कुरु देश में मागंदिय नाम का अग्निपूजक ब्राह्मण रहता था। मागंदिया उसकी एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी। मागंदिय ने अपनी कन्या के लिए वर की बहुत खोज की, परन्तु योग्य वर न मिला। बड़े-बड़े कुलों से कन्या की मँगनी आयी, लेकिन मागंदिया को वर पसन्द न आया।
एक दिन बुद्ध भगवान् प्रातःकाल अपना पात्र और चीवर लेकर नगर के बाहर ब्राह्मण के अग्नि-स्थान के पास खड़े हुए।
बुद्ध को देख ब्राह्मण ने सोचा- इसके समान किसी अन्य पुरुष का मिलना दुर्लभ है। मैं क्यों न इसके साथ अपनी कन्या की शादी कर दूँ ?
ब्राह्मण ने भगवान् से निवेदन किया-‘‘हे श्रमण ! मैंने अपनी कन्या के लिए वर की बहुत खोज की, मगर कोई वर न मिला। बड़े भाग्य से आप मिले हैं। मागंदिया बहुत रूपवती है। वह सचमुच आपके चरणों की दासी बनने योग्य है।’’
इतना कह ब्राह्मण अपनी कन्या को लाने के लिए चल दिया। बुद्ध को वह वहीं ठहरने के लिए कहता गया।
जल्दी-जल्दी घर पहुँच ब्राह्मण अपनी पत्नी से बोला-‘‘भद्रे ! कन्या के लिए वर मिल गया है। जल्दी करो, वस्त्राभूषणों से सज्जित कर मागंदिया को ले चलो।’’
नगर के लोगों को जब मालूम हुआ कि मागंदिया को अपनी कन्या के लिए वर मिल गया है तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। वे भी ब्राह्मण के साथ-साथ वर देखने चले।
बुद्ध उस स्थान को छोड़कर अन्यत्र गमन कर गये थे। अतः ब्राह्मणी को जब वहाँ कोई न दिखायी दिया तो उसने ब्राह्मण से जिज्ञासा व्यक्त की। ब्राह्मण बोला-‘‘मैं तो उससे यहीं रुकने को कह गया था, किन्तु वह न जाने कहाँ चला गया !’’
इधर-उधर ढूँढ़ने के बाद ब्राह्मण को बुद्ध के पद-चिह्न दिखाई दिये। ब्राह्मणी लक्षणशास्त्र की पण्डित और तीनों वेदों में पारंगत थी। उसने लक्षण विचारकर कहा कि ये पद-चिह्न किसी विषयभोगी के नहीं, किसी तपस्वी के जान पड़ते हैं।
ब्राह्मण को बहुत ग़ुस्सा आया। उसने अपनी पत्नी से कहा-‘‘ब्राह्मणी ! तुम्हें हमेशा पानी में मगर और घर में चोर दिखाई देते हैं। तुम्हें कुछ कहने-सुनने की ज़रूरत नहीं।’’
ब्राह्मणी ने उत्तर दिया-‘‘आप चाहे जो कहें, ये पैर किसी विषयभोगी के नहीं हो सकते।’’
ब्राह्मण ने बुद्ध को दूर से देख ब्राह्मणी से कहा-‘‘देखो, देखो, वह है मागंदिया का वर !’’ और तीर की तरह बुद्ध के पास जाकर बोला-‘‘हे भिक्षु ! मैं आपकी सेवा में अपनी कन्या समर्पित करता हूँ।’’
बुद्ध ने कोई उत्तर न देकर ब्राह्मण से कहा-‘‘देखो ब्राह्मण ! अपने महाभिनिष्क्रमण के समय से लगाकर अजापालनिग्रोध वृक्ष के नीचे बोधि प्राप्त करने तक कामदेव ने मुझे कितने कष्ट दिये ! कितना सताया ! जब वह मेरा कुछ न बिगाड़ सका तो एक दिन वह उदास होकर बैठा था कि इतने में उसकी कन्याएँ वहाँ आयीं और उसे सान्त्वना देकर कहने लगीं-‘‘पिताजी, आप क्यों चिन्ता करते हैं। आज्ञा हो तो हम बुद्ध का ध्यान भंग करें।’ लेकिन हे ब्राह्मण ! विषय-भोगों के प्रति मेरी तनिक भी कामना नहीं। यह शरीर मल-मूत्र का भण्डार है। मैं इसका स्पर्श तक करना नहीं चाहता।’’
