Tuesday, September 10, 2013

ईश्वर मॆ ( अ) विश्वास और बुद्ध धम्म

अंगुतरनिकाय
इस संसार को किसने बनाया , यह एक सामान्य प्रशन है लेकिन इस दुनिया को ईश्वर ने बनाय यह वैसा ही सामन्य सा उत्तर है । इस सृष्टि रचयिता के कई नाम है , अलग –२ प्रांत और देशानुसार अलग-२ । यदि यह पूछा जाये कि तथागत ने ईश्वर को सृष्टि कर्ता के रुप में स्वीकार किया तो उत्तर है “ नही” बुद्ध ने कहा कि ईशवराश्रित धर्म कल्पनाश्रित है । इसलिये ऐसे धर्म का कोई उपयोग नही है । बुद्ध ने इस प्रशन को ऐसे ही नही छोड दिया । उन्होने इस प्रशन के नाना पहलूऒं पर विचार किया है ।
बुद्ध का तर्क था कि कि ईशवर का सिद्धान्त सत्याश्रित नही है । भगवान्‌ बुद्ध ने वासेठ्ठ और भारद्धाज के साथ हुई बातचीत मे स्पष्ट किया है ।

वासेठ्ठ और भारद्धाज के साथ भगवान्‌ बुद्ध के संवाद

वासेठ्ठ और भारद्धाज मे एक विवाद खडा हुआकि सच्चा मार्ग कौन सा है और झूठा कौन सा ? इस समय भगवान बुद्ध भिक्षु संघ के साथ कोशल जनपद मे विहार कर रहे थे । वह मनसाकत नामक ब्रहाम्ण गाँव मे अचिरवती नदी के तट पर एक बगीचे में ठ्हरे थे । वासेठ्ठ और भारद्धाज दोनों मनसाकत नाम की बस्ती में ही रहते थे । जब उन्होने सुना कि तथागत उनकी बस्ती में आये हैं तो वे उनके पास गये और दोनों ने भगवान्‌ बुद्ध से अपना दृष्टिकोण रखने का निवेदन किया ।
भारद्धाज ने कहा –” तरुक्ख का दिखाया मार्ग सीधा साधा है , वह मुक्ति का सीधा पथ है और जो इसका अनुसरण कर लेता है उसे वह ब्रह्मा से मिला देता है ।”
वासेठ्ठ ने कहा – “ हे गौतम बहुत से ब्राहम्ण बहुत से मार्ग सुझाते हैं – अध्वय्य ब्राहम्ण , तैत्तिरिय ब्राहम्ण, कंछोक ब्राहम्ण , तथा भीहुवर्गीय ब्राहम्ण,। वे सभी , जो इन के बताये पथ का अनुकरण करते हैं , उसे ब्रहमा से मिला देते हैं । जिस प्रकार किसी गाँव या नगर के पास अनेक रास्ते होते हैं , किन्तु वे सभी उसी गांव मे पहुंचा देते हैं , उसी तरह से ब्राहम्णॊं द्वारा दिखाये सभी पथ ब्रहमा से जा मिलते हैं । ”
तथागत ने प्रशन किया – “ तो वासेठ्ठ तुम्हारा क्या यह कहना है कि वे सभी मार्ग सही हैं ? वासेठ्ठ बोला – “ श्रमण गौतम हाँ, मेरा यही मानना है ।”
“ लेकिन वासेठ्ठ ! क्या तीनों वेदों के जानकार ब्राहमणॊं के गुरुऒं में कोई एक भी ऐसा है जिसने ब्रहमा का आमने सामने दर्शन किया हो ?”
"”गौतम ! निशचय ही नही ! ”
“ तो ब्रहमा को किसी ने नही देखा ? किसी को ब्रह्मा का साक्षात्कार नही हुआ ? “ वासेठ्ठ बोला – “ हां ऐसा ही है ।”
“ तब तुम कैसे यह मान सकते हो कि ब्राहम्णॊं का कथन सथाश्रित है ?
“ वासेठ्ठ ! जैसे कोई अंधे की कतार हो । न आगे चलने वाला अंधा देख सकता हो , न बीच मे और न पीछे चलने वाला अंधा । इसी तरह वासेठ्ठ ! मुझे लगता है कि ब्राहम्णॊं का कथन सिर्फ़ अंधा कथन है । न आगे चलने वाला देखता है , न बीच वाला और न पीछे वाला देखता है । इन ब्राहम्णॊं की बातचीत केवल उपहासस्यपद है , शब्द मात्र जिस में कोई सार नही ।”
