Sunday, August 16, 2015

" गणकमोग्गल्लानसुत्तं "

6-june
हम सभी साधकों का कल्याण करने हेतु
करुणानिधान भगवान बुद्ध ने, गणकमोग्गल्लान
ब्राह्मण को केवल माध्यम बनाकर यह हितोपदेश
किया है। इसे ऐसे पढ़ो की जीवन में उतर जाय।
अपितु यह निश्चित समझ लो कि यह हमारे पूर्वजों
की वसीयत ही है। यही तो हमारा परम धन है।
मंगल कामना के साथ इसे अपना बना लो।
ऐसा मैंने सुना है कि एक समय भगवान् बुद्ध
श्रावस्ती स्थित पूर्वाराम के मृगारमातृप्रासाद में
साधना हेतु विराजमान थे।
तब एक गणितज्ञ गणकमौद्गल्यायन ब्राह्मण,
जहां भगवान विराजमान थे वहां गया।
जाकर भगवान से कुशलमंगल पूछ कर,
वंदन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे
गणक मौद्गल्यायन ब्राह्मण ने भगवान से यों
निवेदन किया,
भो गौतम हम गणित शास्त्र पढ़ाते समय अपने विद्यार्थियों को क्रमशः पाठ पढ़ाते हैं।
मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि ……
" क्या, भो गौतम ! आपके इस धर्मविनय में भी
इसी तरह क्रमशः शिक्षा प्रदान की जाती हैं? "
भगवान बुद्ध ने कहा, ' हाँ, ब्राह्मण ! हमारे इस
धर्मविनय में भी ऐसी ही क्रमिक शिक्षा दी जाती हैं।
एक उदाहरण से समझाते हुए कहते हैं ……
ब्राह्मण ! जैसे चतुर अश्वारोही अच्छी नस्ल का
अश्व पाकर प्रारंभ में उसे मुँह में लगाम पकड़ने की
क्रिया सिखाता है, फिर आगे की क्रियाएं सिखाता है।
हे ब्राह्मण ! बिल्कुल इसी तरह तथागत किसी
साधक को अनुशासन के लिए योग्य पाकर, पहले
उसे यह शिक्षा देते हैं …
आओ, भिक्षु ! तुम पहले शीलवान् बनो,
' प्रातिमोक्ष संवर ' अर्थात भिक्षु नियमों का पालन
करते हुए स्वयं में संयम के बीज बोना
सिख लो।
आचारगोचर संपन्न बनना सिखों।
इंद्रियों को संयम में रखना सिखों।
और हे भिक्षु ! अपने में अत्यल्प, छोटे से छोटा भी
दोष देखकर उससे भय मानों। यों मेरे बतलाये
शिक्षापदों का पालन करते हुए साधना में निरंतर
लगे रहों।
यह पहली कक्षा समझों ➖
ब्राह्मण ! जब वह भिक्षु शीलवान् होकर
शिक्षापदों का पालन करने में सतत जागरूक
रहने लगता है, तब उसे आगे की शिक्षा देना प्रारंभ
करते हैं। वह इस प्रकार है ……
" आओ भिक्षु ! अब तुम सभी इंद्रियों में संयम रखना
सिखों ; चक्षु से किसी रूप को देखकर भी उसमें
राग या द्वेष उत्पन्न नहीं करना ।
दोनों ही साधना में भिक्षु के लिए घातक है ।
इसका कारण बताते हैं ।
क्योंकि चक्षुरिन्द्रिय को असंयत छोड़कर साधना करने
वाले को अभिध्या ( राग - लोलुपता ) ,
दौर्मनस्य ( अप्रसन्न या उदास होना ) ,
आदि अकुशल पापमय कर्मों का विघ्न उत्पन्न होगा ,
या यों कहें कि ---
ये दोष उसकी साधना में बाधा उत्पन्न करेंगे ही ।
इसलिए साधक का यह प्रथम कर्तव्य होता है कि वह
अपने इंद्रियों को संयम में रखें । यही स्थिति अन्य
इंद्रियों की होती हैं … नाक , कान , जिभ , त्वचा ।
हे ब्राह्मण ! जब भिक्षु अपने इंद्रियों में संयम करना
सिख लेता है, तब उसे साधना में आगे बढ़ने के लिए
तथागत आगे की विनय शिक्षा इस प्रकार देते हैं ।
भगवान बुद्ध आगे बताते हैं ➖
" आओ , भिक्षु ! अब तुम भोजन में मात्रा का ,
ज्ञान रखने वाले बनो । इतना ही अन्न ग्रहण करना
चाहिए कि जिससे तुम्हारी काम करने की क्षमता
बनी रहें , ना अति कम ना ज्यादा पेट भरकर
भोजन करें । इतना स्मरण रहे की तुम्हारी
शरीरयात्रा सुचारु रूप से चलती रहें । "
हे ब्राह्मण जब भिक्षु भोजन की मात्रा का
ज्ञान रखने वाला हो जाता हैँ , तब भगवान उसे आगे
की शिक्षा देना प्रारंभ करते हैं ।
आओ , भिक्षु ! तुम जागरण में तत्पर रहना सिखों ।
शरीर को थोड़ा विश्राम मिलें इतना ही सोना चाहिए ।
