Friday, July 13, 2012

ध्यानपूर्ण मन….

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ध्यानपूर्ण मन शांत होता है। यह मौन विचार की कल्पना और समझ से परे है। यह मौन किसी निस्तब्ध संध्या की नीरवता भी नहीं है। विचार जब अपने सारे अनुभवों, शब्दों और प्रतिमाओं सहित पूर्णत: विदा हो जाता है, तभी इस मौन का जन्म होता है। यह ध्यानपूर्ण मन ही धार्मिक मन है-धर्म, जिसे कोई मंदिर, गिरजाघर या भजन-कीर्तन छू भी नहीं पाता।
धार्मिक मन प्रेम का विस्फोटक है। यह प्रेम किसी भी अलगाव को नहीं जानता। इसके लिए दूर निकट है। यह न एक है न अनेक, अपितु यह प्रेम की अवस्था है जिसमें सारा विभाजन समाप्त हो चुका होता है। सौंदर्य की तरह उसे भी शब्दों के द्वारा नहीं मापा जा सकता। इस मौन से ही एक ध्यानपूर्ण मन का सारा क्रियाकलाप जन्म लेता है।
ध्यान जीवन की महानतम कलाओं में से एक है- बल्कि शायद यही महानतम् कला है। यह कला संभवत: दूसरे से नहीं सीखी जा सकती-और यही इसका सौन्दर्य है। ध्यान की कोई तकनीक और तरकीब नहीं होती, इसलिए इसका कोई अधिकारी और दावेदार भी नहीं होता। जब आप स्वयं का निरीक्षण करते हुए अपने बारे में सीखते हैं, अर्थात् किस तरह आप खाते-पीते हैं, किस ढंग से आप चलते-फिरते हैं, क्या बातचीत और गपशप करते हैं, आपका ईर्ष्या करना, नफरत करना-जब आप अपने भीतर और बाहर इन सारी चीज़ों के प्रति सचेत होते हैं, बिना किसी कांट-छांट के, तो यह ध्यान का ही अंग है।
और यह ध्यान हर जगह हर समय हो सकता है: जब आप किसी बस में बैठे हों या जब आप धूप और छाया से परिपूर्ण किसी वनस्थली में टहल रहे हों या जब आप पक्षियों के कलरव-गान को सुन रहे हों या जब आप अपनी पत्नी या अपने बच्चे के चेहरे को देख रहे हों।
ध्यान का सहसा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हो जाना कितना अद्भुत और विचित्र है ! ध्यान-जिसका न आदि है न अन्त। यह वर्षा की एक बूँद के समान है। इसी बूंद में छिपी हैं सारी की सारी नदियां और जलधाराएं, इसी में समाये हैं बड़े से बड़े समुद्र और जल-प्रपात। जल की यह बूँद पृथ्वी को भी पोषण देती है और मानव को भी। इसके बिना तो यह धरती रेगिस्तान बन जाती ! ध्यान के बिना हमारा हृदय भी ऊसर-बंजर मरुस्थल हो जाता है।
ध्यान का अर्थ यह पता लगाना है कि अपनी सारी गतिविधियों और अपने सारे अनुभवों समेत मस्तिष्क क्या पूर्णत: शान्त हो सकता है। बाध्य होकर नहीं, क्योंकि जिस क्षण आप इसे बाध्य करते हैं, फिर से द्वैत आ खड़ा होता है, और वह सत्ता भी, जो कहती है, ‘‘अद्भुत अनुभूतियों के जगत में प्रवेश के लिए मुझे अपने मस्तिष्क को नियंत्रित कर शान्त कर लेना चाहिए’’-ऐसा कभी संभव नहीं होगा।
लेकिन अगर आप विचार की सारी खोजों और गतिविधियों को, इसके भय, सुखों और संस्कारों को देखने, सुनने और समझने लग जायें, अगर आप अपने मस्तिष्क का निरीक्षण करने लग जायें कि यह किस तरह कार्य करता है, तो आप देखेंगे कि मस्तिष्क असाधारण रूप से शान्त, मौन हो जाता है। यह शांति निद्रा नहीं है बल्कि यह प्रचंड रूप से सक्रिय है और इसलिए शांत है। विद्युत उत्पन्न करने वाला एक बड़ा यंत्र जब अच्छी तरह कार्य करता है तो इससे शायद ही कोई ध्वनि निकलती हो। ध्वनि और शोर-गुल तभी पैदा होता है जब कहीं घर्षण होता है।
मौन और विस्तार का आपसी मेल है। मौन की अनंतता वह अनंतता है जिसके भीतर का केन्द्र मिट चुका है।
जे. कृष्णमूर्ति

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