“ वासेठ क्या यह ऐसा नही है कि किसी आदमी का किसी स्त्री से प्रेम हो गया हो जिसे उसने देखा तक नही हो ? “ "वासेठ्ठ बोला – “हां यह ऐसा ही है ।”
“ वासेठ! तब तुम यह बताओ कि यह कैसा होगा कि जब लोग उस आदमी से पूछेगें कि जिस सुन्दरतम स्त्री से प्रेम करने की बात करते हो वह अमुक स्त्री कौन है , कहां की है आदि ।”
सृष्टि के तथाकथित रचयिता की चर्चा करते हुये तथागत ने भारद्धाज और वासेठ्ठ से कहा – “ मित्रों ! जिस प्राणी ने पहले जन्म लिया था वह अपने बारे मे सोचने लगा कि मै ब्रहमा हूँ , विजेता हूँ , निर्माता हूं , अविजित हूँ , सर्वाधिकारी हूँ , मालिक हूँ , निर्माता हूँ , रचयिता हूँ, व्यवस्थापक हूँ, आप ही अपना स्वामी हूँ , और जो हैं तथा वे जो भविष्य में पैदा होने वाले हैं , उन सब का पिता हूँ । मुझ से यह सब प्राणी उत्पन्न होते हैं ।”
“ तो इसका यह मतलब हुआ न कि जो अब है और जो भविष्य में उतपन्न होने वाले हैं , ब्रह्मा सब का पिता है ? “
“ तुम्हारा कहना है कि यह जो पूज्य , विजेता , अविजित , जो है तथा जो होगें उन सब का पिता , जिससे हमारी उत्पति हुई है – ऐसा जो यह ब्रह्मा है , वह स्थायी है , सतत रहने वाला है , नित्य है , अपरिवर्तन-शील है और वह अनन्त काल तक ऐसा ही रहेगा । तो हम जिन्हें ब्रह्मा ने उत्पन्न किया है , जो ब्रह्मा के यहाँ से आये हैं , सभी अनित्य क्यों है , परिवर्तनशील क्यों हैं , अस्थिर क्यों हैं , अल्प जीवी क्यों हैं और मरणाधर्मी क्यों हैं ? “
इसका वासेठ्‌ के पास कोई उत्तर नही था ।
तथागत का तीसरा तर्क ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता से संबधित था । “ यदि ईश्वर सर्वशक्तिमान और सृष्टि का पर्याप्त कारण है , तो फ़िर आदमी के दिल मे कुछ करने की इच्छा ही उत्पन्न नही हो सकती , उसे कुछ करने की आवशयकता भी नही रह सकती , न उसके मन में कुछ करने का संकल्प ही पैदा हो सकता है । यदि वह ऐसा ही है तो ब्रह्मा ने आदमी को पैदा ही क्यों किया ? ”
इसका भी वासेठ्‌ के पास कोई उत्तर नही था ।
तथागत का चौथा तर्क था कि “ यदि ईश्वर कल्याण-स्वरुप है तो आदमी हत्यारे , चोर, व्यभिचारी , झूठे , चुगलखोर, लोभी , द्धेषी , बकवादी और कुमार्गी क्यों हो जाते हैं ? क्या किसी अच्छॆ , भले ईश्वर के रहते यह संभव है ? ”
तथागत का पाँचवां तर्क ईश्वर के सर्वज्ञ , न्यायी , और दयालु होने से संम्बधित था ।
“ यदि कोई ऐसा महान्‌ सृष्टि-कर्ता है जो न्यायी भी है और दयालु भी है , तो संसार मे इतना अन्याय क्यों हो रहा है ?” भगवान्‌ बुद्ध का प्रश्न था । उन्होनें कहा – “ जिसके पास भी आंख है वह इस दर्दनाक हालत को देख सकता है । ब्रह्मा अपनी रचना सुधारता क्यों नही है ? यदि उसकी शक्ति इतनी असीम है कि उसे कोई रोकने वाला नही तो उसके हाथ ही ऐसे क्यों हैं कि शायद वह किसी का कल्याण करते हो ?उसकी सारी की सारी सृष्टि दु:ख क्यों भोग रही है ? वह सभी को सुखी क्यों नही रखता है ? चारों ओर ठ्गी , झूठ , और अज्ञान क्यों फ़ैला हुआ है ? सत्य पर झूठ क्यों बाजी मार ले जाता है ? सत्य और नयाय क्यों पराजित हो जाते है? मै तुम्हारे ब्रह्मा को परं-अन्यायी मानता हूँ जिसने केवल अन्याय देने के लिये इस जगत की रचना की है । “