रात्रि के अंतिम प्रहर में उठकर चंक्रमण के साथ
' चलत - ध्यान ' करते हुए चित्त को विमुक्त करने का
सतत प्रयास करते रहों । "
भगवान आगे बताते हैं ----
हे ब्राह्मण जब भिक्षु , जागरण में तत्पर होकर
साधनासुख जान लेता है , तब तथागत उसे आगे की
शिक्षा देते हैं । " आओ , भिक्षु ! तुम स्मृतिसम्प्रजन्य युक्त होकर , विपस्सना साधना करते हुए इस साढ़े तीन हाथ
की काया में कायानुपश्यी होकर , तटस्थ रहते हुए ,
काया में उत्पन्न होने वाली संवेदनाओं को साक्षी भावसे देखो , ना उसे अच्छी मानकर उसमें राग जगाना , ना ही दुःखावेदना को बुरी मानकर उसे दूर धकेलनेकी कोशिश करना ।
इस प्रकार संपूर्ण लोक में अर्थात शरीर में संवेदनाओं
को साक्षी भावसे देखना , शरीर में उपर-नीचे ,
आड़े-तिरछे , सभी अङ्गों-प्रत्यङ्गो का मन के सहयोग
से निरिक्षण करना ।
भिक्षु जब यह अच्छी तरह से सिख लेता है कि
वह ' काया - वाणी और मन ' से संपूर्ण मौन साध्य
कर लेता है , तब वह साधना में अग्रसर होता है ।
और फिर हे ब्राह्मण जब भिक्षु सतत जागृत
स्मृति सम्प्रजन्य युक्त हो जाता है तब वह उठत-बैठते ,
चलते , हर समय इर्यापथस्मृति वाला होता है ।
वह अपने चिवर के प्रति सजग रहता है ।
हाथ-पैर पसारने की क्रिया में , खाते पिते समय
हर वक्त वह बहुत ही सजग रहता है ।
ऐसी परिपक्व साधना की अवस्था में जब वह भिक्खु पहुंचता है , तब तथागत उसे आगे की शिक्षा देना
उचित समझते हैं ।
आओ भिक्षु अब तुम एकांतवास के लिए
योग्य हुए हो , एवं तुम अभी वन में किसी पेड़ के
नीचे बैठकर मन को एकाग्र कर साधना करो ।
निद्रा , आलस्य , तन्द्रा , भय , इत्यादि सभी को
छोड़कर , भिक्षाटन के बाद , देह को सीधा कर ,
मन को एकाग्र कर , आसन लगाकर आस्रवोंके
क्षय के लिए चित्त को लगाने की कोशिश कर वह
आगे बढता चला जाता है ।
फिर वह भिक्षु , कामछंद , व्यापाद ,
आलस्य , औद्धत्यकौकृत्य और विचिकित्सा
इन पाँचों निवरणों का प्रहाण कर ,
चित्त के उपक्लेशों को दूर हटाकर ,
उन्हें दुर्बल बनाकर , अकुशल धर्मोंका नाश
करता हुआ वितर्क-विचार सहित विवेकजन्य
प्रीतिसुख वाले प्रथम ध्यान को प्राप्त कर
विहार करता है ।
हे ब्राह्मण फिर वह भिक्षु , आठों ध्यानों को
प्राप्त कर विहार करता है । उसका लक्ष्य निश्चित
होता है कि , हर अवस्था में आस्रवोंका क्षय करना ।
हे ब्राह्मण जो भिक्षु अभी तक शैक्ष्य है , जिन्हें कुछ सिखना अभी शेष है , अतः जो निर्वाण तक नहीं पहुंचे , उनको मेरी उपर वर्णन की हुई शिक्षा होती हैं । ताकि वे अपने लक्ष्य को , नितांत निर्मल निर्वाण को
प्राप्त कर सकें ।
और हे ब्राह्मण मेरे श्रावक जिन्होंने अपनी
साधना पूर्ण कर ली है , जो परम निर्वाण प्राप्त कर
चुके हैं , उनके लिए मेरी ये बातें ( शिक्षापद ) अपने
अवशिष्ट जीवन में सुखविहार के लिए होती हैं ।
हे ब्राह्मण तथागत तो केवल मार्ग बताने
वाले हैं । आगे जिसकी जैसी साधना वैसे वह फल
पाता है । हे ब्राह्मण
निर्वाण भी वही है ,
निर्वाणगामी मार्ग भी वही है ,
निर्वाणमार्गोपदेष्टा मैं भी वही हूँ ,
कुछ भिक्षु निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं और
कुछ नहीं । ऐसा क्यों ?
उनकी साधना की कमी के कारण ।
मैं इस विषय में क्या कर सकता हूँ ?
मैं केवल मार्ग बताने मात्र का उत्तरदायी हूँ ।
गणकमोग्गल्लान ब्राह्मण संतुष्ट होकर भगवान् बुद्ध की शरण में आते हुए कहता है ------
आश्चर्य भो गौतम आप गौतम द्वारा उपदेशित
धर्म ( धर्मसाधना ) वर्तमान में सभी मतवादों में श्रेष्ठ है । आज से आगे मुझे जीवनपर्यंत अपना शरणागत
और उपासक समझें ।

