बुद्ध ने मानवमात्र के बहुत से पक्षों और शाशवत सरोकारों को सम्बोधित किया है . इनमें से अधिकतर उनके द्वारा दी गई देशनाऒं से सम्बधित है जो उनके अनुयायियों , भिक्षुकों और जिज्ञासुओ को समय-२ पर दी गई हैं . अन्य धर्मों की हठीली प्रकृति के विपरीत बुद्ध धम्म व्यवहारिक सादगी पर प्रकाश डालता है .
लेकिन बुद्ध भौतिक कल्याण के साथ चार आवशयक आध्यात्मिक कल्याणॊं के साधन संलग्न करते हैं : विशवास , शील , उदारता और प्रज्ञा जिनके पालन के साथ सामाजिक विसंगतियाँ भी कम होगीं और भौतिक और अध्यात्मिक निर्देशों का पालन से समाज में आर्दश नागरिक का निर्माण भी होगा .
व्यग्धपज्ज सुत
ऐसा सुना जाता है :
एक समय भगवान बुद्ध कोलिय प्रदेश के कर्करपत्र नामक कोलियाँ के एक निगम मे विहार करते थे . तब दीघजानु नामक कोलियपुत्र भगवान के किकट आया और नमन करके एक ओर बैठ गया और भगवान बुद्ध को सम्बोधित किया :
"भन्ते ! हम गृहस्थजन काम भोगों मे लिप्त रहने वाले , पुत्र पौत्रों की भीड मे अपनी जीवन यात्रा करते रहते हैं . माला , गन्ध-विच्छॆदन करना , काशी के चन्दन का लेप , और सोने चाँदी का संग्रह करना ही हमारा जीवन लक्षय बन गया है . हम जैसे लोगों के लिये भी भन्ते आप ऐसे धम्म की देशना करें जिस का आचरण करके हमारा यह जन्म और परलोक भी सुतकर और हितकर हो . ”
भगवान बुद्ध ने उत्तर दिया :
“ एक गृहस्थ के जीवन मे मंगल और सुख के लिये चार साधन व्यग्धपज्ज साहायक होते हैं . यह चार साधन हैं :
“ सतत प्रयास की उपल्ब्धि ( उत्थानपाद – सम्पदा ), उपलब्ध की रक्षा ( आरक्ष-सम्पदा ) , अच्छी मित्रता ( कल्याण मित्रता ) तथा संतुलित जीविका ( समजीविता ) .”
व्यग्धपज्ज : “ निरतंर प्रयास की उपल्ब्धि ( उत्थानपाद – सम्पदा ) क्या है , भन्ते ! ”
“ इसमें व्यधपज्ज जिस किसी काम से गृहस्थ आजीविका अर्जित करता है चाहे खेती से , धनुर्विधा से , पशुपालन से , राजा की नौकरी से उसमें उसको पारंगत होना चाहिये और आलस्य न करना चाहिये . उसको अपने कार्य के उचित तौर तरीके जानने चाहिये और अपने कार्य मे निपुणता और दक्षता उत्पन्न करनी चाहिये .यह निरतंर प्रयास की उपल्ब्धि ( उत्थानपाद – सम्पदा ) कहलाती है .’”
व्यग्धपज्ज : “ भन्ते ! आरक्ष-सम्पदा क्या है ? ”
“इसमें ,व्यधपज्ज , जो सम्मपति एक गृहस्थ द्वारा मेहनत , ईमानदारी और सही तरीकों से कमाई गई होती है , उसे वह ऐसा देखभाल करके ऐसा संचालन करता है , ताकि राजा उसको हडप न ले , चोर उसे चुरा न सके , आग उसे जला न सके , पानी उसे बहा न दे और न ही भटके हुये उत्तराधिकारी उसे ले उडॆं . यह आरक्ष-सम्पदा है .”
