पूरे दिन का अवकाश मुझे कम ही मिलता है , एक होली वाले दिन और दूसरा दीपावली के अगले दिन , जब क्लीनिक बन्द रहती है । श्रावस्ती जाने का मन कई सालों से था , लेकिन संयोग बना गत वर्ष दीपावली के अगले दिन । सोच कर गये थे कि दो घंटे मे श्रावस्ती का अतीत देख लेगें लेकिन लगे पूरे छ घंटे । भगवान बुद्ध , अंगुलिमाल और कई जैन तीर्थाकरों की कहानियाँ कई जगह पढी थी लेकिन सजीव ही अतीत के उन अवशेषों को देखने का मौका मिला । देर रात घर लौटते हुये लगा कि कुछ पल और श्रावस्ती में रुक लेते । श्रावस्ती भ्रमण की यह यादें मानो मन:पटल मे आज भी सजीव रुप से अंकित है । यह पोस्ट शायद पिछले वर्ष ही डाल देनी चाहिये थी लेकिन समयभाव के कारण संभव न हो पाया । पूरी यात्रा के दौरान मेरे प्रिय मित्र श्री राजेश चन्द्रा जी का साथ फ़ोन के माध्यम से बना रहा , देर रात घर लौटने तक वह मेरे और मेरे परिवार के कुशलप्रेम की बार –२ खबर लेते रहे । उनके प्रेम रुपी व्यवहार की मधुर स्मृतियाँ मुझे हमेशा उनकी याद दिलाती रहेगी । साथ ही में पूर्वाराम विहार के भिक्षु श्री विमल तिस्स जी का भी जिनके सहयोग के बगैर कई तथ्यों को जानना मेरे लिये संभव नही होता ।
श्रावस्ती से भगवान् बुद्ध का गहरा रिशता रहा है । यह तथ्य इसी से प्रकट होता है कि जीवन के उत्तरार्थ के २५ वर्षावास( चार्तुमास ) बुद्ध ने श्रावस्ती मे ही बिताये । बुद्ध वाणी संग्रह त्रिपिटक के अन्तर्गत ८७१ सूत्रों ( धर्म उपदेशॊ ) को भगवान् बुद्ध ने श्रावस्ती प्रवास मे ही दिये थे , जिसमें ८४४ उपदेशों को जेतवन – अनाथपिंडक महाविहार में व २३ सूत्रों को मिगार माता पूर्वाराम मे उपदेशित किया था । शेष ४ सूत्रों समीप के अन्य स्थानों मे दिये गये थे । भगवान बुद्ध के महान आध्यात्मिक गौरव का केन्द्र बनी श्रावस्ती का सांस्कृतिक प्रवाह मे भयानक विध्वंसों के बाद वर्तमान मे भी यथावत है ।
इतिहास मे दृष्टि दौडायें तो कई रोचक तथ्य दिखते हैं । प्राचीन काल में यह कौशल देश की दूसरी राजधानी थी। भगवान राम के पुत्र लव ने इसे अपनी राजधानी बनाया था। श्रावस्ती बौद्ध व जैन दोनो का तीर्थ स्थान है।
माना गया है कि श्रावस्ति के स्थान पर आज आधुनिक सहेत महेत ग्राम है जो एक दूसरे से लगभग डेढ़ फर्लांग के अंतर पर स्थित हैं। यह बुद्धकालीन नगर था, जिसके भग्नावशेष उत्तर प्रदेश राज्य के, बहराइच एवं गोंडा जिले की सीमा पर, राप्ती नदी के दक्षिणी किनारे पर फैले हुए हैं।
