Thursday, September 5, 2013

बुद्ध का धम्म , मजहब और रीलीजन

बुद्ध का धम्म , मजहब और रीलीजन
 
बुद्ध के धर्म  की परिभाषा हिदू धर्म , इस्लाम धर्म और ईसाई और यहूदी आदि धर्मों से बिलकुल अलग है । धर्मों को बुद्ध धर्म नही कहते । मजहब से बुद्ध का कोई लेना देना नही ।धर्म से बुद्ध का अर्थ है – जीवन का शाशवत नियम , जीवन का सनातन नियम । इससे हिंदू , मुसलमान , ईसाई का कुछ लेना देना नही । इसमें मजहबों के झगडे का कोई संबध नही । यह तो जीवन की बुनियाद में जो नियम काम कर रहा है , एस धम्मो सनंतनो, वह जो शशवत नियम है , बुद्ध उसकी बात करते हैं । और जब बुद्ध कहते हैं : धर्म की शरण मे जाओ , तो वे यह नही कहते कि किस धर्म की शरण मे । बुद्ध कहते हैं कि  धर्म को खोजो कि शशवत नियम क्या है ? उस नियम की शरण मे जाओ । उस नियम से विपरीत मत जाओ नही तो दुख पाओगे । ऐसा नही कि कोई परमात्मा कही बैठा है कि जो तुमको दंड देगा । कही कोई परमात्मा नही है । बुद्ध के लिये संसार एक नियम है । अस्तित्व एक नियम है । ज्ब तुम उसके विपरीत जाते हो तो विपरीत जाने के कारण ही  दुख  पाते हो ।
एक आदमी नशे में डांवाडोल चलता है और अपना  घुंटना फ़ोड लेता है  । तो ऐसा नही है कि परमात्मा ने शराब पीने का उसे दंड दिया । बुद्ध को यह  बातें बचकानी लगती  हैं । वह आदमी स्वयं ही गिरा क्योंकि वह गुरुतवाकर्षण के नियम के विरुद्ध जा रहा था । उसकी शराब उसके लिये दंड बन गई । गुरुतवाकर्षण का नियम है कि तुम अगर डांवाडोल हुये , उलटे सीधे चले तो गिरोगे ही । जो नियम के साथ चलते हैं उन्हें नियम संभाल लेता है और जो नियम के विपरीत चलते हैं वे अपने हाथ स्वयं ही गिर पडते हैं ।

 

 ‘ मजहब या रीलीजन  क्या है ? ’

मजहब का अर्थ है ईशवर में विशवास , आत्मा मे विशवास , ईशवर की पूजा और प्रार्थना आदि कर के ईश्वर को प्रसन्न रखना । हाँलाकि मजहब की कल्पना कभी भी स्थिर न्रही । एक समय था बिजली , वर्षा , और बाढ की घटनायें आदमी की समझ से परे थी । इन सब पर जो भी टोना टोटका किया जाता थ वह जादू कहलाता था । उस समय मजहब और जादू दोनों एक ही चीज के दो नाम थे ।
मजहब के विकास में दूसरा समय आया तब मजहब का अर्थ आदमी के विशवास , रीति रिवाज , प्राथनायें और बलियों वाले यज्ञ थे । तब तक जादू का प्रभाव जाता रहा । मजहब का केन्द्र बिन्दु इस विशवास पर निर्भर करता है कि कोई शक्ति विशेष है जिस के कारण सभी घटनायें घटती रहती हैं और जो आदमी की समझ से परे की बात है  ।

 

धर्म मजहब से भिन्न कैसे है ?

भगवान्‌ बुद्ध जिसे धर्म कहते हैं वह मजहब या रीलीजिन से सर्वाथा अलग है । जहाँ मजहब या रीलीजन व्यक्तिगत चीज है वही दूसरी ओर धर्म एक समाजिक वस्तु है । वह प्रधान रुप से और आवशयक रुप से सामाजिक है । धर्म का मतलब है सदाचरण , जिस का  अर्थ है जीवन के सभी क्षेत्रों में एक आदमी का दूसरे आदमी के प्रति अच्छा व्यवहार । इससे स्पष्ट है कि यदि कही परस्पर दो आदमी भी साथ रहते हों तो चाहे न चाहे उन्हें धर्म के लिये जगह बनानी पडेगी । दोनॊ में से एक भी बचकर नही जा सकता । जब कि यदि कही एक आदमी अकेला हो तो उसे किसी धर्म की आवशकता नही ।
धर्म क्या है ? धर्म की  आवशयकता क्यूं है ? भगवान्‌ बुद्ध के अनुसार धर्म के दो प्रधान तत्व हैं – प्रज्ञा और करुणा । प्रज्ञा का अर्थ है बुद्धि ( निर्मल बुद्धि ) । भगवान्‌ बुद्ध ने प्रज्ञा को अपने धर्म के दो स्तम्भों में से एक माना है , क्योंकि वह नही चाहते थे कि ‘ मिथ्या विशवासों ’ के लिये कोई जगह बचे ।
करुणा कया है ? और किसके लिये ? करुंणा का अर्थ है दया , प्रेम और मैत्री । इसके बगैर न तो समाज जीवित रह सकता है और न तो समाज की उन्नति हो सकती है । ‘प्रज्ञा और करुणा ’ का अलौकिक मिश्रण ही तथागत का धर्म है ।