“ यदि सभी प्राणियों में कोई ऐसा सर्वशक्तिमान ईश्वर व्याप्त है जो उन्हें सुखी और दुखी बनाता है और जो उनसे पाप पुण्य कराता है तो ऐसा ईश्वर भी पाप से सनता है । या तो आदमी ईश्वर की आज्ञा में नही है या ईश्वर नेक और न्यायी नही है अथवा ईश्वर अन्धा है ।”
ईश्वर के अस्तित्व के सिद्धान्त के विरुद्ध उनक अगला तर्क यह था कि ईश्वर की चर्चा से कोई प्रयोजन सिद्ध नही होता । भग्वान्‌ बुद्ध के अनुसार धर्म की धुरि ईश्वर और आदमी का सम्बन्ध नही है बल्कि आदमी का आदमी के साथ संम्बन्ध है । धर्म का प्रयोजन यही है कि वह आदमी को शिक्षा दे कि वह दूसरे आदमी के साथ कैसे व्यवहार करे ताकि सभी आदमी प्रसन्न रह सकें ।
तथागत की दृष्टि में ईश्वर विश्वास सम्यक्‌ दृष्टि के मार्ग मे अवरोधक है । यही कारण था कि वह रीति रिवाजों , प्रार्थना और पूजा के आडंबरों के सख्त खिलाफ़ थे । तथागत का मानना था कि प्रार्थना कराने की जरुरत ने ही पादरी पुरोहित को जन्म दिया और पुरोहित ही वह शरारती दिमाग था जिसने इतने अन्धविशवास को जन्म दिया और सम्यक दृष्टि के मार्ग को अवरुद्ध किया ।
तथागत का ईश्वर अस्तित्व के विरुद्ध आखिरी तर्क प्रतीत्य-समुत्पाद के अन्तर्गत आता है । इस सिद्धान्त के अनुसार ईश्वर का अस्तित्व है या नही , यह मुख्य प्रश्न नही है और न ही की ईश्वर ने सृष्टि की रचना की है या नही ? असल प्रश्न है कि ईश्वर ने सृष्टि किस प्रकार रची ? प्रशन महत्वपूर्ण यह है कि ईश्वर ने सृष्टि भाव ( =किसी पदार्थ ) में से उत्पन्न की या अभाव ( = शून्य ) में से ?
यह तो एक्दम विशवास नही किया जा सकता कि ‘ कुछ नही ‘ में से कुछ की रचना हो गई । यदि ईश्वर ने सृष्टि की रचना कुछ से की है तो वह कुछ – जिस में से नया कुछ उत्पन्न किया गया है – ईश्वर के किसी भी अन्य चीज के उत्पन्न करने के पहले से ही चला आया है । इसलिये ईश्वर को उस कुछ का रचयिता नही स्वीकार किया जा सकता क्योंकि वह कुछ पहले से ही अस्तित्व मे चला आ रहा है ।
यदि ईश्वर के किसी भी चीज की रचना करने से पहले ही किसी ने कुछ में से उस चीज की रचना कर दी है जिससे ईश्वर ने सृष्टि की रचना की है तो ईश्वर सृष्टि का आदि-कारण नही कहला सकता ।
भगवान्‌ बुद्ध का यह आखिरी तर्क ऐसा था कि जो ईश्वर विश्वास के लिये सर्वथा मारक था और जिसका वासेठ्‌ और भारद्धाज के पास कोई जबाब नही था ।
( संकलन : पृष्ठ संख्या १९४-१९९ , भगवान्‌ बुद्ध और उनका धर्म , लेखक डां भीमराव रामजी अम्बेड्कर , अनुवादक :डां भदन्त आनन्द कौसल्लायन )

अगले भाग में देखें :भगवान्‌ बुद्ध की  सृष्टि निर्माण की बैज्ञानिक सोच : प्रतीत्य-समुत्पाद 

 

यह भी देखें :

बुद्ध का धम्म , मजहब और रीलीजन

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