व्यग्धपज्ज : “भन्ते !! कल्याण मित्रता क्या है ? ”
“इसमें ,व्यधपज्ज , जिस किसी ग्राम या शहर मे गृहस्थ रहता है , वह जुडता है , बातचीत करता है , अन्य गृहस्थों या उनके पुत्रों के साथ बहस करता है ,चाहे चाहे वह वृद्ध या युवा तथा सुसंस्कृत हों , श्रद्धा सम्पन्न , शील कुशलता से पूर्ण हों ,त्याग और बुद्धि से सम्पन्न हों . वह श्रद्धालुओं की श्रद्धा के अनुसार कार्य करता है , शीलवानों के शील के साथ , त्यागियों के त्याग के साथ , प्रज्ञावानों की प्रज्ञा के साथ . यह कल्याण मित्रता कहलाती है .”
व्यग्धपज्ज: “भन्ते !! समजीविता क्या है ? ”
“
यहाँ
पर व्यग्धपज्ज , एक गृहस्थ अपनी आय तथा व्यय जानते हुये एक संतुलित जीवन यापन करता है , न फ़िजूलखर्ची न कंजूसी , यह जानते हुये कि उसका आय व्यय से बढकर रहेगी , न कि उसका व्यय आय से बढकर .
“ जैसे कि एक तुलाधर सुनार , या उसका शार्गिद तराजू पकडकर जानता है कि कितना झुक गया है , कितना उठ गया है ,उस प्रकार एक गृहस्थ अपनी आय तथा व्यय को जान कर संतुलित जीवन जीता है , न वह बेहद खर्चीला न बेहद कंजूस , इस प्रकार समझते हुये कि उसकी आय व्यय से बढकर रहेगी न कि उसका व्यय आय से अधिक होगा .”
“ व्यग्धपज्ज , यदि एक गृहस्थ कम आय वाला खर्चीला जीवन व्यतीत करेगा , तो लोग उसे कहेगें , ’ यह च्यक्ति अपनी सम्पत्ति का ऐसे आनन्द ले रहा है जैसे कोई बेल फ़ल खाता है . ’ , यदि व्यग्धपज्ज , एक प्रचुर आय वाला गृहस्थ कंजूसी का जीवन व्यतीत करेगा तो लोग कहेगें कि ’ यह व्यक्ति भुक्खड की तरह मरेगा ’ .”
“ इस प्रकार संचित धन सम्म्पति , व्यग्धपज्ज , चार प्रकार से नाश होती है :
“ १- अधिक भोग विलास
२- मदिरापान की लत
३- जुआ
४- पापी लोगों से दोस्ती , संगति तथा सांठ- गांठ . “
“ जैसे कि एक बडे तालाब मे चार जल प्रवेश तथा चार जल निकास के रास्ते हों , यदि कोई व्यक्ति प्रवेश मार्ग बन्द कर दे तथा निकास मार्ग खोल दे तथा काफ़ी वर्षा न हो , तो तालाब में जल की कमी की उम्मीद रहेगी लेकिन वृद्दि की नही ; वैसे ही संचित सम्म्पति के विनाश के लिये चार रास्ते हैं - अधिक भोग विलास , मदिरापान की लत, जुआ और पापी लोगों से दोस्ती , संगति तथा सांठ- गांठ .
“
जमा पूंजी की समृद्दि के चार मार्ग हैं :
१.- काम भोगों मे संयम
२- मदिरापान मे संयम
३- जुये मे रत न होना
४- अच्छे लोगों से मित्रता , संगति तथा सांठ-गांठ .”