इन भग्नावशेषों की जाँच सन् 1862-63 में जनरल कनिंघम ने की और सन् 1884-85 में इसकी पूर्ण खुदाई डा. डब्लू. हुई (Dr. W. Hoey) ने की। इन भग्नावशेषों में दो स्तूप हैं जिनमें से बड़ा महेत तथा छोटा सहेत नाम से विख्यात है। इन स्तूपों के अतिरिक्त अनेक मंदिरों और भवनों के भग्नावशेष भी मिले हैं। खुदाई के दौरान अनेक उत्कीर्ण मूर्तियाँ और पक्की मिट्टी की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जो नमूने के रूप में प्रदेशीय संग्रहालय (लखनऊ) में रखी गई हैं। यहाँ संवत् 1176 या 1276 (1119 या 1219 ई.) का शिलालेख मिला है, जिससे पता चलता है कि बौद्ध धर्म इस काल में प्रचलित था। जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान् महावीर ने भी श्रावस्ति में विहार किया था। चीनी यात्री फाहियान 5वीं सदी ई. में भारत आया था। उस समय श्रावस्ति में लगभग 200 परिवार रहते थे और 7वीं सदी में जब हुएन सियांग भारत आया, उस समय तक यह नगर नष्टभ्रष्ट हो चुका था। सहेत महेत पर अंकित लेख से यह निष्कर्ष निकाला गया कि 'बल' नामक भिक्षु ने इस मूर्ति को श्रावस्ति के विहार में स्थापित किया था। इस मूर्ति के लेख के आधार पर सहेत को जेतवन माना गया। कनिंघम का अनुमान था कि जिस स्थान से उपर्युक्त मूर्ति प्राप्त हुई वहाँ 'कोसंबकुटी विहार' था। इस कुटी के उत्तर में प्राप्त कुटी को कनिंघम ने 'गंधकुटी' माना, जिसमें भगवान् बुद्ध वर्षावास करते थे। महेत की अनेक बार खुदाई की गई और वहाँ से महत्वपूर्ण सामग्री प्राप्त हुई, जो उसे श्रावस्ति नगर सिद्ध करती है। श्रावस्ति नामांकित कई लेख सहेत महेत के भग्नावशेषों से मिले हैं।
महामंकोल थाई मन्दिर
प्रात: दस बजे तक हम श्रावस्ती की सडकों पर थे । दूर से ही विशाल महामंकोल थाई मन्दिर और बुद्ध की प्रतिमा दिख रही थी । लेकिन मन्दिर मे पर्वेश करने पर ज्ञात हुआ कि स्थानीय लोगों के लिये मन्दिर के द्वार २ बजे के बाद खुलते है । मन्दिर की फ़ोटॊ लेने की अनुमति नही है । हाँलाकि बाहर से फ़ोटॊ ले सकते हैं । दोपहर २.३० बजे हम इस विशाल फ़ैले हुये प्रांगण के अन्दर प्रवेश कर गये । मन्दिर का संचालन थाई युवतियों और उन्के स्टाफ़ द्वारा किया जाता है । थाई शैली पर बना यह मन्दिर बेहद दर्शीनीय है ।
जेतवन अनाथपिण्क महाविहार ( सहेठ वन )
भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित इस आश्रम ( विहार ) में अब केवल कुटियों की बुनियाद मात्र रह गयी है । कहते हैं कि बुद्ध विहार के निर्माण लिये राजकीय जेतवन का चयन सुद्त्त ने किया था । सुदत् ने राजकुमार जेत से उधान के लिये किसी भी कीमत पर आग्रह किया । कुमार जेत ने भूखन्ड के बराबर सोने की मोहरों में सुदत ने लेन देन सुनिशचित किया । १८ करोड में विशाल भव्य सुविधाजनक विहार का निर्माण हुआ । राजकीय गौरव सम्मान के साथ यह अति रमणीय स्थान भगवान बुद्ध को दानार्पित किया गया । यही कारण है कि धर्म क्षेत्र मे सुदत – अनाथपिडंक का नाम चिरस्थाई हो गया । इसी तपोभूमि पर भगवान बुद्ध ने विशाल भिक्षु संघ के साथ उन्नीस चार्तुमास ( वर्षावास ) व्यतीत किये । सम्पूर्ण ८७१ उपदेशों में से ८४४ सूत्र इस जेताराम मे ही भगवान् बुद्ध ने दिया था ।