मज्झिमनिकायपालि , उपरिपण्णासकमिता ,
पञ्चमो भागो , 7 , गणकमोग्गल्लानसुत्तं .
साभार :
Pingala Wanjari
Pingala Wanjari









3 comments:

  1. सर बिना स्मृती (सति) के शील पालन कैसे संभव है? जब तक मनोकायिक अस्तित्व के साथ संपर्क प्रस्थापित नही होता तबतक शील पालन कैसे संभव है? हां, शील की समझ जरूर आ सकती है लेकीन आत्मभान के बगैर शील पालन करना नामुमकीन है ऐसा अनुभव से प्रतीत होता है. शिल -समाधि -प्रज्ञा का क्रम भी अनुचित लगता है. शील ही कठीण तो बाद बातें विचार में ही असंभवसी लगेगी तो निब्बाण तक आगे बढना कैसे संभव होगा? कहीं यह सब बाद में तो नही जोड दिया? वैसे, लिखित साहित्य भी बुद्ध के २००-३०० सालोन्के बाद अस्तित्व में आया है. कालाम सुत्त इसीकी ओर निर्देश करता है. ...'किसी बात को केवल इसलिये मत मानो क्योंकी... '

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    1. बहुत से सवाल मेरे लिये अनुतीर्ण हैं जैसे धमपद और जातक कथाओं मे पुनर्जन्म की अनगिनत कथायें , आत्मा , देवता या फ़िर यक्ष की कहानियाँ , सुत्पिटक को ही लें , अधिकतर सुत्त की शुरुआत जेतवन में एक देवता के आगमन से होती है जो अपनी चमक के साथ पूरे जेतवन को आलोकित करता है और फ़िर बुद्ध से सवाल करता है । कौन है यह देवता ? आप सही कह रह हैं कि बुद्ध के लगभग ५०० साल बाद यह सुत्त लिपिबद्ध हुये । हो सकता है इनमे घाल मेल हुये हॊ ।
      कुछ यही सवाल मैने दो दिन पूर्व पालि क्लास के दौरान अन्तर्षाट्रीय बौद्ध अनुस्थांन में भन्ते उपानन्द जीके सम्मुख उठाये । वह कहने लगे कि यह हमेशा से विवाद का प्र्शन रहा है लेकिन अगर हम इन विवादित अंश को हटा दें तो बौद्ध साहित्य मे बचेगा क्या ?
      अधिकतर बौद्ध देश की पंरपरायें उन्ही अधं विशवासों से बंधी है जैसे कि अन्य धर्म , तो फ़िर क्या फ़र्क हुआ अन्य धर्मॊ से ? इससे अच्छा और बेहतर तो नास्तिकता का मार्ग है जहाँ प्र्शन और तर्क दोनों ही है ।
      लेकिन अगर हम बुद्ध की मूल शिक्षाओं को देखें तो उनमे पूर्ण शुद्धि और गरिमा दोनॊ ही दिखाई देती है । जो कि अन्य कहानियों से मेल नही खाती ।
      संभवत: धर्म के साथ यह मजबूरी ही है कि उनमे अंधविशवास का तडका अवशय हो तभी उनके followers की संख्या बढती है ।

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    2. सर, विवादित अंश हटाने या न हटाने की बात नही है बल्की बिना जाने मानने न मानने की बात है. इसलिये हटाने से बौद्ध साहित्य में बचेगा क्या ? यह केवल मानसिक डर है. जब साहित्य अस्तित्व में ही नही था तब बुद्ध धम्म का प्रचार कैसे हो सका और वह भी आजकी तूलना में कई गुना अधिक परिणामकारक? यह वास्तव विचार करनेलायक है. मुझे तो लगता है आजके तथाकथित विकास में अभ्यास की सरलता (simplicity) लुप्त हो गयी है. इस परिणामकारक सरलता को हासील करना है तो अभ्यास की जटिलता से बचना होगा. और यह काम सम्यक साधना और विशेषतः सम्मा सति से ही संभव लगता है. क्योंकी सति से ही बोध है. इसलिये ग्रंथ या गुरु क्या कहते है यह महत्वपूर्ण नही है. उन्हे न मानने की भी आवश्यकता नही. मुझे अपने जीवन में मेरे अभ्यास से अंशतः क्यों न हो मुक्ती का एहसास होता है क्या और यह मुक्ती परिपूर्णता की ओर अग्रेसर हो रही है क्या यह बात मै महत्वपूर्ण मानता हुं. वरना जीवन का समय क्या किसी भी तऱ्ह से बिताया जा सकता है...वह दुक्ख के साथ भी बितता है या दुक्ख मुक्ती के संकल्प के साथ प्रयत्नशील रहकर भी जिया जा सकता है. यही बात निर्णायक है.

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