही सजग रहता है ।
ऐसी परिपक्व साधना की अवस्था में जब वह भिक्खु पहुंचता है , तब तथागत उसे आगे की शिक्षा देना
उचित समझते हैं ।
आओ भिक्षु अब तुम एकांतवास के लिए
योग्य हुए हो , एवं तुम अभी वन में किसी पेड़ के
नीचे बैठकर मन को एकाग्र कर साधना करो ।
निद्रा , आलस्य , तन्द्रा , भय , इत्यादि सभी को
छोड़कर , भिक्षाटन के बाद , देह को सीधा कर ,
मन को एकाग्र कर , आसन लगाकर आस्रवोंके
क्षय के लिए चित्त को लगाने की कोशिश कर वह
आगे बढता चला जाता है ।
फिर वह भिक्षु , कामछंद , व्यापाद ,
आलस्य , औद्धत्यकौकृत्य और विचिकित्सा
इन पाँचों निवरणों का प्रहाण कर ,
चित्त के उपक्लेशों को दूर हटाकर ,
उन्हें दुर्बल बनाकर , अकुशल धर्मोंका नाश
करता हुआ वितर्क-विचार सहित विवेकजन्य
प्रीतिसुख वाले प्रथम ध्यान को प्राप्त कर
विहार करता है ।
हे ब्राह्मण फिर वह भिक्षु , आठों ध्यानों को
प्राप्त कर विहार करता है । उसका लक्ष्य निश्चित
होता है कि , हर अवस्था में आस्रवोंका क्षय करना ।
हे ब्राह्मण जो भिक्षु अभी तक शैक्ष्य है , जिन्हें कुछ सिखना अभी शेष है , अतः जो निर्वाण तक नहीं पहुंचे , उनको मेरी उपर वर्णन की हुई शिक्षा होती हैं । ताकि वे अपने लक्ष्य को , नितांत निर्मल निर्वाण को
प्राप्त कर सकें ।
और हे ब्राह्मण मेरे श्रावक जिन्होंने अपनी
साधना पूर्ण कर ली है , जो परम निर्वाण प्राप्त कर
चुके हैं , उनके लिए मेरी ये बातें ( शिक्षापद ) अपने
अवशिष्ट जीवन में सुखविहार के लिए होती हैं ।
हे ब्राह्मण तथागत तो केवल मार्ग बताने
वाले हैं । आगे जिसकी जैसी साधना वैसे वह फल
पाता है । हे ब्राह्मण
निर्वाण भी वही है ,
निर्वाणगामी मार्ग भी वही है ,
निर्वाणमार्गोपदेष्टा मैं भी वही हूँ ,
कुछ भिक्षु निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं और
कुछ नहीं । ऐसा क्यों ?
उनकी साधना की कमी के कारण ।
मैं इस विषय में क्या कर सकता हूँ ?
मैं केवल मार्ग बताने मात्र का उत्तरदायी हूँ ।
गणकमोग्गल्लान ब्राह्मण संतुष्ट होकर भगवान् बुद्ध की शरण में आते हुए कहता है ------
आश्चर्य भो गौतम आप गौतम द्वारा उपदेशित
धर्म ( धर्मसाधना ) वर्तमान में सभी मतवादों में श्रेष्ठ है । आज से आगे मुझे जीवनपर्यंत अपना शरणागत
और उपासक समझें ।

मज्झिमनिकायपालि , उपरिपण्णासकमिता ,
पञ्चमो भागो , 7 , गणकमोग्गल्लानसुत्तं .
साभार :
Pingala Wanjari
Pingala Wanjari