अलवी गांव से आगे बढते हुये बुद्ध गंगा के किनारे उत्तर पशिचम में कौशम्बी की ओर चल पडे । वह रास्ते मे थोडी देर तक रुककर धारा मे बहते हुये काष्ठ खंडॊ को देखने लगे । उन्होनें अन्य भिक्खुओं को बुला कर काष्ठ खंडॊं को दिखाते हुये कहा , “ भिक्खुओं यदि यह काष्ठ खंड कहीं किनारे पर रुक न जायें , कही रेत में धंस न जायें , या वे भीतर से सड न जायें , यदि इन्हें बीच में से उठा न लिया जाये या वे किसी भंवर में न फ़ंसे तो ये बहते हुये सीधे समुद्र तक चले जायेगें । यही बात आपके लिये धर्म पथ पर भी लागू होती है । यदि तुम कही रेत में फ़ंसों , यदि उम उठा न लिये जाओ, यदि तुम डूबो नही , यदि तुम रेत मे न फ़ंसों , यदि तुम उठा न लिये जाओ , यदि तुम भंवर में न फ़ंसो , या तुम ही भीतर से सडने न लग जाओ तो तुम भी आत्म जागृति और मुक्ति के सागर तक पहुंच सकते हो ।
भिक्खुओ ने कहा , “ गुरुदेव , कृपया अपने कथन को पूर्णतया स्पष्ट करने का अनुग्रह करे । किनारे रुक जाने , डूब जाने , या रेत में धंस जाने से आपका तात्पर्य क्या है ? ”
बुद्ध ने उत्त्तर देते हुये कहा , “ नदी के किनारे रुक जाने का अर्थ है – छ: इंद्रियों और उनके विषयों में फ़ंस जाना ।
डूब जाने का अर्थ इच्छा – आकांक्षाओं का दास हो जाना है जिससे आपकी साधना की क्षमता का क्षरण हो जाता है ।
रेत मे फ़ंस जाने का अर्थ है स्वार्थी हो जाना , सदैव अपनी ही इच्छाओं , अपने ही लाभ की और अपनी प्रतिष्ठा की बात सोचना और आत्म जागृति के लक्ष्य को भूल जाना ।
जल से निकल लिये जाने का अर्थ है – साधना अभ्यास के स्थान पर स्वंय को निरुदेशय बना लेना और घटिया लोगों की संगति में घूमते फ़िरते रहना ।
भंवर मे फ़ंसे रहने का अर्थ है – पांच प्रकार की इच्छाओं –सुस्वादु भोजन , विषय वासना , वित्तेषणा , यशेषणा , और निद्रा में फ़ंसे रहना ।
भीतर से सडने का अर्थ है – दिखावे के सदगुणॊं वाला जीवन जीना , संघ को धोखा देना और धर्म को अपनी इछ्छाओं और आंकाक्षाओं की पूर्ति के लिये प्रयोग करना ।”
“ भिक्खुओं यदि आप लोग परिश्रमपूर्वक साधना करो तो इन छ: भ्रमजालों मे न फ़ंसो तो निशिचित ही संबोधि( निर्वाण शांतम ) का फ़ल प्राप्त कर सकते हो ; ठीक उसी प्रकार जिस तरह बहता काष्ठ खंड सभी बाधाओं से बचता हुआ समुद्र तक पंहुच जाता है । ”
स्त्रोत : संयुक्त निकाय –ति न्यात हन्ह द्वारा लिखित “जंह जंह चरन परे गौतम के ”