“ जैसे कि एक बडा तालाब हो, जिसमें चार प्रवेश तथा चार निकास हों . यदि कोई व्यक्ति प्रवेश खोल दे तथा निकास बद कर दे और बारिश भी खूब हो जाये , तो उस तालाब मे अवशय ही जल बढने की संभावना रहेगी तथा घटने की नहीं , इसी प्रकार ये चार बातें जमा पूँजी की वृद्दि के स्त्रोत हैं . ”
“ ये चार बातें व्यग्धपज्ज , एक गृहस्थ के इसी जीवन काल मे कल्याण तथा प्रसन्नता में सहायक हैं . ”
“ आध्यात्मिक विकास के साधन ”
“ इसके अतिरिक्त व्यग्धपज्ज एक गृहस्थ के कल्याण के लिये चार बातें आवाशय्क है :
१. श्रद्धा की उपल्ब्धि ( श्रद्धा सम्पदा )
२. शीलों की उपल्ब्धि ( शील सम्पदा )
३. त्याग की उपलब्धि ( त्याग सम्पदा )
४. प्रज्ञा की उपल्ब्धि ( प्रज्ञा सम्पदा )
व्यग्धपज्ज: “भन्ते !! श्रद्धा की उपल्ब्धि क्या है ?
“ इसमें एक गृहस्थ श्रद्धा सम्पन्न होता है , वह समयक सम्बुद्ध तथागत की बुद्धत्व उपल्ब्धि मे आशवस्त होता है ; यथातथ्य वे सम्युक बुद्ध है , पूर्णतया ज्ञान प्राप्त , विधा तथा आचरणॊं से सम्पन्न , सुगत , लोकों को जानने वाले , सिखाये जाने योग्य मनुष्यों के नायक , देव तथा मनुष्यों के गुरु , सर्वज्ञ तथा धन्य है . इसे कहते हैं श्रद्धा सम्पदा .”
व्यग्धपज्ज: “भन्ते !! शीलों की उपल्ब्धि क्या है ?
“ इसमे एक गृहस्थ प्राणी हत्या से , चोरी से , यौन मिथ्याचार से , झूठ बोलने से तथा नशीले पदार्थ से जो स्मऋतिनाश तथा प्रमाद उत्पन्न करते हैं – विरत रहता है . यह कहलाता है शील सम्पदा
व्यग्धपज्ज: “भन्ते !! त्याग की उपलब्धि क्या है ?
“इसमें एक गृहस्थ अपने को चित्तमलों तथा धन लोलोपता से मुक्त रख कर घर मे रहता है, त्याग मे संलग्न, मुक्त हस्त . उदारता मे आनन्दित, जरुरतमदॊं की सहायता करने वाला , दान दक्षिणा मे प्रसन्न . यह कहलाता है – त्याग सम्पदा .”
व्यग्धपज्ज: “भन्ते !!प्रज्ञा की उपल्ब्धि क्या है ?
“ इसमॆ एक गृहस्थ जो प्रज्ञावान है ; वह ऐसी प्रज्ञा से सम्पन्न है , पंच स्कन्धों की उत्पति तथा लय को समझता है ; वह आर्य विपस्सना से सम्पन्न है ; जो दु:ख विमुक्ति का लाभ देती है . इसे कहते हैं प्रज्ञा की उपलब्धि –प्रज्ञा सम्पदा .”
“ यह चार बातें ;व्यधपज्ज ,एक गृहस्थ के अगले जन्मों कल्याण और प्रसन्नता के लिये सहायक हैं .”
अपने कर्तव्यों को ध्यान तथा मेहनत से करने वाला,
बुद्धिमानी से धन संचय करने वाला,
वह संतुलित जीवन च्यतीत करता है ,
संचित का संरक्षण करते हुये ।
श्रद्धा तथा शील से भी सम्पन्न ,
उदार तथा धन्लोलुपताविहीन,
सदा पथ शोधन को प्रवृत,
जो परलोक मे कल्याण्कर है।
यूँ श्रद्धा से ओत-प्रोत गृहस्थ को,
उनके द्वारा , जिनका ’सम्यक सम्बुद्ध ’ समुचित नाम है,
यह आथ बाते बताई गई हैं ,
जो लोक और परलोक मे आनन्दकर है । “
अंगुतर निकाय VIII.54 (
Dighajanu (Vyagghapajja) Sutta: Conditions of Welfare , translated from the Pali by
Narada Thera का हिन्दी अनुवाद :
मंगलमय जीवन –शांति , प्रसन्नता एवं समृद्दि की कुजीं से लिया गया है । साभार : राजेश चन्द्रा जी । )