 

धर्म और नैतिकता

मजहब या रीलीजन में नैतिकता बाहर से आने  हवा के एक झोंके की तरह है ताकि व्यवस्था और शान्ति मे उपयोगी सिद्ध हो । मजहब या रीलीजन मे एक त्रिकोण है । ‘अपने पडोसी के साथ अच्छा व्यवहार करो ’ क्योंकि तुम दोनों ही एक ही परमात्मा के पुत्र् हो । यही मजहब का तर्क है । हाँलाकि प्रत्येक  मजहब नैतिकता का उपदेश अवशय देता है लेकिन नैतिकता मजहब का मूलाधार नही है । यह्  एक रेल के डिब्बे की तरह है जिसे मौका अनुसार जोड भी लिया जाता है और पृथक भी किया जाता है ।
जहाँ मजहब या रीलिजन में जो स्थान  ईश्वर का है वही धर्म में नैतिकता का है । दूसरे शब्दों में कहे नैतिकता ही धर्म है और धर्म ही नैतिकता है । धर्म मे प्रार्थनाओं , तीर्थ यात्राओं , कर्मकाडॊं कॆ लिए , रीति रिवाजों के लिये तथा पशु हत्या ( बलि कर्मों ) के लिये कोई जगह नही है । धर्म में नैतिकता का अर्थ आदमी को आदमी के साथ मैत्री का है । इसमॆ ईशवर की मंजूरी की आवशकता नही । ईश्वर को प्रसन्न करने के लिये आदमी को नैतिक बनने की आवशयकता नही । अपने भले के लिये यह आवशक है कि वह आदमी से मैत्री करे ।
 

मजहब का उद्देशय और धर्म का उद्देशय

मजहब या रीलीजन का उद्देशय और धर्म के उद्देशय में क्या समान है और क्या असमानता है । इन प्रशनों का उत्तर दो सूक्तो में है , एक जिसमे भगवान्‌ बुद्ध और सुनक्खत की बातचीत का उल्लेख है और दूसरा जिसमॆ भगवान्‌ बुद्ध और पोट्‌ठपाद ब्राहमण की बातचीत का वर्णन  है।

भगवान्‌ बुद्ध और सुनक्खत के बीच का संवाद

एक बार भगवान्‌ बुद्ध जब मल्लों के नगर अनुपिय में विहार कर रहे थे – एक दिन चीवर पहन , पात्र हाथ मे लिये अनुपिय नगर मे भिक्षाटन के लिये निकले ।
मार्ग मे उन्हें लगा कि अभी सवेरा है अत: भिक्षाटन के लिये थॊडि देर रुकना चाहिये । ऐसा सोच , तथागत भग्गव परिव्राजक के आश्रम में चले गये ।
भगवान्‌ बुद्ध को आता देख कर परिव्राजक उनके स्वागत के लिये खडा हुआ । उनका अभिवादन किया और उन्हें सुसज्जित उच्च आसन पर बैठाकर स्वयं उनके पास एक ओर नीचा आसन कर के बैठ गया । इस प्रकार बैठकर भग्गव परिव्राजक ने कुशल प्रेम पूछ , भगवान्‌ बुद्ध से कहा –” हे श्रमण गौतम ! कुछ दिन हुये सुनक्खत लिच्छवी मेर्ते पास आया था । कहता था कि मैने श्रमण गौतम का शिष्यत्व त्याग दिया है । क्या जैसा उसने कहा ठीक है ?”
”हाँ , भग्गव ! ऐसा ही है , जैसा सुनक्खत लिच्छवी ने कहा ।“ तथागत ने आगे कहा – “कुछ दिन हुये सुनक्खत लिच्छवी  मेरे पास आया था और कहने लगा कि मै तथागत के शिष्य़्तत्व का त्याग करता हूँ क्योंकि तथागत सामान्य व्यक्तियों से परे कोई चमत्कार नही दिखाते ।”
इस पर मैने कहा – “सुनक्खत ! क्या मैने तुमसे कभी कहा था कि आ तू मेरा शिष्य बन जा , मै तुम्हें सामान्य व्यक्तियों की शक्ति से परे चमत्कार दिखाऊंगा ? ”
”नहीं भगवान्‌ आपने तो ऐसा नही कहा था ।” सुनक्खत ने उत्तर दिया ।
मैने उससे कहा – “सुनक्खत ! मेरे धर्म का उद्देशय चमत्कार दिखाना नही है । मेरे धर्म का उद्देशय यही है कि जो मेरे धर्म के अनुसार आचरण करेगा वह अपने दुखों का नाश करेगा ।”
सुनक्खत ने फ़िर कहा – “भगवान्‌! आप सृष्टि के आरम्भ का पता भी नही देते ।” इस पर मैने कहा – “सुनक्खत ! क्या मैने तुमसे  कभी कहा था कि आ तू मेरा शिष्य बन जा , मै तुम्हें सृष्टि के आरम्भ का पता बताऊंगा ?”
सुनक्खत ने कहा –” नही भगवान्‌ आपने ऐसा तो कभी नही कहा था ।”
”मैने उससे कहा कि सुनक्खत मेरे धर्म का उद्देशय सृष्टि के आरम्भ का पता बताना नही है । मेरे धर्म का उद्देशय है कि जो मेरे धर्म के अनुसार आचरण करेगा , जो मेरे धर्म को क्रियात्मक रुप से अपने ऊपर ढाल लेगा , वह अपने दुखों का नाश कर सकेगा ।”
मैने कहा – “सुनक्खत ! मेरे धर्म का उद्देशय की दृष्टि मे इसका कोई महत्व नही है कि चमत्कार दिखाया जाये या नही । सृष्टि के आरम्भ का पता बताया जाये या नही ।”