बुद्ध की बातें सुनकर ब्राह्मण-कन्या मागंदिया को बहुत बुरा लगा। उसने सोचा-यदि इस भिक्षु को मेरी आवश्यकता नहीं तो कोई बात नहीं, लेकिन यह मेरा अपमान क्यों करता है ? मैं अच्छे कुल में पैदा हुई हूँ, भोग-विलास की मुझे कमी नहीं, सौन्दर्य मेरे चरणों में लोटता है, निस्सन्देह मैं योग्य पति पाऊँगी। फिर यह भिक्षु मुझे इस तरह के वचन क्यों कहता है ? मैं बदला लिये बिना न रहूँगी।
दिन जाते देर नहीं लगती। कुछ समय के बाद मागंदिया के माता-पिता ने अपने भाई चुल्ल मागंदिय को अपनी कन्या सौंपकर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली।
चुल्ल मागंदिय ने सोचा मागंदिया को किसी राजा की रानी बनना चाहिए। वस्त्राभूषणों से सजाकर वह उसे कौशाम्बी ले गया और राजा उदयन के साथ विवाह कर दिया।
राजा उदयन मागंदिया को बहुत चाहता था। उसने उसे पटरानी के पद पर अभिषिक्त कर दिया। पाँच सौ दासियाँ उसकी सेवा में रहने लगीं।
एक बार रानी मागंदिया अपने महल से उतरकर घूम रही थीं। पता लगा कि श्रमण गौतम कौशाम्बी आ रहा है। उसने नगर वासियों को प्रलोभन देकर आदेश दिया कि जब श्रमण गौतम नगरी में प्रवेश करें तो वे अपने नौकर-चाकर के साथ मिलकर उसे अपशब्द कह नगर से निकाल दें।
बुद्ध ने नगर में प्रवेश किया तो लोग उन्हें चोर, मूर्ख, ऊँट, बैल, गधा, नारकी, पशु आदि शब्दों से सम्बोधित कर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर कहने लगे-‘‘याद रख श्रमण, तुझे अच्छी गति मिलनेवाली नहीं। तू मरकर दुर्गति को प्राप्त होगा !’’
नगरवासियों के ये वचन सुनकर भगवान् के प्रिय शिष्य आनन्द ने बुद्ध से कहा-‘‘भन्ते ! ये नागरिक हमें अपशब्द कहते हैं। चलिए कहीं अन्यत्र चलकर रहें।’’
बुद्ध-आनन्द, कहाँ जाना चाहते हो ?
आनन्द-किसी दूसरे नगर में ! बुद्ध-यदि वहाँ भी लोगों ने अपशब्द कहे तो कहाँ जाओगे ? आनन्द-अन्यत्र कहीं ! बुद्ध-अगर वहाँ के लोगों ने भी ऐसा बर्ताव किया ? आनन्द-भन्ते, वहाँ से अन्यत्र चले जाएँगे ! बुद्ध-आनन्द, यह ठीक नहीं ! देखो, जहाँ लोकापवाद होता हो, वह जब तक शान्त न हो जाये, तब तक, उस नगर को छोड़कर अन्यत्र नहीं जाना चाहिए। तथा आनन्द, जानते हो अपवाद करने वाले लोग कौन हैं ? आनन्द-भन्ते, नौकर-चाकर तक हमें अपशब्द कहते हैं ! बुद्ध-देखो आनन्द, मैं संग्राम में आगे बढ़े हुए हाथी के समान निश्चल हूँ ! यदि चारों दिशाओं से हाथी को तीर आकर लगें तो वीरतापूर्वक डटे खड़े रहना चाहिए। इसी प्रकार अनेक दुष्ट पुरुषों के अपवाद को सहन करना मेरा कर्तव्य है। याद रखो आनन्द, वश में किये हुए खच्चर, सिन्धु देश के घो़ड़े तथा जंगली हाथी उत्तम समझे जाते हैं, लेकिन इन सबसे उत्तम वह है जो अपने आपको वश में रखता है !
Sunday, August 8, 2010
लोक-अपवाद को जीतना
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
बहुत सुंदर चिंतन. धन्यवाद
ReplyDelete