मन्दिर सं. १ एवं मोनेस्ट्री
ध्यान लगाते हुये विदेशी तीर्थयात्री
ऐसा लगता है कि इस तपस्थली पर नैसर्गिक शान्ति की सदोऊर्जा सर्वत्र आज भी विधमान है । कुछ क्षण आँखों को बन्द कर के गन्ध कुटी के सामने खडा रहकर इस उर्जा का स्वानुभव किया जा सकता है । यह मेरा दिव्यस्वपन था या कल्पनाशीलता , यह कहना मुशकिल है ।जेतवन मे ही आगे बढने पर वयोवृद्ध पीपल वृक्ष ‘ आनन्द बोध ’ के दर्शन होते हैं । इसे पारिबोधि चैत्य भी कहते हैं । भन्ते आनन्द व भन्ते महामौदगल्यायन के सद् प्रयत्न से बोध गया के महायोगी वृक्ष की संतति तैयार की गयी , जिसे आनाथपिडंक ने यहाँ आरोपित किया था । कहते हैं कि भगवान् बुद्ध ने इसके नीचे एक रात्रि की समाधि लगाई थी ।
आनन्द बोधि वृक्ष ( पारिबोधि चैत्य)
आनन्द बोधि वृक्ष के आस पास कई कुटियों की बुनियादें शेष हैं जो बुद्धकाल के स्वर्णिम युग की एक झलक दिखाती हैं । इनमें से प्रमुख हैं : कौशाम्बी कुटी ( मन्दिर सं० ३ ), चक्रमण स्थल , आनन्द कुटि , जल कूप , धर्म सभा मण्डप , करील कुटी( मन्दिर सं० १ ) , पुष्करिणी , शवदाह स्थल, सीवली कुटी (मन्दिर सं० ७ ), आंगुलिमाल कुटी , धातु स्तूप, जन्ताधर स्तूप, अष्ट स्तूप , राजिकाराम ( मन्दिर सं० १९ ) , पूतिगत तिस्स कुटी ( मन्दिर सं० १२ ) । शेष भग्नावशेष भी कुटियों के अथवा धातु स्तूपों के हैं ।
अष्ट स्तूप
गन्ध कुटि ( मन्दिर सं० २ )
इन स्तूपों के अलावा जिस स्तूप का सर्वाधिक महत्व है, वह है गन्ध कुटि ( मन्दिर सं० २ ) । भगवान् बुद्ध का यह निवास स्थान था । चंदन की लकडी से निर्मित यह सात तल की सुंदर भव्य कुटी थी । इसे अनाथपिण्क ने बनवाया था । वर्तमान खण्डर के ऊपर का भाग बुद्धोतर काल का पुनर्निर्माण है । नीचे का भाग बुद्ध्कालीन है , इसमें भगवान् बुद्ध की प्रतिमा बाद में स्थापित की गयी थी । चीनी यात्री फ़ाह्यान ने इस विध्वंस पर दो मंजिला ईंट का बना भव्य बुद्ध मन्दिर देखा था । ह्ववेनसांग के यात्रा काल मे वह मन्दिर नष्ट हो चुका था । ढांचें से स्पष्ट होता है कि दीवारों की आशारीय मोटाई छ: फ़ुट व प्रकारों की आठ फ़ुट है । सम्पूर्ण गन्धकुटी परिसर की माप ११५ * ८६ फ़ीट है ।
धर्म सभा मण्डप
गन्ध कुटि से लगा हुआ धर्म सभा मण्डप भगवान् बुद्ध का धर्मोपदेश देने का स्थान था । यहाँ भिक्षुओं और अन्य जनों को बैठाकर भगवान बुद्ध धर्मौपदेश करते थे । इनके द्वारा ८४४ धर्म उपदेश यही से दिये गये थे ।
कुछ अन्य स्तूपों के चित्र :
मन्दिर सं. ११ एवं १२
मन्दिर सं. १९ एवं मोनेस्ट्री
स्तूप संख्या ५
जेतवन से हम चलते हैं महेठ वन की ओर ( लेकिन अगले अंक में )
…….. शेष अगले भाग में …..
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