Saturday, May 15, 2010

मृत्यु एक अटल सत्य ….

life and death

चाहता हूँ , पुष्प यह

गुलदान का मेरे

न मुर्झाये कभी ,

देता रहे

सौरभ सदा

अक्षुण्ण इसका

रुप हो!

पर यह कहाँ संभव ,

कि जो है आज,

वह कल को कहाँ ?

उत्पत्ति यदि,

अवसान निशिचत!

आदि है

तो अंत भी है !

यह विवशता !

जो हमारा हो ,

उसे हम रख न पायें !

सामने अवसान हो

प्रिय वस्तु का,

हम विवश दर्शक

रहे आयें!

नियम शाशवत

आदि के,

अवसान के ,

अपवाद निशचय ही

असंभव-

शूल सा यह ज्ञान

चुभता मर्म में,

मन विकल होता!

प्राप्तियां, उपलबिधयां क्या

दीन मानव की,

कि जो

अवसान क्रम से,

आदि -क्रम से

हार जाता

काल के

रथ को

न पल भर

रोक पाता !

क्या अहं मेरा

कि जिसकी तृष्टि

मैं ही न कर पाता !

कल जब निशांत जी के ब्लाग से गुजरा तो एक बौद्ध कथा , “ पटाचारा : बुद्ध की अद्वितीय साधिका “ पर जा कर नजर रुक गयी । पटाचारा नाम की एक युवती को अल्प आयु मे अपने पति और बच्चों के साथ से वंचित रहना पडा जिस कारण उस की दशा बिल्कुल पागलों जैसी हो  गई । एक दिन जब वह बुद्ध के शरण मे पहुँची तो बुद्ध उसको समझाकर अपने अपने संघ मे शरण दी  और ध्यान और समाधि के गुण बताये । 

एक दिन स्नान करते समय उसने देखा कि देह पर पहले डाला गया पानी कुछ दूर जाकर सूख गया, फिर दूसरी बार डाला गया पानी थोड़ी और दूर जाकर सूख गया, और तीसरी बार डाला गया पानी उससे भी आगे जाकर सूख गया.

इस अत्यंत साधारण घटना में पटाचारा को समाधि क सू्त्र मिल गया. “पहली बार उड़ेले गये पानी के समान कुछ जीव अल्पायु में ही मर जाते हैं, दूसरी बार उड़ेले गये पानी के समान कुछ जीव मध्यम वयता में चल बसते हैं, और तीसरी बार उड़ेले गये पानी के जैसे कुछ जीव अंतिम वयस में मरते हैं. सभी मरते हैं. सभी अनित्य हैं”.

पूरी कथा देखें यहाँ

ऊपर उद्ध्र्त की गई यह कविता ओशो के प्रवचन ’मरो हे  जोगी मरो ’  से ली है । जीवन की यथार्थता पर प्रकाश डालती हुई । कौन  चाहता कि उसका प्रिय , उसकी आ‘ंखॊं का तारा उससे कभी दूर हो जाये । लेकिन जाना तो सभी को है । जीवन मे इतनी दौड , इतनी उपलब्धियों का हिसाब किताब सब यही का यही धरा रह जाता है । लेकिन हम सच को सच के रुप मे स्वीकार नही कर पाते । क्यूं ?

प्राप्तियां, उपलबिधयां क्या

दीन मानव की,

कि जो

अवसान क्रम से,

आदि -क्रम से

हार जाता

काल के

रथ को

न पल भर

रोक पाता !

क्या अहं मेरा

कि जिसकी तृष्टि

मैं ही न कर पाता !

 

मृत्यु एक अवसर है , हमारी उस अकडता को दूर करने का जिसमे हम समझते हैं कि हम ही सब है । इस अवसर पर  जब कोई परिजन , कोई विशेष , कोई आँखों का तारा  काल ग्रस्त हो जाये उस क्षण को रो-२ कर भुलाने की चेष्टा व्यर्थ है । यह समय है जागने का जीवन को स्वीकार करने का ।

पर यह कहाँ संभव ,

कि जो है आज,

वह कल को कहाँ ?

उत्पत्ति यदि,

अवसान निशिचत!

आदि है

तो अंत भी है !

एक सुबह बुद्ध एक गाँव मे अय़ॆ । उस विधवा स्त्री का इकलौता बेटा मर गया था । पति तो पहले ही मर चुका था । उस स्त्री  की हालत बिल्कुल पागलॊ जैसी हो गई थी । किसी ने उससे कहा : पागल औरत अब रोने धोने से क्या लाभ , मृत्यु तो हो चुकी है , अब कोई चमत्कार ही बचा सकता है ।

उस स्त्री को जैसे डूबते को तिनके का सहार मिल  गया । उसने सुना कि गाँव मे गौतम बुद्ध आयें हुये है , वह परम सिद्ध है . चमत्कार भी कर सकते हैं ।  भागी स्त्री , जाकर लाश को  बुद्ध के चरणॊं मे रख दिया । बुद्ध ने कहा : ठीक तू चाहती है कि तेरा बेटा जीवित हो जाये । होगा , जरुर होगा , लेकिन कुछ शर्तें पूरी करनी होगी ।तू जा  गाँव मे और मेथी के थोडॆ से दाने माँग क्लर ले आ । लेकिन ध्यान रखना कि मेथी उस घर से लाना जिस घर मे कभी कोई मृत्यु न हुई हो ।

वह भागी स्त्री … पागलपन मे आदमी सब कुछ भरोसा कर लेता है । वह एक-२ दरवाजे   पर गई । लोगों ने कगा , जितनी मेथी चाहिये उतनी ले जा । मेथी का ही गाँव था , उसी की खेती होती थी । तेरे घर भी मेथी है , तू क्यूं मागंती फ़िरती है ।

उसने कहा : ऐसे घर की मेथी चाहिये जिस्घर मे कोई मरा न हो । साँझ होते-२ उसके मन मे यह बात साफ़ हो गई कि ऐसा कोई घर गाँव मे नही है जहाँ कोई मृउ न हुई हो ।

जब वह लौटी साँझ तो बुद्ध ने पूछा ले आई दाने तो वह हंसने लगी और बुद्ध के चरणॊं मे गिर पडी ।उसने कहा कि इसके पहले मेरी मौता आ जाये मुझे दीक्षा दो , मै भी जीवन का अर्थ जान लूं ।

2 comments:

  1. चिंतन जी, आपने इस ब्लौग को ब्लौग वाणी पर रजिस्टर नहीं करवाया है. वहां रजिस्टर कर लेने से आपके ब्लौग को बहुत से गुणी पाठक मिलेंगे.

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