भगवान्‌ बुद्ध और पोट्‌ठपाद ब्राहमण के बीच का संवाद

एक समय भगवान्‌ बुद्ध अनाथपिण्डक के जेतवनाराम में ठहरे हुये थे । उस समय पोट्‌ठपाद परिव्राजक मल्लिका के महाप्रसाद में ठहरा हुआ था । उसका उद्देशय भगवान्‌ बुद्ध से दार्शनिक चर्चा करना था । उसके साथ करीब तीन सौ अनुयायी थे ।
पोट्‌ठपाद ने  भगवान बुद्ध से कहा – “  भगवान्‌ कृपया मुझे यह बता दें कि यह मत ठीक है कि संसार अनंत है और शेष मत मृषा है ? ”
तथागत बोले , “ पोट्‌ठपाद ! मैने यह कब कहा कि यह मत ठीक है कि संसार अनंत है और सब मत मृषा हैं ? मैनें इस विषय में कभी भी कोई मत नही दिया ।”

तब , पोट्‌ठपाद ने इसी तरह से इन सभी प्रशनों का उत्तर पूछा -
  • क्या संसार अनंत नही है ?
  • क्या संसार ससीम है ?
  • क्या संसार  असीम है ?
  • क्या आत्मा और शरीर एक ही है ?
  • क्या आत्मा और शरीर भिन्न –२ हैं ?
  • क्या तथागत मरणान्तर रहते हैं ?
  • क्या तथागत मरणान्तर नही रहते हैं ?
  • क्या वे रहते भी हैं और नही भी रहते हैं ?
और हर प्रशन के उत्तर में भगवान्‌ बुद्ध ने एक ही उत्तर दिया कि “ पोट्‌ठपाद ! मैनें इन  विषयों  में कभी भी कोई मत नही दिया है ।”
“ लेकिन तथागत ने इन विषयों में कोई भी मत क्यूं नही दिया है ? ” – पोट्‌ठपाद ने कहा ।
“ क्यूंकि इन प्रशनों का उत्तर देने से किसी को कुछ भी लाभ नही , इनका धर्म से कुछ भी संम्बन्ध नही , इनसे आदमी को आचरण सुधारने मॆ कोई भी सहायता नही मिलती , इनसे विराग नही बढता , इनसे राग- द्धेष से मुक्ति नही मिलती , इनसे शान्ति नही मिलती , इनसे शमथ लाभ नही होता और न तो यह निर्वाण की ओर अग्रसर करते हैं । इसी लिये मैने कभी भी इन विषयों पर कोई भी मत व्यक्त नही किया । ”
“ तो तथागत ने किन विषयों का व्याख्यान किया है ?  ” – पोट्‌ठपाद ने कहा ।
“ मैने बताया है कि दुख क्या है ? मैनें बताया है कि दु:ख का समुदय ( मूल कारण ) क्या है ? मैने बताया है कि दु:ख का निरोध क्या है ? मैनें बताया है कि दु:ख के निरोध ( अन्त ) का मार्ग क्या है ? ”
“ और तथागत ने इन विषयों पर व्याख्यान क्यूं दिया है ? ”
“ क्यूं की पोट्‌ठपाद ! इनसे लोगोंको लाभ है , इनका धर्म से संम्बन्ध है , इनसे आदमी को अपना आचरण सुधारने में सहायता मिलती है , इनसे विराग बढता है , इनसे राग द्धेष से मुक्ति मिलती है , इनसे शान्ति मिलती है , इनसे प्रज्ञा बढती है , और यह निर्वाण की ओर अग्रसर करते हैं । इसलिये पोट्‌ठपाद ! मैने इन विषयों का व्याख्यान दिया है । ”

सकंलन :

  • “एस धम्मो सनंतनो”- ओशो प्रवचन “ भगवान्‌ बुद्ध की देशना –धम्मपद
  • भगवान्‌ बुद्ध और उनका धर्म , लेखक डां भीमराव रामजी अम्बेड्कर , अनुवादक :डां भदन्त आनन्द कौसल्लायन

अगले भाग में : ईश्वर मॆ ( अ) विश्वास और बुद्ध धम्म

 

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